Why Should You Read This Summary?
फलसहित दैवीय और आसुरी संपदा का कथन
श्लोक 1 :
श्री भगवान् बोले, “भय का सर्वथा अभाव, अंतःकरण की अत्यंत शुद्धि, ज्ञान के लिए योग में दृढ़ स्थिति, सात्विक दान, इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य पालन के लिए कष्ट सहना और शरीर-मन-वाणी की सरलता. अहिंसा, सत्य बोलना, क्रोध ना करना, आसक्ति और कर्तापन के अभिमान का त्याग, चुगली ना करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में ना ललचाना, कोमलता, लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव.”
अर्थ – इस अध्याय के पहले श्लोक में भगवान् उस भाव और व्यवहार के बारे में बता रहे हैं जो दैवीय संपदा वाले मनुष्यों में होते हैं. मनुष्य दो तरह के होते हैं – दैवीय संपदा वाले और आसुरी संपदा वाले अर्थात एक आत्मा जो दैवीय गुणों को धारण करती है और दूसरी जो इसके विपरीत आसुरी गुणों को धारण कर लेती है.
इसे पॉजिटिव और नेगेटिव एनर्जी के रूप में भी समझा जा सकता है. जब मनुष्य के मन में सिर्फ़ परमात्मा का ही ध्यान रह जाता है तो उसमें अपने आप दैवीय गुण उभरने लगते हैं यानी उसकी एनर्जी पॉजिटिव होने लगती है और ऊपर के चक्रों की ओर जाने लगती है क्योंकि आत्मा जब परमात्मा को याद करती है तो आत्मा और परमात्मा के बीच मनोवैज्ञानिक रूप से energetic contact बन जाता है और एनर्जी का बहाव क्योंकि ऊपर से नीचे की ओर होता है तो परमात्मा की शक्तियां और गुण दैवीय गुणों के रूप में आत्मा में समाने लगते हैं.
भगवान् यहाँ उन्हीं लक्षणों के बारे में बता रहे हैं. जब मनुष्य संसार से ना जुड़कर ख़ुद के साथ जुड़ने लगे तो उसे दैवीय संपदा कहा जाता है. ख़ुद के साथ जुड़ना अर्थात स्व के भाव में टिकना, आत्मा के भाव में टिकना. पहले भगवान् कहते हैं कि ऐसा भक्त अभय हो जाता है यानी जब मनुष्य इस बात का अनुभव कर लेता है कि वो अविनाशी परमात्मा का अंश है जो कभी नष्ट नहीं होने वाला है तो फ़िर डर किस बात का?
ये भाव उसे बेख़ौफ़ बना देता है जिस वजह से वो बिना किसी डर के खुलकर जीवन जीने लगता है. भगवान् के साथ संबंध जोड़ने पर मनुष्य का इस शरीर, परिवार और संसार से मोह ख़त्म हो जाता है. मोह ना रह जाने से उसके मन में मरने का डर और अपने परिवार और संपत्ति के प्रति जो लगाव होता है वो सभी नष्ट हो जाते हैं इसलिए वो अभय हो जाता है यानी डर से ऊपर उठ जाता है.
दैवीय संपदा का दूसरा लक्षण है चित्त की शुद्धता यानी मन का शुद्ध और पवित्र होना. जब संसार से राग हटकर भगवान् से अनुराग हो जाए तो उसे मन की शुद्धि कहते हैं. जब मनुष्य का विचार, भाव, लक्ष्य सिर्फ़ परमात्मा को पाना हो तब मन शुद्ध हो जाता है क्योंकि संसार की नाशवान चीज़ों को पाने की इच्छा ही मन में लोभ, मोह, छल-कपट, राग-द्वेष आदि को जन्म देती है जिससे मन मैला होने लगता है इसलिए भगवान् निष्काम कर्म की बात कहते आए हैं ताकि मनुष्य के चित्त की सफ़ाई होती रहे और नए कर्म फल ही ना बनें.
तीसरा लक्षण है, लगातार अपने आत्म भाव में टिके रहना और प्रकृति –पुरुष के बारे में सत्य जानने की रूचि होना. ऐसे मनुष्यों में परमात्मा, प्रकृति और आत्मा जो जानने की गहरी रूचि होती है.
चौथा, दान का भाव होना यानी ऐसे मनुष्यों में धन दौलत को सिर्फ़ अपने लिए इकट्ठा करने के बजाय उसे भलाई के लिए दूसरों के साथ बाँटने का भाव होता है लेकिन अक्सर होता ये है कि स्वार्थ और लालच के कारण मनुष्य में सिर्फ़ लेने का भाव होता है, ये आसुरी संपदा का लक्षण है. आसुरी संपदा यानी संसार की ओर आकर्षण होना, उसकी चीज़ों को भोगने की कामना होना, इसमें मनुष्य की एनर्जी नीचे के चक्रों में जाने लगती है इसलिए गंदी और नेगेटिव होने लगती है. देने का भाव मनुष्य को दैवीय गुण देता है
क्योंकि दान का भाव मनुष्य के दिल को खोलता है, उसे बड़ा करता है और खुला हुआ दिल ही उसे परमात्मा से जोड़ सकता है. इसलिए मंदिरों में जब भी हम देवी देवताओं की मूर्ती देखते हैं तो उनके हाथों की मुद्रा हमेशा देने वाली होती है, नाकि लेने वाली, इसलिए वे देव और देवी कहलाते हैं.