(Hindi) Waiting for a Visa

(Hindi) Waiting for a Visa

प्रीफेस PREFACE

फॉरनर्स बेशक अनटचेबिलिटी के बारे में जानते है लेकिन उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं होगा कि असल में ये किस हद तक अमानवीय है.
उनके लिए तो ये सोचना भी बड़ा अजीब है कि क्यों कुछ मुठ्ठी भर लोग गांव से बाहर अलग-थलग रहने को मजबूर है. वो भी ऐसे गाँव के बाहर जहाँ हिन्दू लोग मेजोरिटी में रहते है.

ये अछूत कहे जाने वाले लोग हर रोज़ गाँव की गलियों से गुजरते हुए गंदगी और कचरा सर पे ढोके लेकर जाते है. हिन्दूओं के दरवाजे पर जाकर उनकी झूठन खाते है

हिन्दू बनिया की दूकान से तेल-मसाले खरीदते है तो वो उन्हें छुए बिना सामान देता है. पूरे गांव को अपना ही घर समझते है फिर भी गांव की किसी चीज़ को छूने का उन्हें हक नहीं है. लोग इनकी परछाई से भी बचकर निकलते है. अगर ये किसी को गलती से भी छू ले तो वो आदमी इन्हें दस गालियाँ देकर तुरंत नहाने चला जाता है. प्रोब्लम ये है कि हिन्दू अछूतों को कैसे ट्रीट करते है, ये कैसे बताया जाये, समझ नहीं आ रहा.

एक जेर्नल डिस्क्रिप्शन या इस छुवाछूत के केस रिकोर्ड और हिन्दूओ का इनके प्रति ट्रीटमेंट , ये दो मेथड है जिनसे ये बात समझाई जा सकती है.
मुझे लगता है कि पहले से दूसरा वाला तरीका ज्यादा इफेक्टिव है.
मैंने जो ये सब बाते लिखी है वो अपने और दूसरो के एक्सपीरिएंस के बेस पर है.
तो अब मै अपने साथ हुई उन बातो से इस कहानी की शुरुवात करता हूँ.
डॉक्टर बी, आर. अम्बेडकर Dr. B. R. Ambedkar

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पार्ट वन (ONE)
कोरेगाँव की वो घटना जो बचपन में घटी थी, आज भी डराती है. A childhood journey to Koregaon becomes a nightmare

हमारी फेमिली असल में बोम्बे प्रेजिडेंसी में रत्नागिरी डिस्ट्रिक के दापोली तालुका से बिलोंग करती है. ईस्ट इंडिया कंपनी के शुरुवाती दिनों में ही मेरे फोरफादर्स ने अपना पुश्तैनी काम छोडकर कंपनी की आर्मी ज्वाइन कर ली थी. मेरे फादर भी फेमिली ट्रेडिशन को आगे बढाते हुए कंपनी की आर्मी में भर्ती हुए. ईस्ट इण्डिया कंपनी में रहते हुए वो ऑफिसर की रेंज तक पहुंचे और सूबेदार बनकर रिटायर हुए थे. रिटायरमेंट के बाद फादर हमे लेकर दापोली में चले आये, हमेशा के लिए वही सैटल होने के लिए. लेकिन फिर कुछ सोचकर उन्होंने अपना इरादा बदल दिया. हम लोग दापोली छोडकर सतारा चले आये थे जहाँ हम 1904 तक रहे थे. वो पहली घटना जहाँ तक मुझे याद आता है यही पर 1901 में घटी थी.

जब हम सतारा में थे मेरी मदर की डेथ हो चुकी थी. मेरे फादर कोरेगांव जोकि सतारा डिस्ट्रिक्ट के खताव तालुका में आता है, वहां पर कैशियर की नौकरी करते थे. इस जगह पर बोम्बे गवर्नमेंट का टैंक खुदाई का काम चल रहा था ताकि वहाँ की गरीब जनता को कुछ काम मिल सके. उस इलाके में हज़ारो लोग भुखमरी से मर रहे है. कोरेगाँव जाने से पहले फादर ने मुझे, मेरे बड़े भाई और मेरी मरी हुई बहन के दोनों बच्चो को हमारी एक रिश्ते की चाची और कुछ मेहरबान पड़ोसियों के भरोसे छोड़ा था. आंटी दिल की बहुत अच्छी थी लेकिन उसका होना ना होना बराबर ही था.

एक तो वो बौनी थी और दूसरा उसके पैरो में कोई बीमारी थी जिसके कारण वो ठीक से चलफिर नहीं पाती थी. कई बार तो हमें उसे उठाना पड़ता था. मेरी और भी बहने थी लेकिन सब शादीशुदा थी और अपने ससुराल वालो के साथ वहां से काफी दूर रहती थी. अब आंटी से तो कुछ काम नहीं होता था इसलिए खाना पकाने की जिम्मेदारी भी हमारे सर थी. हम चारो बच्चे स्कूल जाते थे और अपना खाना भी खुद ही बनाते थे. रोटी बनाने में मुश्किल आती थी इसलिए हम ज्यादातर पुलाव खाते थे–जोकि रोटी बानाने से ईजी काम था,

इसमें ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता था, बस चावलों के साथ मटन मिक्स करके पका लो. कैशियर होने के नाते फादर के लिए स्टेशन छोडकर सतारा आना पॉसिबल नहीं था. इसलिए फादर ने हमें लैटर लिखा कि हम कोरेगाँव आकर गर्मी की छुट्टी में उनके साथ रहे. कोरेगाँव जाने की बात सुनकर हम बच्चे बड़े खुश हुए, स्पेशली उस वक्त तक हममें से किसी ने भी कभी ट्रेन नहीं देखी थी. हमने जोर-शोर से जाने की तैयारी शुरू कर दी. इंग्लिश स्टाइल की नयी शर्ट्स खरीदी गयी, डिजाइन वाली कैप्स, नए शूज़, सिल्क बॉर्डर की धोती, जाने से पहले हमने सब कुछ खरीदा था. फादर ने हमे ट्रेवलिंग के बारे में सब कुछ समझा दिया और ये भी बोला कि डेट हम उन्हें पहले से इन्फॉर्म कर दे ताकि वो हमे लेने अपना पीऑन भेज सके जो हमे रेलवेस्टेशन से कोरेगांव लेकर जाएगा. इस प्रॉपर अरेंजमेंट करने के बाद मै, मेरे बड़े भाई और मेरी सिस्टर के बेटे, हम तीनो कोरेगाँव के लिए निकल पड़े.

आंटी को हमने सतारा में ही छोड़ दिया और पड़ोसियों को उनकी देखभाल करने के लिए बोल दिया था. रेलवे स्टेशन हमारे घर से कोई 10 मील दूर था. हमने स्टेशन जाने के लिए एक तांगा लिया. हम लोग नए-नए कपडे पहन कर बैठे थे और कोरेगाँव जाने के लिए बड़े एक्साईटेड थे. पीछे से हमारी आंटी का रो-रोकर बुरा हाल था, हमसे दूर रहने की बात से ही उनकी आधी जान निकल रही थी. स्टेशन पहुंचकर मेरे भाई ने टिकेट्स ली और मुझे और मेरी सिस्टर के बेटे को दो-दो आने की पॉकेट मनी दी. पैसे हाथ में आते ही हम नवाब हो गए, सबसे पहले तो हमे लेमनेड खरीद कर पी. कुछ टाइम बाद ट्रेन की व्हिसल बजी.

हमे लगा कहीं हम छूट ना जाये इसलिए जल्दी से हम ट्रेन में चढ़ गये. फादर ने हमे मसूर में उतरने को बोला था जो कोरेगाँव के सबसे पास वाला स्टेशन था. ट्रेन शाम के पांच बजे मसूर स्टेशन पर पहुंची. हम लोग अपना सामान लेकर ट्रेन से उतरे. हमारे साथ जो लोग उतरे थे सब अपने-अपने रास्ते जा चुके थे. बस हम चारो ही प्लेटफॉर्म पर रह गए थे, अपने फादर या उनके सर्वेंट के इंतज़ार में जो हमे लेने आने वाले थे. हमने बड़ी देर तक वेट किया मगर कोई नहीं आया. एक घंटे बाद स्टेशन मास्टर हमारे पास आया. उसने हमसे टिकेट दिखाने को बोला तो हमने दिखा दिया.

फिर उसने पुछा”तुम लोग यहाँ क्यों खड़े हो?” हमने बताया कि हमे कोरेगाँव जाना है और हमे लेने हमारे फादर या उनका सर्वेंट आने वाले थे मगर वो लोग आये नहीं. और हमे आगे का रास्ता नही मालूम. हम लोगो के कपडे और हाव-भाव से कोई नहीं बोल सकता था कि हम अछूत है. स्टेशन मास्टर को लग रहा था कि हम शायद ब्राह्मण के बच्चे है इसलिए उसे हमसे बड़ी हमदर्दी हो रही थी. और जैसा कि हिन्दूओं में रिवाज है,उसने हमसे हमारी कास्ट पूछी. एक सेकंड में मेरे मुंह से निकला कि हम महार है( महार कम्यूनिटी को बोम्बे प्रेजिडेंसी में अछूत समझा जाता है) स्टेशन मास्टर के चेहरे पे हवाईयां उड़ने लगी, एक ही पल में उसका रंग बदल गया. उसके चेहरे से नफरत के भाव साफ़ झलक रहे थे, जैसे ही उसने सुना कि हम कौन है,वो तुंरत वापस अपने रूम में चला गया और हम जहाँ थे वही खड़े रहे.

फंद्रह से बीस मिनट और गुजर गए. सूरज डूबने जा रहा था. मेरे फादर और उनके सर्वेंट का कहीं अता-पता नहीं था. लास्ट में स्टेशन मास्टर भी अपने घर चला गया. हम लोग बेहद मायूस हो गए, जिस ख़ुशी और मस्ती में हम घर से निकले थे, अब उदासी में बदल गयी थी.
आधे घटे बाद स्टेशन मास्टर वापस आया और पुछा” अब तुम लोगो ने क्या सोचा है?” हमने कहा” अगर हमे कोई बैलगाडी किराए पर मिल जाए तो हम कोरेगाँव के लिए निकल लेंगे.नहीं तो पैदल ही चले जायेंगे अगर ज्यादा दूर नहीं हुआ तो”

स्टेशन के बाहर कई सारी बैलगाडियां सवारी के इंतज़ार में खड़ी थी मगर हमारे महार होने के बात फ़ैल गयी थी इसलिए कोई भी गाडीवाला हमे ले जाने को तैयार नहीं था. हम अछूत थे ना उनकी गाड़ियों को गन्दा जो कर देते. डबल किराये का ऑफर भी काम नहीं आया. हमारी तरफ से बार्गेन करने वाला स्टेशन मास्टर जो अब तक खड़ा चुपचाप तमाशा देख रहा था, अचानक हमसे पूछने लगा’ क्या तुम बैल गाड़ी चला सकते हो’. हमे लगा शायद वो हमारी हेल्प करना चाहता है तो हमने चिल्लाकर बोला” हाँ हाँ हम चला सकते है”.

“तो ठीक है, बैल गाड़ी तुम चलाओगे मगर तुम्हे गाड़ी वाले को डबल किराया देना होगा और वो पैदल तुम्हारे साथ-साथ चलेगा”. इस शर्त के साथ एक गाड़ीवाला हमे अपनी गाड़ी देने को तैयार हुआ, आखिर होता भी क्यों नहीं, एक तो उसे डबल भाड़ा मिल रहा था और उपर से उसे किसी को अछूत के साथ भी नहीं बैठना पड़ेगा.

अब शाम के छेह बजकर तीस मिनट हो चुके थे, हम रात होने से पहले-पहले कोरेगाँव पहुंचना चाहते थे इसलिए हमने गाड़ीवाले से पहले ही पूछ लिया कि कोरेगांव अभी कितनी दूर है और हमे कितना टाइम लग जाएगा. लेकिन उसने हमे अश्योर किया कि कोरेगाँव तीन घंटे से ज्यादा दूर नहीं है. उसकी बात का यकीन करते हुए हमने अपना सामान चढाया और बैल गाड़ी में बैठ गए, जाने से पहले हमने स्टेशन मास्टर का शुक्रिया अदा किया. हम में से एक ने गाड़ी हांकने की जिम्मेदारी ली और सफ़र शुरू हुआ. गाड़ी वाला हमारे साइड में ही चल रहा था, अभी स्टेशन से कुछ ही दूर एक नदी पडती थी. नदी सूखी पड़ी थी बस कहीं-कहीं पर पानी भरा हुआ था.

गाड़ी वाले ने हमसे बोला” यहाँ रुक कर थोडा खाना-वाना खा लो, आगे रास्ते में पानी नहीं मिलेगा”. हमने उसकी बात मान ली और गाड़ी रोक दी.
उसने बोला मुझे मेरे किराए में से थोड़े पैसे दे दो, पास के गाँव जाकर खाना खाके आता हूँ’. मेरे भाई ने उसे थोड़े पैसे दे दिए.
“मै जल्दी से खाना खाकर लौटता हूँ” उसने बोला और चला गया. भूख तो हमे भी बड़े जोरो की लगी थी तो हम भी खाना निकाल कर खाने लगे.
आंटी ने पड़ोसियों को बोलकर रास्ते के लिए बढ़िया खाना बनवाया था. हमने टिफिन बॉक्स खोले और खाने बैठ गए. हम में से एक पानी लेने नदी के किनारे गया.मगर वो वहां पानी की जगह कीचड़ भरा हुआ था जिसमे जानवरों का गोबर भरा हुआ था. ये पानी इंसानों के पीने लायक तो हरगिज़ नहीं था. उसमे से इतनी बदबू आ रही थी कि हमे उलटी आ गयी.

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हमने खाने के डब्बे बंद कर दिए और गाड़ी वाले का वेट करने लगे. उसका कहीं अता-पता नहीं था. फिर बड़ी देर बाद वो वापस आया तो एक बार फिर हमने जर्नी स्टार्ट की. कोई चार या मील चलने के बाद अचानक वो गाड़ी में चढ़ गया और गाड़ी खुद हांकने लगा. उसकी ये हरकत बड़ी अजीब थी. पहले तो वो हमारे साथ गाडी में बैठने को तैयार ही नहीं था कि कहीं हमारे टच करने से वो गंदा ना हो जाए और अब देखो खुद गाड़ी चला रहा था.

पता नहीं उसे क्या हो गया था. खैर, डर के मारे हमने उससे कुछ पुछा भी नहीं, बस यूं ही चुपचाप बैठे रहे, हमे तो बस कोरेगाँव पहुँचने की जल्दी थी. बैल-गाड़ी चलती जा रही थी. हम सब खामोश थे. यूं ही चलते-चलते थोड़ी देर बाद रात का अँधेरा छा गया. रोड्स में स्ट्रीट लैम्प ना होने की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था.उपर से सड़क भी एकदम सुनसान थी, दूर-दूर तक ना आदमी ना आदमी की जात. हमारी जान सूख रही थी. मसूर से चले हुए बहुत देर हो गयी थी. लगभग तीन घंटे से ज्यादा का सफर हो चूका था. अब तक तो कोरेगाँव आ जाना चाहिये था. हमे अब कुछ शक सा हो रहा था कि ज़रूर ये गाड़ीवाला हमे किसी सुनसान जगह पे ले जाकर मार डालेगा. क्योंकि हमने अच्छे कपडे और गोल्ड ज्वूलरी वगैरह पहनी हुई थी और पैसे भी थे हमारे पास. बेसब्री में हम जब भी उससे पूछते” भय्या, कोरेगाँव और कितनी दूर है? तो उसका एक ही जवाब होता

“ज्यादा दूर नहीं है, बस पहुँचने वाले है”. अब तक रात के दस बज चुके थे मगर कोरेगाँव नहीं आया था.
हम लोग बड़ी देर तक रोते रहे और उस गाड़ीवाले को कोसते रहे मगर उसने कोई रीप्लाई नहीं दिया.
तभी हमे दूर से लाईट जलती दिखी. गाड़ीवाले ने पुछा” तुम्हे वो लाईट दिख रही है? ये टोल कलेक्टर की लाईट है, हम रात को यही रुकेंगे”. सुनकर हम थोड़े रिलेक्स हुए. जहाँ से लाईट आ रही वहां टोल कलेक्टर का हट था. हमने सवाल पूछ-पूछकर गाड़ी वाले की जान खा ली थी. “कब पहुंचेगे? हम सही रोड से तो जा रहे है ना?’ कितनी टाइम और लगेगा’? वगैरह वगैरह.

और पूरे दो घंटे बाद फाइनली आधी रात के वक्त बैलगाड़ी टोल कलेक्टर के हट पे आके रुकी. ये जगह एक पहाड़ी की नीचे थी, हमारी तरह वहां कई सारी बैल गाड़ियों की लाइन लगी हुई थी, सब यहाँ पर रात को रेस्ट करने के लिए रुके थे. अब तक हमे जोरो की भूख लग आई थी. खाना तो हमारे पास था लेकिन पानी नहीं था. तो हमने अपने गाड़ी वाले से पुछा कि हमे पानी मिल सकता है क्या?” गाड़ीवाले ने कहा” टोल कलेक्टर हिन्दू है और अगर तुमने बोला कि तुम महार हो तो पानी मिलने का तो सवाल ही नहीं है.

ऐसा करो खुद को मुसलमान बोल दो, तब वो शायद तुम्हे पानी दे दे”

उसकी एडवाइस पर मै टोल कलक्टर के पास गया और पुछा” थोडा पानी मिलेगा क्या ?” “कौन हो तुम?” उसने पुछा. “हम मुस्लिम्स है”. क्योंकि मुझे अच्छी उर्दू आती थी इसलिए मैंने ये बात उर्दू में उसे कन्विंस करने के लिए बोली

उसे हम पर शक तो नहीं हुआ लेकिन पानी हमे फिर भी नहीं मिला. उसने बड़े रुडली कहा” तुम्हारे लिए किसने यहाँ पानी रखा है, ऊपर पहाड़ी पे पानी मिल जाएगा, अगर चाहिए तो जाकर ले आओ, मेरे पास कोई पानी-वानी नहीं है”

मै गाड़ी के पास आया और अपने भाई को सारी बात बताई. मुझे नहीं पता उसे कैसा फील हुआ होगा मगर उसने हम सबको सोने के लिए बोल दिया.

बैलो को गाड़ी से खोल दिया गया था, गाडी को नीचे जमीन पर रखा गया जिसके अंदर हमने अपने बिस्तर लगाए और सोने के लिए लेट गए.

यहाँ काफी लोग थे इसलिए अब हम बेफ़िक्र होके सो सकते थे. लेकिन हमारे दिमाग में कई सारी बाते घूम रही थी. हमारे पास खाने की ढेर सारी चीज़े थे, और भूख भी काफी लगी थी लेकिन बस पानी नहीं था. और हमे पानी सिर्फ इसलिए नहीं मिल पा रहा था क्योंकि हम अछूत थे.
और यही एक ख्याल बार-बार हमारे दिमाग में घूम रहा था. मैंने बोला हम सेफ जगह पर है इसलिए चलो सोते है. लेकिन मेरा भाई नहीं माना, हम चारो एक साथ सो जाए, ये बात उसे ठीक नहीं लग रही थी. कुछ भी हो सकता है, इसलिए दो लोग सोयेंगे और बाकि दो पहरा देंगे.” उसने आईडिया दिया.

और इस तरह बारी से बारी से सोकर हमने पहाड़ी के नीचे वो रात गुजारी. सुबह पांच बजे के करीब गाड़ीवाला आया और बोला” कोरेगाँव के लिए निकलते है” मगर हमने साफ़ मना कर दिया, आठ बजे से पहले हम यहाँ से हिलेंगे भी नहीं”
अब हम कोई चांस नहीं ले सकते,.गाड़ी वाला चुप हो गया. ठीक आठ बजे हम कोरेगाँव के लिए निकल पड़े और करीब ग्यारह बजे कोरेगाँव पहुंचे. मेरे फादर ने जब हमे देखा तो सरप्राइज़ रह गए, दरअसल उन्हें हमारे आने की कोई खबर नहीं थी. हमने इन्फोर्मेशन दी थी मगर वो मानने को तैयार ही नही थे. बाद में पता चला कि सारी गलती दरअसल सर्वेंट की थी. उसे हमारा लैटर मिला मगर वो फादर को देना भूल गया था.

इस घटना का मेरी लाइफ में बड़ा इम्पोर्टेंट रोल रहा है. तब मै सिर्फ नाइन इयर्स का था. लेकिन आज भी इस घटना का असर मेरे दिलो-दिमाग में उतना ही गहरा है. मुझे ये मालूम था कि मेरा जन्म एक अछूत फेमिली में हुआ है मगर अछूत के साथ असल में कैसा सुलूक किया जाता है ये बात मै बड़े अच्छे से समझ चूका था.

जैसे कि हमको बाकि बच्चो के साथ बैठना अलाउड नहीं था. क्लास में मेरी परफोर्मेंस किसी से भी कम नही थी फिर भी मुझे एक कोने में बैठना होता था. मेरे चटाई भी अलग थी जिसमे मै अकेला बैठता था. क्लास रूम की सफाई करने वाला मेरी चटाई को टच भी नहीं करता था

मुझे अपनी चटाई को घर लेकर जाना होता था और अगले दिन फिर वापस लाता था. ऊँची जात के बच्चो को जब प्यास लगती, वो स्कूल के नल को खोलकर पानी पी लेते थे, लेकिन मेरी कंडिशन अलग थी. मुझे नल को छूने की परमिशन नहीं थी. मुझे प्यास लगती तो मै टीचर से रिक्वेस्ट करता. फिर टीचर चपरासी को बोलते और वो मेरे लिए नल खोलता था, तब जाकर मुझे पानी पीने को मिलता. अगर चपरासी आस-पास नहीं है तो उसके आने तक मुझे प्यासे रहना होता था.

मतलब मेरी सिचुएशन ऐसी थी अगर चपरासी नहीं तो पानी नहीं.
मेरे घर में कपड़े धोने का काम मेरी सिस्टर करती थी. सतारा में धोबियों की कमी नही थी और ना ही हमारे पास पैसे की कमी थी. बात बस ये थी कि हम अछूतों के कपड़े कोई धोबी छूने तक को तैयार नहीं था. मतलब कि बाल काटने से लेकर हम लडको की शेविंग तक मेरी बड़ी बहन करती थी. वैसे भी इस काम में अब वो एक्सपर्ट हो गयी थी. सतारा में कई सारे बार्बर थे जिनके पास हम जाके बाल कटवा सकते थे लेकिन फिर वही प्रोब्लम. बार्बर हमे छूता कैसे? इन सब चीजों की मुझे आदत पड़ चुकी थी मगर कोरेगाँव की घटना ने मुझे अंदर तक हिला दिया था. हमारे साथ जो कुछ भी हुआ था, उसने मुझे अनटचेबीलीटी के बारे में काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया था.

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बैक फॉर्म द वेस्ट- एंड अनेबल टू फाइंड लोजिंग इन बरोदा (Back from the west–and unable to find lodging in Baroda

1916 में मै पढ़ाई पूरी करके इंडिया लौटा, मुझे बरौदा के महाराजा ने हायर एजुकेशन के लिए अमेरिका भेजा था जहाँ मैंने 1913 से 1917 तक न्यू यॉर्क के कोलंबिया यूनिवरसिटी में स्टडी की. फिर इकोनोमिक्स की पढाई के लिए मैं 1917 में लंदन चला गया. मैंने वहां यूनिवरसिटी ऑफ़ लन्दन के डिपार्टमेंट ऑफ़ द स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स में पोस्ट ग्रेजुएट के लिए एडमिशन लिया. मगर 1918 में ही अपनी स्टडीज फिनिश किये बिना मै वापस इंडिया आ गया था. मुझे बरौदा स्टेट की नौकरी करनी थी क्योंकि उन्होंने ही मेरी एजुकेशन का सारा खर्चा उठाया था.

मुझे इंडिया आते ही बरौदा जाना पड़ा था. मगर मेरे बरौदा की सर्विस छोड़ने का मेरे प्रजेंट पर्पज से कोई लेना-देना है. मै इस मसले में पड़ना ही नहीं चाहता हूँ. मै तो बस बरौदा में अपने साथ हुए सोशल एक्सपीरिएंसेस को लेकर क्न्सेर्न्ड हूँ और उनके बारे में बात करना चाहता हूँ.
योरोप और अमेरिका में जो पांच साल मैंने गुज़ारे थे उससे मेरे दिलो-दिमाग से अनटचेबीलिटी की बाते एकदम साफ़ हो गयी थी. मै भूल चूका था कि मै एक अछूत हूँ और ये भी भूल चूका था कि इंडिया में एक अछूत जहाँ भी जाता है वहां अपने साथ-साथ दूसरो के लिए भी प्रोब्लम क्रियेट करता है.

लेकिन मै जैसे ही इण्डिया लौटा, स्टेशन से बाहर कदम रखते ही मेरे दिमाग में कुछ सवाल घूमने लगे” मुझे कहाँ जाना है? कौन मुझे लेने आएगा? मै बेहद मायूस हो गया था. मै जानता था इस शहर में कई सारे हिन्दू होटल्स है जिन्हें विशिस(Vishis,) बोलते है. मगर वो लोग मुझे अंदर घुसने नहीं देंगे. एक ही तरीका था कि मै झूठ बोलकर रूम बुक करा लूँ. लेकिन अगर मै पकड़ा गया तो? मुझे मालूम था अगर मै पकड़ा गया तो अंजाम क्या होगा.
बरौदा में मेरे कुछ फ्रेंड्स भी रहते थे जो मेरे साथ अमेरिका में पढ़े थे. “अगर मै उनके पास गया तो क्या वो रहने देंगे”? मुझे श्योर नहीं था, हो सकता है वो रहने दे, या फिर एक अछूत को अपने घर बुलाने में उन्हें शर्म आये.

मै बड़ी देर तक स्टेशन की छत के नीचे खड़े यही सोचता रहा”कहाँ जाऊं? क्या करूँ?’
फिर मैंने सोचा कि चलो इन्क्वारी करता हूँ कि कैंप में कोई जगह है? अब तक सारे पैसेंजर्स जा चुके थे, बस मै ही बचा था. एक दो हैकनी( कैरिज ड्राइवर्स) यानी कुली जिन्हें कोई पैसेंजर नहीं मिला था, सामान उठाने के लिए मेरी तरफ देख रहे थे.

मैंने एक को आवाज़ लगाईं और पुछा “ यहाँ कैंप में कोई होटल है क्या? उसने कहा एक पारसी सराय है और वो लोग पेईंग गेस्ट लेते है. पारसी सराय का नाम सुनकर मेरा दिल खुश हो गया. पारसी लोग जोरोंएस्त्रिन रिलिजन (Zoroastrian religion) को मानते है. इनके यहाँ छूत-अछूत जैसा कोई कल्चर नहीं है क्योंकि उनके धर्म में अनटचेबिलिटी है ही नहीं. तो इस पारसी सराय में मुझे अछूत की तरह ट्रीट करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होगा. बड़ी उम्मीद के साथ बेफिक्र होकर मैंने अपना सामान कुली को दिया और ड्राईवर को कैंप में पारसी सराय चलने को बोला.

एक टू स्टोरी बिल्डिंग में पारसी सराय थी. सराय का केयर टेकर एक बूढा पारसी था जो अपनी फेमिली के साथ ग्राउंड फ्लोर पर रहता था. जो टूरिस्ट यहाँ रहने आते उनके खाने-पीने की जिम्मेदारी केयर टेकर पर थी. बिल्डिंग के सामने हमारी गाड़ी आके रुकी तो पारसी केयर टेकर ने मुझे उपर जाने को बोला. मै उपर चला गया, कैरिज ड्राईवर मेरा सामान लेकर आया और अपना किराया लेकर वापस चला गया. मुझे बड़ी ख़ुशी हो रही थी कि आखिर मेरे रहने की प्रोब्लम सोल्व हो गयी. मैंने कपड़े चेंज कर ही रहा था कि केयर टेकर हाथ में एक बुक लिए मेरे रूम में आया. तब तक उसने देख लिया था कि मैंने सदरा और कस्ती नहीं पहना था जो पारसीयों की पहचान है.

“कौन हो तुम”? उसने तीखी आवाज़ में पुछा. मुझे मालूम नहीं था कि पारसी सराय सिर्फ पारसी लोगो को रूम देती है. मैंने बोला मै हिन्दू हूँ. उसे बड़ा शॉक लगा, “तुम यहाँ नहीं रह सकते” उसने मुझे बोला.

मुझे बेहद डिसअपोइन्टमेंट हुई, फिर से मेरे सामने वही सवाल खड़ा हो गया, जाऊं तो जाऊं कहाँ? खुद को कण्ट्रोल करते हुए मैंने उसे बोला” मै हिन्दू हूँ तो क्या हुआ? मुझे यहाँ रहने में कोई प्रोब्लम नहीं है तो आपको क्या प्रोब्लम है?

“अरे! तुम यहाँ कैसे रह सकते हो. मुझे रजिस्टर भी तो मेंटेन करना होता है, कौन यहाँ आता है कौन जाता है”. उसकी बात में पॉइंट था, मुझे उसकी प्रोब्लम समझ आ रही थी.
मुझे एक आईडिया आया.

“रजिस्टर में लिखने के लिए मै कोई पारसी नाम रख लेता हूँ”. मैंने कहा.” वैसे भी मुझे कोई ओब्जेक्ट नहीं है तो तुम्हे क्यों है? और मै यहाँ रहने के पैसे भी तो दे रहा हूँ, इसमें तो तुम्हारा ही फायदा है”.

केयरटेकर मेरी बात से एग्री लग रहा था. वैसे भी काफी टाइम वहां कोई पेइंग गेस्ट नहीं आया था. और उसे पैसे की भी ज़रूरत थी. ‘”लेकिन एक कंडिशन पर तुम यहाँ रह सकते हो, तुम रहने-खाने का रोज़ का डेढ़ रुपया देना होगा” वो बोला
.
मैंने झट से हाँ बोला और एक पारसी नाम से रूम बुक करवा लिया.

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