(Hindi) You Can Heal Your Life
परिचय (Introduction)
हम सब कभी ना कभी इस दौर से गुज़रे है –लाइफ में बहुत डाउन सा फील होता है, जब हमें कुछ भी मोटिवेट नहीं करता, हमारा एनथूयाज्म (enthusiasm) या कुछ भी कह ले, वो खत्म होने लगता है. ऐसे टाइम में लगता है कि काश कोई हमारी हेल्प करता. लेकिन सोचिये क्या होता है? कभी-कभी ऐसे हालात का सामना हमे अकेले ही करना पड़ता है, कोई भी हमारे काम नहीं आता है. फिर एक ही चीज़ रह जाती है कि –आप अपनी हेल्प खुद करो. लेकिन इससे पहले कि आप भी कभी इस सिचुएशन से गुज़रे, आपको सेल्फ हेल्प फिलोसफी और होलिस्टिक हेल्थ के बेसिक टेनेट्स सीखने होंगे. और इसका सबसे बढ़िया तरीका है कि आप इस बुक को पढ़े जिसका नाम है “यू केन हील योर लाइफ” You Can Heal Your Life”.
वैसे तो ये बुक 1984 में लिखी गयी थी, लेकिन ये आज भी उतनी ही फ्रेश और इनोवेटिव है जितनी कि 35 साल पहले जब छपी थी. लौसे हे (Louise Hay) ने सेल्फ हेल्प बुक्स की एक रेंज निकाली, मैनुयल उअर मेनूस्क्रिप्ट (manuals, and manuscripts,) एक ऐसा ट्रेंड चलाया कि आज भी कई राइटर्स इस ट्रेंड को फोलो कर रहे है. और इसके अलावा सेल्फ हेल्प इंडस्ट्री पहले कभी इतनी पॉपुलर नहीं थी जितनी कि आज है. और ये आगे फ्यूचर में भी इसी तरह फ्लोरिश करती रहेगी.
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रूट्स ऑफ़ प्रोब्लम (Roots of problems)
लौइसे हे (Louise Hay ) क्लियर करते है कि लाइफ में काफी सारी प्रोब्लम्स तो हमारे नेगेटिव सेल्फ बिलिफ्स की वजह से क्रिएट होती है. “मै इस लायक नहीं हूँ या अच्छा/ अच्छी नहीं हूँ” इस तरह की सोच. और देखे जाए तो कुछ मेंटल डिज़ीज़ वाकई में इस फंडामेंटल बिलिफ की वजह से ही होती है अब जैसे कि डिप्रेशन की प्रोब्लम. जैसा सबको पता है कि डिप्रेशन एक सिरियस मेंटल कंडिशन है जो लाइफ के हर एस्पेक्ट को बुरी तरह अफेक्ट कर देता है. करियर, सोशल लाइफ, होबीज़, मोटिवेशन सब कुछ इस डिप्रेशन से अफेक्टेड होते है. आज यू.एस. में 15% पोपुलेशन किसी ना किसी फॉर्म में डिप्रेशन डिसऑर्डर की शिकार है. मेलान्चोलिया (melancholia) (मेंटल डिसऑर्डर के लिए एक और टर्म) के शिकार लोगो में सेल्फ- एमपेथी और सेल्फ केयर की बड़ी कमी होती है. ऐसे लोग खुद को ही हार्म पहुंचाते है.
कई सारी साइकोलोजिकल स्टडीज में प्रूव हुआ है कि डिप्रेसिव लोग हर फेलर के लिए अपने इनर केरेक्टरस्टिक(जैसे बीइंग स्टुपिड) को रिस्पोंसीबल समझते है जबकि सक्सेस मिलने पर वो सोचते है कि किसी खास वजह से उन्हें सक्सेस मिली है जैसे कि मै लकी था कि ये काम हो गया या फिर ये काम तो बड़ा ईजी था. चलो ऐसे बिहेवियर का एक टिपिकल एक्जाम्पल देखते है –मार्क, एक मोडरेट डिप्रेशन का शिकार आदमी, एक एक्जाम की तैयारी कर रहा है. प्रीप्रेरेशन (preparation) के दौरान उसे बड़ी अपने रिजल्ट को लेकर बड़ी नर्वसनेस और एंजाएटी (anxious ) होती है क्योंकि उसमे सेल्फ कांफिडेंस की कमी है, और इसके अलावा उसमे सेल्फकेयर भी कम है, वो पूरा रेस्ट भी नहीं लेता जो उसकी हालत और भी खराब कर देते है. और जब वो फेल हो गया तो उसने खुद से कहा: “मुझे तो पहले ही पता था कि मै फेल हो जाऊंगा,
मै इतना स्टुपिड हूँ कि कभी पास हो ही नहीं सकता. दुख की बात तो ये है कि मार्क इस बात में वाकई बिलीव करता है कि वो स्टुपिड है. हालाँकि वो बाकी फैक्टर्स एकदम इग्नोर कर देता है –जैसे कि वो एक्जाम की तैयारी के चलते काफी एग्जॉस्टेड ( exhausted;) था और इस वजह से पूरी तरह अपनी स्टडी में फोकस नहीं कर पाया. दुसरे वर्ड्स में बोले तो मार्क अनकांशली (unconsciously) मानता है कि “ही इज नोट गुड इनफ (he’s not good enough”) लेकिन मार्क अगर थोडा रियलस्टिक होता तो कुछ ऐसा बोलता: “ओके, कभी कभी मै नेगेटिव सोच लेता हूँ लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि मै स्टुपिड हूँ या हमेशा गलत हूँ” मै भी सही काम कर सकता हूँ”. अब ये एक ज्यादा हेल्दी फंडामेंटल और रियेलस्टिक बिलिफ है
फ्रॉम “आई शुड” एंड “आई मस्ट” टू “आई कुड” (From “I should” and “I must” to “I could”)
जैसा कि हमने लास्ट चैप्टर में देखा, एक्सट्रीमली नेगेटिव बिलिफ्स किसी की भी लाइफ मिज़रेबल बना सकते है. आप देख सकते है कि लोग कुछ ऐसे एक्सक्लेमेशन देते है “ आई हेव टू” , आई शुड”, आई मस्ट” , इन्हें “टाईरेनी ट्रायो” (“Tyranny Trio”) बोलते है. अब इमेजिन करो ये सिचुएशन: आप सुबह जल्दी उठकर ये सोचते है कि आज मै सारा दिन क्या करने वाला हूँ. और आप खुद से बोलते है : “ आज तो मै अपनी बुक के लिए 100 पेजेस ज़रूर लिखूंगा” अब जरा सोचिये आप क्या बोल रह है क्योंकि ये तो ऑलमोस्ट इम्पोसिबल है कि कोई एक दिन में इतने पेजेस लिख सके. तो आप लिखना शुरू करते है और जैसे जैसे टाइम निकलता है आपको रियेलाइज होता है कि आप अपना गोल पूरा नहीं कर पाए. और शाम होते होते आप कम्प्लीटली मिज़रेबल फील करने लगते है. क्योंकि आपने इतना स्ट्रिक्ट गोल सेट किया था कि आप उसे पूरा ही नहीं कर पाए.
तो नेक्स्ट चीज़ आप क्या करेंगे ? आप खुद को ही क्रिटीसाइज़ (criticize ) करने लगेंगे: “मुझसे कुछ नहीं हो पायेगा, मै इस काबिल ही नहीं हूँ कि अपने गोल्स अचीव कर सकूं” इस टाइप की बाते आपके माइंड में आने लगेंगी. लेकिन क्या होता अगर आपने शुरू में ही कोई रियलस्टिक गोल सेट किया होता तो ? चलो माना आप सुबह उठे और आपने बोला: “आज मै उतना करूँगा जितना हो पायेगा, ना ज्यादा ना कम”. अब इस तरह का गोल से करने से आप टेंशन फी होकर अपना काम कर पाएंगे, जितना हुआ तो हुआ नहीं हुआ तो ना सही. सबसे इम्पोर्टेंट बात कि आपको बेकार में खुद को क्रिटिसाइज़ नहीं करना पड़ेगा.
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बिलिफ्स आर ओनली अ कंस्ट्रक्शन, नोट रियेलिटी (Beliefs are only a construction, not reality
ह्यूमन बीइंग्स को अपने आस-पास के माहौल का अच्छे से पता होता है. लेकिन ये अंडरस्टेंडिंग परफेक्ट नहीं है, ये परफेक्ट से कहीं ज्यादा दूर है खासकर जब रोज़मर्रा की बात हो जैसे सोशल रिलेशन और सेल्फ- परसेप्शन (self-perceptions) इसीलिए हमे हमेशा केयरफुल रहना चाहिए कि कहीं हम अपनी रीप्रेजेंटेशन्स ऑफ़ द वर्ल्ड को ग्रांटेड ना ले ले. दुनिया में हर चीज़ बदलती है. यहाँ तक कि मोस्ट पोजिटिव बिलिफ्स भी, चाहे आप माने या ना माने ! जैसे डिप्रेसिव लोग रोंग है कि वे खुद को बुरा और स्टुपिड समझते है वैसे ही वे लोग भी रोंग है जो मेनिएक डिसऑर्डर (manic disorder ) के शिकार है क्योंकि उन्हें ओवर सेल्फ-कॉंफिडेंट की प्रॉब्लम होती है.
एक ही सिक्के के ये साइड्स है. स्पेशली इस कंटेम्पररी वर्ल्ड (contemporary world) में हमें खुद को लेकर बहुत ज्यादा केयरफुल रहने की ज़रूरत है. इन्स्टाग्राम, फेसबुक और बाकी सोशल नेटवर्क्स हमे इस ट्रेप में फंसाने की कोशिश करते है. –और हम और ज्यादा सेल्फ अब्जोरबड (self-absorbed) होते जाते है, हम दूसरो से ज्यादा सिर्फ अपने बारे में अपने फोलोवर्स और लाइक्स के बारे में सोचने लगते है. और प्रॉब्लम वाली बात तो ये है हम खुद पे ही घमंड करने लगते है कि हमारा एक स्ट्रोंग इन्स्टाग्राम अकाउंट है और हमारे इतने हज़ार या लाख फोलोवर्स है. लेकिन हमे ये नहीं भूलना चाहिए कि इस टाइप का सेल्फ कॉंफिडेंट फ्रेजाइल (fragile) होता है, कभी भी टूट सकता है.
रियल सेल्फ कांफिडेंस तब आता है जब हम खुद की मिस्टेक्स और कमियां समझते है. हमे रियेलाइज होता है कि कोई भी परफेक्ट नहीं होता, हम नार्मल ह्यूमन बीइंग है कोई सुपरमेन नहीं. बिलिफ्स सेल्फ- कॉन्सेप्ट्स और रीप्रेजेंटेशन्स अचानक से नहीं आ जाते. उन्हें यंग एज से ही खुद के अंदर कंस्ट्रक्ट करना पड़ता है ताकि हमे बड़े होकर उसे अपनी लाइफ में अप्लाई कर सके. साईंकोलोजिस्ट इस बात को मानते है कि यंग एज से ही बच्चो में स्टोंग बिलिफ्स डेवलप होने लगता है. खुद के प्रति और अपने आस-पास के माहौल के प्रति जो उनके आईडियाज बनते है वो एसेंशियल है. अर्ली चाइल्डहुड में डाईफंक्शनल बिलिफ्स की वजह से ही (dysfunctional beliefs ) पर्सनेलिटी डिसऑर्डर जैसी कई सारी मेंटल प्रोब्लम्स, बाद में डेवलप होने लगती है. इसका एक एक्जाम्पल है :
सारह (Sarah) जब 15 साल की थी तभी से उसमे बॉर्डरलाइन पर्सनेलिटी डिसऑर्डर (borderline personality disorder)के सिम्पटम्स नज़र आने लगे थे अब ये ज़ाहिर सी बात है कि उसकी ये प्रोब्लम काफी यंग एज में ही शुरू हो गयी होगी. इसके कुछ रीजन्स थे, पहला तो ये कि सराह की माँ उसकी बिलकुल भी देखभाल नहीं कर पाई. उसे जब भी कंसोलेशन या एक सेफ, वार्म एनवायरमेंट की ज़रूरत हुई तब उसकी माँ ने कभी भी उसे सपोर्ट नहीं किया. कई बार तो उसकी माँ इतनी कोल्ड और डिस्टेंट हो जाती थी कि सारह को डाउट (doubt) होता था कि वो उसकी सगी माँ है भी या नहीं. इसके अलावा उसके पापा की एब्सेंस (absence) से सिचुएशन और खराब होती चली गयी. वो शायद ही कभी सराह से मिलते और अगर मिलते भी तो उसकी उतनी केयर नहीं करते थे. हालाँकि वो एक अच्छे एक्टर थे लेकिन वो अच्छे पिता बिलकुल भी नहीं थे.
तो अपनी पूरी लाइफ सराह को रिजेक्शन ही मिली, यहाँ तक कि अपने पेरेंट्स से भी. अब एक छोटे बच्चे के लिए इसका क्या मतलब हो सकता है यही ना कि : “मै अच्छी नहीं हूँ इसलिए मुझे कोई प्यार नहीं करता”. और ऐसा बच्चा जब बड़ा होगा तो हैरानी की बात नहीं अगर उसमे प्रोब्ल्मेटिक बिहेवियर दिखने लगे जैसे कि –डेलीक्यूएंशी (delinquency), ड्रग अब्यूज(drug-abuse) इर्रिसपोंसिब्ल सेक्सुअल बिहेवियर (irresponsible sexual behavior) वगैरह. और यही सब सराह के साथ भी हुआ –कहने की ज़रूरत नहीं कि ड्रग्स और बाकी चीजों से उसकी प्रोब्लम हद से ज्यादा बड गयी थी.
साराह जैसे लोगो को सबसे पहले अपनी प्रॉब्लम का रूट ढूँढना चाहिए, उन्हें ये रियेलाइज करना चाहिए कि जो बिलिफ्स उनके अर्ली चाइल्डहुड में डेवलप हुए उसकी वजह से ही आज उनकी ये हालत है. अपने रेकलेस बिहेवियर के लिए खुद को इलज़ाम नहीं देना चाहिए. और अब मोस्ट इम्पोर्टेंट पार्ट : साराह को चाहिए कि वो अपने पेरेंट्स को माफ़ कर दे. क्यों? क्योंकि शायद उनके साथ भी बचपन में कुछ ऐसा ही गुज़रा हो जहाँ उनके कोल्ड और हार्मफुल एनवायरमेंट मिला हो. लौइसे हे (Louise Hay ) इसे कुछ ऐसे एक्सप्लेन करते है:
“अगर आप अपने पेरेंट्स को समझना चाहते है तो उनकी चाइल्डहुड की बाते सुने, और अगर आप कम्पेशन (compassion) के साथ सुनेंगे तो आपको पता चलेगा कि उनके बिहेवियर में रिजिड पैटर्न या उनके फीयर्स कहाँ से आते है, आपके पेरेंट्स जो कुछ आज आपके साथ कर रहे है, हो सकता है कि उनके साथ भी बचपन में कुछ ऐसा ही हुआ हो”.