(hindi) Sir C.V. Raman
हजारों सालों से हमारे देश की पहचान गोल्डन बर्ड यानी सोने की चिड़ियाँ के रूप में होती रही है. इस देश की धरती इतनी उर्वर और समृद्ध है कि यहाँ natural resources की भरमार तो है ही साथ ही इस धरती ने कई ऐसे महान लोगों को जन्म दिया है जिन्होंने अपने ज्ञान और बुद्धि के बल पर दुनिया के नक्शे में अपनी अमिट छाप छोड़ी है.
हमारे इस देश में कई महान लोगों का जन्म हुआ जिनकी प्रतिभा और ज्ञान का दुनिया ने लोहा माना है. इन महान दिग्गजों ने अपने कारनामों से हमारे देश का नाम तो रौशन किया ही है साथ हमें दुनिया के नक्शे में एक ऐसे देश के तौर पर पेश किया है जहाँ टैलेंट की कोई कमी नहीं है. भारत ने अपनी प्रतिभा का लोहा हर जगह मनवाया है चाहे वो साइंस हो या कोई और फील्ड . यहाँ तक कि जब हमारे देश में अंग्रेज़ राज कर रहे थे तब भी हम किसी से पिछडे नहीं थे.
आज हम बात करेंगे ऐसे ही एक महान शख्स की जो पहले ऐसे एशियाई और इंडियन थे, जिन्हें फिजिक्स की फील्ड में नॉबेल प्राइज से नवाज़ा गया था, जी, हाँ हम बात कर रहे है सर सी.वी.रमन की.
सन, 1888 में 7 नवंबर के दिन तिरुचिरापल्ली के पास कावेरी नदी के किनारे एक छोटे से गाँव में वेंकट रमन का जन्म हुआ था. वो एक तमिल हिंदू परिवार में पैदा हुए थे, उनके पिता का नाम था चंद्रशेखर अय्यर और माँ का नाम था पार्वती अम्मल. अपने आठ भाई-बहनों में वेंकट रमन दूसरे नंबर पर थे. जैसा कि उन दिनों रिवाज़ था, बच्चे के पैदा होने पर उसके नाम के साथ पिता का नाम जोड़ दिया जाता था तो वेंकट रमन के नाम में पिता का नाम जुड़ा और इस तरह उन्हें नाम मिला चंद्रशेखर वेंकट रमन .
उनका परिवार किसानों का परिवार था, उनके अडोस-पड़ोस और उस ईलाके के रहने वाले ज्यादातर लोग खेती-बाड़ी ही किया करते थे. हालाँकि उनके पिता गाँव के लोकल स्कूल में पढ़ाते थे. वेंकट के पिता मैथ्स और फिजिक्स के स्कॉलर थे. इसके अलावा उनके पिता एक महान संगीत प्रेमी भी थे जिन्हें नेचर से बड़ा लगाव था. वो बड़े ही शांत, गंभीर और मेहनती इंसान थे जिनके सारे गुण वेंकट को विरासत में मिले थे. जबकि उनकी माँ पार्वती अम्मल पूजा-पाठ और धर्म-कर्म में विश्वास करने वाली औरत थी जिसकी दुनिया अपने परिवार के इर्द-गिर्द ही सिमटी हुई थी.
वेंकट बचपन से ही बड़े होनहार और तेज़ दिमाग थे. सबसे बड़ी बात तो ये कि उनके घर पर ऐसा परफेक्ट माहौल मिला था जिससे उनकी प्रतिभा को निखरने का पूरा मौका मिला. यानी जिस एक्स्ट्राऑर्डिनरी जर्नी के लिए उनका जन्म हुआ था, उसकी शुरुवात उनके घर से ही हो गई.
जल्दी ही उनके पेरेंट्स और करीबी लोगों को समझ आ गया था वेंकट कोई आम बच्चो जैसे नहीं है. जब वो तीन साल के थे उनके पिता को ट्रांसफर होकर विशाखापट्टनम यानी वाईजेग जाना पड़ा. वेंकट के पिता को अपनी मेरिट की वजह से ए. वी. नरसिंहा राव कॉलेज जिसे वॉल्टेयर हिंदू कॉलेज भी कहा जाता था, में मैथ्स और फिजिक्स फैकल्टी की जॉब मिली थी.
वेंकट ने सेंट अलॉयसियस के एंग्लो-इंडियन हाई स्कूल से पढाई की थी. रमन का दिमाग किसी उस्तरे की धार जैसा ही तेज था इसलिए उन्होंने क्लास ही नहीं बल्कि स्कूल के सभी बाकि बच्चो से पहले अपनी स्कूलिंग खत्म कर ली थी, बल्कि शायद वो पूरे देश में पहले ऐसे बच्चे रहे होंगे. वो सिर्फ ग्यारह साल के थे जब उन्होंने सेकेंडरी पूरी की. और इसी तरह जब उन्होंने अपनी हायर सेकेंडरी पूरी की तो वो सिर्फ तेरह साल के थे. वो अपने समय के सबसे कम उम्र के स्टूडेंट थे जिन्हें अपनी अचीवमेंट के चलते स्कॉलरशिप मिली थी. और सबसे बड़ी बात तो ये कि उन्होंने ना सिर्फ अपनी सेकेंडरी और हायर सेकंडरी बाकियों से पहले कम्प्लीट कर ली थी बल्कि उन्होंने पूरे स्कूल में टॉप भी किया था.
जैसा कि हमने पहले भी बताया रमन दिमागी तौर पर तो बड़े होनहार थे पर उनकी सेहत कभी अच्छी नहीं रही थी, वो आये दिन बीमार पड़ते रहते थे. पर अपनी खराब सेहत को उन्होंने कभी भी अपनी पढाई के आड़े नहीं आने दिया था.
रमन को किताबों से बड़ा प्यार था, उन्हें जो भी किताब मिलती पढने बैठ जाते यही वजह थी कि अपनी स्कूली किताबों के अलावा भी उन्होंने कई तरह की दूसरी किताबे भी पढ़ ली थी जो उनके सिलेबस में नहीं थी. उनके पिता जो खुद एक कॉलेज टीचर थे, इस बात को बखूबी समझते थे इसलिए उन्होंने रमन को हमें शा ही सही किताबे चुनने में मदद की.
फिर धीरे-धीरे ये भी ज़ाहिर हो गया था कि अपने पिता की ही तरह उन्हें भी साइंस से बड़ा लगाव है. वो साइंस की किताबे बड़े ही ध्यान से पढ़ते और इस विषय में ज्यादा से ज्यादा नॉलेज़ हासिल करने की कोशिश किया करते थे.
हायर सेकेंडरी पूरी करने के बाद अब तेरह साल के रमन को कॉलेज की तैयारी करनी थी. उन्होंने उसी कॉलेज में एडमिशन लिया जहाँ उनके पिता पढ़ाया करते थे, ताकि उनकी पढ़ाई-लिखाई सही ढंग से हो सके.
कॉलेज के पहले ही दिन जब रमन बड़ी उम्र के बच्चो के साथ क्लास में बैठे तो उन्हें लेकर क्लास में कानाफूसी होने लगी लेकिन रमन उनकी बातें अनसुनी करते हुए चुपचाप बैठे रहे. जब उनके टीचर प्रोफेसर ईलियट ने पूछा” कहीं तुम गलत क्लास में तो नहीं आ गए?’ इस पर रमन ने कहा” बिल्कुल भी नहीं, मै सही क्लास में हूँ”. इस तरह पहले ही दिन से वो अपने टीचर्स की नज़रो में आ गए.
रमन ने डिसाइड किया कि वो इंग्लिश और फिजिक्स में डिग्री लेंगे. हालाँकि उनका किताबों का शौक अभी भी बरकरार था. वो जितना पढ़ते, उतना ही उनकी नॉलेज हासिल करने और सीखने की प्यास बढती जाती. हाँ ये और बात थी कि रमन ने कभी भी अपने टीचर्स को इम्प्रेस करने की कोशिश नहीं की बल्कि वो सब खुद उनसे इम्प्रेस्ड थे. वो अपने कोर्स से कभी संतुष्ट नहीं रहते थे, उनकी यही कोशिश रहती कि वो और ज्यादा पढ़े, सीखे और एक्सपेरिमेंट करे. उनके कॉलेज प्रिंसिपल नाना साहेब रमन की काबिलियत से वाकिफ़ थे,
इसलिए उन्होंने अपने इस काबिल स्टूडेंट को किसी भी तरह का प्रयोग करने से कभी रोका या टोका नहीं और छोटे रमन की यही आदत बाद में उनके बड़े काम आई. सन 1904 में मात्र सोलह साल की उम्र में रमन को मद्रास यूनिवर्सिटी से इंग्लिश और साइंस के सब्जेक्ट में डिग्री हासिल की. अपने सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी एक्जाम की तरह इस बार भी उन्होंने पूरे कॉलेज में टॉप किया था.
इसके बाद रमन ने सोलह साल की उम्र में एम.ए. करने का फैसला लिया जो खुद अपने-आप में बड़ी बात थी, उनके प्रोफेसर और बाकि फैकल्टी तो उनकी परफोर्मेंस के पहले ही कायल थे, ऐसे में उन पर कभी रोज़ क्लास अटेंड करने का प्रेशर बना ही नहीं. तो रमन अपना ज़्यादातर वक्त एक्सपेरिमेंट करने में गुजारते थे.
कॉलेज के दिनों में उनकी प्रतिभा में और भी निखार आया और वो मुश्किल से मुश्किल प्रोब्लम चुटकियों में ऐसे सोल्व कर देते जो उनके प्रोफेसर भी नहीं कर पाते थे. जब अभी मुश्किल से अठारह के भी नहीं हुए थे कि एक बार उन्होंने एक ऐसा ही प्रोब्लम बड़े आसन और सिंपल तरीके से सोल्व करके दिखा दिया जो प्रोफेसर से भी सोल्व करते नहीं बन रहा था. उनके फिजिक्स प्रोफेसर ने बेहद impress होकर रमन से कहा कि उन्हें इस पर एक essay लिखना चाहिए. बाद में ये essay ब्रिटिश जर्नल, “Philosophy Magazine” में भेजा गया था.’ वो लोग इसे पब्लिश करना चाहते थे, और इस तरह रमन का पहला पेपर पब्लिश हुआ जो डिफरेक्शन ऑफ़ लाईट पर, ‘Unsymmetrical diffraction bonds due to a Rectangular Aperture.’