“मुंशी इंद्रमणि की आमदनी कम थी और खर्च ज्यादा। अपने बच्चे के लिए दाई का खर्च न उठा सकते थे। लेकिन एक तो बच्चे की परवरिश की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबरवालों से नीचे बन कर रहने का अपमान इस खर्च को सहने पर मजबूर करता था। बच्चा दाई को बहुत चाहता था, हरदम उसके गले का हार बना रहता। इसलिए दाई और भी जरूरी लगती थी, पर शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि वह विनम्रता के कारण दाई को जवाब देने की हिम्मत नहीं कर सकते थे। बुढ़िया उनके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने उनके इकलौते लड़के का लालन-पालन किया था। वो अपना काम बड़ा मन लगाकर मेहनत से करती थी। उसे निकालने का कोई बहाना नहीं था और बेकार दोष निकालना इंद्रमणि जैसे भले आदमी के स्वभाव के ख़िलाफ़ था, पर सुखदा इस मामले में अपने पति से सहमत न थी।
उसे शक था कि दाई हमें लूटे लेती है। जब दाई बाजार से लौटती तो सुखदा बरामदे में छिपी रहती कि देखूँ कहीं आटा छिपा कर तो नहीं रख देती; लकड़ी तो नहीं छिपा देती। उसकी लायी हुई चीजों को घंटों देखती, पूछताछ करती। बार-बार पूछती, “इतना ही क्यों ? क्या भाव है। क्या इतना महँगा हो गया ?” दाई कभी तो इन शक से भरे सवालों का जवाब शांति से देती, लेकिन जब कभी बहू जी ज्यादा तेज हो जातीं तो वह भी कड़ी पड़ जाती थी। कसमें खाती। सफाई के सबूत पेश करती। बहस में घंटों लग जाते। रोज़ अक्सर यही दशा रहती और हर दिन यह नाटक दाई के आसुओं के साथ ख़त्म होता था। दाई का इतनी सख्ती झेल कर पड़े रहना सुखदा के शक को और भी गहरा करता था। उसे विश्वास नहीं होता था कि यह बुढ़िया सिर्फ़ बच्चे के प्रेम के कारण पड़ी हुई है। वह बुढ़िया को इतना बच्चों से प्रेम करने वाली नहीं समझती थी।
संयोग से एक दिन दाई को बाजार से लौटने में जरा देर हो गयी। वहाँ दो औरतों में देवता और असुर जैसी जंग छिड़ी हुई थी। उनके हाव-भाव, उनकी आग उगलती हुई बहस, उनके तानें, और व्यंग्य सब मजेदार थे। ज़हर की दो नदी थी या आग के दो पहाड़, जो दोंनो तरफ से उमड़ कर आपस में टकरा गये थे। उनके शब्दों के इस्तेमाल, उनके लड़ने की कला पर ऐसा कौन-सा कवि है जो मुग्ध न हो जाता। उनका धैर्य, उनकी शांति आश्चर्यजनक थी। देखने वालों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई थी। वह शर्म को भी शर्मिंदा करने वाले इशारे, वह भद्दे शब्द जिनसे गंदगी के भी कान खड़े हो जाते, हज़ारों मज़ा लेने वालों के लिए मनोरंजन का कारण बने हुए थे।
दाई भी खड़ी हो गयी कि देखूँ क्या मामला है। तमाशा इतना मनोरंजक था कि उसे समय का बिलकुल ध्यान न रहा। अचानक जब नौ बजे घंटे की आवाज कान में आयी तो वो चौंक पड़ी और लपकी हुई घर की ओर चली।
सुखदा भरी बैठी थी। दाई को देखते ही ताव बदल कर बोली-“क्या बाजार में खो गयी थी?”
दाई ने नरमी से जवाब दिया –“एक जान-पहचान की औरत से भेंट हो गयी। वह बातें करने लगी”।
सुखदा इस जवाब से और भी चिढ़ कर बोली-“यहाँ दफ्तर जाने को देर हो रही है और तुम्हें सैर-सपाटे की सूझती है”।
लेकिन दाई ने इस समय चुप रहने में भी भलाई समझी. वो बच्चे को गोद में लेने चली, पर सुखदा ने झिड़क कर कहा-“रहने दो, तुम्हारे बिना वह बेचैन नहीं हुआ जा रहा”।
दाई ने इस आज्ञा को मानना ज़रूरी नहीं समझा। बहू जी का गुस्सा ठंडा करने के लिए इससे असरदार और कोई उपाय न सूझा। उसने रुद्रमणि को इशारे से अपने पास बुलाया। वह दोनों हाथ फैलाये लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला। दाई ने उसे गोद में उठा लिया और दरवाजे की तरफ चली। लेकिन सुखदा बाज की तरह झपटी और रुद्र को उसकी गोद से छीन कर बोली-“तुम्हारी यह चालाकी बहुत दिनों से देख रही हूँ। यह तमाशे किसी और को दिखाइयो। यहाँ जी भर गया”।
दाई रुद्र पर जान देती थी और समझती थी कि सुखदा इस बात को जानती है। उसकी समझ में सुखदा और उसके बीच यह ऐसा मजबूत संबंध था, जिसे साधारण झटके तोड़ न सकते थे। यही कारण था कि सुखदा की कड़वी बातें सुनकर भी उसे यह विश्वास न होता था कि मुझे निकालने पर उतारू है। सुखदा ने यह बातें कुछ ऐसी कठोरता से कहीं और रुद्र को ऐसी बेरहमी से छीन लिया कि दाई से सहन न हो सका। वो बोली-“बहू जी ! मुझसे कोई बड़ा अपराध तो नहीं हुआ, बहुत तो आधा घंटा की देर हुई होगी। इस पर आप इतना बिगड़ रही हैं तो साफ क्यों नहीं कह देतीं कि दूसरा दरवाजा देखो। नारायण ने पैदा किया है तो खाने को भी देगा। काम का अकाल थोड़े ही है”।
सुखदा ने कहा-“तो यहाँ तुम्हारी परवाह ही कौन करता है ? तुम्हारी जैसी बहुत हैं जो गली-गली ठोकरें खाती फिरती हैं”।
दाई ने जवाब दिया-“हाँ, नारायण आपको कुशल रखें। दाइयाँ आपको बहुत मिलेंगी। मुझसे जो कुछ अपराध हुआ हो, माफ़ कीजिएगा, मैं जाती हूँ”।
सुखदा-“जा कर बाबू से अपना हिसाब कर लो”।
दाई-“मेरी तरफ से रुद्र बाबू को मिठाइयाँ मँगवा दीजिएगा”।
इतने में इंद्रमणि भी बाहर से आ गये, पूछा-“क्या हुआ ?”
दाई ने कहा-“कुछ नहीं। बहू जी ने जवाब दे दिया है, मैं घर जाती हूँ”।
इंद्रमणि घर के जंजाल से इस तरह बचते थे जैसे कोई नंगे पैर वाला आदमी काँटों से बचता है । उन्हें सारे दिन एक ही जगह खड़े रहना मंजूर था, पर काँटों पर पैर रखने की हिम्मत न थी। वो खिन्न हो कर बोले-“बात क्या हुई ?”
सुखदा ने कहा-“कुछ नहीं। अपनी इच्छा। उसका जी नहीं चाहता, तो नहीं रखते। किसी के हाथों बिक तो नहीं गये”।
इंद्रमणि ने झुँझला कर कहा-“तुम्हें बैठे-बैठे एक न एक दोष सूझता रहता है”।
सुखदा ने तुनक कर कहा-“हाँ, मुझे तो इसकी बीमारी है। क्या करूँ स्वभाव ही ऐसा है। तुम्हें यह बहुत प्यारी है तो ले जाकर गले में बाँध लो, मेरे यहाँ जरूरत नहीं”।
Puri Kahani Sune..
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