(hindi) UPDESH

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प्रयाग के पढ़े लिखे समाज में पंडित देवरत्न शर्मा असल में एक रत्न थे। पढ़ाई भी उन्होंने बहुत की थी और कुल के भी ऊँचे थे। न्यायशीला गवर्नमेंट ने उन्हें एक ऊँचा पद देना चाहा, पर उन्होंने अपनी आजादी पर वार करना ठीक न समझा। उनका भला चाहने वाले दोस्तों ने बहुत समझाया कि इस मौके को हाथ से मत जाने दो, सरकारी नौकरी बड़े किस्मत से मिलती है, बड़े-बड़े लोग इसके लिए तरसते हैं और यही इच्छा लिये ही दुनिया से चले जाते हैं। अपने खानदान का नाम रोशन करने का इससे आसान रास्ता नहीं है, इसे इच्छा पूरी करने वाला पेड़ समझो। वैभव, दौलत, इज्जत और नाम यह सब इससे मिलते हैं। रह गयी देश-सेवा, सो तुम्हीं देश के लिए क्यों जान देते हो?

इस शहर में कई बड़े-बड़े अक्लमंद और अमीर आदमी हैं, जो सुख-चैन से बँगलों में रहते और मोटरों में धूल की आँधी उड़ाते घूमते हैं। क्या वे लोग देश-सेवक नहीं हैं ? जब जरूरत होती है या कोई मौका आता है तो वे देश-सेवा में लग जाते हैं। अभी जब म्युनिसिपल चुनाव का झगड़ा छिड़ा तो मेयोहाल के सामने मोटरों का ताँता लगा हुआ था। भवन के अंदर देश के लिए गीतों और भाषणों की भरमार थी। पर इनमें से कौन ऐसा है, जिसने स्वार्थ को छोड़ दिया हो ? दुनिया का नियम ही है कि पहले घर में दीया जला कर तब मस्जिद में जलाया जाता है। सच्ची बात तो यह है कि जातीयता की यह बात कालेज के छात्रों को ही शोभा देती है। जब दुनिया में आए तो कहाँ की जाति और कहाँ की जातीय बात। दुनिया का यही नियम है।

फिर तुम्हीं को काजी बनने की क्या जरूरत ! अगर बारीकी से देखा जाय तो सरकारी पद पाकर इंसान अपने देश और भाइयों की सच्ची सेवा कर सकता है, ये किसी दूसरे तरीके से कभी नहीं किया जा सकता । एक दयालु पुलिस सैकड़ों जातीय सेवकों से अच्छा है। एक इंसाफ पसंद, धर्म मानने वाला मजिस्ट्रेट सैकड़ों जातीय दानवीरों से ज्यादा सेवा कर सकता है। इसके लिए सिर्फ दिल में लगन चाहिए। इंसान चाहे जिस हालत में हो, देश के लिए काम कर सकता है। इसीलिए अब ज्यादा आगा-पीछा न करो, चटपट पद को मंजूर कर लो।

शर्मा जी को और कोई बात न जँचीं, पर इस आखिरी बात की सच्चाई से वह इनकार न कर सके। लेकिन फिर भी चाहे नियम निभाने के कारण, चाहे आलस के कारण जो अक्सर ऐसे हालात में जातीय सेवा का गौरव पा जाता है, उन्होंने नौकरी से अलग रहने में ही अपना कल्याण समझा। उनके इस स्वार्थ को छोड़ने पर कालेज के लड़कों ने उन्हें खूब बधाइयाँ दीं। उन्होने स्वार्थ पर जीत पाई जिसके लिए एक जातीय ड्रामा खेला गया, जिसके नायक हमारे शर्मा जी ही थे। समाज के ऊँचे तकबे में इस आत्म-त्याग की चर्चा हुई और शर्मा जी अच्छे-खासे मशहूर हो गए ! इसलिए वह कई सालों से जातीय सेवा में लीन रहते थे। इस सेवा का ज्यादा भाग अखबारों को पढ़ते हुए बीतता था, जो जातीय सेवा का ही एक खास अंग समझा जाता है।

इसके अलावा वह अखबारों के लिए लेख लिखते, सभाएँ करते और उनमें फड़कते हुए भाषण देते थे। शर्मा जी फ्री लाइब्ररी के सेक्रेटरी, स्टूडेंट एसोसिएशन के सभापति, सोशल सर्विस लीग के सहायक मंत्री और प्राइमरी एजूकेशन कमिटी के संस्थापक थे। खेती से जुड़ी बातों से उन्हें खास प्यार था। अखबारों में जहाँ कहीं किसी नए खाद या किसी नये आविष्कार के बारे में देखते, तुरंत उस पर लाल पेन्सिल से निशान कर देते और अपने लेखों में उसकी बात करते। लेकिन शहर से थोड़ी दूर उनका गांव होने पर भी, वह अपने किसी किराएदार को जानते तक न थे। यहाँ तक कि कभी प्रयाग के सरकारी खेती की जमीन की सैर करने न गये थे।

उसी मुहल्ले में लाला बाबूलाल रहते थे। वह एक वकील के मुंशी थे। थोड़ी-सी उर्दू-हिंदी जानते थे और उसी से अपना काम अच्छी तरह चला लेते थे। सूरत-शक्ल के ज़्यादा सुन्दर न थे। उस शक्ल पर मऊ के चारखाने का लम्बा कुर्ता और भी शोभा देता था। जूता भी देशी ही पहनते थे। हालांकि कभी-कभी वे कड़वे तेल से उसकी पॉलिश भी किया करते थे पर वह नीच स्वभाव के कारण उन्हें काटने से न चूकता था। बेचारे को साल के छह महीने पैरों में मलहम लगानी पड़ती। वो अक्सर नंगे पाँव कचहरी जाते, पर कंजूस कहलाने के डर से जूतों को हाथ में ले जाते। जिस गांव में शर्मा जी की जमींदारी थी, उसमें थोड़ा-सा हिस्सा उनका भी था। इस नाते से कभी-कभी उनके पास आया करते थे।

हाँ, छुट्टी के दिनों में गाँव चले जाते। शर्मा जी को उनका आकर बैठना पसंद नहीं था, खासकर जब वह फैशनेबल इंसानों की मौजूदगी में आया करते थे। मुंशी जी भी कुछ ऐसी नजर के आदमी थे कि उन्हें अपना अनमिलापन बिलकुल दिखायी न देता था। सबसे बड़ी तकलीफ यह थी वे बराबर कुर्सी पर डट जाते, मानो हंसों में कौआ। उस समय दोस्त अंग्रेज़ी में बातें करने लगते और बाबूलाल को छोटा दिमाग, झक्की, पागल, बेवकूफ आदि बोलते। कभी-कभी उनकी हँसी भी उड़ाते थे। शर्मा जी में इतनी अच्छाई जरूर थी कि वे अपने बेवकूफ दोस्त को जितना हो सके बेइज्जती से बचाते थे। सच में बाबूलाल की शर्मा जी पर सच्ची भक्ति थी। एक तो वह बी.ए. पास थे, दूसरे वह देशभक्त थे। बाबूलाल जैसे अनपढ़ इंसान का ऐसे रत्न को इज्जत देना अजीब बात न थी।

एक बार प्रयाग में प्लेग फैला। शहर के अमीर लोग निकल भागे। बेचारे गरीब चूहों की तरह पटापट मरने लगे। शर्मा जी ने भी चलने की ठानी। लेकिन सोशल सर्विस लीग के वे मंत्री ठहरे। ऐसे मौके पर निकल भागने में बदनामी का डर था। बहाना ढूँढ़ा। लीग के ज़्यादातर लोग कॉलेज में पढ़ते थे। उन्हें बुलाकर इन शब्दों में अपने मन की बात बताई- “दोस्तों ! आप अपनी जाति के दीपक हैं। आप ही इस बुरे समय में जाति की उम्मीद हैं। आज हम पर तकलीफ की घटाएँ छायी हुई हैं। ऐसी हालत में हमारी आँखें आपकी ओर न उठें तो किसकी ओर उठेंगी। दोस्त, जीवन में देशसेवा का मौका बड़ी किस्मत से मिला करता है। कौन जानता है कि भगवान ने तुम्हारी परीक्षा के लिए ही यह परेशानी दी हो।

जनता को दिखा दो कि तुम वीरों का दिल रखते हो, जो बड़ी से बड़ी मुसीबत आने पर भी नहीं डरता। हाँ, दिखा दो कि वह वीरों को पैदा करने वाली पवित्र भूमि जिसने हरिश्चंद्र और भरत को पैदा किया, आज भी वीर पैदा कर सकती है। जिस जाति के नौजवानों में अपने पीड़ित भाइयों के लिए दया और अटल प्रेम है वह दुनिया में हमेशा नाम करती रहेगी। आइए, हम कमर कस कर कर्म-क्षेत्र में उतर पड़ें। इसमें शक नहीं कि काम मुश्किल है, रास्ता मुश्किल है, आपको अपने मनोरंजन, अपने हाकी-टेनिस को छोड़ना पड़ेगा। तुम जरा हिचकोगे, हटोगे और मुँह फेर लोगे, लेकिन भाइयो !

जातीय सेवा का सुख ऐसे ही नहीं मिल सकता ! हमारा व्यक्तित्व, हमारा मनोबल, हमारा शरीर अगर जाति के काम न आए तो वह बेकार है। मेरी बड़ी इच्छा थी कि इस अच्छे काम में मैं तुम्हारा हाथ बँटा सकता, पर आज ही देहातों में बीमारी फैलने की खबर मिली है। इसलिए मैं यहाँ का काम आपके लायक, मजबूत हाथों में सौंपकर देहात में जाना चाहता हूँ ताकि जितना हो सके देहाती भाइयों की सेवा कर सकूँ। मुझे यकीन है कि आप खुशी खुशी अपने देश के लिए अपने फर्ज का पालन करेंगे।

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इस तरह गला छुड़ा कर शर्मा जी शाम के समय स्टेशन पहुँचे। पर मन कुछ दुखी था। वे अपनी इस कायरता और कमजोरी पर मन ही मन शर्मिंदा थे।

इत्तेफाक से स्टेशन पर उनके एक वकील दोस्त मिल गये। यह वही वकील थे जिनके सहारे बाबूलाल का गुजारा होता था। यह भी भागे जा रहे थे। बोले- “कहिए शर्मा जी, किधर चले ? क्या भाग खड़े हुए ?”

शर्मा जी का भांडा फूट गया, पर सँभल कर बोले- “भागूँ क्यों ?”

वकील- “सारा शहर क्यों भागा जा रहा है ?”

शर्मा जी- “मैं ऐसा कायर नहीं हूँ ?”

वकील- “यार क्यों बातें बनाते हो, अच्छा बताओ, कहाँ जा रहे हो ?”

शर्मा जी- “देहातों में बीमारी फैल रही है, वहाँ कुछ रिलीफ का काम करूँगा।”

वकील- “यह बिलकुल झूठ है। अभी मैं डिस्ट्रिक्ट गजट देख कर आ रहा हूँ। शहर के बाहर कहीं बीमारी का नाम तक नहीं है।”

शर्मा जी बिना कुछ कहे भी विवाद कर सकते थे। बोले- “गजट को आप भगवान की आवाज समझते होंगे, मैं नहीं समझता।”

वकील- “आपके कान में तो आकाश के दूत कह गये होंगे ? साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि जान के डर से भागा जा रहा हूँ।”

शर्मा जी- “अच्छा, मान लीजिए यही सही। तो क्या पाप कर रहा हूँ ? सबको अपनी जान प्यारी होती है।”

वकील- “हाँ, अब आये रास्ते पर। यह मर्दों की-सी बात है। अपने जीवन की रक्षा करना शास्त्र का पहला नियम है। लेकिन अब भूल कर भी देश-भक्ति की डींग न मारिएगा। इस काम के लिए बड़ी मजबूती और हिम्मत की जरूरत है। स्वार्थ और देश-भक्ति में बहुत अंतर है। देश पर मिट जाने वाले को देश-सेवक का सबसे ऊंचा पद मिलता है, बातें करने से और सिर्फ लिखने से देश-सेवा नहीं होती। कम से कम मैं तो अखबार पढ़ने को यह गौरव नहीं दे सकता। अब कभी बढ़-बढ़ कर बातें न कीजिएगा। आप लोग अपने सिवा सारी दुनिया को स्वार्थ में अंधा समझते हैं, इसीलिए कहता हूँ।”

शर्मा जी ने इस गुस्ताखी का कुछ जवाब न दिया। चिढ़कर मुँह फेर लिया और गाड़ी में बैठ गये।

तीसरे स्टेशन पर शर्मा जी उतर पड़े। वकील की कठोर बात से चिढ़ रहे थे। चाहते थे कि उसकी आँख बचा कर निकल जाएँ, पर देख ही लिया और हँस कर बोला- “क्या आपके ही गाँव में प्लेग का दौरा हुआ है ?”

शर्मा जी ने कुछ जवाब न दिया। बैलगाड़ी पर जा बैठे। कई मज़दूर  हाजिर थे। उन्होंने सामान उठाया। फागुन का महीना था। आमों के बाग़ से महकती हुई हल्की हल्की हवा चल रही थी। कभी-कभी कोयल की सुरीली तान सुनायी दे जाती थी। खेतों में किसान खुशी से भर कर फाग गीत गा रहे थे। लेकिन शर्मा जी को अपनी फटकार पर ऐसी ग्लानि थी कि मन को बहलाने वाली इन चीजें का उन पर कुछ असर न हुआ।

थोड़ी देर बाद वे गांव पहुँचे। शर्मा जी के पिता, जो अब नहीं रहे, एक मनोरंजक आदमी थे। एक छोटा-सा बाग, छोटा-सा पक्का कुआँ, बँगला, शिवजी का मंदिर यह सब उन्हीं ने बनवाया था । वह गर्मी के दिनों में यहीं रहा करते थे, पर शर्मा जी यहाँ पहली बार आए थे । मज़दूरों ने चारों तरफ सफाई कर रखी थी। शर्मा जी बैलगाड़ी से उतर कर सीधे बँगले में चले गये, सैकड़ों किराएदार दर्शन करने आये थे, पर वह उनसे कुछ न बोले।
रात होते होते शर्मा जी के नौकर टमटम लिये आ पहुँचे। पानी भरने वाला, घोड़े वाला और खाना बनाने वाला महाराज तीनों ने किराएदारों को इस नजर से देखा मानो वह उनके नौकर हैं।

घोड़ेवाले ने एक मोटे-ताजे किसान से कहा- “घोड़े को खोल दो।”

किसान बेचारा डरता-डरता घोड़े के पास गया। घोड़े ने अनजान आदमी को देखते ही तेवर बदल कर पैर उठा लिए। किसान डर कर लौट आया, तब घोड़े वाले ने उसे ढकेल कर कहा- “बस, सिर्फ बछड़े को ही संभाल सकते हो। हल जोतने से क्या अक्ल भी चली जाती है ? यह लो घोड़ा टहलाओ। मुँह क्या बनाते हो, कोई शेर है जो खा जाएगा?”

किसान ने डर से काँपते हुए लगाम पकड़ी। उसका घबराया हुआ चहरा देख कर हँसी आती थी। वो बार बार घोड़े को चौकन्नी नजर से देखता, मानो वह कोई पुलिस का सिपाही है।

रसोई बनाने वाले महाराज एक चारपाई पर लेटे हुए थे कड़क कर बोले- “अरे नाई कहाँ है ? चल पानी-वानी ला, हाथ-पैर धो दे।”

पानी भरने वाले ने कहा- “अरे, किसी के पास जरा सुरती-चूना हो तो देना। बहुत देर से तंबाकू  नहीं खायी।”

मुंशी (कारिंदा) साहब ने इन मेहमानों की दावत का इंतजाम किया। घोड़ेवाले और पानी भरने वाले के लिए पूरियाँ बनने लगीं, महाराज को सामान दिया गया। मुंशी साहब इशारे पर दौड़ते थे और गरीब किसानों का तो पूछना ही क्या, वे तो बिना पैसे के गुलाम थे। आजाद लोग इस समय नौकरों के नौकर बने हुए थे।

कई दिन बीत गये। शर्मा जी अपने बँगले में बैठे अखबार और किताबें पढ़ा करते थे। रस्किन की कहानियों के अनुसार  राजाओं और महात्माओं के साथ का सुख लूटते थे, हालैंड के खेती के तरीके, अमेरिकी क्राफ्ट कॉमर्स और जर्मनी की एजुकेशन सिस्टम आदि गहरी बातों के बारे में सोचते थे। गाँव में ऐसा कौन था जिसके साथ बैठते ? किसानों से बातचीत करने को उनका जी चाहता, पर न जाने क्यों वे गँवार, बेवकूफ लोग उनसे दूर रहते। शर्मा जी का दिमाग खेती के बारे में जानकारी का भंडार था।

हालैंड और डेनमार्क की वैज्ञानिक खेती, उसकी उपज का परिमाण और वहाँ के कोआपरेटिव बैंक आदि जानकारी उनकी जुबान पर थे, पर इन गँवारों को क्या खबर ? यह सब उन्हें झुककर पैर छुते और डरकर निकल जाते, जैसे कोई सींग मारने वाले बैल से बचता हो। यह तय करना मुश्किल है कि शर्मा जी की उनसे बातचीत करने की इच्छा में क्या राज था, सच्ची सहानुभूति या अपनी जानकारी का दिखावा !

शर्मा जी की चिट्ठियां शहर से लाने और ले जाने के लिए दो आदमी हर दिन भेजे जाते। वह लुई कूने की, पानी से होने वाले इलाज, के भक्त थे। मेवे ज्यादा खाते थे। एक आदमी इस काम के लिए भी दौड़ाया जाता था। शर्मा जी ने अपने मुंशी से जोर देकर कहा था कि किसी से मुफ्त काम न लिया जाय तब भी शर्मा जी को यह देखकर आश्चर्य होता था कि कोई इन कामों के लिए खुशी से नहीं जाता था । हर दिन बारी-बारी से आदमी भेजे जाते। मुंशी साहब को अक्सर कठोरता से काम लेना पड़ता था। शर्मा जी किसानों के ढीलेपन को आलस के सिवा और क्या समझते ! कभी-कभी वह खुद गुस्से से भरे हुए अपने कमरे से निकल आते और अपने बोलने का चमत्कार दिखाने लगते थे।

शर्मा जी के घोड़े के लिए घास-चारे का इंतजाम भी कुछ कम तकलीफदेह न था। हर शाम डाँट-डपट और रोने-चिल्लाने की आवाज सुनायी देती थी। एक कोलाहल-सा मच जाता था। पर वह इस बारे में अपने मन को इस तरह समझा लेते थे कि घोड़ा भूखा नहीं मरना चाहिए, घास का दाम दे दिया जाता है, अगर इस पर भी यह हाय-हाय होती है तो हुआ करे। शर्मा जी को यह नहीं सूझी कि जरा चमारों से पूछ लें कि घास का दाम मिलता है या नहीं। यह सब व्यवहार देख-देख कर उन्हें अनुभव होता जा रहा था कि देहाती बड़े आलसी और बदमाश हैं। इनके बारे में मुंशी साहब जो कुछ कहते हैं, वह सच है। अखबारों और भाषणों में उनकी हालत पर बेकार हड़कंप मचाया जाता है, यह लोग इसी के लायक हैं। जो इनके दुख और गरीबी का राग अलापते हैं, वह हकीकत जानते ही नहीं हैं।

एक दिन शर्मा जी महात्माओं की संगत से उकता कर सैर को निकले। घूमते-फिरते खेतों  की तरफ निकल गये। वहाँ आम के पेड़ के नीचे किसानों की गाढ़ी कमाई के सुनहरे ढेर लगे हुए थे। चारों ओर भूसे की आँधी-सी उड़ रही थी। बैल अनाज का एक हिस्सा खा लेते थे। यह सब उन्हीं की कमाई है, उन्हें खाने न देना बहुत ही गलत है। गाँव के बढ़ई, चमार, धोबी और कुम्हार अपना सालाना टैक्स देने के लिए जमा थे। एक ओर नट ढोल बजा-बजा कर अपने करतब दिखा रहा था। कवीश्वर महाराज की कविताएं आज जोरों पर थी।

शर्मा जी इस नजारे से बहुत खुश हुए। लेकिन इस खुशी में उन्हें अपने कई सिपाही दिखायी दिये जो लट्ठ लिये अनाज के ढेरों के पास जमा थे। जैसे फूल के बगीचे में ठूँठ कितना बुरा दिखायी देता है या सुंदर संगीत में जैसे कोई बेसुरी तान कानों को खराब लगती है, उसी तरह शर्मा जी को आँखों के सामने मँडराते हुए ये सिपाही दिखायी दिये। उन्होंने पास जाकर एक सिपाही को बुलाया। उन्हें देखते ही सब-के-सब रास्ता पकड़ कर दौड़े।

शर्मा जी ने पूछा- “तुम लोग यहाँ इस तरह क्यों बैठे हो ?”

एक सिपाही ने जवाब दिया- “सरकार, हम लोग किराएदारों के सिर पर सवार न रहें तो एक कौड़ी वसूल न हो। अनाज घर में जाने की देर है, फिर वह सीधे बात भी न करेंगे, बड़े बदमाश लोग हैं। हम लोग रात भर बैठे रहते हैं। इतने पर भी जहाँ आँख झपकी ढेर गायब हुआ”।

शर्मा जी ने पूछा- “तुम लोग यहाँ कब तक रहोगे ?”

एक सिपाही ने जवाब दिया- “हुजूर ! बनियों को बुला कर अपने सामने अनाज तौलाते हैं। जो कुछ मिलता है उसमें से लगान काट कर बाकी किराएदार को देते हैं।”

शर्मा जी सोचने लगे, जब यह हाल है तो इन किसानों की हालत क्यों न खराब हो ? यह बेचारे अपने पैसे के मालिक नहीं हैं। उसे अपने पास रख कर अच्छे मौके पर नहीं बेच सकते। इस परेशानी का हल कैसे किया जाय ? अगर मैं इस समय इनके साथ नरमी बरतूं तो लगान कैसे वसूल होगा।”

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