(hindi) Samaaj Ka Shikar

(hindi) Samaaj Ka Shikar

“मैं जिस युग के बारे में बता रहा हूं उसकी ना कोई शुरुआत है और न अंत!
वह एक बादशाह का बेटा था और उसका महलों में लालन-पालन हुआ था, लेकिन उसे किसी के शासन में रहना स्वीकार न था। इसलिए उसने राजमहल को त्यागकर जंगल की राह ली। उस समय देशभर में सात शासक थे। वह सातों शासकों के शासन से बाहर निकल गया और ऐसी जगह पर पहुंचा जहां किसी का राज्य न था।

आखिर शाहजादे ने देश क्यों छोड़ा?
इसका कारण साफ़ है कि कुएं का पानी अपनी गहराई पर सन्तुष्ट होता है। नदी का पानी तट की जंजीर में जकड़ा हुआ होता है, लेकिन जो पानी पहाड़ की चोटी पर है उसे हमारे सिर पर मंडराने वाले बादलों में कैद नहीं किया जा सकता।

शाहजादा भी ऊंचाई पर था और यह कल्पना भी न की जा सकती थी कि वह इतना ऐशो आराम का जीवन छोड़कर जंगलों, पहाड़ों और मैदानों का अटलता से सामना करेगा। इस पर भी बहादुर शाहजादा भयानक जंगल को देखकर डरा नहीं । उसके रास्ते में सात समुद्र थे और न जाने कितनी नदियां लेकिन उसने सबको अपनी हिम्मत से पार कर लिया।

आदमी बच्चे से जवान होता है और जवान से बूढ़ा होकर मर जाता है, और फिर बच्चा बनकर दुनिया में आता है। वह इस कहानी को अपने माता-पिता से कई बार सुनता है कि भयानक समुद्र के किनारे एक किला है। उसमें एक शहजादी बन्दी है, जिसे आज़ाद कराने के लिए एक शाहजादा जाता है।

कहानी सुनने के बाद वह सोच विचार में मगन हो जाता और गाल पर हाथ रखकर सोचता कि कहीं मैं ही तो वह शाहजादा नहीं हूं।

जिन्नों के द्वीप की हालत के बारे में सुनकर उसके दिल में ख़याल आया कि मुझे एक दिन शहजादी को कैद खाने से आज़ादी दिलाने के लिए उस द्वीप की ओर जाना पड़ेगा। संसार वाले मान-सम्मान चाहते हैं, दौलत और जायदाद की इच्छा रखते हैं, नाम और शोहरत के लिए मरते हैं, भोग-विलास की खोज में लगे रहते हैं, लेकिन स्वाभिमानी शाहजादा सुख-चैन का जीवन छोड़कर अभागी शहजादी को जिन्नों के भयानक कैद से मुक्ति दिलाने के लिए भयानक द्वीप की ओर जाता है।

Puri Kahaani Sune…

(hindi) Sachai Ka Uphar

(hindi) Sachai Ka Uphar

“तहसीली स्कूल बराँव के टीचर मुंशी भवानीसहाय को बागवानी का बहुत शौक था। गमलों में तरह-तरह के फूल और पत्तियाँ लगा रखी थीं। दरवाजों पर लताएँ चढ़ा दी थीं। इससे स्कूल की सुंदरता बढ़ गई थी। वह मिडिल क्लास के लड़कों से भी अपने बगीचे के सींचने और साफ करने में मदद लिया करते थे। ज्यादातर लड़के इस काम को शौक से करते। इससे उनका मनोरंजन होता था लेकिन क्लास में चार-पाँच लड़के जमींदारों के थे। वो ऐसे बिगड़े हुए थे कि यह मनोरंजक काम भी उन्हें बेकार लगता। उन्होंने बचपन से आलसी जीवन जीया था।

अमीरी का झूठा अभिमान दिल में भरा हुआ था। वह हाथ से कोई काम करना शर्म की बात समझते थे। उन्हें इस बगीचे से चिढ़ थी। जब उनके काम करने की बारी आती, तो कोई-न-कोई बहाना कर भाग जाते। इतना ही नहीं, दूसरे लड़कों को बहकाते और कहते, “वाह ! पढ़ें फारसी, बेचें तेल ! अगर खुरपी-कुदाल ही करना है, तो स्कूल में किताबों से सिर मारने की क्या जरूरत ? यहाँ पढ़ने आते हैं, मजदूरी करने नहीं।“ मुंशीजी इसके के लिए उन्हें कभी-कभी सजा दे देते थे । इससे उनका गुस्सा और भी बढ़ जाता । आखिर में यहाँ तक नौबत आ पहुँची कि एक दिन उन लड़कों ने सलाह करके उस फूल के बगीचे को बर्बाद करने का फ़ैसला किया।

दस बजे स्कूल लगता था, लेकिन उस दिन वह आठ बजे ही आ गये और बगीचे में घुसकर उसे उजाड़ने लगे। कहीं पौधे उखाड़ फेंके कहीं गमलों को रौंद डाला, पानी की नलियाँ तोड़ डालीं, गमलों की मेड़ें खोद डाली। मारे डर के दिल धड़क रहा था कि कहीं कोई देख न ले । लेकिन एक छोटी सी फुलवाड़ी के उजड़ने में कितनी देर लगती है ? दस मिनट में हरा-भरा बाग बर्बाद हो गया। तब लड़के जल्दी से निकले, लेकिन दरवाजे तक आए थे कि उन्हें अपने साथ पढ़ने वाले साथी की सूरत दिखाई दी। वो एक-दुबला-पतला, गरीब और बुद्धिमान लड़का था। उसका नाम बाजबहादुर था। बड़ा गम्भीर, शांत लड़का था। बदमाश लड़के उससे जलते थे। उसे देखते ही उनका खून सूख गया। भरोसा हो गया कि इसने जरूर देख लिया है ।

यह मुंशीजी से कहे बिना न रहेगा। बुरे फँसे। आज खैर नहीं है। यह राक्षस इस समय यहाँ क्या करने आया था ? आपस में इशारे हुए कि इसे साथ में मिला लेना चाहिए। जगतसिंह उनका मुखिया था। आगे बढ़कर बोला- “आज इतने सबेरे कैसे आ गए ? हमने तो आज तुम लोगों के गले की फाँसी छुड़ा दी। लाला बहुत काम कराया करते थे, यह करो, वह करो। मगर यार देखो, कहीं मुंशीजी से मत कह देना, नहीं तो लेने के देने पड़ जायँगे।“

जयराम ने कहा- “कह क्या देंगे, अपने ही तो हैं। हमने जो कुछ किया है, वह सबके लिए किया है, सिर्फ़  अपनी भलाई के लिए नहीं। चलो यार, तुम्हें बाजार की सैर करा दें, मुँह मीठा करा दें।“

बाजबहादुर ने कहा- “नहीं, मुझे आज घर पर पाठ याद करने का समय नहीं मिला। यहीं बैठकर पढ़ूंगा।“

जगतसिंह- “अच्छा, मुंशीजी से कहोगे तो नहीं?”

बाजबहादुर- “मैं ख़ुद कुछ न कहूँगा, लेकिन उन्होंने मुझसे पूछा तो ?”

जगतसिंह- “कह देना, मुझे नहीं मालूम।“

बाजबहादुर- “यह झूठ मुझसे न बोला जाएगा।“

जयराम- “अगर तुमने चुगली की और हमें मार पड़ी, तो हम तुम्हें पीटे बिना न छोड़ेंगे।“

बाजबहादुर- “हमने कह दिया कि चुगली न करेंगे लेकिन मुंशीजी ने पूछा, तो झूठ भी न बोलेंगे।“

जयराम- “तो हम तुम्हारी हड्डियाँ भी तोड़ देंगे।“

बाजबहादुर- “इसका तुम्हें अधिकार है।“

Puri Kahaani Sune…

(hindi) Patni Se Pati

(hindi) Patni Se Pati

“मिस्टर सेठ को सभी हिन्दुस्तानी चीजों से नफरत थी और उनकी सुन्दर पत्नी गोदावरी को सभी विदेशी चीजों से चिढ़! मगर धीरज और विनम्रता भारत की औरतों का गहना है। गोदावरी दिल पर पत्थर रखकर पति की लायी हुई विदेशी चीज़ों को  इस्तेमाल करती, हालाँकि अन्दर ही अन्दर उसका दिल अपनी मजबूरी पर रोता था। वह जिस समय अपनी बालकनी पर खड़ी होकर, सड़क पर देखती और कितनी ही औरतों को खादी की साड़ियाँ पहने गर्व से सिर उठाये चलते देखती, तो उसके अंदर का दर्द एक ठंडी आह बन कर निकल जाता।

उसे ऐसा लगता कि मुझसे ज्यादा बुरी किस्मत दुनिया में और किसी औरत की नहीं है। मैं अपने देश के लोगों की इतनी भी सेवा नहीं कर सकती। शाम को मिस्टर सेठ के कहने पर वह कहीं मनोरंजन या घूमने के लिए जाती, तो विदेशी कपड़े पहनकर निकलते हुए  शर्म से उसकी गर्दन झुक जाती। वह अखबारों में औरतों की जोश-भरी बातें पढ़ती तो उसकी आँखें चमक उठतीं, थोड़ी देर के लिए वह भूल जाती कि मैं यहाँ बंधनों  में जकड़ी हुई हूँ ।
 
होली का दिन था, रात आठ बजे का समय। स्वदेश के नाम पर बिके हुए देश प्रेमियों का जुलूस आकर मिस्टर सेठ के मकान के सामने रुका और उसी चौड़े मैदान में विदेशी कपड़ों की होलियाँ जलाने की तैयारियाँ होने लगीं। गोदावरी अपने कमरे में खिड़की पर खड़ी यह सब होता देख रही थी और बाहर जाने की अपनी इस इच्छा को दिल ही दिल में दबा लेती थी। एक वह हैं, जो यूं खुशी – खुशी, आजादी से, गर्व से सिर उठाये होली लगा रहे हैं, और एक मैं हूँ कि पिंजरे में बन्द चिड़िया की तरह फड़फड़ा रही हूँ। इन पिंजरे की दीवारों को कैसे तोड़ दूँ? उसने कमरे में नज़र घुमाई। सभी चीजें विदेशी थीं।

अपने देश का एक ऊन भी ना था। यही चीजें वहाँ जलायी जा रही थीं और वही चीजें यहाँ उसके दिल भरे ग्लानी की तरह बक्सों में रखी हुई थी। उसके मन में एक लहर उठ रही थी कि इन चीजों को उठाकर उसी होली में डाल दे, उसके सारे पाप और डर जल कर भस्म हो जाय! मगर पति के नाराज़ होने के डर ने उसे ऐसा करने से रोक लिया। अचानक मि. सेठ ने अन्दर आ कर कहा-“जरा इन सिरफिरों को देखो, कपड़े जला रहे हैं। यह पागलपन, सनक और विद्रोह नहीं है तो और क्या है? किसी ने सच कहा है, हिंदुस्तानियों को ना अक्ल आयी है और ना आयेगी”। 
गोदावरी ने कहा-“तुम भी हिंदुस्तानी हो?” 

सेठ ने गर्म होकर कहा-“हाँ, लेकिन मुझे इसका हमेशा दुख  होता है कि मैं ऐसी बुरी किस्मत वाले  देश में क्यों पैदा हुआ। मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे हिन्दुस्तानी कहे या समझे। कम-से-कम मैंने चाल- चलन, व्यवहार, कपड़े – पहनावे, रीति-रिवाज, काम और बोल-चाल में कोई ऐसी बात नहीं रखी, जिससे हमें कोई हिन्दुस्तानी होने का कलंक लगाये। पूछिये, जब हमें आठ पैसे  स्कवैयर फीट में बढ़िया कपड़ा मिलता है, तो हम क्यों बेकार कपड़ा खरीदें। इस बारे में हर एक को पूरी आज़ादी होनी चाहिए। ना जाने क्यों सरकार ने इन दुष्टों को यहाँ जमा होने दिया। अगर मेरे हाथ में अधिकार होता, तो सब को नरक में भेज देता। तब आटे-दाल का भाव मालूम होता”। 

गोदावरी ने इस बात का विरोध करते हुए  कहा-“तुम्हें अपने भाइयों का जरा भी खयाल नहीं आता? भारत के अलावा और भी कोई देश है, जिस पर बाहरी लोगों का राज हो? छोटे-छोटे देश भी किसी दूसरे देश का गुलाम बनकर नहीं रहना चाहते। क्या एक हिन्दुस्तानी के लिए यह शर्म की बात नहीं है कि वह अपने थोड़े-से फायदे के लिए सरकार का साथ देकर अपने ही भाइयों के साथ गलत करे?”
 
सेठ ने भोंहे चढ़ा कर कहा-“मैं इन्हें अपना भाई नहीं समझता”।
 
गोदावरी-“आखिर तुम्हें सरकार जो पैसे (सैलरी) देती है, वह इन्हीं की जेब से तो आता है”।
 
सेठ-“मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मेरे पैसे (सैलरी) किसकी जेब से आते हैं। मुझे जिसके हाथ से मिलता है, वह मेरा मालिक है। ना जाने इन दुष्टों को क्या सनक सवार हुई है। कहते हैं, भारत आध्यात्मिक (spiritual ) देश है। क्या अध्यात्म (spirituality) का यही मतलब है कि भगवान के नियमों का विरोध किया जाये? जब यह मालूम है कि भगवान की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो यह कैसे हो सकता है कि इतना बड़ा देश, भगवान की मर्जी के बिना ही अंग्रेज़ों  का गुलाम बन गया हो? क्यों इन पागलों को इतनी अक्ल नहीं आती कि जब तक भगवान की मर्जी नही होगी, कोई अंग्रेज़ों का कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा”।
 
गोदावरी-“तो फिर क्यों नौकरी करते हो? भगवान की इच्छा होगी, तो आपने आप ही खाना मिल जायेगा। बीमार होते हो, तो क्यों दौड़ के डॉक्टर के घर जाते हो? भगवान भी उन्ही की मदद करता है, जो अपनी मदद खुद करते हैं!”
 
सेठ-“बिल्कुल करता है; लेकिन अपने घर में आग लगा देना, घर की चीजों को जला देना, ऐसे काम हैं, जिन्हें भगवान कभी पसंद नहीं कर सकता”।
 
गोदावरी-“तो यहाँ के लोगों को चुपचाप बैठे रहना चाहिए?”
 
सेठ-“नहीं रोना चाहिए। इस तरह रोना चाहिए जैसे बच्चे माँ के दूध के लिए रोते हैं”।
 
अचानक होली जली, आग की लपटें ऊपर आसमान तक पहुँचने लगीं, मानो आज़ादी की देवी आग के कपड़े पहने हुए आसमान के देवताओं से गले मिलने जा रही हो।
 
दीनानाथ ने खिड़की बन्द कर दी, उनके लिए यह सब देखना मुश्किल था।
 
गोदावरी इस तरह खड़ी रही, जैसे कोई गाय कसाई के खूँटे पर खड़ी हो। उसी समय किसी के गाने की आवाज़ आयी-
 
देश की किस्मत देखिए कब बदलती है।

Puri Kahaani Sune…
 

(hindi) Pareeksha

(hindi) Pareeksha

“जब रियासत देवगढ़ के दीवान सरदार सुजानसिंह बूढ़े हुए तो उन्हें भगवान्  की याद आयी। उन्होंने जाकर महाराज से विनती की कि दीनबंधु ! दास ने महाराज की सेवा चालीस साल तक की, अब मेरी उम्र भी ढल गयी, राज-काज सँभालने की शक्ति नहीं रही। कहीं कोई गलती हो जाय तो बुढ़ापे में दाग लग जाएगा। सारी जिंदगी का मान सम्मान मिट्टी में मिल जाएगा।

राजा साहब अपने अनुभवी और नीति को मानने वाले दीवान का बड़ा आदर करते थे। उन्होंने बहुत समझाया, लेकिन जब दीवान साहब न माने, तो हारकर उन्होंने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली; पर शर्त यह लगा दी कि रियासत के लिए नया दीवान उन्हें ही खोजना पड़ेगा।

दूसरे दिन देश के जाने माने अखबारों में यह विज्ञापन निकला कि देवगढ़ के लिए एक क़ाबिल  दीवान की जरूरत है। जो लोग ख़ुद को इस पद के लायक समझते हैं वे दीवान सुजानसिंह की सेवा में प्रस्तुत हों। यह जरूरी नहीं है कि वे ग्रेजुएट हों, मगर शरीर से हट्टा कट्टा होना ज़रूरी  है और जिनकी खाना हज़म करने की शक्ति कमज़ोर हो उन्हें वहाँ आने का कष्ट उठाने की कोई जरूरत नहीं है। एक महीने तक उम्मीदवारों (candidate) के रहन-सहन, हावभाव और व्यवहार की परख की जायगी। विद्या का कम, लेकिन कर्तव्य का ज़्यादा विचार किया जाएगा। जो महाशय इस परीक्षा में खरे उतरेंगे, वे इस उच्च पद के लिए चुने जाएँगे।

इस विज्ञापन ने सारे मुल्क में तहलका मचा दिया। ऐसा ऊँचा पद और किसी तरह का बंधन नहीं ? सिर्फ़ नसीब का खेल है। हज़ारों आदमी अपना-अपना भाग्य परखने के लिए चल दिए। देवगढ़ में नये-नये और रंग-बिरंगे लोग दिखायी देने लगे। हर रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मेला-सा उतरता। कोई पंजाब से चला आ रहाथा, कोई मद्रास से, कोई नई फैशन का प्रेमी था, कोई पुरानी सादगी पर मर मिटने वाला। पंडितों और मौलवियों को भी अपने-अपने भाग्य की परीक्षा करने का मौका मिला। वो बेचारे डिग्री के नाम को रोया करते थे, लेकिन यहाँ उसकी कोई जरूरत नहीं थी। रंगीन कपड़े, चोगे और तरह-तरह के अंगरखे और कंटोप देवगढ़ में अपनी सुंदरता दिखाने लगे। लेकिन सबसे बड़ी संख्या ग्रेजुएटों की थी, क्योंकि डिग्री का बंधन न होने पर भी डिग्री से परदा तो ढँका ही रहता है।

सरदार सुजानसिंह ने इन महानुभावों के आदर-सत्कार का बड़ा अच्छा बंदोबस्त  कर दिया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे हुए रोज़ा रखने वाले मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हर एक आदमी अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर अ नौ बजे दिन तक सोया करते थे, आजकल वे बगीचे में टहलते हुए सूरज का दर्शन करते थे। मि. ब को हुक्का पीने की लत थी, वो आजकल आधी रात बीत जाने के बाद दरवाज़ा बन्द करके अँधेरे में सिगार पीते थे।

मि. द , स और ज  से अपने अपने घरों में  नौकरों की नाक में दम कर रखा था, लेकिन ये सज्जन आजकल ‘आप’ और ‘जनाब’ के बगैर नौकरों से बात नहीं करते थे ! मि. ल को किताब से नफ़रत थी, लेकिन आजकल वे बड़े-बड़े ग्रन्थ देखने-पढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बात कीजिए, वह नम्रता और सदाचार का देवता बना हुआ दिखाता था। शर्मा जी देर रात से ही वेद-मंत्र पढ़ने में लगते थे और मौलवी साहब को नमाज और तलावत के सिवा और कोई काम न था। लोग समझते थे कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं काम सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है।

Puri Kahaani Sune….

(hindi) Mastery: The Keys to Success and Long-Term Fulfillment

(hindi) Mastery: The Keys to Success and Long-Term Fulfillment

“क्या आप भी कोई नया स्किल सीखना चाहते है? क्या आप वो सीक्रेट जानना चाहते है जो आपको किसी भी चीज़ का मास्टर बना सकती है ? अगर हाँ तो ये बुक पढिये. इसमें में आप 5 मास्टर की के बारे में सीखोगे, जो आपको अपनी हॉबी या करियर को इम्प्रूव करने और प्रोग्रेस करने में मदद करेगी. आपका आइडल कौन है? कौन है जो आपकी अपनी फील्ड में बेस्ट लगता है? तो अगर उनके जैसा आपको भी बनना है तो एक बार एक बुक पढ़कर जरूर देखिए. 

यह समरी किस-किसको पढनी चाहिए?
•    कॉलेज स्टूडेंट 
•    टीनएजर्स 
•    जो लोग एथलीट, साइंटिस्ट, एस्ट्रोनौट ,लॉयर या किसी भी करियर में जाना चाहते है 
•    हर वो इंसान जो एक्सपर्ट बनना चाहता है. 

ऑथर के बारे में 
जॉर्ज लियोनार्ड एक राइटर और टीचर है. उन्होंने इन्सान के पोटेंशियल और एजुकेशन के ऊपर कई किताबें लिखी हैं. एक सक्सेसफुल ऑथर होने के अलावा जॉर्ज एकीडो में फिफ्थ डिग्री बलैक बेल्ट होल्डर और यू.एस. आर्मी एयर कोर्प्स के पायलट भी हैं.  
 

(hindi) MANOVRUTTI

(hindi) MANOVRUTTI

“एक सुंदर औरत , सुबह , गाँधी-पार्क में बिल्लौर के बेंच पर गहरी नींद में सोयी पायी जाय, तो यह चौंका देने वाली बात है। ख़ूबसूरत लडकियां पार्क में हवा खाने आती हैं, हँसती हैं, दौड़ती हैं, फूल-पौधों से खेलती हैं, किसी का उस पर ध्यान नहीं जाता; लेकिन अगर कोई औरत बेंच पर बेखबर सोये, यह बिलकुल गैर मामूली बात है, अपनी ओर पूरी ताकत के साथ आकर्षित करने वाली बात की तरह।

 वहाँ कितने ही आदमी चहलकदमी कर रहे हैं, बूढ़े भी, जवान भी, सभी एक पल  के लिए वहाँ ठिठक जाते हैं, एक बार वह नज़ारा देखते हैं और फ़िर चले जाते हैं, नौजवान रहस्य के भाव से मुसकराते हुए, बुजुर्ग चिंता-भाव से सिर हिलाते हुए और औरतें शर्म से आँखें नीचे किये हुए।

बसंत और हाशिम निकर और बनियान पहने नंगे पाँव दौड़ रहे हैं। बड़े दिन की छुट्टियों में ओलिंपियन रेस होने वाला है, दोनों उसी की तैयारी कर रहे हैं। दोनों उस  जगह पहुँचकर रुक जाते हैं और दबी आँखो से औरत को देखकर आपस में खयाल दौड़ाने लगते हैं।

बसंत ने कहा- “इसे और कहीं सोने की जगह नहीं मिली”।
हाशिम ने जवाब दिया- “कोई वेश्या होगी शायद”।
'लेकिन वेश्याएँ भी तो इस तरह बेशर्मी नहीं करतीं।'
'वेश्या अगर बेशर्म न हो तो वेश्या नहीं।'

'बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनमें घर की बहु और वेश्या दोनों एक सा व्यवहार करती हैं। कोई वेश्या आमतौर पर सड़क पर सोना नहीं चाहती।'
'रूप-छवि दिखाने का नया आर्ट है।'
'आर्ट का सबसे सुंदर रूप छिपाना है, दिखाना नहीं। वेश्या इस रहस्य को खूब समझती है।'
'उसका छिपाना सिर्फ़ आकर्षण बढ़ाने के लिए होता है।'

'हो सकता है; मगर सिर्फ़ यहाँ सो जाना यह साबित नहीं करता कि यह वेश्या है। इसकी माँग में सिंदूर है।'
'वेश्याएँ मौका मिलने पर सौभाग्यशाली बन जाती हैं। रात-भर प्याले के दौर चले होंगे। काम-के खेल हुए होंगे। दुःख के कारण, ठंडक पाकर सो गयी होगी।'
'मुझे तो किसी घर की बहु-सी लगती है ?'
'कोई बहु पार्क में सोने आयेगी ?'
'हो सकता है, घर से रूठकर आयी हो ?'
'चलकर पूछ ही क्यों न लें।'

'महा बेवक़ूफ़ हो ! बिना जान पहचान के कैसे किसी को जगा कैसे सकते हो ?'
'अजी चलकर जान पहचान कर लेंगे। उलटे और एहसान जतायेंगे।'
'और जो वो कहीं झिड़क दे तो ?'

'झिड़कने की कोई बात भी होनी चाहिए। उससे अच्छे से और प्रेम में डूबी हुई बातें करेंगे। कोई औरत ऐसी बातें सुनकर चिढ़ नहीं सकती। अजी, जिनकी जवानी चली गई वो तक रस-भरी बातें सुनकर फूली नहीं समातीं। यह तो फ़िर भी जवान है। मैंने रूप और जवानी का इतना सुंदर मिलन नहीं देखा था।'
'मेरे दिल पर तो यह रूप अब जीवन भर के लिए छप गया है! अब शायद कभी न भूल सकूँ।'

'मैं तो फिर यही कहता हूँ कि कोई वेश्या है।'
'रूप की देवी वेश्या भी हो, तो पूजनीय है।'
'यहीं खड़े-खड़े कवियों की-सी बातें करोगे, जरा वहाँ चलते क्यों नहीं। तुम बस  खड़े रहना, जाल तो मैं डालूँगा।'
'कोई बहु hi है।'

'ख़ानदानी बहु पार्क में आकर सोये, तो इसका इसके सिवा कोई मतलब नहीं कि वह आकर्षित करना चाहती है, और यह वेश्या मानसिकता है।'
'आजकल की औरतें भी तो फार्वर्ड होने लगी हैं।'
'फार्वर्ड औरतें आदमियों से आँखें नहीं चुरातीं।'

'हाँ, लेकिन है किसी घर की बहु, बहु से किसी तरह की बातचीत करना मैं बेहूदगी समझता हूँ।'
'तो चलो फिर दौड़ लगावें।'
'लेकिन दिल में तो वह मूर्ति दौड़ रही है।'

'तो आओ बैठें। जब वह उठकर जाने लगे; तो उसके पीछे चलें। मैं कहता हूँ वेश्या है।'
'और मैं कहता हूँ, बहु  है।'
'तो दस-दस की बाजी रही।'

Puri Kahaani Sune….

(hindi) Jhanki

(hindi) Jhanki

“कई दिनों से घर में लड़ाई-झगड़ा  हो रहा  था। माँ अलग नाराज  बैठी थी, पत्नी  अलग। घर की हवा में  जैसे जहर घुला  हुआ था। रात को खाना  नहीं बना, दिन में मैंने स्टोव पर खिचड़ी बनाई थी ; पर खाया किसी ने नहीं। बच्चों को भी आज भूख न थी। छोटी लड़की कभी मेरे पास आकर खड़ी हो जाती, कभी माता के पास, कभी दादी के पास; पर कहीं उसके लिए प्यार की बातें न थीं। कोई उसे गोद में न उठाता  मानों उसने भी कोई गलती  की हो।

लड़का शाम को स्कूल से आया। किसी ने उसे कुछ खाने को न दिया, न उससे बोला, न कुछ पूछा। दोनों बरामदे में उदास  बैठे हुए थे और शायद सोच रहे थे- घर में आज  क्या हुआ है । भाई-बहन दिन में कितनी बार लड़ते हैं, रोना-पीटना भी कई बार हो जाता है; पर ऐसा कभी नहीं होता कि घर में खाना न बने  या कोई किसी से बोले नहीं। यह कैसा झगड़ा है कि चौबीस घंटे बीत जाने पर भी शांत नहीं होता, यह शायद उनकी समझ में न आता था।

झगड़े की वजह  कुछ न थी। अम्माँ ने मेरी बहन के घर तीज का सामान  भेजन के लिए जिन सामानों की लिस्ट लिखायी, वह पत्नी जी को घर की हालत देखते हुए जयादा लगी। अम्माँ खुद समझदार हैं। उन्होंने थोड़ी-बहुत काट-छाँट कर दी थी; लेकिन पत्नी के मन में और काट-छाँट होनी चाहिए थी। पाँच साड़ियों की जगह तीन रहें, तो क्या बुराई है। खिलौने इतने होंगे, इतनी मिठाई की क्या जरुरत! उनका कहना था- जब काम  भी नही चल रहा ; तो घर खर्च थोड़ा कम करना चाहिए,

दूध-घी के बजट में कमी हो गयी, तो फिर तीज में क्यों इतना  खर्च किया जाय? पहले घर में देखना चाहिए फिर बाहर का देखना चाहिए नहीं तो घर मे कुछ नहीं बचेगा । इसी बात पर सास-बहू में झगड़ा  हो गया, फिर पुरानी बाते बाहर निकलने लगी।फिर  बात कहाँ से कहाँ जा पहुँची, बीती  बाते उठ गयी। पता नहीं कौन-कौन सी बाते और ताने शुरू हुए और इसके बाद  सन्नाटा हो गया ।

मैं बड़ी मुसीबत में था। अगर अम्माँ की तरफ से कुछ कहता हूँ, तो पत्नी रोना-धोना शुरु करती हैं, अपने नसीब को कोसने लगती हैं; पत्नी की-सी कहता हूँ तो पत्नी का गुलाम सुनने को मिलता है। इसलिए बारी-बारी से दोनों का साथ देता था; पर सच मे, मै अपनी  पत्नी के साथ ही था । खुलकर अम्माँ से कुछ न कह सकता था; पर गलती तो इन्ही की है। दुकान का यह हाल है कि कभी-कभी बोहनी भी नहीं होती। ग्राहक पैसे नहीं देते,  तो इन पुरानी बातो को लेकर  क्यों लड़ा जाए !

बार-बार इस बात पर गुस्सा आता था । घर में तीन तो लोग  हैं और उनमें भी प्यार नहीं! ऐसी गृहस्थी में तो आग लगा देनी चाहिए। कभी-कभी ऐसी सनक सवार हो जाती थी कि सबको छोड़-छाड़कर कहीं भाग जाऊँ। जब अपने सिर पड़ेगा, तब इन्हें होश आयेगा; तब मालूम होगा कि घर कैसे चलता  है। क्या जानता था कि यह मुसीबत झेलनी पड़ेगी, नहीं तो शादी का नाम ही न लेता। तरह-तरह के बुरे विचार मन में आ रहे थे। कोई बात नहीं, अम्माँ मुझे परेशान करना चाहती हैं। बहू उनके पाँव नहीं दबाती, उनके सिर में तेल नहीं डालती, तो इसमें मेरी क्या गलती ?

मैंने उसे मना तो नहीं कर दिया है! मुझे तो ख़ुशी होगी , अगर सास-बहू में इतना प्यार हो जाय; लेकिन यह मेरे वश की बात नहीं कि दोनों में प्यार डाल दूँ। अगर अम्माँ ने अपनी सास की साड़ी धोयी है, उनके पाँव दबाये हैं, उनकी डांट खायी हैं, तो आज वह पुराना हिसाब बहू से क्यों निकालना  चाहती हैं? उन्हें क्यों नहीं दिखाई देता कि अब समय बदल गया है? बहुएँ अब डर से  सास की गुलामी नहीं करतीं। प्यार  से चाहे उनके सिर के बाल नोच लो, लेकिन जो रौब दिखाकर उन पर राज  करना चाहो, तो वह दिन चले गये।

सारे शहर में जन्माष्टमी का उत्सव हो रहा था। मेरे घर में लड़ाई हो रही थी। शाम  हो गयी थी पर घर में  अंधेरा था। मनहूसियत छायी हुई थी। मुझे अपनी पत्नी पर गुस्सा  आया। लड़ती हो, लड़ो; लेकिन घर में अंधेरा क्यों रखा है? मैंने जाकर कहा- “”क्या आज घर में दीये न जलेंगे?””

पत्नी ने मुँह फुलाकर कहा- “”जला क्यों नहीं लेते। तुम्हारे हाथ नहीं हैं?””
मुझे गुस्सा आ गया। बोला- “”तो क्या जब तुम नहीं थी तो, तब घर में दीये न जलते थे?””
अम्माँ ने बात को बढ़ाया- “”नहीं, तब सब लोग अंधेरे ही में पड़े रहते थे।””
पत्नी अम्माँ की बात पर भड़क कर बोली- “”जलाते होंगे मिट्टी की कुप्पी! लालटेन तो मैंने नहीं देखी। मुझे इस घर में आये दस साल हो गये।””
मैंने डाँटा- “”अच्छा चुप रहो, बहुत बढ़ो नहीं।””

पत्नी-“”ओहो! तुम तो ऐसा डाँट रहे हो, जैसे मुझे ख़रीदकर  लाये हो?””
मैं भड़क गया -“”मैं कहता हूँ, चुप रहो!””
पत्नी-“”क्यों चुप रहूँ? अगर एक कहोगे, तो दो सुनोगे।””
मैंने गुस्से से कहा -“”यही है पति की इज्जत ?””
पत्नी-“”जैसा मुँह होता है ,वैसे ही जवाब मिलते हैं !””

मैं हार कर बाहर चला आया, और अंधेरी कोठरी में बैठा हुआ, उस मनहूस घड़ी को कोसने लगा जब इस से मेरी शादी हुई थी । इस अँधेरे  में भी दस साल का जीवन फिल्मो की तरह मेरी आँखों के सामने दौड़ गया। उसमें कहीं कुछ भी अच्छा नहीं था, कहीं प्यार नहीं था।

Puri Kahaani Sune….

(hindi) Beteon Wali Vidhva

(hindi) Beteon Wali Vidhva

“पंडित अयोध्यानाथ की मौत हुई तो सबने कहा, “”भगवान आदमी को ऐसी ही मौत दे””। अयोध्यानाथ के चार जवान बेटे थे, एक लड़की। चारों लड़कों की शादी हो गयी थी, सिर्फ एक लड़की बची थी जिसकी शादी नहीं हुई थी| मरने से पहले अयोध्यानाथ काफी पैसे-रूपए भी जोड़ चुके थे| एक पक्का मकान, दो बगीचे, कई हजार के गहने और बीस हजार नकद। विधवा फूलमती को दुःख तो हुआ और कई दिन तक बेहाल पड़ी रही, लेकिन जवान बेटों को सामने देखकर उसमें हिम्मत आई| उसके चारों लड़के एक से बढ़कर एक अच्छे थे| चारों बहुएँ बात मानने वाली थीं।

जब वह रात को सोने के लिए लेटती, तो चारों बारी-बारी से उसके पाँव दबातीं, जैसे ही वह नहा कर आती, बहु साड़ी पकड़ाती। सारा घर उसके इशारे पर चलता था। बड़ा लड़का कमाँ  था| एक दफ्तर में 50 रू. पर नौकरी करता था, छोटा उमानाथ डाक्टरी की पढाई पास कर चुका था और कहीं दवाई स्टोर खोलने की सोच रहा था, तीसरा दयानाथ बी. ए. में फेल हो गया था और अख़बार- मैगजीन में लेख लिखकर कुछ-न-कुछ कमा लेता था,चौथा सीतानाथ चारों में सबसे तेज दिमाग का और होनहार था और अबकी साल बी. ए. पहले स्थान  से पास करके एम. ए. की तैयारी में लगा हुआ था।

किसी लड़के में नशा करने की आदत, आवारागर्दी, या फालतू खर्चे वाली आदत नहीं थी, जिसके कारण माता-पिता की समाज में इज़्ज़त डूबती है। फूलमती घर की मालकिन थी। जबकि चाबियाँ बड़ी बहू के पास रहती थीं| बुढ़िया में यह भावना नहीं थी कि “”मैं घर की मालकिन हूँ और सारा घर मेरे ही इशारों पे चलता है””, जो अक्सर बूढ़े लोगों को बुरा बोलने वाला और झगड़ालू बना देता है, लेकिन उसकी इच्छा के बिना कोई बच्चा मिठाई तक नहीं मँगा सकता था।

शाम  हो गयी थी। पंडित को मरे आज बारहवाँ दिन था। कल तेरवीह थी । ब्राह्मणों का खाना होगा। रिश्तेदारी के लोग बुलाने होंगे। उसी की तैयारियाँ हो रही थीं। फूलमती अपने कमरे में बैठी देख रही थी, मजदूर बोरे में आटा लाकर रख रहे हैं। घी के टीन आ रहे हैं। सब्जी के टोकरे, चीनी की बोरियाँ, दही के मटके चले आ रहे हैं। महापात्र (ब्राह्मण की एक जाति)  के लिए दान की चीजें लायी गयीं- बर्तन, कपड़े,पलंग,बिछाने का सामान, छाते,जूते, छड़ियाँ, लालटेन वगैरह | लेकिन यह क्या फूलमती को कोई चीज नहीं दिखायी गयी।

नियम के हिसाब से ये सब सामान उसके पास आने चाहिए थे। वह हर सामान को देखती उसे पसंद करती,उसकी मात्रा में काम- ज्यादा का फैसला करती, तब इन चीजों को भंडारे में रखा जाता। क्यों उसे दिखाने और उसकी राय लेने की जरूरत नहीं समझी गयी?, अच्छा वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया?, उसने तो पाँच बोरों के लिए कहा था। घी भी पाँच ही टीन है। उसने तो दस टीन मँगवाए थे। इसी तरह सब्जी, चीनी, दही आदि में भी कमी की गयी होगी। किसने उसके कहने में दखल किया?, जब उसने एक बात तय कर दी, तब किसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार है?

आज चालीस सालों से घर के हर मामले में फूलमती की बात सब मानते थे| उसने सौ कहा तो सौ खर्च किये गये, एक कहा तो एक। किसी ने छोटी बातों की शिकायत नहीं की। यहाँ तक कि पं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के खिलाफ कुछ नहीं करते थे| पर आज उसकी आँखों के सामने साफ़-साफ़  रूप से उसके कहने को नहीं माना जा रहा है|  इसे वह कैसे मान सकती थी ?

कुछ देर तक तो वह चुप-चाप बैठी रही, पर अंत में नहीं रहा गया। आजाद शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह गुस्से में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोली- “”क्या आटा तीन ही बोरे लाये? मैंने तो पाँच बोरों के लिए कहा था। और घी भी पाँच ही टीन मँगवाया, तुम्हें याद है, मैंने दस टीन कहा था? बचत को मैं बुरा नहीं समझती, लेकिन जिसने यह कुआँ खोदा, वही पानी को तरसे, यह कितनी शर्म की बात है!” (फूलमती ने बोला)

कामतानाथ ने माफ़ी नहीं मांगी, अपनी गलती भी नहीं मानी, शर्म भी नहीं आयी। एक मिनट तो विरोधी सा बन कर रहा,
फिर बोला- “हम लोगों की सलाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिए पाँच टीन घी काफी था। इसी हिसाब से और चीजें भी कम कर दी गयी हैं।“
फूलमती और ज्यादा गुस्से में बोली- “”किसकी राय से आटा कम किया गया?””
“”हम लोगों की राय से।”” (कामतानाथ ने कहा)
“”तो मेरी राय कोई चीज नहीं है?”” (फूलमती ने कहा)
“”है क्यों नहीं, लेकिन अपना फायदा-नुकसान तो हम समझते हैं?”” (कामतानाथ ने कहा) 

फूलमती चौंक कर उसका मुँह देखने लगी। इस बात का मतलब उसकी समझ में नहीं आया। अपना नुकसान -फायदा! अपने घर में नुकसान -फायदे  की जिम्मेदार वह खुद है। दूसरों को, चाहे वे उसके खुद के बेटे  ही क्यों न हों, उसके काम में दखल करने का क्या अधिकार? यह लड़का तो इस अकड़ से जवाब दे रहा है, जैसे घर उसी का है, उसी ने मर-मरकर गृहस्थी जोड़ी है, मैं तो पराई हूँ! जरा इसकी अकड़ तो देखो।

उसने गुस्से से कहा- “मेरे नुकसान-फायदे के जिम्मेदार तुम नहीं हो। मुझे अधिकार है, जो ठीक समझूँ, वह करूँ। अभी जाकर दो बोरे आटा और पाँच टीन घी और लाओ और आगे के लिए खबरदार, जो किसी ने मेरी बात काटी।””   (फूलमती ने कहा)

अपने हिसाब से उसने काफी चेतावनी दे दी थी। शायद इतनी कठोरता जरुरी नहीं थी। उसे अपने गुस्से पर दुःख हुआ। लड़के ही तो हैं, समझे होंगे कुछ कम खर्च करना चाहिए। मुझसे इसलिए नहीं पूछा होगा कि अम्माँ तो खुद हर एक काम में कम खर्च करती हैं। अगर इन्हें पता होता कि इस काम में मैं कम खर्च पसंद नहीं करूँगी, तो ये मेरी बात जरूर मानता। हालाँकि कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और चेहरे से ऐसा साफ़ पता लग रहा था कि इस बात को मानने के लिए वह तैयार नहीं है, पर फूलमती निश्चिंत होकर अपने कमरे में चली गयी। इतनी चेतावनी पर भी किसी को उसकी बात ना मानी जाए, ये उसने सोचा भी नहीं था ।
पर जैसे-जैसे समय बीतने लगा, उस पर यह सच सामने आने लगा कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही, जो दस-बारह दिन पहले थी। रिश्तेदारों के बुलावे में चीनी, मिठाई, दही, अचार आदि आ रहे थे। बड़ी बहू इन चीज़ो को घर की मुखिया की तरह सँभालकर रख रही थी। कोई भी उससे पूछने नहीं आता। बिरादरी के लोग जो कुछ पूछते हैं, कामतानाथ से या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहाँ का बड़ा इंतजाम करने वाला है,रात-दिन भांग पिये पड़ा रहता हैं, किसी तरह रो-धोकर दफ्तर चला जाता है। उसमें भी महीने में पंद्रह छुट्टी से कम नहीं होते। वह तो कहो, साहब पंडितजी की शर्म करता है, नहीं तो अब तक कब का निकाल देता। और बड़ी बहू जैसी फूहड़ औरत भला इन सब बातों को क्या समझेगी! अपने कपड़े तक तो ठीक से रख नहीं सकती, चली है गृहस्थी चलाने|

सब जगह बुराई होगी और क्या। सब मिलकर खान-दान की इज्जत गवांयेंगे। वक्त पर कोई-न-कोई चीज कम हो जायेगी। इन कामों के लिए बड़ा अनुभव चाहिए। कोई चीज तो इतनी बन जायेगी कि इधर-उधर  पड़ी रहेगी। कोई चीज इतनी कम बनेगी कि किसी की थाली में पहुँचेगी, किसी पर नहीं।पर इन सब को हो क्या गया है? अच्छा, बहू पैसों वाली अलमारी क्यों खोल रही है? वह मुझसे पूछे बिना पैसों वाली अलमारी खोलने वाली कौन होती है? चाभी उसके पास है जरूर, लेकिन जब तक मैं रूपये न निकलवाऊँ, तो पैसे वाली अलमारी नहीं खुलती। आज तो इस तरह खोल रही है, जैसे मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा!
वह गुस्से में उठी और बहू के पास जाकर कठोर आवाज में बोली- “”पैसे वाली अलमारी क्यों खोलती हो बहू, मैंने तो खोलने को नहीं कहा?””(फूलमती ने कहा)

बड़ी बहू ने बिना हिचक से जवाब दिया- “”बाजार से सामान आया है, तो पैसे देने है।””
“”कौन चीज किस भाव में आयी है और कितनी आयी है,  मुझे कुछ नहीं पता ! जब तक हिसाब-किताब न हो जाये, रूपये कैसे दिये जायँ?”” (फूलमती सोचने लगी)
बड़ी बहू- “”हिसाब-किताब सब हो गया है।””
“”किसने किया?”” (फूलमती ने पूछा)

“”अब मैं क्या जानूँ किसने किया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे तो कहा, रूपये लाकर दे दो, लेकर जा रही हूँ !’”” (बड़ी बहु ने कहा)
फूलमती ने गुस्से को दबाया। यह गुस्सा दिखने का समय नहीं था। घर में मेहमान भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को डाँटा, तो लोग यही कहेंगे कि इनके घर में पंडितजी के मरते ही फूट पड़ गयी। दिल को समझा कर फिर अपने कमरे में चली गयी। जब मेहमान चले जायेंगे, तब वह एक-एक  से बात करेगी| तब देखेगी, कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है। इन चारों को बताएगी।

Puri Kahaani Sune

(hindi) GUPT DHAN

(hindi) GUPT DHAN

“बाबू हरिदास के ईंट बनाने की भट्ठी शहर से मिली हुई थी । आसपास के देहातों से हज़ारों आदमी और औरतें रोज़ आते और भट्ठी से ईंट सिर पर उठा कर ऊपर लाइन से सजाते। एक आदमी भट्ठी के पास एक टोकरी में कौड़ियाँ लिए बैठा रहता था। मजदूरों को ईंटों की संख्या के हिसाब से कौड़ियाँ बाँटता। ईंटें जितनी ज्यादा होतीं उतनी ही ज्यादा कौड़ियाँ उसे मिलतीं थीं। इस लालच में बहुत से मजदूर अपनी क्षमता के बाहर काम करते। बूढ़ों  और बच्चों को ईंटों के बोझ से अकड़े हुए देखना बहुत ही दुखद नज़ारा था। कभी-कभी बाबू हरिदास ख़ुद आकर कौड़ीवाले के पास बैठ जाते और ईंटें लादने को प्रोत्साहित करते।

यह नज़ारा तब और भी दुखद  हो जाता था जब ईंटों की आम से ज़्यादा ज़रुरत आ पड़ती। उसमें मजदूरी  दुगनी कर दी जाती और मजदूर  लोग अपनी क्षमता  से दुगनी  ईंटें ले कर चलते। एक-एक कदम उठाना मुशकिल हो जाता। उन्हें सिर से पैर तक पसीने में डूबे भट्टी की राख चढ़ाये ईंटों का पहाड़ सिर पर रखे, बोझ से दबे देख कर ऐसा लगता था मानो लालच का भूत उन्हें जमीन पर पटक कर उनके सिर पर सवार हो गया है। सबसे दुखदायी दशा एक छोटे लड़के की थी जो हमेशा अपनी उम्र के लड़कों से दुगनी ईंटें उठाता और सारे दिन जी तोड़ मेहनत  और धीरज के साथ अपने काम में लगा रहता। उसके चेहरे पर ऐसी दीनता छायी रहती थी, उसका शरीर इतना कमज़ोर  था कि उसे देख कर दया आ जाती थी।

दूसरे लड़के बनिये की दुकान  से गुड़ ला कर खाते, कोई सड़क पर जाने वाले इक्कों और हवा गाड़ियों की बहार देखता और कोई अपनी अपनी लड़ाई में अपनी जीभ और बाहुबल के जौहर दिखाता, लेकिन इस गरीब लड़के को अपने काम से काम था। उसमें लड़कपन की न चंचलता थी, न शरारत, न खिलाड़ीपन, यहाँ तक कि उसके होंठों पर कभी हँसी भी न आती थी। बाबू हरिदास को उसकी दशा पर दया आती। कभी-कभी कौड़ीवाले को इशारा करते कि उसे हिसाब से ज़्यादा कौड़ियाँ दे दो। कभी-कभी वे उसे कुछ खाने को दे देते।

एक दिन उन्होंने उस लड़के को बुला कर अपने पास बैठाया और उसका हालचाल पूछने लगे। उन्हें पता चला कि उसका घर पास ही के गाँव में है। घर में एक बूढ़ी माँ के सिवा कोई नहीं है और वह माँ भी किसी पुराने रोग से बीमार रहती है। घर का सारा भार इसी लड़के के सिर था। कोई उसे रोटियाँ बनाकर देने वाला भी न था। शाम को जाता तो अपने हाथों से रोटियाँ बनाता और अपनी माँ को खिलाता था। जाति का ठाकुर था। किसी समय उसका कुल दौलत जायदाद से सम्पन्न था। लेन-देन होता था और चीनी का कारखाना चलता था। कुछ जमीन भी थी लेकिन भाइयों की होड़ और जलन ने उसे इतनी बुरी हालत में पहुँचा दिया कि अब रोटियों के लाले थे। लड़के का नाम मगनसिंह था।

हरिदास ने पूछा- “गाँव वाले तुम्हारी कुछ मदद नहीं करते?”
मगन- “वाह, उनका वश चले तो मुझे मार डालें। सब समझते हैं कि मेरे घर में रुपये गड़े हैं”।

हरिदास ने उत्सुकता से पूछा- “पुराना घराना है, कुछ-न-कुछ तो होगा ही। तुम्हारी माँ ने इस बारे  में तुमसे कुछ नहीं कहा ?”
मगन- “बाबूजी नहीं, एक पैसा भी नहीं। रुपये होते तो अम्माँ इतनी तकलीफ क्यों उठातीं”।

बाबू हरिदास मगनसिंह से इतने ख़ुश  हुए कि मजदूरी के काम से निकालकर अपने नौकरों में रख लिया। उसे कौड़ियाँ बाँटने का काम दिया और भट्टी में मुंशी जी को हिदायत दे दी कि इसे कुछ पढ़ना-लिखना सिखाइए। अनाथ के भाग्य जाग उठे।

मगनसिंह बहुत मन लगाकर काम करता था और काफ़ी बुद्धिमान भी था। उसे कभी देर न होती, वो कभी छुट्टी न करता । थोड़े ही दिनों में उसने बाबू साहब का विश्वास जीत लिया। लिखने-पढ़ने में भी माहिर हो गया।

बरसात के दिन थे। भट्टी में पानी भरा हुआ था। काम धंधा बंद था। मगनसिंह तीन दिनों से हाजिर नहीं हुआ था। हरिदास को चिंता हुई, क्या बात है, कहीं बीमार तो नहीं हो गया, कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी ? कई आदमियों से पूछताछ की, पर कुछ पता न चला ! चौथे दिन पूछते-पूछते मगनसिंह के घर पहुँचे। घर क्या था पुराने ठाटबाट के नाम पर टूटा फूटा घर रह गया था । उनकी आवाज सुनते ही मगनसिंह बाहर निकल आया। हरिदास ने पूछा- “कई दिन से आये क्यों नहीं, माँ का क्या हाल है ?”

मगनसिंह ने भरे गले से जवाब दिया- “अम्माँ आजकल बहुत बीमार है, कहती है अब न बचूँगी। कई बार आपको बुलाने के लिए मुझसे कह चुकी है, पर मैं संकोच के मारे आपके पास न आता था। अब आप सौभाग्य से आ गये हैं तो जरा चल कर उसे देख लीजिए। उसकी इच्छा भी पूरी हो जाय”।

Puri Kahaani Sune…

(hindi) Ghaaswali

(hindi) Ghaaswali

“मुलिया हरी-हरी घास की गठरी  लेकर आयी, उसके चेहरे पर गुस्सा था और बड़ी-बड़ी शराबी आँखो में डर दिखाई दे रहा था । महावीर ने उसका गुस्से से भरा चेहरा देखकर पूछा- क्या बात  है मुलिया, क्या हाल  है?
मुलिया ने कुछ जवाब न दिया- उसकी आँखें में आंसू आ गए। 
महावीर ने पास  आकर पूछा- क्या हुआ है, बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है, अम्माँ ने डाँटा है, क्यों इतनी उदास है?
मुलिया ने सिसककर कहा- कुछ नहीं, हुआ क्या है, ठीक तो हूँ?

महावीर ने मुलिया को ऊपर से नीचे  तक देखकर कहा- रोती ही रहेगी या कुछ बताएगी भी -क्या हुआ है ?
मुलिया ने बात बदल कर  कहा- कोई भी बात नहीं है, क्या बताऊँ।

मुलिया इस उम्र  में गुलाब का फूल थी। गेहूं के जैसा रंग, हिरन सी आँखें, नीचे खिंची हुई ठुड्डी, गालों पर हल्की लालिमा, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें, आँखो में एक अजीब सी नमी , जिसमें  एक दर्द अंदर ही अंदर साफ़ नजर आता  था । पता  नहीं, चमारों के इस घर में वह परी कहाँ से आ गयी थी। क्या वो  फूल के जैसे कोमल इस लायक थी, कि सर पर घास की टोकरी रखकर बेचने जाती? उस गाँव में कुछ ऐसे भी लोग  थे, जो उसके पैरो के नीचे आँखें बिछाते थे, उसकी एक झलक  के लिए तरसते थे, जिनसे अगर वह एक बार बात भी कर लेती तो वो खुश हो जाते।

लेकिन उसे आये साल-भर से ज्यादा हो गया, किसी ने उसे लड़को की ओर देखते या बातें करते नहीं देखा था। वह घास लेकर निकलती, तो ऐसा लगता, जैसे  सूरज की सुनहरी  किरणे फ़ैल गयी हो । कोई गजलें गाता, कोई छाती पर हाथ रखता, पर मुलिया नीची आँख किये अपने रास्ते चली जाती। लोग हैरान होकर कहते- इतना घमंड! महावीर में ऐसी भी क्या खास बात है ? इतना जवान भी तो नहीं, पता नहीं यह कैसे उसके साथ रहती है!

मगर आज ऐसी बात हो गयी, जो इस जाति की और लड़कियों के लिए चाहे गुप्त संदेश होती, मुलिया के दिल में तीर की तरह चुभती थी । सुबह  का समय था, हवा में आम के फूलो की खुशबू थी, आसमान से सोने की बारिश हो रही थी। मुलिया सिर पर टोकरी रख कर घास काटने चली, तो उसका गेहुआँ रंग सुबह की सुनहरी किरणों से सोने की तरह चमक उठा। तभी एक आदमी चैनसिंह सामने से आता हुआ दिखाई दिया। मुलिया ने चाहा कि बचकर निकल जाय; मगर चैनसिंह ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला- मुलिया, तुझे क्या मुझ पर जरा भी दया नहीं आती?

मुलिया का फूल-सा खिला हुआ चेहरा आग  की तरह जलने लगा । वह जरा भी नहीं डरी, जरा भी न झिझकी, टोकरी जमीन पर गिरा दिया, और बोली- मुझे छोड़ दो, नहीं तो मैं शोर मचाती हूँ।
चैनसिंह को आज जीवन में एक नया अनुभव हुआ। नीची जाती में सुंदरता का इसके सिवा और काम ही क्या है कि वह ऊँची जातवालों का खिलौना बने।ऐसी हरकते कितनी ही बार उसने की थी। पर आज मुलिया के चेहरे का रंग, उसका गुस्सा और घमंड देखकर वह डर गया ।

उसने शर्मिंदा होकर उसका हाथ छोड़ दिया। मुलिया जल्दी  से आगे बढ़ गयी। लड़ाई की गरमा गरमी में चोट का दुःख नहीं होता, दर्द होता है। मुलिया जब कुछ दूर निकल गयी, तो गुस्से, डर और अपने कुछ न कर सकने का सोच कर उसकी आँखो में आँसू भर आये। उसने कुछ देर रोकने की कोशिश की, फिर सिसक-सिसक कर रोने लगी। अगर वह इतनी गरीब न होती, तो किसी की क्या हिम्मत थी कि इस तरह उसकी बेइज्जती करता। 

वह रोती जाती थी और घास काटती जाती थी। महावीर का गुस्सा वह जानती थी। अगर वो उसे बता  दे, तो वह इस ठाकुर को जान से ही ना मार दे । फिर न जाने क्या होगा।  ये सोच कर वह डर गयी । इसीलिए उसने महावीर के सवालो  का कोई जवाब नहीं दिया।

Puri Kahaani Sune…

(hindi) DO BHAI

(hindi) DO BHAI

“सुबह –सुबह  सूरज की सुहानी सुनहरी धूप में कलावती दोनों बेटों को गोद में बैठाकर दूध और रोटी खिला रही थी । केदार बड़ा था, माधव छोटा। दोनों मुँह में निवाला लिये, कई क़दम  उछल-कूद कर फिर गोद में आ बैठते और अपनी तोतली बोली में इस प्रार्थना की रट लगाते, जिसमें एक पुराने भावुक कवि ने किसी ठंड के सताये हुए बच्चे के दिल की बात को प्रकट किया है-

दैव-दैव घाम करो तुम्हारे बालक को लगता जाड़

माँ उन्हें पुचकारकर बुलाती और बड़े-बड़े निवाले खिलाती। उसके दिल में प्रेम की उमंग थी और आँखों में गर्व की झलक। दोनों भाई बड़े हुए। साथ-साथ गले में बाँहें डाले खेलते थे। केदार की बुद्धि तेज़ थी। माधव का शरीर फ़ुर्तीला था । दोनों में इतना प्रेम था कि साथ-साथ स्कूल जाते, साथ-साथ खाते और साथ साथ रहते थे ! समय के साथ दोनों भाइयों की शादी हुई । केदार की पत्नी चम्पा बोलने में चतुर और चंचल थी। माधव की पत्नी श्यामा साँवली-सलोनी, रूप की खान थी। बड़ा ही मीठा बोलने वाली, बड़ी ही सुशील और शांत स्वभाव की थी।

केदार चम्पा पर मोहित था  और माधव श्यामा पर। लेकिन कलावती का मन किसी से न मिला। वह दोनों से ख़ुश और दोनों से नाख़ुश थी। उसकी शिक्षा-दीक्षा का बहुत हिस्सा इस बेकार की कोशिश में ख़र्च होता था कि चम्पा अपने बोलने की चतुराई का कुछ हिस्सा श्यामा के शांत स्वभाव से बदल ले।
दोनों भाई के बच्चे हुए । हरा-भरा पेड़ खूब फैला और फलों से लद गया। मुरझाए पेड़ में सिर्फ़ एक फल दिखाई दिया , वह भी कुछ पीला-सा, मुरझाया हुआ; लेकिन दोनों नाख़ुश थे। माधव को दौलत-जायदाद का लालच था और केदार को संतान की इच्छा।

भाग्य की इस कूटनीति ने धीरे-धीरे ज़हर का रूप ले लिया , जो स्वाभाविक था। श्यामा अपने लड़कों को सँवारने-सुधारने में लगी रहती; उसे सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती थी। बेचारी चम्पा को चूल्हे में जलना और चक्की में पिसना पड़ता। यह अन्याय  कभी-कभी कड़वे शब्दों में निकल आती थी । श्यामा सुनती, कुढ़ती और चुपचाप सह लेती। लेकिन उसकी यह सहनशीलता चम्पा के गुस्से को शांत करने के बदले और बढ़ा देती। यहाँ तक कि प्याला पूरा ऊपर तक भर गया। हिरन भागने का रास्ता न पा कर शिकारी की तरफ लपका। चम्पा और श्यामा अलग अलग हो गयीं। उस दिन एक ही घर में दो चूल्हे जले, लेकिन भाइयों ने दाने की सूरत न देखी और कलावती सारे दिन रोती रही।

कई साल बीत गये। दोनों भाई जो किसी समय एक ही साथ बैठते थे, एक ही थाली में खाते थे और एक ही माँ का दूध पीते थे, उन्हें अब एक घर में, एक गाँव में रहना मुश्किल हो गया। लेकिन ख़ानदान के नाम में दाग न लगे, इसलिए जलन और गुस्से की धधकी हुई आग को राख के नीचे दबाने की बेकार कोशिश की जाती थी। उन लोगों में अब भाई का प्रेम न था। सिर्फ़  भाई के नाम की शर्म थी। माँ भी जिंदा थी, पर दोनों बेटों का मन मुटाव देख कर आँसू बहाया करती। दिल में प्रेम था, पर आँखों  में अभिमान न था। कुसुम वही था, लेकिन वह चमक  न थी।

दोनों भाई जब बच्चे थे, तब एक को रोता देख दूसरा भी रोने लगता, तब वह नादान, नासमझ और भोले थे। आज एक को रोते हुए देख दूसरा हँसता और तालियाँ बजाता है । अब वह समझदार और बुद्धिमान जो हो गये हैं।

जब उन्हें अपने-पराये की पहचान न थी, उस समय अगर कोई छेड़ने के लिए एक को अपने साथ ले जाने की धमकी देता, तो दूसरा जमीन पर लोट जाता और उस आदमी का कुर्ता पकड़ लेता। अब अगर एक भाई को मौत भी धमकाती तो दूसरे के आँखों में आँसू न आते। अब उन्हें अपने-पराये की पहचान हो गयी थी।

बेचारे माधव की दशा दयनीय थी। खर्च ज़्यादा था और आमदनी कम। उस पर कुल-मर्यादा की ज़िम्मेदारी । दिल चाहे रोये, पर होंठ हँसते रहें। दिल चाहे मैले हो, पर कपड़े मैले न हों। चार बेटे थे, चार बेटियाँ और ज़रूरी सामान महँगा हो गया था । कुछ पैसों की जमींदारी कहाँ तक घर संभालती। लड़कों की शादी अपने वश की बात थी। पर लड़कियों की शादी कैसे टल सकती है । दो पाई जमीन पहली बेटी की शादी में भेंट हो गयी। उस पर भी बराती बिना भात खाये आँगन से उठ गये। बची हुई दूसरी बेटी की शादी में निकल गयी। साल भर बाद तीसरी लड़की की शादी हुई , पेड़-पत्ते भी न बचे। हाँ, अब की डाल भरपूर थी। लेकिन गरीबी और गिरवी रखे हुए सामान में वही रिश्ता है जो मांस और कुत्ते में होता है ।

Puri Kahaani Sune….

(hindi) BODH

(hindi) BODH

“पंडित चंद्रधर ने अपर प्राइमरी में पढ़ाने का काम तो कर लिया था, लेकिन हमेशा पछताया करते थे, कि कहाँ से इस मुसीबत में आ फँसे। अगर किसी दूसरे दफ्तर में नौकर होते, तो अब तक थोड़े पैसे जुड़ गए होते, आराम से जीवन गुजरता| यहाँ तो महीने भर काम करने के बाद कहीं पंद्रह रुपये देखने को मिलते हैं। वह भी एक तरफ से आये, दूसरी तरफ से चले जाते हैं | न खाने का सुख, ना पहनने का आराम। हमसे तो मजदूर ही अच्छे हैं।

पंडितजी के पड़ोस में दो और लोग रहते थे। एक ठाकुर अतिबलसिंह, वह थाने में हेड कान्सटेबल थे। दूसरे मुंशी बैजनाथ, वह तहसील में हिसाब किताब लिखते थे| इन दोनों आदमियों की तनख्वाह पंडित जी से कुछ ज्यादा नहीं थी , तब भी उनकी जिंदगी आराम  से गुजरती थी। शाम को वह कचहरी से आते, बच्चों को पैसे और मिठाइयाँ देते। दोनों आदमियों के पास नौकर थे। घर में कुर्सियाँ, मेज़, फर्श जैसे सामान मौजूद थे। ठाकुर साहब शाम को आराम-कुर्सी पर लेट जाते और खुशबूदार तम्बाखू  पीते। मुंशीजी को शराब-कवाब की आदत थी। अपने सजे-सजाये कमरे में बैठे हुए बोतल-की-बोतल पी जाते| जब कुछ नशा होता तो हारमोनियम बजाते, सारे मुहल्ले में उनका दबदबा था। उन दोनों को आता देखकर दुकानदार उठकर सलाम करते। उनके लिए बाजार में अलग भाव था। महंगी चीज सस्ते में लाते। जलाने वाली लकड़ी मुफ्त में मिल जाती ।

पंडितजी उनके इस ठाट-बाट  को देखकर जलते थे और अपने भाग्य को बुरा-भला कहते रहते। वह लोग इतना भी नहीं जानते कि धरती, सूरज का  चक्कर लगाती है या सूरज धरती का | आसान से पहाड़ों की भी जानकारी नहीं थी, उस पर भी भगवान ने उन्हें इतना  कुछ दे रखा था। यह लोग पंडितजी पर बड़ी मेहरबानी रखते थे। कभी थोड़ा बहुत दूध भेज देते, कभी थोड़ी सी सब्जियां दे देते लेकिन इनके बदले में पंडितजी को ठाकुर साहब के दो और मुंशीजी के तीन लड़कों की देख-रेख करनी पड़ती। 

ठाकुर साहब कहते- “”पंडित जी ! यह लड़के हर समय खेला करते हैं, जरा इनका ध्यान रखा कीजिए “”। मुंशीजी कहते- “”यह लड़के आवारा होते  जा रहे हैं। जरा इनका ध्यान रखिए”। यह बातें बहुत एहसान जताते हुए रौब के साथ कही जाती थीं, जैसे पंडितजी उनके गुलाम हैं। पंडितजी को यह व्यवहार अच्छा नहीं लगता था, लेकिन इन लोगों को नाराज करने की हिम्मत नहीं कर सकते थे, उनके कारण कभी-कभी दूध-दही  मिल जाता था, कभी अचार-चटनी का स्वाद भी चख लेते थे। इतना ही नहीं, बाजार से चीजें भी सस्ती ले आते थे। इसलिए बेचारे इस नाइंसाफी को जहर के घूँट की तरह पीते रहते।

इस बुरे जीवन से निकलने के लिए उन्होंने बड़ी कोशिश की| अपने हालात पर चिट्ठियां लिखीं, अफसरों की चापलूसी कीं, पर इच्छा पूरी नहीं हुई। अंत में हारकर बैठ गए|  हाँ, इतना जरूर था कि अपने काम में गलती नहीं होने देते थे| ठीक समय पर जाते, देर में वापस आते, मन लगाकर पढ़ाते। इससे उनके अफसर लोग खुश थे। उन्हें साल में कुछ इनाम देते और तनख्वाह बढ़ने का जब समय आता, तो उनका अच्छे से ध्यान रखा जाता। लेकिन इस दफ्तर की तनख्वाह बढ़ना बंजर में खेती जैसा है। बड़े भाग्य से हाथ में आती थी। गांव के लोग उनसे खुश थे, लड़कों की गिनती बढ़ गई थी और स्कूल के लड़के तो उन पर जान देते थे। कोई उनके घर आकर पानी भर देता,कोई उनकी बकरी के लिए पत्ती तोड़ लाता। पंडितजी इसी को बहुत समझते थे।

एक बार सावन के महीने में मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबलसिंह ने श्रीअयोध्याजी की यात्रा की तैयारी की। दूर की यात्रा थी। कई दिनों पहले से तैयारियाँ होने लगीं। बरसात के दिन थे , पूरे परिवार के साथ जाने में दिक्कत थी। लेकिन घर की औरतें किसी भी तरह नहीं मान रही थीं। अंत में तंग आकर दोनों लोगों ने एक-एक हफ्ते की छुट्टी ली और अयोध्याजी चले। पंडितजी को भी साथ चलने के लिए जबरदस्ती मनाया | मेले में एक फालतू आदमी से बड़े काम लिए जाते हैं। पंडितजी सोच में पड़ गए, लेकिन जब वह लोग उनका खर्चा देने को तैयार हो गए तो  मना नहीं कर सके और अयोध्याजी की यात्रा का ऐसा सुन्दर मौका पा कर नहीं रुक सके।

Puri Kahaani Sune….

(hindi) BETI KA DHAN

(hindi) BETI KA DHAN

“बेतवा नदी दो ऊँचे किनारों के बीच इस तरह मुँह छिपाये हुए थी जैसे साफ दिलों में हिम्मत और उत्साह की धीमी रोशनी छिपी रहती है। इसके एक किनारे पर एक छोटा-सा गाँव बसा है जो अपने टूटे हुए जातीय निशानियों के लिए बहुत ही मशहूर है। जातीय कहानियों और निशानियों पर मर मिटने वाले लोग इस पवित्र जगह पर बड़े प्यार और श्रद्धा के साथ आते और गाँव का बूढ़ा नाविक सुक्खू चौधरी उन्हें घूमता और रानी के महल, राजा का दरबार और कुँवर की बैठक के मिटे हुए निशानियों को दिखाता। वह आंहें भरते हुए, भरे हुए गले से कहता, “”महाशय ! एक वह समय था कि नाविकों को मछलियों के इनाम में अशर्फियाँ मिलती थीं। नौकर महल में झाडू देते हुए अशर्फियाँ बटोर ले जाते थे। बेतवा नदी रोज चढ़ कर महाराज के पैर छूने आती थी। यह प्रताप और यह तेज था, लेकिन आज इसकी यह हालत है।”” इन सुन्दर बातों पर किसी को भरोसा करवाना चौधरी के बस की बात न थी, पर सुनने वाले उसकी अच्छाई और  प्यार को जरूर पसंद करते थे।

सुक्खू चौधरी दयालु आदमी थे, लेकिन जरूरत के जितनी कमाई नहीं थी। तीन लड़के, तीन बहुएँ और कई पोते-पोती थे। लड़की सिर्फ एक गंगाजली थी जिसका अभी तक गौना नहीं हुआ था। चौधरी की यह सबसे छोटी बेटी थी। बीवी के मर जाने पर उसने इसे बकरी का दूध पिला-पिला कर पाला था। परिवार में खाने वाले तो इतने थे, पर कमाने वाला एक ही था। जैसे तैसे कर गुजारा होता था, लेकिन सुक्खू का बुढ़ापा और पुरानी चीजों के बारे में जानकारी ने उसे गाँव में वह मान सम्मान दे रखी थी, जिसे देख कर झगडू साहु अंदर ही अंदर जलते थे। सुक्खू जब गाँव वालों के सामने, अफसरों से हाथ फेंक-फेंक कर बातें करने लगता और खंडहरों को घुमा-फिरा कर दिखाने लगता तो झगडू साहु जो चपरासियों के धक्के खाने के डर से करीब नहीं फटकते थे तड़प-तड़प कर रह जाते। इसलिए वे हमेशा इस  मौके का इंतजार करते रहते जब सुक्खू पर अपने पैसे की धाक जमा सकें।

इस गाँव के जमींदार ठाकुर जीतनसिंह थे, जिनकी बिना पैसे दिए मज़दूरी करवाने की गुंडागर्दी के कारण गाँव वाले परेशान थे। उस साल जब जिला मजिस्ट्रेट का दौरा हुआ और वह यहाँ के पुरानी निशानियों की सैर करने के लिए पधारे, तो सुक्खू चौधरी ने दबी जबान से अपने गाँव वालों की दुख भरी कहानी उन्हें सुनायी। अफसरों से बात करने में उसे थोड़ा भी डर न लगता था। सुक्खू चौधरी को पता था कि जीतनसिंह से झगड़ा करना शेर के मुँह में सिर देना है। लेकिन जब गाँववाले कहते कि “”चौधरी तुम्हारी ऐसे-ऐसे अफसरों से दोस्ती है और हम लोगों का  रात-दिन रोते हुए कटता है तो फिर तुम्हारी यह दोस्ती किस दिन काम आएगी।”” तब सुक्खू की हिम्मत बढ़ जाती। पल भर के लिए वह जीतनसिंह को भूल जाता। मजिस्ट्रेट ने जीतनसिंह से इसका जवाब माँगा। उधर झगडू साहु ने चौधरी की इस हिम्मती बगावत की रिपोर्ट जीतनसिंह को दी।

ठाकुर साहब जल कर आगबबूला हो गये। अपने कर्मचारी से बकाया लगान की किताब माँगी। इत्तेफाक से चौधरी के नाम इस साल का कुछ लगान बाकी था। कुछ तो फसल कम हुई, उस पर गंगाजली की शादी करनी पड़ी। छोटी बहू नथ की रट लगाये हुए थी; वह बनवानी पड़ी। इन सब खर्चों ने हाथ बिलकुल खाली कर दिया। लगान के लिए कुछ ज्यादा चिंता नहीं थी। वह इस घमंड में भूला हुआ था कि जिस जबान में अफसरों को खुश करने की ताकत है, क्या वह ठाकुर साहब पर काम न करेगी ? बूढ़े चौधरी इधर तो अपने घमंड में बेफ़िक्र थे और उधर उन पर बकाया लगान का  मुकदमा लग गया। सम्मन आ पहुँचा। दूसरे दिन पेशी की तारीख पड़ गयी। चौधरी को अपना जादू चलाने का मौका न मिला।

जिन लोगों के बढ़ावे में आ कर सुक्खू ने ठाकुर से छेड़छाड़ की थी, वो नजर भी न आए। ठाकुर साहब के लोग गाँव में चील की तरह मँडराने लगे। उनके डर से किसी को चौधरी से मिलने की हिम्मत न होती थी। कचहरी वहाँ से तीन मील पर थी। बरसात के दिन, रास्ते में जगह जगह पर पानी, भरी हुई नदियाँ, रास्ता कच्चा, बैलगाड़ी नहीं चल रही थी, पैरों में दम नहीं, इसलिए अदालत में मुकदमे का एकतरफा फैसला हो गया।

Puri Kahaani Sune…

(hindi) ANISHT SHANKA

(hindi) ANISHT SHANKA

“चाँदनी रात, हवा के ठंडा झोंके, मनोहर बगीचा । कुँवर अमरनाथ अपने लंबे चौड़े  छत पर लेटे हुए मनोरमा से कह रहे थे- “तुम घबराओ नहीं, मैं जल्द आऊँगा”।
मनोरमा ने उनकी ओर उदास आँखों से देखकर कहा- “मुझे साथ क्यों नहीं ले चलते ?”

अमरनाथ- “तुम्हें वहाँ तकलीफ़ होगी, मैं कभी यहाँ रहूँगा, कभी वहाँ, सारे दिन मारा-मारा फिरूँगा, पहाड़ी देश है, सुनसान  और बंजर जंगल के सिवाय बस्ती का कोसों पता नहीं, उन पर भयंकर जानवरों का डर , तुमसे यह तकलीफें न सही जायँगी”।

मनोरमा- “तुम्हें भी तो इन तकलीफ़ों की आदत नहीं है ”।
अमरनाथ- “मैं आदमी हूँ, ज़रुरत पड़ने पर सभी तकलीफों का सामना कर सकता हूँ”।

मनोरमा- (गर्व से) “मैं भी औरत हूँ, ज़रुरत पड़ने पर आग में कूद सकती हूँ। औरतों की कोमलता आदमियों की कविता और कल्पना है। उनमें शारीरिक क्षमता चाहे न हो पर उनमें वो धीरज और हिम्मत है जिस पर काल की बुरी चिंताओं का जरा भी असर नहीं होता”।

अमरनाथ ने मनोरमा को श्रद्धा की नज़रों से देखा और बोले- “यह मैं मानता हूँ, लेकिन जिस कल्पना को हम सदा  से सच समझते आये हैं वह एक पल में नहीं मिट सकती। तुम्हारी तकलीफ मुझसे न देखी जायेगी, मुझे दुःख होगा। देखो इस समय चाँदनी में कितनी बहार है !”

मनोरमा- “मुझे बहलाओ मत। मैं ज़िद नहीं करती, लेकिन यहाँ मेरा जीवन मुश्किल हो जायेगा। मेरे दिल की दशा अजीब है। तुम्हें अपने सामने न देख कर मेरे मन में तरह-तरह की शंकाएँ होती हैं कि कहीं चोट न लग गयी हो, शिकार खेलने जाते हो तो डरती हूँ कहीं घोड़े ने शरारत न की हो। मुझे कुछ बुरा होने का डर हमेशा सताया करता है”।

अमरनाथ- “लेकिन मैं तो विलास का भक्त हूँ। मुझ पर इतना प्रेम  करके तुम अपने ऊपर अन्याय करती हो”।
मनोरमा ने अमरनाथ को दबी हुई नज़र से देखा जो कह रही थी- “मैं तुम्हें तुमसे ज्यादा पहचानती हूँ”।

बुंदेलखंड में भयंकर अकाल पड़ा था। लोग पेड़ों की छालें छील-छील कर खा रहे थे। भूख की तड़प ने, किन चीज़ों को खानी चाहिए और किसे नहीं, इसकी पहचान मिटा दी थी। जानवरों  का तो कहना ही क्या, इंसान के बच्चे कौड़ियों के मोल बिक रहे थे। पादरियों की चढ़ बनी थी, उनके अनाथालयों में रोज़ बच्चे भेंड़ों की तरह हाँके जाते थे। माँ की ममता मुट्ठी भर अनाज पर कुर्बान हो रही थी । कुँवर अमरनाथ काशी-सेवा-समिति के मैनेजर थे। जब उन्होंने समाचार-पत्रों में यह दिल देहला देने वाले समाचार देखे तो तड़प उठे। समिति के कई नौजवानों  को साथ लेकर वो  बुंदेलखण्ड जा पहुँचे। जाते समय उन्होंने मनोरमा से  वादा किया कि रोज़ ख़त लिखेंगे और मुमकिन हुआ तो जल्द लौट आयेंगे।

एक हफ़्ते तक तो उन्होंने अपना वादा निभाया , लेकिन धीरे-धीरे ख़त में देर होने लगी। अक्सर इलाके डाकघर से बहुत दूर पड़ते थे। वहाँ से रोज़ ख़त  भेजने का बंदोबस्त करना बेहद मुश्किल था।
मनोरमा कुंवर साहब की जुदाई और -दुःख से बेचैन रहने लगी। वह अव्यवस्थित दशा में उदास बैठी रहती, कभी नीचे आती, कभी ऊपर जाती, कभी बाग में जा बैठती। जब तक ख़त न आ जाता वह इसी तरह  चिंतित रहती, ख़त मिलते ही सूखे धान में पानी पड़ जाता।

लेकिन जब ख़त के आने में देर होने लगी तो उसका दुखी-दिल बेसब्र हो गया। वो बार-बार पछताती कि मैं बेकार उनके कहने में आ गयी, मुझे उनके साथ जाना चाहिए था। उसे किताबों से प्रेम था पर अब उनकी ओर ताकने का भी जी न चाहता था । मन बहलाने की चीज़ों से उसे अरुचि-सी हो गयी ! इस तरह एक महीना गुजर गया।

एक दिन उसने सपना देखा कि अमरनाथ दरवाज़े पर नंगे सिर, नंगे पैर, खड़े रो रहे हैं। वह घबरा कर उठ बैठी और बड़ी तेज़ी से में दौड़ती हुई दरवाज़े तक आयी। यहाँ का सन्नाटा देख कर उसे होश आ गया। उसी पल मुनीम को जगाया और कुँवर साहब के नाम ख़त भेजा पर जवाब न आया। सारा दिन गुजर गया मगर कोई जवाब नहीं। दूसरी रात भी गुजरी लेकिन जवाब का पता न था। मनोरमा बिना खाए पिए बेहोशी की हालत  में अपने कमरे में पड़ी रहती। जिसे देखती उसी से पूछती “जवाब आया क्या ?” कोई दरवाज़े पर आवाज देता तो दौड़ी हुई जाती और पूछती “कुछ जवाब आया ?”

उसके मन में तरह-तरह की शंकाएँ उठतीं; वो औरतों से सपने का मतलब  पूछती। सपने के कारण और मतलब पर कई ग्रंथ पढ़ डाले, पर कुछ रहस्य न खुला। औरतें उसे दिलासा देने के लिए कहतीं, कुँवर जी बिलकुल ठीक हैं। सपने में किसी को नंगे पैर देखें तो समझो वह घोड़े पर सवार है। घबराने की कोई बात नहीं। लेकिन रमा को इस बात से तसल्ली  न होती। उसने ख़त के जवाब की रट लगाईं हुई थी, यहाँ तक कि चार दिन गुजर गए।

Puri Kahaani Sune…

(hindi) AGNI SMADHI

(hindi) AGNI SMADHI

“साधु-संतों के साथ में  बुरे भी अच्छे हो जाते हैं, लेकिन पयाग की बुरी किस्मत थी, कि उस पर सत्संग का उल्टा ही असर हुआ। उसे गाँजे, चरस और भांग की आदत लग गयी, जिसका नतीजा यह हुआ कि एक मेहनती, कमाऊ नौजवान  आलस का पुजारी बन बैठा। जीवन की लड़ाई में यह ख़ुशी कहाँ ! किसी बरगद के पेड़ के नीचे धूनी जल रही है, एक जटाधारी महात्मा बैठे हैं, भक्तजन उन्हें घेरे बैठे हुए हैं, और थोड़ी-थोड़ी देर में चरस के दम लग रहे हैं। बीच-बीच में भजन भी हो जाते हैं। मेहनत-मजदूरी में यह सुख कहाँ ! चिलम भरना पयाग का काम था। भक्तों को मरने के बाद में पुण्य-फल की उम्मीद थी, पयाग को तुरंत फल मिलता था, चिलम पर पहला हक उसी का होता था।

महात्माओं के श्रीमुख से भगवत् कथा सुनते हुए वह ख़ुशी से पागल हो उठता, उस पर बेसब्री-सी छा जाती। वह महक, संगीत और रौशनी से भरे हुए एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता था। इसलिए जब उसकी पत्नी रुक्मिन रात के दस-ग्यारह बज जाने पर उसे बुलाने आती, तो पयाग को वह बात बहुत बुरी लगती , संसार उसे काँटों से भरा हुआ जंगल-सा दिखता, खासतौर पर जब घर आने पर उसे पता चलता कि अभी चूल्हा नहीं जला और खाने -पीने की चिंता करनी है। वह जाति का भर था, गाँव की चौकीदारी उसे  बाप दादा से मिली हुई  थी, दो रुपये और कुछ आने वेतन मिलता था। वरदी और साफा मुफ्त।

काम था हफ्ते में एक दिन थाने जाना, वहाँ अफसरों के दरवाजे पर झाडू लगाना, घोड़ो की जगह साफ करना, लकड़ी चीरना। पयाग खून के घूँट पी-पी कर ये काम करता, क्योंकि ये काम न करना, शरीर और पैसे दोनों ही मामले में महँगी पड़ती थीं। आंसू यूं पोंछते थे , कि चौकीदारी में अगर कोई काम था, तो इतना ही, और महीने में चार दिन के लिए दो रुपये और कुछ आने कम न थे। फिर गाँव में भी अगर बड़े आदमियों पर नहीं, तो नीचों पर रोब था। वेतन पेंशन थी और जब से महात्माओं का साथ हुआ, वह पयाग के जेब-खर्च की खाते में आ गयी। इसलिए रोजी-रोटी का सवाल हर दिन परेशानी का कारण बनने लगा। इन सत्संगों के पहले यह पति-पत्नी गाँव में मजदूरी करते थे।

रुक्मिन लकड़ियाँ तोड़कर बाजार ले जाती, पयाग कभी आरा चलाता, कभी हल जोतता, कभी पुर हाँकता। जो काम सामने आ जाए, उसमें लग जाता था। हँसमुख, मेहनती, खुशमिजाज,आजाद आदमी था और ऐसा आदमी कभी भूखा  नहीं मरता। उस पर अच्छा इतना कि किसी काम के लिए 'नहीं' न करता। किसी ने कुछ कहा और वह 'अच्छा भैया' कह कर दौड़ा। इसलिए गाँव में उसका मान था। इसी वजह से काम न होने पर भी दो-तीन साल उसे ज्यादा परेशानी नहीं हुई।

दो वक़्त की रोटी की तो बात ही क्या , जब महतो को यह दौलत नहीं मिल पाई थी, जिनके दरवाजे पर बैलों की तीन-तीन जोड़ियाँ बँधती थीं, तो पयाग किस गिनती में था। हाँ, एक वक्त की दाल-रोटी में शक न था। लेकिन अब यह समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही  थी। उस पर परेशानी यह थी कि रुक्मिन भी अब किसी कारण से ज़्यादा पति की भक्त, सेवा करने वाली और मन से तैयार न थी। नहीं, उतनी चतुरता और बातूनी में हैरान करने वाला  विकास होता जाता था। इसलिए पयाग को किसी ऐसी कामयाबी की जरुरत थी, जो उसकी रोजी -रोटी की चिंता खत्म कर दे और वह बेफिक्र हो कर कीर्तन  और साधु-सेवा में लग जाए।  

एक दिन रुक्मिन बाजार में लकड़ियाँ बेच कर आयी, तो पयाग ने कहा —””ला, कुछ पैसे मुझे दे दे, दम लगा आऊँ।”” 
रुक्मिन ने मुँह फेर कर कहा —””दम लगाने की ऐसी आदत लगी  है, तो काम क्यों नहीं करते ? क्या आजकल कोई बाबा नहीं हैं, जा कर चिलम भरो ?””  
पयाग ने आँख दिखा कर कहा —””भला चाहती है तो पैसे दे दे; नहीं तो इस तरह तंग करेगी, तो एक दिन कहीं चला जाऊँगा, तब रोयेगी।”” रुक्मिन अँगूठा दिखा कर बोली —  “”रोये मेरी बला । तुम रहते भी हो, तो कौन सा सोने का टुकड़ा खिला देते हो ? अब भी मेहनत करती हूँ, तब भी मेहनत करुँगी।”” 
 पयाग- “”तो अब यही फैसला है ?”” रुक्मिन- “”हाँ-हाँ, कह तो दिया, मेरे पास पैसे नहीं हैं।””  
पयाग- “”गहने बनवाने के लिए पैसे हैं, और मैं चार पैसे माँगता हूँ, तो इस तरह जवाब देती है !”” 

रुक्मिन तुनक कर बोली —  “”गहने बनवाती हूँ, तो तुम्हे क्यों जलन होती है ? तुमने तो पीतल का छल्ला भी नहीं बनवाया, या इतना भी नहीं देखा जाता ?””
 पयाग उस दिन घर न आया। रात के नौ बज गये, तब रुक्मिन ने दरवाजे बंद कर लिये। समझी, गाँव में कहीं छिपा बैठा होगा। समझता होगा, मुझे मनाने आयेगी, मेरी बला जाती है। जब दूसरे दिन भी पयाग न आया, तो रुक्मिन को चिंता हुई। गाँव भर ढूंढ आयी। चिड़िया किसी जगह  पर न मिली। उस दिन उसने रोटी नहीं बनायी। रात को लेटी भी तो बहुत देर तक आँखें न लगीं। शंका हो रही थी, पयाग सचमुच घर-गृहस्थी से अलग तो नहीं हो गया।

उसने सोचा,सुबह सभी जगह देखूंगी, किसी साधु-संत के साथ होगा। जाकर थाने में रिपोर्ट कर दूँगी। अभी सुबह हुई थी कि रुक्मिन थाने में चलने को तैयार हो गयी। दरवाजे बंद करके निकली थी कि पयाग आता हुआ दिखाई दिया। पर वह अकेला न था। उसके पीछे एक औरत भी थी। उसकी छींट की साड़ी, रँगी हुई चादर, लम्बा घूँघट और शर्मीली चाल देख कर रुक्मिन का कलेजा धक्-से हो गया। वह एक पल हक्की-बक्की -सी खड़ी रही, तब बढ़ कर पति की नयी पत्नी को दोनों हाथों के बीच में ले लिया और उसे इस तरह धीरे-धीरे घर के अंदर ले चली, जैसे कोई बीमार जिंदगी से तंग हो कर जहर खा रहा हो !

 जब पड़ोसियों की भीड़ हट गयी तो रुक्मिन ने पयाग से पूछा—””इसे कहाँ से लाये ?””
 पयाग ने हँस कर कहा —””घर से भागी जाती थी, मुझे रास्ते में मिल गयी। घर का काम-धंधा करेगी, पड़ी रहेगी।””
रुक्मिन- “”लगता है, मुझसे तुम्हारा जी भर गया।””

पयाग ने तिरछी आँखों से देख कर कहा —””हट पगली ! इसे तेरी सेवा-टहल करने को लाया हूँ।””
रुक्मिन- “”नयी के आगे पुरानी को कौन पूछता है ?””
पयाग- “”चल, मन जिससे मिले वही नयी है, मन जिससे न मिले वही पुरानी है। ला, कुछ पैसा हो तो दे दे, तीन दिन से दम नहीं लगाया, पैर सीधे नहीं पड़ते। हाँ, देख दो-चार दिन इस बेचारी को खिला-पिला दे, फिर तो ख़ुद ही काम करने लगेगी।””

Puri Kahaani Sune….