(Hindi) The Four Agreements: A Practical Guide to Personal Freedom

(Hindi) The Four Agreements: A Practical Guide to Personal Freedom

इंट्रोडक्शन(Introduction)

क्या आप अपना बचपन मिस नहीं करते? क्या आप हर समय ख़ुश रहना, हर चिंता फ़िक्र से दूर, किसी भी ड्यूटी से फ्री होना मिस नहीं करते? उदास मत होइए आप बड़े होने के बाद भी ख़ुश रह सकते हैं और शांति से अपनी लाइफ जी सकते हैं. सिर्फ़ इसलिए कि आपके ऊपर बहुत सी जिम्मेदारियां हैं इसका मतलब ये तो नहीं आप हर वक़्त चिंता में डूबे रहे या दुखी रहे.

ये बुक आपको अपना गोल अचीव करने में मदद करेगी. इन पन्नों में ऐसे राज़ छुपें हैं जो आपको जीवन जीने की आर्ट सिखा देंगे. आपको तो शायद एहसास भी नहीं लेकिन आप अब तक ऐसा जीवन जी रहे हैं जो आपका अपना है ही नहीं.इस बुक को पढ़ने के बाद आपको पता चलेगा कि आपके अभी जो सपने हैं असल में वो आपके हैं ही नहीं, वो तो सोसाइटी के सपने हैं. तो आप सीखेंगे कि सोसाइटी के रूल्स से ख़ुद को कैसे आज़ाद करना है जिसने आपकी लाइफ को कंट्रोल कर रखा है.

सबसे पहले आप सीखेंगे कि सोसाइटी में अच्छे काम करने के लिए अपने शब्दों यानी वर्ड्स का कैसे इस्तेमाल करना चाहिए. एक कहावत है “पेन इज़ माइटीयर देन स्वोर्ड” यानी लिखे हुए या बोले हुए शब्दों में एक तलवार से ज़्यादा धार होती है. आपके शब्दों में बहुत पॉवर होती है तो आप सीखेंगे कि उनकी पॉवर को ख़ुदके लिए और आस पास के लोगों में पॉजिटिव एनर्जी को बढ़ावा देने के लिए कैसे यूज़ किया जाए.

आपको समझ में आने लगेगा कि कई बार लोग यू हीं कुछ कह देते हैं लेकिन उनका मकसद आपको ठेस पहुंचाने का नहीं होता. इसलिए आपको चीज़ों को पकड़ कर रखने की बजाय उन्हें भुलाकर आगे बढ़ने की सोच को डेवलप करनी चाहिए. हर बात को पर्सनली लेना सही सोच नहीं है. कई बार हमारे दुःख का कारण हमारी खुद की सोच होती है क्योंकि हम बस मान लेते हैं कि उसने मुझे जानबूझकर नीचा दिखाया या हर्ट किया लेकिन असल में ऐसा  नहीं होता.

हम अक्सर उम्मीद करते हैं कि लोग एक पर्टिकुलर तरीके से हमारे साथ बिहेव करेंगे और जब ऐसा नहीं होता तो हम दुखी और निराश हो जाते हैं.हमें इस हैबिट को बदलने की ज़रुरत है. ये बुक हमें सिखाएगी कि कैसे चीज़ों को assume करना बंद करके एक ड्रामा फ्री लाइफ जिया जा सकता है.

ये बुक आपको अपना बेस्ट परफॉर्म करने में भी मदद करेगी.आप सीखेंगे कि अपना बेस्ट देना कोई मुश्किल काम नहीं है, इसके लिए बस प्रैक्टिस की ज़रुरत है. हाँ, आपका रिजल्ट हमेशा परफेक्ट नहीं हो सकता लेकिन समय के साथ आपका परफॉरमेंस इतना कमाल का होगा कि आपको ख़ुद पर गर्व होने लगेगा.

आप टोल टेक मेंटालिटी के प्रिन्सिप्ल के बारे में जानेंगे. ये आपको बेहतर अवेयरनेस, बेहतर ट्रांसफॉर्मेशन और बेहतर intention की तरफ़ गाइड करेगा.ये बुक आपको बदलाव के बारे में सोचने के लिए मजबूर करेगी. ये इस बात का प्रूफ है कि बस कुछ स्टेप्स फॉलो करके आप अपनी पसंद का जीवन क्रिएट कर सकते हैं. ये स्टेप्स आपको कुछ मुश्किल लग सकते हैं लेकिन आपके पर्सनल फ्रीडम और नए सपने की दिशा में ले जाने के लिए सिर्फ़ यही एक रास्ता है.

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डोमेस्टिकेशन एंड द ड्रीम ऑफ़ द प्लेनेट(Domestication and the Dream of the Planet)

क्या आपने कभी सोचा है कि आपके सपने कहाँ से आते हैं? क्या वो आपकी अपनी इच्छा है या वो किसी और की इच्छा है? हम ऐसी दुनिया में जन्म लेते हैं, बड़े होते हैं जहां पहले से ही कई रूल्स बने हुए हैं. हम जिस माहौल में रहते हैं, जो देखते हैं सुनते हैं उन सब का हमारी सोच और बिलीफ सिस्टम पर गहरा असर होता है. आपको ऐसा लग सकता है कि ये आपकी अपनी सोच है लेकिन जब आप गहराई से देखेंगे तब आपको समझ में आएगा कि इन सब पर सोसाइटी के रूल्स का कितना असर होता है.आइए सैम की कहानी से समझते हैं.

सैम के जन्म से पहले उसके माता पिता की लाइफस्टाइल, उनके सोचने का तरीका अलग था. सैम के जन्म के बाद उन्होंने उसके लिए सब कुछ तैयार किया, यहाँ तक कि सैम किस तरह सोचेगा ये भी उन्होंने ही डिसाइड कर लिया.

अब सैम के पैदा होने के बाद उसके थॉट्स और सोचने के तरीके पर उसके परिवार, पड़ोसी, स्कूल, सोसाइटी सबका असर होता है. इसलिए अपनी एक अलग सोच होने के बजाय वो भी उनकी तरह ही सोचने लगता है.

यहाँ तक कि अगर सैम किसी चीज़ पर सवाल उठाएगा तब भी सोसाइटी उसे चुप करा देगी. ये सोसाइटी लंबे समय से है और किसी भी नई सोच को अपनाने में या तो इसे दिलचस्पी नहीं होती या ये उसे अपनाना ही नहीं चाहती. अक्सर एक अकेली आवाज़ सोसाइटी के सामने दब कर रह जाती है.

अब ज़रा सैम के माइंड के बारे में सोचें, वो मानो एक बुक की तरह है जिसमें हज़ारों रूल्स और लॉज़ लिखे हुए हैं. उसके हर डिसिशन को इन रूल्स के हिसाब से ही आंका जाता है. यहाँ तक कि उसके सही या गलत होने को भी इन रूल्स के बेसिस पर ही जज किया जाता है.

लेकिन ये बुक आखिर बनी कैसे? इसे इस तरह सोचिये कि सैम जब छोटा था तो जब भी वो कोई अच्छा काम करता तो उसकी माँ उसे इनाम देती और जब भी उससे कोई गलती हो जाती तो उसे सज़ा मिलती थी. बस यहीं से इन सभी चीज़ों की शुरुआत होती है.

लेकिन अब सवाल ये उठता है कि ये अच्छा या बुरा आखिर किसके हिसाब से है? सैम की माँ ने तो हर चीज़ को उसी तरह से जज किया, उसी नज़रिए से समझा जैसा उनकी माँ ने उन्हें सिखाया था और ये लिस्ट ऐसे ही एक जनरेशन से दूसरे जनरेशन तक चलती रहती है. इसलिए एक्चुअल या रियल चेंज तो हुआ ही नहीं. हमने बस रूल्स का एक सेट बना लिया है जिसे सब कुँए के मेंडक की तरह फॉलो करते जा रहे हैं.

ना हमारी अपनी कोई सोच है और ना हम अपने पसंद के सपने देख सकते हैं क्योंकि सोसाइटी जो हम पर पहरा लगाए बैठा है. चाहे हमें पसंद हो या ना हो, चाहे हम सोसाइटी की बातों और सोच से सहमत हो या ना हों, हमें तो सोसाइटी का हिस्सा बने रहने के लिए उसके रूल्स को मानना ही पड़ता है, है ना?

तो अब इसका हल क्या है? खुल कर जिंदगी जीने का बस एक ही रास्ता है कि सोसाइटी के जिन लॉज़ को हमारे दिलो दिमाग में बैठाया गया है उनसे बाहर निकल कर अपने माइंड को आज़ाद किया जाए.हमें अपने सोचने का तरीका बदलना होगा. जब हमारी सोच बदलेगी तब हमारी पर्सनालिटी भी बदलेगी.अपने पसंद का जीवन जीने के लिए, अपनी पसंद के सपने देखने के लिए शायद अब हमें ख़ुद से बात करने की ज़रुरत है.

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द फर्स्ट अग्रीमेंट : बी इम्पेकेबल विथ योर वर्ड (The First Agreement: Be Impeccable With Your Word)

अगर आप सच में ख़ुश रहना चाहते हैं तो आपको ख़ुद बदलाव करने की पहल करनी होगी. आथर इसे ख़ुद से कुछ प्रॉमिस करना कह सकते हैं . इस बुक के ऑथर इसे ख़ुद के साथ अग्रीमेंट करना कहते हैं. तो आइए पहले अग्रीमेंट के बारे में जानते हैं जो है “सोच समझ कर शब्दों का इस्तेमाल करना.

क्या आपको बचपन का कोई किस्सा याद है जब आपने अपनी मम्मी को कोई जोक सुनाया हो और हंसने की जगह उन्होंने कहा हो कि “चुप हो जाओ, तुम बिलकुल भी फनी नहीं हो और मुझे हंसी नहीं आई”. उस दिन से आप किसी को भी जोक सुनाने में uncomfortable महसूस करने लगे क्योंकि आपने अपने मन में ये बात बैठा ली कि आप एक बोरिंग इंसान है जो बिलकुल फनी नहीं है.

हमारे वर्ड्स बहुत पावरफुल होते हैं. जब भी हम खुद को या किसी और को जज करते हैं तो वो एक पावरफुल डिसिशन होता है. जब आप किसी से कहते हैं कि तुम स्टुपिड हो तो कहीं ना कहीं वो इस बात को मानने लगता है कि वो स्टुपिड है. वो पूरी जिंदगी तब तक खुद को स्टुपिड मानता रहेगा जब तक कोई और उसे ना कहे कि तुम स्मार्ट हो या जब तक उसकी खुद की सोच नहीं बदल जाती.आपको अंदाज़ा भी नहीं है कि आपके वर्ड्स का किसी के मन और कॉन्फिडेंस पर क्या असर हो सकता है.

इसलिए बहुत सोच समझ कर अपने वर्ड्स को यूज़ करना चाहिए. ऐसी बातें ना कहें जो आपको या दूसरों को हर्ट करे. पॉजिटिव वर्ड्स को यूज़ करके अपने अंदर और दूसरों में भी पॉजिटिव एनर्जी क्रिएट करें. आइए इसे एक एक्जाम्पल से समझते हैं. इमेजिन कीजिए कि एक माँ है जो थक हार कर घर पहुंची हैं. पूरे दिन के काम ने उन्हें थका दिया है और अब वो सिर्फ़ थोड़ा रेस्ट करना चाहती हैं.उनकी एक छोटी सी बेटी थी जो उस दिन बहुत ख़ुश थी. घर आने के बाद वो औरत अपने सोफ़े पर थोड़ा आराम करना चाहती थी लेकिन उनकी बेटी नटखट थी और उसे सोफ़े पर उछलने का, कूदने का मन हो रहा था.

अपनी माँ को देख कर वोमस्त होकर गाना गाने लगी और सोफ़े पर जम्प करने लगी. वो बहुत ख़ुश और excited थी, अब बच्चे तो ऐसे ही होते है ना, नटखट और चंचल. वो अपनी धुन में ज़ोर ज़ोर से गाए जा रही थी. उसकी माँ बड़ी शांति से सब देख रही थी. उन्होंने बच्ची पर कोई ध्यान नहीं दिया और अपने काम में लग गई. वो कभी बेडरूम में जाती तो कभी ड्राइंग रूम में और हर जगह वो बच्ची उनकी पूँछ बनकर उनके पीछे पीछे जा रही थी. लेकिन एक पॉइंट आने पर उनका पेशेंस ख़त्म हो गया और उन्होंने ज़ोर से बच्ची को डांट दिया. उन्होंने कहा कि “तुम्हारी आवाज़ मेरे कानों में चुभ रही है और वो इतनी सुरीली भी नहीं है इसलिए चुप हो जाओ.”

हालांकि बच्ची की आवाज़ प्यारी थी लेकिन उसने गाना बंद कर दिया. बस उसी समय उसने ये मान लिया कि उसकी आवाज़ इतनी बुरी है कि उसे अब कभी नहीं गाना चाहिए. सालबीतते गए, बच्ची बड़ी होने लगी लेकिन वो कोशिश करती कि जितना कम हो सके उतना कम बोले क्योंकि उसे विश्वास हो गया था कि उसकी आवाज़ बहुत बुरी है और कोई उसे ना सुने तो ही अच्छा होगा. इस वजह से वो बड़ी होकर शर्मीली बन गई और लोगों के सामने जाने में uncomfortable महसूस करने लगी.

उसकी माँ को तो एहसास तक नहीं होगा कि जानबूझकर ना सही लेकिन उनके शब्दों ने उनकी बेटी के मन को inferiority complex को भर दिया था.वो तो बस उस दिन थकी हुई थी, गुस्से में थी और उन्हें नहीं पता था कि वो क्या कर रही हैं. लेकिन वो बच्ची छोटी थी और उसका मन कोमल था जिसने उसके मन पर गहरा असर छोड़ दिया.

बच्चे स्पंज की तरह होते हैं, अपने आस पास की चीज़ों को, बातों को बड़ी जल्दी absorb कर लेते हैं. इसलिए हमें सोच समझ कर उनके साथ पेश आना चाहिए. हमें लगता है कि हम कुछ भी कह सकते हैं और इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा लेकिन हमारे शब्दों में जादू के जैसी ताकत होती है.ये या तो लोगों को चोट पहुंचा सकते हैं या उनके निराश मन में भी जान डाल सकते हैं.

तो आइए सब नेगेटिव कमेंट और गॉसिप को ख़त्म करके एक दूसरे को मोटीवेट करने की सोच को बढ़ावा देते हैं. आपकी सिर्फ़ एक तारीफ़ किसी निराश इंसान के मन में उम्मीद जगा सकती है इसलिए ये ज़िम्मेदारी आपको लेनी होगी कि आप किन शब्दों को यूज़ करते हैं.

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