His Majesty’s Opponent :Subhash Chandra Bose

His Majesty’s Opponent :Subhash Chandra Bose

इंट्रोडक्शन(Introduction)


“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा”, शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने मन में देश प्रेम की लौ जलाने वाले इन शब्दों को नहीं सुना होगा. ये शब्द महान सुभाष चंद्र बोस के हैं. कई लोग उन्हें क्रांतिकारी (रेवोल्यूशनरी), कम्युनिस्ट, नाज़ी पार्टी के हमदर्द कहते हैं. कई उन्हें कट्टरपंथी लीडर कहते हैं. लेकिन सुभाष चंद्र बोस असल में हैं कौन? एक लीडर के रूप में उनका अंतिम गोल क्या था ?

इस बुक में आप जानेंगे कि नेताजी ने पॉलिटिक्स में अपने करियर की शुरुआत कैसे की.आप जानेंगे कि ब्रिटिश सरकार उन्हें एक महान विरोधी के रूप में क्यों देखती थी.आप उनके प्रिंसिपल्स और आदर्शों के बारे में भी जानेंगे.

बोस ने लेटर्स के माध्यम से हिटलर से बातचीत क्यों शुरू की? उन्होंने विदेशों में एक मज़बूत सेना को क्यों लीड किया? वो जापान के इम्पीरियलिस्ट जनरल से क्यों मिले? ये बुक इन सारे सावालों का जवाब देगी.

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गॉड’स बिलवेड लैंड (God’s Beloved Land)

सुभाष का मतलब होता है  “जो बोलने की कला में निपुण हो, जिसकी बातें असरदार होने के साथ-साथ मन को मोह लेती हों.” एक लीडर का काम आर्मी को इंस्पायर करना और उनमें जोश फूँकना होता है इसलिए ये नाम एक लीडर के लिए बिल्कुल फिट बैठता है. सुभाष प्रभावती और जानकीनाथ के नौवी संतान थे.उनकी माँ प्रभावती हाउस वाइफ और  पिता जानकीनाथ लॉयर थे.

सुभाष का जन्म 23 January 1897 कटक, उड़ीसा के एक संपन्न परिवार में हुआ था लेकिन उस वक़्त अकाल का प्रकोप फ़ैला हुआ था. इंडियन हिस्टोरियंस का कहना है कि अकाल का कारण अंग्रेजों की कोलोनियल पॉलिसी  थी. क्वीन विक्टोरिया के अधीन जो काम करते थे उन्होंने भारत को ज़रुरत का सामान जैसे दूध और कुछ खाने की चीज़ें भेजने का फ़ैसला किया. लेकिन भारतीय हिस्टोरियंस ने कहा कि भारत को मौजूदा पॉलिसी में बदलाव की ज़रुरत थी दान की नहीं.
सुभाष कई भाई बहनों के बीच बड़े हुए. वो अपने माता पिता का बहुत सम्मान करते थे. वो एक मेहनती स्टूडेंट थे जो ख़ासकर इंग्लिश में बहुत अच्छे थे.

जब सुभाष टीनएज की उम्र में पहुँचे तो उन्होंने उन सभी struggles को एक्सपीरियंस किया जो हर teenager करता है. हम सब की तरह वो भी कन्फ्यूज्ड थे, दुनिया में अपनी पहचान ढूंढ रहे थे. जीवन की इस हताशा में उन्हें स्वामी विवेकानंद से इंस्पिरेशन मिली.

सुभाष उस समय सिर्फ़ 15 साल के थे लेकिन इस छोटी सी उम्र में भी वो स्वामीजी के संदेश को समझ गए कि भगवान् की सेवा करने के लिए पहले इंसानों की सेवा करना जरूरी है. इस बात को सुनकर सुभाष इस नतीजे पर पहुँचे कि मानवता की सेवा में पूरे देश की सेवा शामिल है.

सुभाष ने मैडिटेशन करना शुरू कर दिया. वो कटक में सामाजिक कार्यों में हाथ बँटाने लगे. उन्होंने उन पेशेंट्स की देखभाल करने में मदद की जो स्मॉल  पॉक्स और कॉलेरा जैसी बीमारियों से पीड़ित थे. इसके साथ-साथ वो कई यूथ organizations में भी शामिल थे.

सुभाष ने कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से फिलोसोफी में BA की डिग्री पूरी की. वो साइकोलॉजी में मास्टर की डिग्री हासिल करने के बारे में सोच ही रहे थे जब उनके पिता ने उन्हें इंडियन सिविल सर्विस ज्वाइन करने के लिए मना लिया.

सुभाष को कैंब्रिज,इंग्लैंड में एडमिशन मिल गया था लेकिन उन्होंने ICS में अपना करियर नहीं बनाया. सोसाइटी में ऊँचा नाम या रूतबा बनाना उनके लिए मायने नहीं रखता था. उन्होंने अपने पेरेंट्स को एक लैटर लिखा कि वो अपना जीवन गरीबी हटाने और लोगों की सेवा करने में समर्पित करना चाहते थे.

लगभग इसी समय महात्मा गांधी साउथ अफ्रीका में 20 साल सेवा करने के बाद भारत लौटे. 1915 तक गांधी जी हिंसा विरोधी समूह के नेता बन गए थे.
सुभाष कैंब्रिज में फिलोसोफी की डिग्री पूरी करने के बाद भारत लौटे. वो अपने देश की सेवा के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने का पक्का इरादा कर चुके थे.

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ड्रीम्स ऑफ़ यूथ  (Dreams of Youth)

इंग्लैंड से लौटने के बाद सुभाष गांधी जी से मिलने गए. गांधी जी ने उन्हें देशबंधु चित्तरंजन दास यासी.आर.दास की शरण में ट्रेनिंग लेने की सलाह दी. दास बंगाल के कांग्रेस लीडर थे.

सुभाष जब दास से मिले तो उन्हें उनसेएक कनेक्शन और जुड़ाव महसूस हुआ. उन्हें सी.आर.दास की सोच और पोलिटिकल विचार बहुत अच्छे लगे. सुभाष उनके समर्पित शिष्य बन गए.

इंडियन नेशनल कांग्रेस स्वराज या “सेल्फ-रूल” पर ज़ोर दे रही थी. गांधीजी ने समझाया कि कांग्रेस अंग्रेजों के गाइडेंस में भारत की अपनी सरकार बनाने की कोशिश कर रही थी. लेकिन आज़ादी की तरफ़ बढ़े हर कदम में अंग्रेज़ बाधा डाल रहे थे.

March 1919 में Rowlatt Act पास किया गया जिसके अनुसार सभी भारतीय लॉ ब्रेकर्स को बिना किसी सुनवाई के गिरफ़्तार किया जाएगा. इसके परिणाम स्वरूप April 1919 में पंजाब में बहुत खून ख़राबा हुआ.

भारत की ये स्तिथि थी जब सी.आर.दास ने सुभाष को बंगाल में नॉन कोऑपरेशन मूवमेंट को लीड करने की ज़िम्मेदारी सौंपी. सुभाष ने एंटी कोलोनियल प्रेस के लिए एक एक्टिव एडिटर और राइटर के रूप में काम किया.

इन क्रांतिकारी एक्टिविटीज के कारण December 1921 से लेकर यूरोप में उनके देश निकाला (exile)  के वक़्त तक उन्हें 11 बार जेल में बंद किया गया. जेल में उन्होंने अपना ज़्यादातर वक़्त किताबें पढ़कर और मैडिटेशनकर के बिताया.

October 1924 में सुभाष को एक सर्च वारंट दिया गया. अंग्रेज अफ़सरों ने bomb और हथियारों के लिए उनके घर की तलाशी ली लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला. सी.आर. दास सहित स्वराज मूवमेंट के 17 और मेंबर्स को भी गिरफ़्तार किया गया.

सच तो ये है कि दास और सुभाष दोनों ही आंतकवाद में विश्वास नहीं करते थे. उनका मानना था कि आंतकवादी तरीकों को इस्तेमाल कर के स्वराज हासिल नहीं किया जा सकता. लेकिन वे गांधीजी की अहिंसा वाली सोच से भी पूरी तरह सहमत नहीं थे.

दास गिरफ्तारी के समय न्याय ना मिलने के कारण बौखलाए हुए थे.उन्होंने कहा, “अगर देश प्रेम अपराध है तो मैं अपराधी हूँ”.

साल 1929 कलकत्ता में सुभाष ने पूरी आज़ादी की मांग पर ज़ोर दिया. ये गांधीजी के डोमिनियन स्टेटस के इरादे के खिलाफ़ था. डोमिनियन स्टेटस में जो स्टेट्स ब्रिटिश रूल के अधीन थे उन्हें अपनी गवर्नमेंट बनाने का मौक़ा दिया जाता है और उन्हें अधिकार भी दिया जाता है लेकिन वे फ़िर भी ब्रिटिश सरकार के अधीन ही होते हैं. बोस को इस बात में शक था कि ब्रिटिश सरकार अगले साल तक भारत की डोमिनियन स्टेटस को मंजूरी देगी.

उन्होंने कहा कि पूरी आज़ादी की माँग भारत में फैली ग़ुलामी की मानसिकता को बदलेगा. लेकिन बोस के प्रस्ताव को कांग्रेस में ज़्यादा वोट नहीं मिले. डोमिनियन स्टेटस के पक्ष में 1350 वोट थे जबकि आज़ादी के लिए सिर्फ़ 973.

इसके अलावा, 1929 में सुभाष ने हुगली डिस्ट्रिक्ट के एक स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन के लिए स्पीच भी दिया.उन्होंने भारत की आज़ादी के संघर्ष में आदमियों के साथ-साथ औरतों, वर्कर्स और नीची जातियों को लड़ने के लिए encourage किया.

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एग्ज़ाइल इन यूरोप  (Exile in Europe)

विएना में बोस को ट्यूबर क्लोसिस का पता चला. डॉक्टरों ने कहा कि वो दूसरे कैदियों से इन्फेक्ट हो सकते थे. ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मेडिकल ट्रीटमेंट के लिए यूरोप जाने की अनुमति दी. वो अब भी बोस को क्रांतिकारी हिंसा में  सहयोगी के रूप में देखते थे.

विएना में बोस की हेल्थ बेहतर होने लगी. लेकिन वो अब भी पेट दर्द से परेशान थे जो उनके गॉल ब्लैडर में पथरी के कारण था. इसके बावजूद, बोस ने यूरोप का दौरा करने का इरादा किया.

उन्होंने सोचा कि भारतीय नेशनलिस्ट्स ने इंटरनेशनल कूटनीति (डिप्लोमेसी) की स्ट्रेटेजी का इस्तेमाल नहीं किया था. उन्होंने भारत की आज़ादी को दुनिया के सामने लाने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. यूरोप में उनके दो ख़ास मकसद थे. पहला,देश के संघर्ष के बारे में वहाँ रह रहे भारतीय स्टूडेंट्स को educate करना. दूसरा, भारत और दूसरे देशों के बीच दोस्ती स्थापित करना. वो भारत की आज़ादी के लिए इंटरनेशनल लीडर्स का सपोर्ट हासिल करना चाहते थे. अगले तीन सालों तक, बोस ने अपने मकसद की दिशा में काम करना जारी रखा. इस समय के दौरान वो एक क्रांतिकारी लीडर से एक इंटरनेशनल डिप्लोमेट में बदल गए थे.

बोस ने सपोर्ट हासिल करने के लिए जर्मनी का दौरा किया. लेकिन वो काफ़ी निराश हुए क्योंकि हिटलर ने कहा कि भारत ब्रिटिश शासन के अधीन रहे वही बेहतर होगा. बोस को एहसास हुआ कि जर्मनी के लोगों में भारत के लिए कोई सहानुभूति नहीं थी. यहाँ तक कि म्युनिक की सड़कों में भी उनके साथ भेदभाव किया गया.

बोस ने इटली, हंगरी, टर्की, रोमेनिया, यूगोस्लाविया और बुल्गारिया का भी दौरा किया. यहाँ उनका अनुभव अच्छा रहा. उन्होंने वहाँ की ख़ूबसूरती और नए नए लोगों से मिलने के एडवेंचर को बहुत एन्जॉय किया.

1934 में बोस अपनी बुक “द इंडियन स्ट्रगल” पर काम करने के लिए विएना में रुक गए. ये 1920 से 1934 तक भारत में आज़ादी के आंदोलन के बारे में था. इस समय के दौरान ही वो अपनी वाइफ एमिली शैंकल से मिले थे.

बोस को अपनी बुक की manuscript पर मदद करने के लिए एक क्लर्क की ज़रुरत थी. अप्लाई करने वाले लोगों में एक एमिली भी थी. बोस कुंवारे ही रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने उन सभी रिश्तों को मना कर दिया था जो उनके परिवार और दोस्तों ने उनके लिए बताए थे.

साथ काम करते करते बोस और एमिली का प्रोफेशनल रिश्ता प्यार में बदलने लगा. एमिली मिलनसार और हँस मुख लड़की थी. बोस उन्हें प्यार से “बाघिनी” कह कर बुलाते थे जिसका बंगाली में मतलब होता है शेरनी. एक परदेसी होने के बावजूद, एमिली के परिवार ने ख़ुशी ख़ुशी इस रिश्ते को अपनाया.
बोस की बुक 1935 में पब्लिश हुई. इसे भारत में बैन कर दिया गया था लेकिन इस बुक को पूरे यूरोप में, लन्दन में काफ़ी पॉजिटिव reviews मिले.

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