(Hindi) The Tatas: How a Family Built a Business and a Nation

(Hindi) The Tatas: How a Family Built a Business and a Nation

इंट्रोडक्शन (परिचय)


टाटा ग्रुप एक इन्डियन ग्लोबल बिजनेस है और ये बात हम प्राउड से बोल सकते है. लेकिन टाटा ग्रुप की इस फेनामोंनल सक्सेस का राज़ क्या है? कैसे उनका सफर शुरू हुआ? टाटा कल्चर क्या है? नाम, पॉवर, पैसा और सक्सेस– टाटा के पास सबकुछ है. लेकिन ऐसा क्या है जो उन्हें दुनिया के बाकि बिलेनियर्स से अलग बनाता है? आपके इन्ही सब सवालों के जवाब और बाकि और भी बहुत सी बाते आप इस बुक में पढेंगे.

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नुस्सेरवांजी ऑफ़ नवसारी (Nusserwanji of Navsari)

टाटा ग्रुप की शुरुवात एक इंसान ने की थी जिनका नाम था नुस्सरवान (Nusserwan). 1822 में जब उनका जन्म हुआ था तो एक एस्ट्रोलोजर ने कहा था कि एक दिन नुसरवान सारी दुनिया में राज़ करेगा.  वो बहुत अमीर आदमी बनेगा लेकिन नवसारी में पैदा हुआ हर एक बच्चा अच्छी किस्मत लेकर ही पैदा होता था. लेकिन नुसरवांजी टाटा औरो से अलग थे क्योंकि उन्होंने उस एस्ट्रोलोज़र की बात को सच कर दिखाया था. जैसा कि उन दिनों रिवाज़ था, नुसरवांजी टाटा की भी बचपन में ही शादी करा दी गई थी. और 17 साल की उम्र में वो एक बेटे के बाप भी बन गए थे. बच्चे का नाम जमशेद रखा गया. वो 1839 में पैदा हुआ था. नवसारी के ज्यादातर लोग अपने गावं से बाहर जाना पसंद नहीं करते थे.

उनके लिए उनका गाँव ही पूरी उनकी पूरी दुनिया था. लेकिन नुसरवांजी डिफरेंट थे, वो मुंबई जाकर कोई बिजनेस स्टार्ट करना चाहते थे. वो अपनी फेमिली के पहले इंसान थे जो नवसारी से बाहर गया हो. नुसरवांजी ना तो ज्यादा पढ़े-लिखे थे और ना ही उनके पास बिजनेस के लायक पैसा था, यहाँ तक कि उन्हें बिजनेस की कोई नॉलेज भी नहीं थी. लेकिन हाँ, उनके अंदर कुछ कर गुजरने का पैशन ज़रूर था. उनके सपने काफी बड़े थे और यही सपने उन्हें मुंबई लेकर आए. अपने साथ वो अपनी वाइफ और बेटे को भी ले गए. मुंबई जाकर उन्होंने एक फ्रेंड की हेल्प से कॉटन का बिजनेस शुरू किया.

नुसरवांजी अपने बेटे के लिए बड़े-बड़े सपने देखते थे. उनका बिजनेस अच्छा चल पड़ा था और अपने बेटे को बेस्ट एजुकेशन देने के लिए उनसे जो बन पड़ा उन्होंने सब कुछ किया. फिर कुछ ही सालो बाद जमेशदजी ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ली. नुसरवांजी चाहते थे कि उनके बेटे को इंटरनेशनल बिजनेस एक्सपोजर मिले इसलिए उन्होंने अपने बेटे को होंग-कोंग की ब्रिटिश कॉलोनी में भेज दिया. होंग-कोंग जाकर जमेशद जी ने तीन पार्टनर्स के साथ मिलकर के बिजनेस शुरू किया. और इस तरह टाटा कॉटन और ओपियम के डीलर बन गए.

नुसरवांजी का एक ब्रदर-इन-लॉ भी होंग-कोंग में ओपियम का डीलर था. उसका नाम था दादा भाई टाटा. दादा भाई टाटा का बेटा रतनजी दादाभॉय टाटा यानि आरडी जमेशदजी से 17 साल बड़ा था. आरडी एक ओपियम डीलर था, साथ ही वो परफ्यूम्स और पर्ल्स का भी बिजनेस करता था. वो अक्सर बिजनेस के सिलसिले में फ्रांस जाता रहता था. आरडी को बिजनेस पर्पज के लिए फ्रेंच आनी ज़रूरी थी इसलिए जमेशदजी ने उसके लिए एक फ्रेंच टीचर रखा. लेकिन आरडी को ना सिर्फ फ्रेंच पसंद आई बल्कि उसे टीचर की बेटी से भी प्यार हो गया था.

उस लड़की का नाम था सुजाने. आरडी एक विडो था और उम्र में सुजाने से बड़ा भी था फिर भी सुजाने को आरडी अच्छा लगा. दोनों एक दुसरे को चाहते थे. फिर जल्दी ही दोनों की शादी भी हो गयी. लेकिन आरडी को डर था कि उसकी क्न्जेर्वेटिव पारसी कम्यूनिटी सुजाने को एक्सेप्ट नहीं करेगी. इसलिए उसने सुजाने को बोला कि वो ज़ोरोंएस्थ्रेनिज्म में क्न्वेर्ट हो जाए. सुजाने पारसी बनने को रेडी थी उसने कन्वर्ट कर लिया और अपना नाम बदलकर सूनी रख लिया. आरडी और सूनी के पांच बच्चे हुए. उनके दुसरे बच्चे का नाम जहाँगीर था जिसे सारी दुनिया जेआरडी के नाम से जानती है.

टाटा फेमिली का बिजनेस अच्छा चल रहा था. वो लोग चाइना और यूरोप को ओपियम और कॉटन एक्सपोर्ट करते थे और इंडिया में चाय, टेक्सटाइल और गोल्ड इम्पोर्ट करते थे. उनका बिजनेस तेज़ी से ग्रो कर रहा था, और जल्द ही जमेशदजी ने शंघाई में अपना सेकंड ऑफिस खोल लिया था. जमशेद जी ने ही यूरोप में टाटा बिजनेस को योरोप में एस्टेब्लिश किया था. उस टाइम पैसेंजर एयरलाइन्स नहीं होती थी इसलिए उन्हें शिप से ट्रेवल करना पड़ता था.

तब क्रूज़ शिप्स भी नहीं चलते थे इसलिए लोग अपने कार्गो के साथ ही ट्रेवल करते थे. इन फैक्ट, जमशेद जी को कभी-कभी लाइवस्टॉक के साथ भी ट्रेवल करना पड़ता था. चिकेन्स, पिग्स, गोट्स वगैरह को फ्रेश मीट के लिए ट्रांसपोर्ट किया जाता था. लेकिन जमशेदजी ने सब कुछ बर्दाश्त किया, जानवरों की बदबू, लॉन्ग जर्नीज और सी-सिकनेस, सब कुछ क्योंकि उनकी नज़र अपने गोल पर थी. उनका सपना था लंदन में एक टाटा ऑफिस खोलना.

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अ में व्हू सोव्ड ड्रीम्स (एक आदमी जिसने सपने बुने) A Man Who Sowed Dreams

इंग्लैण्ड जाकर जमशेदजी ने मेन्यूफेक्च्ररिंग के बारे में काफी कुछ सीखा. अब वो कॉटन ट्रेडिंग के साथ-साथ मेन्यूफेक्चरिंग बिजनेस भी करना चाहते थे. 1873 में जमेशदजी ने अपनी खुद की स्पिनिंग और वीविंग मिल खोली. उस ज़माने में ज्यादातर बिजनेसमेन बोम्बे या अहमदाबाद में मिल्स खोलते थे लेकिन जमशेदजी ने नागपुर सिटी चूज़ की जो कॉटन फार्म्स के नज़दीक थी. जमशेदजी ने इंग्लैण्ड से बेस्ट क्वालिटी की मशीनरी आर्डर की और मशीनरी ऑपरेशन के एक्सपर्ट भी हायर किये. अपनी इस नए बिजनेस का नाम उन्होंने एम्प्रेस मिल्स रखा था.

लेकिन मिल चलाने में सबसे बड़ा चेलेंज था नागपुर का वर्क कल्चर. नागपुर के लोग आरामपंसद ज्यादा थे जबकि बॉम्बे में लोग छुट्टी वाले दिन भी काम करते थे. लेकिन नागपुर में रोज़ सिर्फ 80% लोग ही काम पर आते थे. लोग छोटी-छोटी बातो पे छुट्टी मार लेते थे. ऐसे में एम्प्लोईज को पनिशमेंट देने के बजाये जमशेदजी ने एक पोजिटिव सोल्यूशन निकाला. उन्होंने एम्प्लोईज के लिए प्रोविडेंट फंड स्कीम या कहे कि पेंशन प्लान निकाला ताकि रीटायरमेंट के बाद भी लोगो की जिंदगी आराम से चल सके. जमशेदजी ने एक इंश्योरेंस स्कीम भी शुरू की.

अगर कोई एम्प्लोई काम के दौरान घायल हो जाए या उसकी डेथ हो जाए तो उसे और उसकी फेमिली को मेडिकल एक्सपेंस मिल सके. वो अपने वर्कर्स के लिए स्पेशल इवेंट्स जैसे स्पोर्ट्स डे और फेमिली डे भी ऑर्गेनाइज़ कराते थे जहाँ पर गेम्स के विनर को ईनाम के तौर पर कैश, रिस्टवाचेस, या गोल्ड चेन्स मिलती थी. ये जमशेदजी के इनोवेटिव आईडियाज का ही कमाल था जो एम्प्रेस मिल के वर्कर्स अपने काम को लेकर और ज्यादा मोटीवेटेड फील करने लगे थे. और उनके वर्क एथिक्स में भी काफी चेंजेस आये थे.

इस तरह के पेंशन्स प्लान और इंश्योरेंस बहुत इम्पोर्टेंट थे और उस टाइम में तो इंग्लैण्ड में भी वर्कर्स को इस तरह की फेसिलिटी नहीं दी जा रही थी. जमशेदजी के इस इनिशिएटिव से ना सिर्फ उनके गुडविल नेचर का पता चलता है बल्कि ये भी ज़ाहिर होता कि वो दूर की सोचते थे. और टाटा कल्चर में हमेशा इन्ही छोटी छोटी बातो का ध्यान रखा जाता है. एम्प्रेस मिल टाटा ग्रुप की फाउंडेशन बनी. ये मिल पूरे 100 सालो तक चली. एक सक्सेसफुल बिजनेसमेन के तौर पर जमेशदजी की हमेशा तारीफ़ होती रही. लेकिन वो कभी भी सारा क्रेडिट खुद नहीं लेते थे बल्कि अपने एम्प्लोईज के साथ शेयर करते थे.

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बेपटिज्म बाई फायर (Baptism by Fire)

जेआरडी फ़्रांस में पला बढा था. ये 1925 की बात है जब उसने टाटा स्टील में काम करना शुरू किया. उन दिनों बोम्बे हाउस नया-नया बना था. उसके फादर आरडी ने उसे जॉन पीटरसन से इंट्रोड्यूस कराया जो टाटा स्टील का मैनेजिंग डायरेक्टर था. पीटरसन जेआरडी का मेंटर बन गया. कुछ महीनो बाद जेआरडी को जमशेदपुर भेजा गया जिसे इंडियन इंडस्ट्री का मक्का कहा जाता है. टाटा की पहले से वहां पर एक फेक्ट्री थी. जेआरडी को हर डिपार्टमेंट में एक दिन स्पेंड करना था और देखना था कि वहां पर कैसे काम होता है. जब गर्मियां आई तो आरडी बाकि फेमिली के साथ फ़्रांस चले गए.

वो लोग गर्मी की छुटियों में फ़्रांस के अपने होलीडे होम जाते थे. लेकिन जेआरडी को उनके फादर ने ट्रेनिंग के लिए जमशेदपुर में रहने को बोला. आरडी उस वक्त तक 70 साल के हो चुके थे. एक रात उनकी सबसे बड़ी बेटी ने उन्हें डांस करने को बोला. आरडी उठकर डांस करने लगे लेकिन थोड़ी देर बाद ही थककर बैठ गए. उन्हें सीने में हल्का सा दर्द उठा और वो कोलाप्स हो गए. उन्हें सीवियर हार्ट अटैक आया था,

आरडी की उसी वक्त डेथ हो गयी थी. डॉक्टर को बुलाने तक मौका तक नहीं मिला. आरडी, जिन्होंने जमशेदजी के साथ टाटा बिजनेस खड़ा किया था, अब इस दुनिया से जा चुके थे. जेआरडी के लिए ये एक शॉकिंग न्यूज़ थी. अपने 4 भाई-बहनों की रिस्पोंसेबिलिटी अब उनके कंधो पर थी. एक और बड़ा चेलेंज उनके सामने ये था कि आरडी की कंपनीज डूब रही थी और उन पर काफी क़र्ज़ था.

जेआरडी को अपनी कुछ प्रोपर्टीज बेचनी पड़ी. उन्होंने सुनीता हाउस, पूने वाला बंगला और फ़्रांस का होलीडे होम बेच दिया. जेआरडी और उनके भाई-बहन ताज महल होटल में जाकर रहने लगे. फेमिली बिजनेस चलाने के लिए जेआरडी ने अपनी फ्रेंच सिटीजनशिप छोड़ दी. और उन्हें इंग्लिश सीखनी पड़ी क्योंकि फ्रेंच उनकी नेटिव लेंगुएज थी. 1973 में बोर्ड मेंबर्स ने जेआरडी को टाटा एम्पायर का लीडर डिक्लेयर कर दिया.

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