(Hindi) The Power of Habit

(Hindi) The Power of Habit

भूमिका
आज सुबह जब आप नींद से जगे, आपने सबसे पहले क्या किया? लपक कर शावर के नीचे चले गए, ईमेल चेक किया, या किचन काउंटर से एक डोनट उठा लिया? आपने नहाने से पहले दाँतों को ब्रश किया या बाद में?  काम पर किस रास्ते से ड्राइव करते हुए गए? जब आप घर लौटे, तब क्या आपने स्नीकर्स पहना और दौड़ने निकल पड़े, या अपने लिए एक ड्रिंक ग्लास में डाला और टीवी के सामने डिनर के लिए बैठ गए?

विलियम जेम्स ने 1892 में लिखा था, “हमारा पूरा जीवन, जब तक यह एक निश्चित आकार में है, आदतों का पुंज है ।” हर दिन किए गए चुनाव हमें सोच-समझ कर लिए गए निर्णयों के परिणाम लग सकते हैं, पर वे हैं नहीं। वे आदतें हैं। और हालांकि हर आदत का अपने-आप में कुछ मायने नहीं होता, समय के साथ, हम किस खाने का ऑर्डर देते हैं, बचत करते हैं या खर्च करते हैं, कितने अक्सर कसरत करते हैं, और जिस तरह हम आपनी सोचों और काम की रूटीन को संवारते हैं – इनका हमारे स्वास्थ्य, प्रोडक्टिविटी, फायनैंशियल सिक्योरिटी और प्रसन्नता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। 2006 में प्रकाशित किए गए ड्यूक यूनिवर्सिटी के एक रिसर्चर के पेपर ने पाया कि लोगों द्वारा किए गए 40 प्रतिशत कार्य वास्तव में निर्णय नहीं थे, बल्कि आदतें थीं।

अरस्तू से ले कर ओपरा तक अनगिनत औरों की तरह जेम्स ने अपना अधिकांश जीवन यह समझने में बिता दिया कि आखिर आदतें होतीं क्यों हैं। परंतु केवल विगत दो दशकों में वैज्ञानिकों और मार्केटरों और ने वास्तव में यह समझना शुरु किया है कि आदतें कैसे काम करती हैं –– और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण –– कि यह बदलतीं कैसे हैं। किसी समय-बिंदु पर, हम सभी ने सोच-समझ कर निश्चय किया था कि कितना खाना खाएँ या जब हम ऑफिस पहुँचें तो फोकस कैसे करें, कितनी बार ड्रिंक लें और दौड़ने कब जाएँ। तब हमने चुनाव करना बंद कर दिया, और व्यवहार सहज हो गया। यह हमारी न्यूरोलॉजी का स्वाभाविक परिणाम है। और इसे समझते हुए कि यह कैसे होता है, आप जिसे भी पसंद करते हैं उन पैटर्न्स को फिर से बना सकते हैं।

आदत का फंदा: आदतें कैसे काम करती हैं

जिस बिल्डिंग में मैसेच्यूसेट्स इंस्टिच्यूट ऑफ टेकनॉलजी (MIT) के ब्रेन और कॉग्निटिव सायंसेज का विभाग है उसमें लैबोरेटरीज भी हैं जो यूँ ही ताकने वालों को सर्जिकल थिएटर्स के गुड़ियाघर संस्करण दिखाई दे सकते हैं। उसमें रोबोटिक बाहों से लगी, चौथाई इंच से भी छोटे छोटे-छोटे स्कैल्पेल्स, ड्रिल्स, नन्हीं आरियाँ हैं। ऑपरेटिंग टेबल्स भी छोटे-छोटे हैं जैसे बच्चों की साइज के सर्जन्स के लिए बनाए गए हों। इन लैबोरेटरीज़ के अंदर बेहोश किए गए चूहों की खोपड़ियाँ काटते हैं, और उनके अंदर नन्हें सेंसर्स इम्पालांट करते हैं जो उनके दिमागों के अंदर छोटे से छोटे बदलावों को रिकॉर्ड करती हैं। यह लैबोरेटरीज़ आदत-बनाने के विज्ञान में नीरव क्रांति का एपीसेंटर बन गई हैं, और उनमें किए जाने वाले प्रयोग इसकी व्याख्या करते हैं कि हम दैनिक जीवन के लिए आवश्यक आचरणों का विकास कैसे करते हैं।

लैबोरेटरीज़ के चूहे हमारे दिमागों में चलने वाली उन जटिलताओं पर प्रकाश डालते हैं जब हम दाँतों को ब्रश करना या ड्राइवे सा कार बैक करते हुए कार निकालने जैसा कोई साधारण काम करते हैं। खोपड़ी के केंद्र की ओर गॉल्फ की गेंद की साइज का टिश्यू पिंड होता है जिनके समान पिंड आप मछलियों, सरीसृपों या स्तनपाइयों के सिरों में भी पा सकते। यह अंडाकार कोशिका-पुंज, बेसल गैंग्लिया है जिसे वैज्ञानिक वर्षों तक अच्छी तरह से समझ नहीं पाए थे, केवल उन संदेहों के सिवा कि पार्किंसंस जैसे रोगों में इसकी कोई भूमिका होती है। 1990 के दशक के शुरू में, MIT के शोधकर्ताओं ने सोचना शुरू किया बेसल गैंग्लिया आदतों के लिए भी महत्वपूर्ण हो सकता है। उन्होंने लक्ष्य किया कि घायल बेसल गैग्लिया वाले प्राणियों को भूल-भुलैया से होकर दौड़ने तथा फूड कंटेनर्स को खोलना याद रखने में समस्याएँ हो रही हैं। उन्होंने नई माइक्रो टेकनॉलजीज का उपयोग करते हुए प्रयोग करने का निर्णय किया जिनसे वे उन सूक्ष्म विवरणों का निरीक्षण कर सकते थे जो दर्जनों रूटीन कार्य करते समय चूहों के दिमाग में चल रहे होते हैं।

अंत में, प्रत्येक प्राणी को एक T आकार की भूलभुलैया में रखा गया जिसके एक सिरे पर चॉकलेट रखी गई थी। भूलभुलैया का ढांचा इस तरह बनाया गया था जिससे चूहे का स्थान एक पार्टीशन के पीछे था जो एक जोरदार क्लिक की आवाज किए जाने पर खुलता था। पहले-पहल जब वह क्लिक की आवाज सुनता और पार्टीशन को गायब होते देखता तब यह साधारणतः केंद्रीय गलियारे में, कोनों को सूंघता और दीवारों को नचोटता हुआ आगे-पीछे घूमता-फिरता था। लगता था कि उसे चॉकलेट की सुगंध मिल रही थी पर वह यह नहीं समझ पा रहा था कि उसे कैसे ढूँढ़ निकाले। जब यह T के शीर्ष पर पहुँचता, तब यह चॉकलेट से दूर, दाहिने मुड़ता, और तब कभी-कभी, बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के, रुक कर, बाईँ ओर निकल जाता। अंत में, अधिकांश प्राणियों को इनाम मिल जाता था। परंतु उनके भटकाव में कोई प्रत्यक्ष पैटर्न नहीं था। लगता था कि हर चूहा फुर्सत से, बिना सोचे-विचारे टहल रहा था। फिर भी, चूहों के सिरों की जाँच एक अलग कहानी कहती थी। जब प्रत्येक प्राणी भूल-भुलैया से में भटक रहा था, उसका दिमाग –– और विशेष रूप से उसका बेसल गैंग्लिया –– जल्दबाजी से काम कर रहा था।

हर बार जब कोई चूहा हवा सूंघता या दीवार नचोटता, इसका दिमाग ऐक्टिविटी से विस्फोट करता, मानो वह प्रत्येक गंध, दृश्य और आवाज की ऐनैलिसिस कर रहा हो। अपने पूरे भटकाव के दौरान चूहा सूचना प्रोसेसिंग कर रहा था। सैकड़ों बार एक ही रास्ते चलते हुए इसके दिमाग की ऐक्टिविटी कैसी बदलती थी, इसका निरीक्षण करते हुए, वैज्ञानिकों ने इस प्रयोग को बार-बार दोहराया। चूहों ने के सूंघना और गलत मोड़ लेना बंद कर दिया। धीरे-धीरे बदलावों की एक सीरिज उभर आई। इसके बदले वे भूल-भुलैया से होकर तेजी से, और भी तेजी से निकलने लगे। और उनके दिमागों में कुछ अनएक्सपेक्टेड हो गया : जैसे-जैसे हर चूहा भूल-भुलैया से रास्ता ढूँढ़ कर निकलना सीखता गया, उसकी मानसिक ऐक्टिविटी कम होती गई। जैसे-जैसे रास्ता अधिक से अधिक सहज होता गया, हर चूहे ने कम — और भी कम सोचना शुरू कर दिया। ऐसा लगता था, जैसे पहले कई बार जब चूहे ने भूल-भुलैये में रास्ते की तलाश की, तब इसके दिमाग को नई सूचना को समझने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा कर काम करना पड़ता।

परंतु कुछ दिनों तक उसी एक रास्ते पर चलते रहने के बाद, चूहे को दिवाल खसोटने या हवा सूंघने की अब और आवश्यकता नहीं रह गई, और इसलिए खसोटने और सूंघने से संबंधित दिमागी ऐक्टिविटी समाप्त हो गई। इसे मुड़ने के लिए दिशा चुनने की दरकार नहीं रह गई, इसलिए दिमाग के निर्णय लेने वाले केंद्र शांत हो गए। चूहे ने भूलभुलैया से होकर दौड़ कर निकल जाना इस हद तक अपना लिया था कि इसे सोचने की कोई भी आवश्यकता नहीं रह गई थी। परंतु दिमागी निरीक्षणों ने सूचित किया कि अपनाना बेसल गैंग्लिया पर निर्भर करता था। जैसे-जैसे चूहा अपनी दौड़ने की गति बढाता गया, लगता था कि यह नन्हे, न्यूरोलॉजिकल ढांचे हावी हो गए हैं और दिमाग कम से कम काम कर रहा है। पैटर्न्स याद रखने तथा उन पर काम करने के केंद्र में बेसल गैग्लिया था। दूसरे शब्दों में, जब बाकी दिमाग सोने चला जाता, तब बेसल गैग्लिया आदतों को संग्रह करता।


‘चंकिंग’ की सहज रूटीन

यह प्रौसेस –– जिसमें दिमाग ऐक्टिविटीज की किसी चेन को एक सहज रूटीन में बदल लेता है –– “चकिंग,” के रूप में जाना जाता है और इसकी जड़ें इसमें है कि आदतें कैसे बनती हैं। आचरण चंक्स –– यदि सैकड़ों नहीं –– तो दर्जनों हैं जिनपर हम रोज निर्भर करते हैं। इनमें कुछ सरल हैं : मुँह में लगाने के पहले आप ब्रश पर सहजता के साथ टूथपेस्ट डाल लेते हैं। ऐसे ही कुछ, जैसे कपड़ा पहनना हुआ या बच्चों के लिए लंच बनाना, अधिक जटिल हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि आदतें उभर आती हैं क्योंकि दिमाग प्रयास से बचने के लिए लगातार उपाय ढूँढ़ता है। यदि इसे अपने-आप पर छोड़ दिया जाए, तब दिमाग लगभग किसी भी रूटीन को आदत में ढालने की कोशिश करेगा, क्योंकि आदतें हमारे दिमागों को अधिक अक्सर भटकने की परमिशन देती हैं। प्रयास से बचने की प्रवृत्ति बहुत फायदेमंद है।

एक एफिशिएंट दिमाग हमें टहलने, तथा क्या खाएँ इसे चुनने जैसे बेसिक आचरणों के बारे में लगातार सोचना बंद करने की परमिशन देता है, जिससे हम भालों, सिंचाई सिस्टम्स और अंत में हवाई जहाज या विडियो गेम्स आविष्कार करने में मानसिक ऊर्जा समर्पित कर सकें। हमारे दिमागों में होने वाली यह प्रक्रिया एक तीन-ठहरावों का फंदा है। पहला एक क्यू (cue), एक ट्रिगर है जो आपके दिमाग को सहज मोड में जाने के लिए कहता है और यह कि किस आदत का उपयोग करें। तब यह रूटीन है, जो एक शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक हो सकती है। अंत में, एक रिवार्ड (पारितोषिक) है, जो आपके दिमाग को यह समझने में सहायता करता है कि भविष्य के लिए कौन सा फंदा याद रखे जाने लायक है। समय के साथ, यह फंदा –– क्यू, रूटीन, रिवार्ड ; क्यू, रूटीन, रिवार्ड  –– अधिक सहज हो जाता है। क्यू और रिवार्ड आपस में गुँथ जाते हैं जब तक प्रत्याशा और ललक (क्रेविंग) का एक शक्तिशाली भाव उभर कर नहीं आ जाता।

अंत में, एक आदत जन्म लेती है। आदतें कोई विधाता का विधान नहीं हैं। आदतों की अनदेखी की जा सकती है, बदला जा सकता है, या पलटा जा सकता है। परंतु वह कारण जिसके लिए आदत के फंदे का आविष्कार इतना महत्वपूर्ण है, यह है कि यह एक बेसिक सच्चाई से पर्दा हटाती है : जब कोई आदत उभरती है, तब दिमाग निर्णय लेने में भाग लेना पूरी तरह से बंद कर देता है। यह उतना परिश्रम करना बंद कर देता है, या अपने फोकस को दूसरे कार्यों पर मोड़ देता है। इसलिए जब तक आप जानबूझ कर किसी आदत से लड़ाई नहीं करते –– जब तक आप नई रूटीनें नहीं ढूँढ़ लोते –– यह पैटर्न सहजता के साथ खुलेगा। MIT के एक वैज्ञानिक ऐन ग्रेबियल के अनुसार, जो बेसल गैग्लिया के कई प्रयोगों का निरीक्षण कर रही थी,  “आदतें वास्तव में कभी भी गायब नहीं होतीं। वे हमारी दिमागी ढांचे में एनकोडेड हो जाती हैं … समस्या यह है कि आपका दिमाग अच्छी और बुरी आदतों में अंतर नहीं बता सकता, इसलिए यदि आपकी आदत बुरी है, यह वहाँ सही क्यूज और रिवार्ड्स की प्रतीक्षा करता हुआ, हमेशा घात लगाए रहता है।” आदतों के फंदों के बिना, दैनिक जीवन की जरा सी बात से घबरा कर, हमारे दिमाग बंद हो जाएँगे।

ललकता दिमाग: नई आदतें कैसे बनाएँ

1900 के शतक के आरंभ में एक दिन, क्लाउड सी हॉप्किंस नामक एक प्रख्यात अमेरिकन एक्जेक्यूटिव के पास कोई पुराना मित्र एक बिजनेस आइडिया लेकर आया। उस मित्र ने बताया कि उसने एक अद्भुत प्रोडक्ट का आविष्कार किया था, और पूरी तरह से आश्वस्त था कि वह बहुत चलेगा। यह एक मिंटी, झागदार मिश्रण एक टूथपेस्ट था जिसका नाम उसने “पेप्सोडेंट” रखा था। उसने कहा कि यह उद्यम, बहुत बडा होने वाला था। केवल यदि, हॉपकिंस एक राष्ट्रीय प्रचार-प्रसार कैंपेन डिजाइन करने में सहायता करने के लिए राजी हो जाए। उस समय, हॉप्किंस एक तेजी से विकसित होते उद्योग का कर्णधार था, जिसका केवल कुछ दशक पहले कोई अस्तित्व ही नहीं था : विज्ञापन। उसने पहले अज्ञात रह चुके दर्जनों प्रोडक्ट्स, जैसे –– क्वेकर ओट्स, गुडइयर टायर्स, बिसेल कार्पेट स्वीपर, वैन कैम्प्स पोर्क ऐंड बीन्स –– को गृहस्थियों में अविरल प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं में बदल दिया था। और इस प्रौसेस में, उसने खुद को इतना धनी बना लिया था कि उसकी आत्मकथा, माइ लाइफ इन ऐडवर्टाइजिंग, जिसमें अधिक पैसे खर्च करने में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन करने में कई चैप्टर समर्पित किए गए थे, सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक बन गई थी।

हॉप्किंस के नियम  हॉप्किंस के द्वारा स्वयं निकाले गए उन नियमों की सीरिज के लिए प्रसिद्ध है जो यह समझाते हैं कि ग्राहकों में नई आदतें कैसे डाली जाएँ। यह नियम उद्योगों को ट्रांसफॉर्म कर देते थे और अंत में मार्केटिंग करने वालों, शिक्षा सुधारकों, पब्लिक हेल्थ प्रोफेशनल्स, राजनीतिकों तथा CEOs के बीच पारंपरिक ज्ञान बन गए थे। जब उसका मित्र हॉप्किंस के पास पेप्सोडेंट लेकर आया तो उस विज्ञापन वाले व्यक्ति ने केवल हल्की रुचि दिखाई की थी। इसमें कोई रहस्य नहीं था कि अमेरिकनों के दाँतों का स्वास्थ्य भयानक गिरावट पर था। चूंकि जैसे-जैसे यह देश अधिक धनवान होता गया, लोगों ने मीठे तथा प्रोसेस किए गए भोजनों को बड़ी मात्रा में खरीदना शुरू कर दिया था। जब सरकार ने प्रथम विश्व युद्ध के लिए लोगों की सेना में भर्ती शुरू की, तब इतने रंगरूटों के दाँत सड़े हुए थे कि अधिकारियों ने कहा दाँतों की खराब हाइजिन, सुरक्षा पर खतरा थी। फिर भी, जैसे कि हॉप्किंस जानता था, टूथपेस्ट बेचना पैसों के मामले में आत्महत्या थी। समस्या यह थी कि शायद ही कोई टूथपेस्ट खरीदता था, क्योंकि इस देश की दाँतों का समस्या के बावजूद, बिरले ही कोई दाँत ब्रश करता था। “मैं अंत में कैंपेन का उत्तरदायित्व लेने के लिए राजी हो गया यदि वह स्टॉक के एक ब्लौक पर मुझे छः महीनों का ऑप्शन दे,”

हॉप्किंस ने लिखा था। वह मित्र राजी हो गया। पैसों के मामले में यह हॉप्किंस के जीवन का सबसे समझदारी भरा निर्णय साबित होने वाला था। साझेदारी के पाँच वर्षों के अंदर, हॉप्किंस ने पेप्सोडेंट को पृथ्वी पर सबसे अधिक जाने-माने प्रोडक्ट्स में से एक बना दिया था, और इस प्रौसेस में, टूथब्रश करने की आदत बनाने में सहायता कर डाली, जो पूरे अमेरिका में चौंका देने वाली स्पीड से फैल गया। पेप्सोडेंट के पहले कैंपेन के एक दशक बाद, मतदान सर्वे करने वालों ने पाया कि दाँतों को ब्रश करना आधी से अधिक अमरीकी जनसंख्या के लिए एक रिवाज बन गया था। हॉप्किंस ने दाँत ब्रश करने की क्रिया को एक दैनिक ऐक्टिविटी में जमाने में सहायता की थी।  बाद में हॉपकिंस ने गर्व के साथ कहा कि उसकी सफलता का रहस्य यह है कि उसने एक विशेष प्रकार के क्यू और रिवार्ड की खोज पा ली है जो किसी विशेष आदत के लिए इंधन का काम करता है। यह एक इतनी शक्तिशाली ऐल्केमी है कि आज भी वीडियो गेम्स डिजाइनरों, फुड कंपनियों, अस्पतालों और करोडों सेल्स-कर्मियों द्वारा संसार भर में इसके बेसिक सिद्धांतों का उपयोग किया जाता है।  तब, आखिरकार हॉप्किंस ने किया क्या था?  उसने एक ललक की सृष्टि की थी। और जैसा कि प्रकट होता है, यही ललक आदत के फंदे को ताकत देती है।

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