Why Should You Read This Summary?
अध्याय 12- भक्तियोग
साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय
श्लोक 1:
अर्जुन बोले, “जो भक्त आपके रूप की निरंतर उपासना करते हैं और अन्य जो अवयक्त अविनाशी ब्रह्म को भजते हैं, उन दोनों में अति उत्तम योग्वेत्ता कौन हैं?”
अर्थ – अर्जुन पहले श्लोक में भगवान् से पूछ रहे हैं कि दो तरह के भक्त होते हैं, एक वो जो भगवान् के साकार रूप को पूजते हैं यानी जो दिखाई देते हैं और दूसरे जो उनके निराकार रूप को पूजते हैं यानी उस रूप को जिन्हें देखा नहीं जा सकता, तो उनमें से श्रेष्ठ कौन हैं.
श्लोक २:
श्री भगवान् बोले, “मुझमें मन को स्थिर करके निरंतर मेरे ध्यान में लगे जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त मेरी उपासना करते हैं वे योगी मुझे अति उत्तम मान्य हैं.”
अर्थ – पहले भगवान् उन भक्तों के बारे में बता रहे हैं जो उनके साकार रूप यानी विष्णु जी के चतुर्भुज रूप की पूजा करते हैं. साकार भक्ति में भी भगवान् तीन बातें कहते हैं –
१. मुझमें मन को टिकाना – यानी मन को भगवान् के साकार रूप में लगाना और इतनी गहराई से लगाना कि मन, बुद्धि में किसी और चीज़ के लिए कोई जगह ही ना रह जाए.
२. मन को लगातार उनके ध्यान में लगाना - पूजा करते समय मनुष्य में सेल्फ कंट्रोल होना चाहिए क्योंकि उसका चंचल मन इधर उधर भागने की कोशिश करता है, इसलिए सेल्फ कंट्रोल का होना बहुत ज़रूरी है. पूजा करने का मतलब होता है हर मोह, लगाव और वासनाओं से मुक्त होकर पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ भगवान् को याद करना. इस स्थिति में मनुष्य इतने गहरे ध्यान में होता है कि वो अपनी सुधबुध खो देता है और उसके मन में केवल भगवान् का ध्यान ही बना रहता है.
३. परम श्रद्धा से युक्त होकर भक्ति करे – परम श्रद्धा यानी पूरा विश्वास होना. श्रद्धा एक ऐसा भाव है जो मनुष्य के दिल से जन्म लेता है, इसमें भाव प्रधान होता है इसलिए भक्ति में श्रद्धा का होना बहुत ज़रूरी है.
तो भगवान् कहते हैं कि जो भी मनुष्य इन तीनों बातों को पूरा करता है उसे भगवान अपना सच्चा भक्त मानते हैं क्योंकि ऐसा भक्त हमेशा भगवान् को याद करता है इसलिए ऐसे भक्त अति श्रेष्ठ होते हैं.