(hindi) Vair Ka Ant

(hindi) Vair Ka Ant

रामेश्वर राय अपने बड़े भाई के शव को बिस्तर से नीचे उतारते हुए भाई से बोले-“तुम्हारे पास कुछ रुपये हों तो लाओ, अंतिम संस्कार की फिक्र करें, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ”।
छोटे भाई का नाम विश्वेश्वर राय था। वह एक जमींदार के एजेंट थे, आमदनी अच्छी थी। बोले, “आधे रुपये मुझसे ले लो। आधे तुम निकालो”।
रामेश्वर-“मेरे पास रुपये नहीं हैं”।
विश्वेश्वर-“तो फिर इनके हिस्से का खेत गिरवी रख दो”।

रामे.-“तो जाओ, कोई महाजन को बुलाओ, देखना देर न लगे”। विश्वेश्वरराय ने अपने एक दोस्त से कुछ रुपये उधार लिये, उस वक्त का काम चला। बाद में फिर कुछ रुपये लिये, खेत की लिखा-पढ़ी कर दी। कुल पाँच बीघे जमीन थी। 30000 रु. मिले। गाँव के लोगों का अनुमान था कि क्रिया-कर्म में मुश्किल से 10000 रु. लगे होंगे। पर विश्वेश्वरराय ने षोड्शी के दिन 30001 रु. का बिल भाई के सामने रख दिया। रामेश्वरराय ने चकित हो कर पूछा-“सब रुपये लग गये ?”
विश्वे.-“क्या मैं इतना नीच हूँ कि अंतिम संस्कार के रुपये से भी कुछ रखूँगा ? किसको यह पैसा पचेगा ?”
रामे.-“नहीं, मैं तुम्हें बेईमान नहीं कहता , खाली पूछ रहा था”।
विश्वे.-“कुछ शक हो तो जिस बनिये से चीज़ें ली गयी हैं, उससे पूछ लो”।

साल भर के बाद एक दिन विश्वेश्वरराय ने भाई से कहा-“रुपये हों तो लाओ, खेत छुड़ा लें”।
रामे.-“मेरे पास रुपये कहाँ से आये। घर का हाल तुमसे छिपा थोड़े ही है”।
विश्वे.-“तो मैं सब रुपये देकर जमीन छुडा लेता हूँ। जब तुम्हारे पास रुपये हों, आधा दे कर अपनी आधी जमीन मुझसे ले लेना”।
रामे.-“अच्छी बात है, छुड़ा लो”।

30 साल गुजर गये। विश्वेश्वरराय जमीन को भोगते रहे, उसे खाद गोबर से खूब सजाया।
उन्होंने फ़ैसला कर लिया था कि यह जमीन न छोड़ूँगा। मेरा तो इस पर खानदानी हक हो गया। अदालत से भी कोई नहीं ले सकता। रामेश्वरराय ने कई बार कोशिश की कि रुपये दे कर अपना हिस्सा ले लें; पर तीस साल में वे कभी 15000 रु. जमा न कर सके।

मगर रामेश्वरराय का लड़का जागेश्वर कुछ सँभल गया। वह गाड़ी लादने का काम करने लगा था और इस काम में उसे अच्छा फ़ायदा भी होता था। उसे अपने हिस्से की रात-दिन चिंता रहती थी। अंत में उसने रात-दिन मेहनत करके काफ़ी पैसा बटोर लिया और एक दिन चाचा से बोला-“काका, अपने रुपये ले लीजिए। मैं पिताजी के हिस्से पर अपना नाम लिखवा लूँ”।
विश्वे.-“अपने बाप के तुम्हीं चतुर बेटे नहीं हो। इतने दिनों तक कान न हिलाये, जब मैंने जमीन सोना बना लिया तब हिस्सा बाँटने चले हो ? तुमसे माँगने तो नहीं गया था।“
जागे.-“तो अब जमीन न मिलेगी ?”
रामे.-“भाई का हक मार कर कोई सुखी नहीं रहता”।
विश्वे.-“जमीन हमारी है। भाई की नहीं”।
जागे.-“तो आप सीधे न दीजिएगा ?”

विश्वे.-“न सीधे दूँगा, न टेढ़े से दूँगा। अदालत जाओ”।
जागे.-“अदालत जाने की मेरी हैसियत नहीं है; पर इतना कहे देता हूँ कि जमीन चाहे मुझे न मिले; पर आपके पास न रहेगी”।
विश्वे.-“यह धमकी जा कर किसी और को दो”।
जागे.-“फिर यह न कहियेगा कि भाई हो कर दुश्मन हो गया”।
विश्वे.-“एक हजार गाँठ में रख कर तब जो कुछ जी में आये, करना”।
जागे.-“मैं गरीब आदमी इतने रुपये कहाँ से लाऊँगा; पर कभी-कभी भगवान् गरीबों पर दयालु हो जाते हैं”।
विश्वे.-“मैं इस डर से बिल नहीं खोद रहा हूँ”।
रामेश्वरराय तो चुप ही रहा पर जागेश्वर माफ़ करने वाला न था। वकील से बातचीत की। वह अब आधी नहीं; पूरी जमीन पर दाँत लगाए हुए था।

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सिद्धेश्वरराय की एक लड़की थी तपेश्वरी। अपने जीवन-काल में वे उसकी शादी कर चुके थे। उसे कुछ मालूम ही न था कि बाप ने क्या छोड़ा और किसने लिया। क्रिया-कर्म अच्छी तरह हो गया; वह इसी में खुश थी। षोड्शी में आयी थी। फिर ससुराल चली गयी। 30 वर्ष हो गये, न किसी ने बुलाया, न वह मैके आयी। ससुराल की दशा भी अच्छी न थी। पति का देहांत हो चुका था। लड़के भी कम वेतन पर नौकरी करते थे। जागेश्वर ने अपनी फूफी को उकसाना शुरू किया। वह चाहता था कि वो कोर्ट में केस फाइल करे ।
तपेश्वरी ने कहा-“बेटा, मुझे भगवान् ने जो दिया है, उसी में मगन हूँ। मुझे जगह-जमीन न चाहिए। मेरे पास केस करने के पैसे नहीं है”।
जागे.-“रुपये मैं लगाऊँगा, तुम खाली केस कर दो”।

तपेश्वरी-“भैया तुम्हें खड़ा कर किसी काम का न रखेंगे”।
जागे.-“यह नहीं देखा जाता कि वे जायदाद ले कर मजें उडाएं और हम मुँह ताकें। मैं अदालत का खर्च दे दूँगा। इस जमीन के पीछे बिक जाऊँगा पर उनका गला न छोडूंगा”।
तपेश्वरी-“अगर जमीन मिल भी गयी तो तुम अपने रुपयों के बदले में ले लोगे, मेरे हाथ क्या लगेगा ? मैं भाई की दुश्मन क्यों बनूँ ?”
जागे.-“जमीन आप ले लीजिएगा, मैं सिर्फ़ चाचा साहब का घमंड तोड़ना चाहता हूँ”।
तपेश्वरी-“अच्छा, जाओ, मेरी तरफ से केस कर दो”।

जागेश्वर ने सोचा, जब चाचा साहब की मुट्ठी से जमीन निकल आयेगी तब मैं पांच हज़ार रुपये साल पर इनसे ले लूँगा। इन्हें अभी कौड़ी नहीं मिलती। जो कुछ मिलेगा, उसी को बहुत समझेंगी। दूसरे दिन केस कर दिया। कोर्ट में मुकदमा पेश हुआ। विश्वेश्वरराय ने साबित किया कि तपेश्वरी सिद्धेश्वर की बेटी ही नहीं है।

गाँव के आदमियों पर विश्वेश्वरराय का दबाव था। सब लोग उससे रुपये-पैसे उधार ले जाते थे। मामले-मुकदमे में उनसे सलाह लेते। सबने अदालत में बयान दिया कि हम लोगों ने कभी तपेश्वरी को नहीं देखा। सिद्धेश्वर के कोई लड़की ही न थी। जागेश्वर ने बड़े-बड़े वकीलों से केस लडवाया, बहुत पैसा खर्च किया, लेकिन जज ने उसके खिलाफ़ फैसला सुनाया। वो बेचारा हताश हो गया। विश्वेश्वर की अदालत में सबसे जान-पहचान थी। जागेश्वर को जिस काम के लिए मुट्ठि भर कर रुपये खर्च करने पड़ते थे, वह विश्वेश्वर मुफ्त में करा लेता।

जागेश्वर ने अपील करने का फ़ैसला किया। रुपये न थे, गाड़ी-बैल बेच डाले। अपील हुई। महीनों मुकदमा चला। बेचारा सुबह से शाम तक कोर्ट में काम करने वालों और वकीलों की खुशामद किया करता, रुपये भी खर्च हो गये, महाजनों से क़र्ज़ लिया। पाँच हज़ार का बोझ सिर पर हो गया था, पर अब जीत ने आँसू पोंछ दिये।

विश्वेश्वर ने हाईकोर्ट में अपील की। जागेश्वर को अब कहीं से रुपये न मिले। मजबूर होकर अपने हिस्से की जमीन गिरवी रखी। फिर घर बेचने की नौबत आयी। यहाँ तक कि औरतों के गहने भी बिक गये। अंत में हाईकोर्ट से भी उसकी जीत हो गयी। ख़ुशी के जश्न में बची-खुची पूँजी भी निकल गयी। एक हजार पर पानी फिर गया। हाँ, संतोष यही था कि ये पाँचों बीघे मिल गये। तपेश्वरी क्या इतनी बेरहम हो जायगी कि थाली मेरे सामने से खींच लेगी।

लेकिन खेत पर अपना नाम आते ही तपेश्वरी की नीयत बदली। उसने एक दिन गाँव में आकर पूछ-ताछ की तो मालूम हुआ कि पाँचों बीघे 100000 रु. में उठ सकते हैं। लगान सिर्फ़ 25000 रु. था, 75000 रु. साल का फ़ायदा था। इस रकम ने उसे बेचैन कर दिया। उसने ठेकेदार को बुला कर उनके साथ बंदोबस्त कर दिया। जागेश्वरराय हाथ मलता रह गया। आखिर उससे न रहा गया। बोला-“फूफीजी, आपने जमीन तो दूसरों को दे दी, अब मैं कहाँ जाऊँ”।

तपेश्वरी-“बेटा, पहले अपने घर में दीया जला कर तब मस्जिद में जलाते हैं। इतनी जगह मिल गयी, तो मैके से नाता हो गया, नहीं तो कौन पूछता”।
जागे.-“मैं तो उजड़ गया !”
तपेश्वरी-“जिस लगान पर और लोग ले रहे हैं, उसमें कुछ रुपये कम करके तुम्हीं क्यों नहीं ले लेते?

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