(hindi) Wings of Fire..

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Wings of fire


मै एक गहरा कुंआ हूँ इस ज़मीन पर बेशुमार लड़के लड़कियों के लिए कि उनकी प्यास बुझाता रहूँ. उसकी बेपनाह रहमत उसी तरह ज़र्रे ज़र्रे पर बरसती है जैसे कुंवा सबकी प्यास बुझाता है. इतनी सी कहानी है मेरी, जैनुलब्दीन और आशिंअम्मा के बेटे की कहानी. उस लड़के की कहानी जो अखबारे बेचकर अपने भाई की मदद करता था. उस शागिर्द की कहानी जिसकी परवरिश शिव सुब्र्यमानियम अय्यर और आना दोरायिसोलोमन ने की. उस विद्यार्थी की कहानी जिसे पेंडुले मास्टर ने तालीम दी, एम्.जी.के. मेनन और प्रोफेसर साराभाई ने इंजीनियर की पहचान दी. जो नाकामियों और मुश्किलों में पलकर सायिन्स्दान बना और उस रहनुमा की कहानी जिसके साथ चलने वाले बेशुमार काबिल और हुनरमंद लोगों की टीम थी.

मेरी कहानी मेरे साथ ख़त्म हो जायेगी क्योंकि दुनियावी मायनों में मेरे पास कोई पूँजी नहीं है, मैंने कुछ हासिल नहीं किया, जमा नहीं किया, मेरे पास कुछ नहीं और कोई नहीं है मेरा ना बेटा, ना बेटी ना परिवार. मै दुसरो के लिए मिसाल नहीं बनना चाहता लेकिन शायद कुछ पढने वालो को प्रेणना मिले कि अंतिम सुख रूह और आत्मा की तस्कीन है, खुदा की रहमत है, उनकी वरासत है. मेरे परदादा अवुल, मेरे दादा फ़कीर और मेरे वालिद जेनालुब्दीन का खानदानी सिलसिला अब्दुल कलाम पर ख़त्म हो जाएगा लेकीन खुदा की रहमत कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि वो अमर है, लाफ़ानी है. मै शहर रामेश्व्र्रम के एक मिडिल क्लास तमिल खानदान में पैदा हुआ. मेरे अब्बा जेनाब्लुदीन के पास ना तालीम थी ना दौलत लेकिन इन मजबूरियों के बावजूद एक दानाई थी उनके पास.

एक हौसला था और मेरी माँ जैसी मददगार थी आशींअम्मा और उनकी कई औलादों में एक मै भी था बुलंद कामिन माँ बाप का एक छोटा सा कदवाला मामूली शक्ल सूरत वाला लड़का. अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे हम जो कभी बीसवी सदी में बना था. काफी बड़ा और वसील मकान था, रामेश्वरम की मस्जिद स्ट्रीट में. मेरे अब्बा हर तरह के ऐशो आराम से दूर रहते थे मगर ज़रूरियत की तमाम चीज़े मुयस्सर थी. सच तो ये है कि मेरा बचपन बड़ा महफूज़ था दिमागी तौर पर भी और ज़ज्बाती तौर पर भी. मटीरियली और इमोशनली. रामेश्वर का मशहूर शिव मंदिर हमारे घर से सिर्फ दस मिनट की दूरी पर था. हमारे इलाके में ज्यादा आबादी मुसलमानों की थी फिर भी काफी हिन्दू घराने थे जो बड़े इत्तेफाक से पड़ोस में रहते थे. हमारे इलाके में एक बड़ी पुरानी मस्जिद थी जहाँ मेरे अब्बा मुझे हर शाम नमाज़ पढने के लिए ले जाया करते थे. रामेश्वरम मंदिर के बड़े पुरोहित बक्षी लक्ष्मण शाश्त्री मेरे अब्बा के पक्के दोस्त थे. अपने बचपन की आंकी हुई यादो में एक याद ये भी थी की अपने अपने रिवायती लिबासो में बेठे हुए वो दोनों कैसे रूहानी मसलो पर देर देर तक बाते करते रहते थे.
मेरे अब्बा मुश्किल से मुश्किल रूहानी मामलो को भी तमिल की आम जबान में बयान कर लिया करते थे. एक बार मुझसे कहा था” जब आफत आये तो आफत की वजह समझने की कोशिश करो, मुश्किल हमेशा खुद को परखने का मौका देती है’

मैंने हमेशा अपनी साईंस और टेक्नोलोजी में अब्बा के उसुलूँ पर चलने की कोशिश की है. मै इस बात पर यकीन रखता हूँ की हमसे ऊपर भी एक आला ताकत है, एक महान शक्ति है जो हमें मुसीबत, मायूसी और नाकामियों से निकाल कर सच्चाई के मुकाम तक पहुचाती है.
मै करीब छेह बरस का था जब अब्बा ने एक लकड़ी की कश्ती बनाने का फैसला किया जिसमे वो यात्रियों को रामेश्वरम से धनुषकोटि का दौरा करा सके. ले जाए और वापस ले आये. वे समुन्दर के साहिल पर लकडिया बिछाकर कश्ती का काम किया करते थे एक और हमारे रिश्तेदार के साथ अहमद जलालुदीन, बाद में उनका निकाह मेरी आपा जोहरा के साथ हुआ. अहमद जलालुदीन हालाँकि मुझसे पंद्रह साल बड़े थे फिर भी हमारी दोस्ती आपस में जम गयी थी. हम दोनों ही शाम लम्बी सैर पर निकल जाया करते थे. मस्जिद गली से निकलकर हमारा पहला पड़ाव शिव मंदिर हुआ करता था, जिसके गिर्द हम उतनी ही श्रधा से परिकर्मा करते थे जितनी श्रधा से बाहर से आये हुए यात्री. जलालुदीन ज्यादा पढ़ लिख नहीं सके उनके घर की हालत की वजह से लेकिन मै जिस ज़माने की बात कर रहा हूँ, उन दिनों हमारे इलाके में सिर्फ एक वही शख्स था जो अंग्रेजी लिखना जानता था.

जलालुदीन हमेशा तालीमयाफ्ता और पढ़े लिखे लोगो के बारे में बाते करते थे. और एक शख्स जिसने बचपन में मुझे बहुत मुद्दफिक किया वो मेरा कजिन था, मेरा चचेरा भाई शमसुदीन और उसके पास रामेश्वरम में अखबारों का ठेका था और सब काम अकेले ही किया करता था. हर  सुबह अखबार रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से पहुचता था. सन 1939 में दूसरी आलमगीर जंग शुरू हुई, द सेकंड वर्ड वार, उस वक्त मै आठ साल का था. हिन्दुस्तान को एह्तियादी फौज के साथ शामिल होना पड़ा और एक इमरजेंसी जैसे हालात पैदा हो गए थे. सिर्फ पहली दुर्घटना ये हुई कि रामेश्वरम स्टेशन पर ट्रेन का रुकना केंसिल कर दिया गया और अखबारों का गठ्ठा अब रामेश्वरम और धनुषकोटी के बीच से गुज़रनेवाली सड़क पर चलती ट्रेन से फेंक दिया जाता. शमसुदीन को मजबूरन एक मददगार रखना पड़ा जो अखबारों के गठ्ठे सड़क से जमा कर सके, वो मौका मुझे मिला और शमसुदीन मेरी पहली आमदनी की वजह बना.

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हर बच्चा जो पैदा होता है वो कुछ समाजी और आर्थिक हालात से ज़रूर बशरमान होता है और कुछ अपने ज़ज्बाती माहौल से भी और उसी तरह उसकी तबियत होती है. मुझमे दयानतदारी और सेल्फ डिसपीलीन अपने अब्बा से वरासत में मिला था और माँ से अच्छाई पर यकीन करना और रहमदिली लेकिन जलालुदीन शम्शुदीन की वजह से जो असर मुझ पर पड़ा उससे मेरा बचपन ही महज़ अलग नहीं हुआ बल्कि आईंदा जिंदगी पर भी उसका बहुत बड़ा असर पड़ा. फिर जंग ख़त्म हो गयी और हिन्दुस्तान की आज़ादी बिलकुल यकीनी हो गयी. मैंने अब्बा से रामेश्वरम छोड़ने की इजाज़त चाही. मै डिस्ट्रिक्ट हेडक्वार्टर रामनाथपुरम जाकर पढना चाहता था. शम्शुदीन और जलालुदीन मेरे साथ रामनाथपुरम तक गए, मुझे स्वार्ट्स हाई स्कूल में दाखिला कराने के लिए. ना जाने क्यों वो नया माहौल मुझे रास नहीं आया. रामनाथपुरम बड़ा मशहूर शहर था और करीब पचास हज़ार की आबादी थी लेकिन रामेश्वरम का सुकून और इत्मीनान कहीं नहीं था. घर बहुत याद आता था और घर लौटने का कोई मौका मै छोड़ता नहीं था.

स्वार्ट्स हाई स्कूल में दाखिले के बाद एक पंद्रह साला लड़के के तमाम शौक जो हो सकते थे, मेरे अन्दर जाग उठे थे. मेरे टीचर अन्ना दोराई सोलोमन बेहतरीन रहबर थे, गाईड उस नौजवान के लिए जिसके सामने जिन्दगी की बेशुमार मुमकीनात खुलने वाली थी. रामनाथपुरम के उस अरसा-ए-कायम में उनसे मेरा रिश्ता उस्ताद शागिर्द या गुरु शिष्य से भी आगे निकल गया. अन्ना दोराई कहा करते थे” जिंदगी में कामयाब होने और नतीजे पाने के लिए तीन चीजों पर काबू पाना बहुत ज़रूरी है, ख्वाहिश यकीन और उम्मीद. अन्ना दोराई जो बाद में रेवेरेंट हो गए, कहा करते थे” इससे पहले की मै चाहू कुछ हो जाए, उससे पहले मेरे अन्दर उसकी पूरी शिद्दत से ख्वाहिश हो और यकीन हो कि वो होगा.” मैं अपनी जिंदगी से अगर मिसाल दूँ तो मुझे बचपन से ही आसमान के इसरार और परिंदों की परवाज़ हमेशा हैरान करती थी, फेसिनेट करती थी. सम्नुदर में कुंजो और बगुलों को ऊँची उड़ाने लगाते देखता था तो उड़ने को जी चाहता था. मै एक सादा सा गाँव का लड़का तो था मगर मुझे यकीन था की एक दिन मै उन कुंजो की तरह बुलंद उड़ान लगाकर बुलंदी पर पहुचुंगा.

और हकीकत ये है की रामेश्वरम से उड़ने वाला मै पहला लड़का था. स्वार्ट्स स्कूल में तालीम हासिल करते करते मेरे अन्दर खुद एतमादी बस चुकी थी और मुझे यकीन था मै ज़रूर कामयाबी हासिल करूँगा. मै तालीम आगे जारी रखूँगा, उसमे कोई दूसरा ख्याल नहीं था. सन1950 में मै इंटर मीडिएट पढने के लिए सेंट जोसेफ कोलेज त्रिची में दाखिल हो गया. जब बी.एस.सी डिग्री करने के लिए मैंने सेंट जोसेफ कोलेज में एडमिशन लिया तो हायर एजुकेशन के माने सितने ही जानता था. ये नहीं जानता था कि हायर एजुकेशन के लिए कुछ और भी हो सकता है, ना ये जानता था कि साईंस पढके फ्यूचर के लिए और क्या हासिल हो सकता है. बी.एस.सी पास करने के बाद ही जान पाया कि फिजिक्स मेरा सब्जेक्ट नहीं था. अपने ख्वाब को पूरा करने के लिए मुझे इंजीनियरिंग में जाना चाहिए था मगर पता नहीं क्यों कुछ लोगो का ऐसा ख्याल है कि साईंस आदमी को खुदा से मुल्कर कर देती है लेकिन मेरे लिए तो साईंस एतमाद, विश्वास और रूहानी तस्कीन की वजह रही है.

किसी तरह मै एम आई टी यानी मद्रास इंजीयरिंग और टेक्नोलोजी के उमीद्वारो की लिस्ट में तो आ गया लेकिन उसका दाखिला बहुत महंगा था कम से कम एक हज़ार रुपयों की ज़रुरत थी और मेरे अब्बा के पास इतने पैसे नहीं थे. उस वक्त मेरी अक्का, मेरी आपा जोहरा ने अपने सोने के कड़े और चेन बेचकर मेरी फीस का इतेजाम किया. उसकी उम्मीद और यकीन देखकर मै पसीज गया. एमाईटी में सबसे ज्यादा मज़ा आया. वहाँ दो हवाई जहाज रखे देखकर, जो उड़ान से बरी कर दिए गए थे एक अजीब सा खिंचाव महसूस होता था. और जब बाकि लड़के हॉस्टल चले जाते थे, मै घंटा डेढ़ घंटा उनके पास बैठा रहता था. फर्स्ट इयर मुक्कमल होने के बाद जब मुझे अपने ज्यादा खशूशी मज़मून चुनने थे तो मैंने फ़ौरन एरोनोटिकल इंजीयरिंग का चुनाव किया. एम आई टी की तालीम के दौरान मुझे तीन टीचर्स ने बहुत मुद्दसर किया. प्रोफ. के.ए.वी. मेंडेलीन, प्रोफ. स्पोंडर, प्रोफ. नरसिम्हाराव. प्रोफ. स्पोंडर टेक्नीकल एरो डायनामिक सिखाते थे.

मेकेनिकल इंजीयरिंग में दाखिले से पहले ही मैंने उनसे सलाह ली थी.  उन्होंने मुझे समझाया था कि” मुस्तकबिल का फैसला करने से पहले मुस्तकबिल की मुमकिनियत के बारे में नहीं सोचना चाहिए बल्कि सोचना चाहिए एक अच्छी बुनियाद के लिए और अपने रुझान और रिश्तियात के बारे में कि उनमे कितनी शिद्दत है, एप्टीटयुड और इन्सिपिरेशन में कितनी इन्टेन्सिटी है. मै खुद भी होने वाले इंजीनियर स्टूडेंट्स से ये कहना चाहता हूँ कि जब वे अपने स्पेशिलाइजेशन का चुनाव करे तो देखना होगा कि उनमे कितना शौक है कितना उत्साह और लगन है उस शौक में जाने के लिए. प्रोफ. के.ए. वी. मेंडेलींन ने मुझे एरो स्ट्रक्चर डिजाइन सिखाया और उसका तंजिया भी. विश्लेषण और एनालिसिस भी. वे बड़े खुशदिल और दोस्त टीचर थे और हर साल कोई ना कोई नया तरीका, नया नजरिया लेकर आते थे. प्रोफ. नरसिंहाराव मेथमेटीशियन थे, वे एरो डायनामिक्स की थ्योरी सिखाया करते थे. उनकी क्लास में शामिल होकर मुझे मेथमेटिक्स फिजिक्स बाकी तमाम सब्जेक्ट से ज्यादा अच्छा लगने लगा.

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