(hindi) Siddhartha

(hindi) Siddhartha

इस किताब के ऑथर हर्मन हेस ने गौतम बुद्ध के जीवन से प्रेरणा लेकर इस किताब में एक फिक्शनल किरदार सिद्धार्थ के बारे में बताया है जो किसी भी आम इंसान का प्रतीक है.

इंट्रोडक्शन

क्या आप महान तपस्वीयों के बारे में जानने की ईच्छा रखते है? क्या कभी आपके मन में उनके जीवन से जुडी बाते जानने की ईच्छा हुई है? क्या उनका जीवन हमारे जीवन से अलग था?

इस किताब में आप ऐसे ही एक महान तपस्वी सिद्धार्थ की जिंदगी की कहानी पढेंगे और जानेंगे कि कैसे उन्होंने कठोर तपस्या करके ज्ञान की प्राप्ति की. इस किताब में आप सीखेंगे कि सिद्धार्थ को भी एक आम इन्सान की तरह जिंदगी में कई सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा.

सिद्दार्थ ने अपने पिता की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर संन्यास लिया पर सन्यास का रास्ता इतना आसान नही था. एक आम इन्सान की तरह ही उनके अंदर भी काम-क्रोध-लोभ-मोह जैसी बुराईयाँ थी और एक आम इंसान की तरह ही उन्होंने भी अपने जीवन में कई सारी गलतियाँ की पर इन सबके बावजूद उन्होंने हार नही मानी और अपनी सारी कमजोरियों और ईच्छाओं को जीत कर ज्ञान प्राप्त किया.

तो आइए इस किताब को पढ़ते है और महापुरुष सिद्धार्थ के जीवन से कुछ प्रेरणा लेने की कोशिश करते है.

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ब्राह्मण का बेटा
The Son of the Brahman

सिद्धार्थ एक ब्राहमण का बेटा था. वो बड़ा होनहार और तेज़ दिमाग लड़का था. उसे प्रकृति से बड़ा लगाव था इसलिए वो ज़्यादातर घर से बाहर ही रहा करता था. उसे जंगलो-पहाड़ो में घूमना और साधू-संतो की संगत में रहने से आनंद मिलता था. सिद्धार्थ को अपने पिता से ज्ञान की बातो पर चर्चा करना भी बड़ा अच्छा लगता था. सिद्धार्थ की तरह गोविंद भी एक ब्राह्मण का बेटा था और सिद्धार्थ के साथ उसकी गहरी दोस्ती थी. दोनों साथ मिलकर ध्यान और योग का अभ्यास करते थे.

सिद्धार्थ अपनी साधना और ध्यान के प्रति पूरी तरह से समप्रित था. उसके पिता जो उससे बेहद प्यार करते थे, उन्हें अपने होनहार बेटे पर गर्व था और वो हमेशा उसके सुनहरे भविष्य के सपने देखा करते थे. सिद्धार्थ के अंदर ज्ञान हासिल करने की प्रबल ईच्छा थी, वो इस विषय में और भी बहुत कुछ सीखना चाहता था. उसकी लगन को देखकर उसके पिता ने मन ही मन उसे एक महान संत और पुजारी के रूप में देखना शुरू कर दिया था. वास्तव में वो तेजस्वी ब्राहमण पुत्र आम लोगो से अलग और अनोखा था.

सिद्धार्थ सबका चहेता और दुलारा था. पिता की तरह उसकी माँ भी सिद्धार्थ पर गर्व करती थी. अपने भाई-बहनों का लाडला भाई सिद्धार्थ सबकी आँखों का तारा था. उसका दोस्त गोविंद तो जैसे उस पर जान छिडकता था. सिद्धार्थ को जानने वाले हर इन्सान को यकीन था कि एक दिन वो एक महान संत बनेगा.

यूं तो सब लोग सिद्धार्थ से प्यार करते थे, उसे बेहद चाहते थे पर इसके बावजूद वो खुश नही था. वो सबकी भावनाओं का सम्मान करता था, सबको खुश रखने की कोशिश करता था और इस बात से भी बखूबी वाकिफ था कि वो कितना खुशकिस्मत है कि लोग उससे इतना प्यार करते है, उसे सिर-आँखों पर बैठाते है. साधू-संतो की संगत में उसे ज्ञान की बाते सुनने को मिलती थी पर इन  सबके बावजूद सिद्धार्थ को अपने जीवन में एक अधूरापन महसूस होता था, उसे ऐसा लगता जैसे उसकी अंतरात्मा जन्म-जन्मान्तर की प्यासी है.

फिर धीरे-धीरे वक्त के साथ सिद्धार्थ सबसे दूर होता चला गया. उसके मन में अनगिनत सवाल उठा करते थे, उसका जिज्ञासु मन हर वक्त सवालों के घेरे में उलझा रहता. उसे ज्ञान की बाते तो मालूम थी पर मन में शान्ति नही थी. उसका मन उससे पूछ्ता रहता ” क्या भगवान को चढ़ाया गया भोग सार्थक है? आत्मा क्या है और कहाँ रहती है ? अगर आत्मा हाड़-मांस नहीं है तो फिर क्या है, उसका  असली रूप कैसा है?”

वो जितना ज़्यादा सोचता उतना ही और उलझ जाता. उसके सवालों ने उसे इतना परेशान कर दिया कि उसके दिन का चैन और रातो की नींद सब गायब होने लगे.

फिर एक दिन सिद्धार्थ ने अपने दोस्त गोविंद से कहा कि वो दोनों एक वट के पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान लगायेंगे. दोनों दोस्त कई घंटो तक ध्यान लगाकर बैठे रहे. शाम गहराई तो गोविंद की ध्यान साधना पूरी हुई पर सिद्धार्थ अभी भी आंखे बंद किये गहरे ध्यान में डूबा हुआ था. वो एक मूर्ती की तरह निश्चल और शांत लग रहा था. सिद्धार्थ के दिमाग में उन तपस्वियों की तस्वीरे घूमने लगी जो दुनियादारी छोडकर संन्यास ले लेते है. उसका मानना था कि घोर कष्ट सहकर जो लोग कठोर तपस्या करते है, सिर्फ उन्हें ही मोक्ष की प्राप्ति होती है.

कुछ देर बाद सिद्धार्थ ध्यान से उठा और उसने गोविन्द को अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि वो अब एक तपस्वी बनेगा.

सिद्धार्थ अपने पिता के कमरे में गया और उन्हें बताया कि वो संन्यास लेकर तपस्वियों का जीवन जीना चाहता है. उसे यकीन था कि उसके पिता इस बात से इंकार नही करेंगे पर उसके पिता ने बड़ी देर तक उसे कोई जवाब नही दिया. सिद्धार्थ की बातो ने उनका दिल तोड़ दिया था, वो उससे बेहद नाराज़ थे. उन्हें यकीन था कि सिद्धार्थ उनके बताये हुए रास्ते पर चलेगा और उनका नाम रोशन करेगा पर वो तो एक संन्यासी बनने की बाते कर रहा था. उन्होंने तो अपने बेटे के भविष्य के लिए कुछ और ही सोच रखा था.

वो सिद्धार्थ को कमरे में अकेला छोडकर सोने चले गए पर ब्राहमण को रात भर नींद नही आई. उन्होंने देखा कि सिद्धार्थ अभी तक उनके कमरे में ही खड़ा था. वो अपनी जगह से इंच भर भी टस से मस नही हुआ. ब्राह्मण रात में पांच-छह बार उसे देखने के लिए उठे पर सिद्धार्थ नही हिला. पूरी रात यूं ही गुजर गई, आखिर जब सुबह हुई तो सिद्धार्थ के पिता ने उसकी जिद के आगे घुटने टेक दिए. उन्होंने बड़े भारी मन से अपने बेटे को संन्यास लेने की आज्ञा दे दी.

आखिरी बार अपनी माँ से मिलने के बाद सिद्धार्थ ने हमेशा के लिए घर छोड़ दिया. घर से निकलते वक्त जब गोविन्द भी उसके साथ चलने लगा तो उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई.

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तपस्वीयों के साथ
With the Samanas

जल्द ही सिद्धार्थ और गोविन्द को तपस्वियों की एक टोली मिली और वो दोनों उनके साथ चल पड़े. उनकी संगत में रहते-रहते उन्हें भी अब एक कठोर जीवन जीने की आदत पड़ चुकी थी. उन्होंने कम से कम साधनों में जीना सीख लिया. कपड़े के नाम पर वो लंगोट और एक लबादा पहनते था और अक्सर भूखे भी रहा करते थे. सिद्दार्थ के लिए अब जीवन के मायने बदल गए थे.
वो लोगो को काम पर जाते देखता तो उसका मन कडवाहट से भर उठता. वो सोचा करता” एक आम जिंदगी जीने में भला क्या सुख है? कहीं ये लोग खुश रहने का नाटक तो नही कर रहे?”
उसके मन में अब भी कई सवाल उठते थे, जिनका जवाब पाने के लिए वो तड़प रहा था.

सिद्धार्थ तपस्वीयों की तरह जीना सीख चुका था. गोविन्द अब भी एक परछाई की तरह उसके साथ था. सिद्धार्थ ने इस दौरान खुद को कई तरह से शारीरिक कष्ट दिए, जैसे कि उसने दर्द, भूख और प्यास सहना सीख लिया था और वो ये भी समझ चुका था कि दुःख हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है इसलिए दुखो से कभी घबराना नही चाहिए. अब वो बिना विचलित हुए घंटो ध्यान साधना में बैठने लगा. ध्यान के माध्यम से वो अपनी पांचो इंद्रीयों पर काबू पाना चाहता था क्योंकि उसके लिए आगे बढ़ने का यही एक तरीका था. अपने अहम का त्याग करके वो ज्ञान प्राप्त करने की ईच्छा रखता था.
सिद्धार्थ और गोविन्द जब भिक्षा मांगने जाते तो दोनों बहुत सारी बातों पर चर्चा करते थे. सिद्धार्थ ने गोविन्द को बताया कि तपस्वीयों की संगत में रहने के बावजूद उसे अभी तक सच्चा ज्ञान नही मिल पाया था.

सिद्धार्थ कुछ दिन और तपस्वियों के साथ रहा पर अपनी मोक्ष प्राप्ति के आसार उसे दूर-दूर तक नजर नही आ रहे थे. दिन ब दिन उसकी निराशा बढ़ती जा रही थी हलांकि उसके दोस्त गोविन्द को ऐसा नही लगता था. उसने सिद्धार्थ को शिक्षा और ज्ञान की वो सारी बाते याद दिलाई जो अब तक उन लोगों ने सीखी थी. सिद्धार्थ ने उदासी से सिर हिलाते हुए हामी भरी. लेकिन  जितना उसने सीखा था, वो काफी नही था. उसका मानना था कि अभी तो बहुत कुछ सीखना बाकी था.

करीब तीन साल तक वो लोग तपस्वियों के साथ रहे. फिर एक दिन शहर में भगवान बुद्ध के आने की खबर फैली. गौतम बुद्ध जिन्हें बुद्ध भी कहा जाता था, संसार के हर सुख-दुःख से ऊपर उठ चुके थे. उन्होंने अपने अनुभवों के बल पर ज्ञान की प्राप्ति की थी और इस ज्ञान को संसार में बांटने के लिए वो  जगह-जगह अपने शिष्यों के साथ घूमा करते थे. उनके चेहरे पर अद्भुत शांति थी, ऐसा तेज़ था कि उनकी शरण में आने वाला हर इंसान धन्य हो जाता था. गोविन्द भगवान् बुद्ध के दर्शन के लिए व्याकुल हो रहा था पर सिद्धार्थ को उनसे मिलने की जरा भी ईच्छा नही थी. वो ज्ञान और दर्शन की बाते सुन-सुनकर ऊब चुका था. जब घर-बार त्यागने के बाद भी उसके मन को शांति नही मिल पाई तो ज्ञान की खोखली बाते सुनकर भला क्या मिलती. लेकिन अपने दोस्त के उत्साह को देखकर उसने भी गोविन्द के साथ जाने का मन बना लिया. दोनों ने फैसला किया कि वो तपस्वियों का साथ छोडकर अब गौतम बुद्ध की शरण में जायेंगे.

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