(Hindi) SHREE BHAGAVAD GEETA CHAPTER 7

(Hindi) SHREE BHAGAVAD GEETA CHAPTER 7

अध्याय 7- ज्ञान विज्ञान योग
विज्ञान सहित ज्ञान का विषय,इश्वर की व्यापकता

श्लोक 1 –
श्री भगवान् बोले, “हे पार्थ! मुझ में मन लगाकर और मेरी शरण में आकर योग में लगा हुआ निस्संदेह तू पूरी तरह जिस प्रकार मुझको जानेगा, उसको सुन. मैं तुझे यह संपूर्ण ज्ञान, विज्ञान सहित कहूँगा जिसे जानकर यहाँ और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाएगा. हज़ारों मनुष्यों में से कोई एक ही योग सिद्धि प्राप्ति के लिए कोशिश करता है और उस सिद्धि प्राप्त सफल मनुष्यों में से कोई एक विरला ही मुझे तत्व से जान पाता है.”

अर्थ : इस श्लोक में भगवान् अर्जुन से कह रहे हैं कि वो अपना मन पूरी तरह उनमें लगाकर गौर से उनकी बातें सुनें, उनमें यानी उस परम तत्व पर लगाएँ जिन्होंने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया है. इसके साथ ही वो कहते हैं कि अर्जुन उन्हें पूरी श्रद्धा और समर्पण के भाव से सुनें क्योंकि मनुष्य का जिनमें श्रद्धा या विश्वास होता है वो उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनता है और अपने जीवन में उन्हें उतारता भी है.

भगवान् यहाँ अर्जुन को हर स्तर पर एकाग्र होने के लिए कह रहे हैं, जैसे- ‘मुझे सुन’ यानी अपनी इंद्रियों को भटकने के बजाय परम तत्व में लगाना, ‘योग की अवस्था में लगा हुआ’ ताकि जो परम ज्ञान वो देने वाले हैं वो अर्जुन के मन में पूरी तरह उतर जाए और ‘बिना संचय के मेरी बात सुन’ यानी पूरे विश्वास के साथ उनकी बातों को सुनें ताकि उनके मन में कोई संशय या सवाल बाकी ना रह जाए. ये बुद्धि (इंटेलिजेंस) की अवस्था है. उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि जब इंसान किसी बात का लॉजिक समझ जाता है, उसके पीछे होने के कारण को जान जाता है तो उसकी बुद्धि उस बात को स्वीकार कर लेती है.

अगर मन में कोई डाउट या सवाल रह जाए तो मन परेशान हो जाता है और उस बात को स्वीकार नहीं कर पाता, इसलिए भगवान् अर्जुन को अपनी इंद्रियां, मन और बुद्धि उनमें लगाने के लिए कहते हैं. भगवान् यह भी कहते हैं कि आत्मा के साथ-साथ प्रकृति कैसे बनी, उसका क्या आधार है, वो सभी बातें बताएँगे जिसे जानने के बाद कुछ और जानने की ज़रुरत नहीं रह जाएगी.

अध्यात्म में ज्ञान का मतलब होता है ‘जानना’ और विज्ञान का मतलब होता है किसी चीज़ को परखकर फ़िर उसे मानना. ख़ुद के असली स्वरुप को खोजने की प्रक्रिया यानी मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ, ज्ञान कहलाती है और प्रकृति के बारे में खोज विज्ञान कहलाती है. पृथ्वी पर मौजूद सभी जीवों में सिर्फ़ मनुष्यों को ये सौभाग्य मिला है कि वो सवाल जवाब कर किसी भी चीज़ को गहराई से समझ सकते हैं, इस सृष्टि के रचयिता के बारे में जान सकते हैं, उनसे उसका क्या संबंध है वो अनुभव कर सकते हैं. लेकिन होता ये है कि जब आत्मा शरीर को धारण करती है तो वो संसार के माया में फँस जाती है और अपने असली स्वरुप को भूल जाती है. उसे संसार की चीज़ों और लोगों से लगाव होने लगता है.

इन्हीं में उलझकर वो परमात्मा से दूर होती चली जाती है. बहुत कम मनुष्य होते हैं जो इस परम सच की खोज में दिलचस्पी रखते हैं. इनमें से कुछ ही ज्ञान प्राप्त करने के साधन को जान पाते हैं और उसके लिए कोशिश करते हैं. ज़्यादातर मनुष्य तो मौज-मस्ती में, अपनी इच्छाएँ पूरी करने में ही लगे रहते हैं. कुछ अपने स्वार्थ के लिए और कुछ अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए भगवान् को याद करते हैं. जो योग साधना की कोशिश करते हैं उनमें से भी बहुत कम भाग्यशाली परम ज्ञान को प्राप्त  कर पाते हैं क्योंकि ये ज्ञान बहुत ही गहरा है, इसे लगातार करने की ज़रुरत होती है  और अक्सर इस यात्रा के बीच में ही मनुष्य का चंचल मन दोबारा संसार के मोह-माया की ओर खिंचने लगता है जिससे उसका सफ़र अधूरा रह जाता है. इसलिए कहा गया है कि पृथ्वी पर ऐसा मुमकिन हो पाना बहुत दुर्लभ है.

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि भक्ति भी कई तरह की होती है जिन्हें अलग-अलग मकसद के लिए किया जाता है जैसे -जो मनुष्य परेशान हैं वो भगवान् को याद करते हैं, जो दिव्य ज्ञान पाना चाहते हैं वो भी उन्हें याद करते हैं, कई ऐसे भी हैं जो सिर्फ़ अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए भगवान् को याद करते हैं और कुछ योगी हैं जो भगवान् से केवल शुद्ध प्रेम करते हैं इसलिए उन्हें याद करते हैं. भगवान् कहते हैं कि जो उन्हें शुद्ध प्रेम की भावना से याद करता है वो सभी भक्तों में श्रेष्ठ होता है क्योंकि वो परमात्मा से कुछ पाने के लिए नहीं बल्कि परमात्मा को पाने के लिए उन्हें याद करता है.

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श्लोक 2:

श्रीकृष्ण, “पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ये मेरी आठ तरह की प्रकृति है. यह आठों तो मेरी अपरा अर्थात जड़ प्रकृति है. हे महाबाहो! इसके अलावा परा प्रकृति को अलग जान जो जीवरूप है और जिससे यह जगत धारण किया जाता है. ऐसा समझ कि सभी इन दोनों प्रकृति से ही जन्म लेते हैं और मैं ही पूरे जगत का उद्भव और प्रलय करता हूँ. हे धनंजय! मुझसे ऊँचा और कुछ भी नहीं है, धागे में मणियों के समान इस पूरे संसार में सब कुछ मुझ में ही पिरोया हुआ है.”

अर्थ – इस श्लोक के शुरुआत में ही भगवान् ने साफ़-साफ़ बता दिया कि पाँच महा भूत (5 elements) पानी, आग, हवा, पृथ्वी, आकाश और मन, बुद्धि, अहंकार आठों उनकी प्रकृति हैं लेकिन वो ख़ुद इनमें से कुछ नहीं हैं. इसलिए अगर मनुष्य उन्हें पाना चाहता है तो उसे इन आठों प्रकृति से ऊपर उठना होगा यानी इनके परे जाना होगा.

सृष्टि की रचना से पहले ब्रह्मांड में पहले से दो चीज़ें मौजूद थीं – चेतना तत्व या consciousness  और पदार्थ यानी causal matter. चेतना तत्व को देखा नहीं जा सकता क्योंकि वो निराकार है. casual matter बहुत ही सूक्ष्म यानी subtle form में मौजूद होती है इसलिए पहले वो भी दिखाई नहीं देती है. जब ये दोनों साथ आ जाते हैं तब निराकार साकार में बदल जाता है यानी वो दिखाई देने लगता है.

शास्त्र बताते हैं कि सबसे पहले ब्रह्मांड से पांच सूक्ष्म तत्वों (five subtle elements) का जन्म हुआ, इन्हें पंचभूत कहा जाता है। ये हैं- 1.आकाश 2.हवा 3.आग  4. पानी  5. भूमि या पृथ्वी. शुरुआत में, ये सूक्ष्म रूप में थे, जिसका मतलब है कि वे दिखाई नहीं देते थे। इन पाँचों तत्वों में भी तीनों गुण- सत्व, रज और तम होते हैं. हर सूक्ष्म तत्व का अपना-अपना अलग गुण होता है जैसे –  आकाश तत्व में आवाज़ पैदा करने का गुण है; हवा में स्पर्श यानी touch उत्पन्न करने का गुण है ; आग दिखाई देने यानी visibility को उत्पन्न करती है; पानी में स्वाद पैदा करने का गुण है  और पृथ्वी (भूमि) में गंध उत्पन्न करने का गुण है। ये पांच तरीके हैं जिनसे मनुष्य अपनी पांच इंद्रियों (sense organs) के माध्यम से प्रकृति या पदार्थ (matter) को महसूस कर पाता है।

सूक्ष्म तत्वों (subtle elements) के सात्विक हिस्से से ज्ञानेन्द्रियाँ (sense organs) उत्पन्न होती हैं- जैसे  आकाश के सात्विक हिस्से से कान बने, हवा से त्वचा, आग से आँखें, पानी से जीभ और पृथ्वी से नाक बनी।

पांच तत्वों के पूरे सात्विक हिस्से (total satvik parts) से मनुष्य के अंतःकरण (inner organs) का जन्म होता है। अंतःकरण में चार पहलू  शामिल हैं-  मन (ये हमेशा शक या डाउट करता है), बुद्धि (ये सोचकर फ़ैसला करती है), अहंकार (ये “मैं कर्ता हूं” का भाव पैदा करता है) और चित्त यानी मेमोरी.

इसी तरह, सूक्ष्म तत्वों के राजसिक अंश से कर्मेन्द्रियाँ यानी organs of action उत्पन्न होती हैं। आकाश से आवाज़,  हवा से हाथ, आग से पैर,  पानी से जननांग (genitals) और पृथ्वी से गुदा (anus) उत्पन्न होते हैं।

सूक्ष्म तत्वों के तामसिक गुण से स्थूल तत्व यानी gross element का जन्म होता है. इस तरह आकाश, हवा , आग , पानी और पृथ्वी के स्थूल तत्व उत्पन्न होते हैं जिन्हें मनुष्य अपनी आँखों से देख सकता है। एक बार जब पांच स्थूल तत्व पैदा हो जाते हैं, तो उससे हमारे शरीर के साथ-साथ पूरी सृष्टि का निर्माण होता है।

पदार्थ कभी बढ़ता या घटता नहीं है, केवल उसकी स्थिति या अवस्था में बदलाव होता है यानी – वो छुपी हुई स्थिति (invisible या सूक्ष्म) से साफ़-साफ़ दिखाई देने लगता है (visible या स्थूल). लेकिन जब तत्व पूरी तरह से स्थूल हो जाते हैं तब सृष्टि का क्या होता है? तब प्रलय का समय आता है. प्रलय के बाद एक बार फ़िर से स्थूल सूक्ष्म में बदल जाता है और उसके बाद वो दोबारा स्थूल हो जाता है। इस तरह ब्रह्मांड हमेशा इस चक्र से गुजरता रहता है। लेकिन प्रलय आने के बाद भी ब्रह्मांड हमेशा बना रहता है। प्रलय के बाद भी चेतना तत्व वैसी की वैसी बनी रहती है, उसमें कभी कोई बदलाव नहीं आता.

अगर आप सूक्ष्म और स्थूल के बीच के फ़र्क को समझना चाहते हैं तो अपने शरीर और मन की तुलना कर सकते हैं। मन और शरीर दोनों की रचना होती है लेकिन मन सूक्ष्म (subtle) है जिन्हें आँखों से देखा नहीं जा सकता और शरीर स्थूल (gross) है जो आंखों से दिखाई देता है।

इसके बाद भगवान् प्रकृति के बारे में बताते हैं जो दो तरह की होती है – परा और अपरा. आठों पदार्थ अपरा यानी जड़ प्रकृति (dead matter) हैं. अपरा का मतलब है जो प्रकट हो गया है यानी जो दिखाई देने लगा है. संसार अपरा प्रकृति में आती है क्योंकि इसे इंद्रियों के माध्यम से देखा जा सकता है, इसी संसार में माया भी है जो मनुष्य को उलझाती है. जब जीवन सिर्फ़ अपरा प्रकृति में जीया जाता है तो वो बंधन की प्रक्रिया बन जाती है. अपरा प्रकृति कभी एक जैसी नहीं रहती, इसमें लगातार बदलाव होता रहता है.

दूसरी प्रकृति है परा प्रकृति यानी चेतना तत्व या consciousness. परा प्रकृति में कभी बदलाव नहीं होता. परा प्रकृति मनुष्य को मुक्ति की ओर ले जाती है. परा प्रकृति वो बीज या आधार है जिससे अपरा प्रकृति बनती है. परा प्रकृति को देखा या छूआ नहीं जा सकता, ये इंद्रियों, मन, बुद्धि से परे होती है इसलिए इसे सिर्फ़ अनुभव किया जा सकता है. ये वो एहसास है कि हाँ कोई तो शक्ति या एनर्जी है जिसके आधार पर पूरी सृष्टि चल रही है. कुछ तो है जो मनुष्य के शरीर से जुड़ा हुआ है जिसके कारण ये शरीर चल रहा है, नहीं तो क्यों मर जाने के बाद दिल होते हुए भी वो धड़कना बंद कर देता है, नाक होते हुए भी वो साँस नहीं ले सकता. क्यों होता है ऐसा? इसका कारण है कि जिस आधार पर ये शरीर चलता है, जब वो शरीर से अलग हो जाए तो उसे मृत्यु की अवस्था कहते हैं.

परा प्रकृति से ऊपर कुछ भी नहीं है क्योंकि ये स्वभाव से अजन्मा, अनश्वर है यानी जिसका कभी जन्म नहीं होता, जिसका कभी नाश नहीं होता. जन्म लेने के लिए बीज की ज़रुरत होती है लेकिन जिसका जन्म ही ना हो उसे बीज की ज़रुरत है ही नहीं. इसलिए कहा गया है कि सृष्टि के सृजन से पहले भी परा प्रकृति मौजूद थी और इसके प्रलय के बाद भी उसका अस्तित्व वैसे का वैसे ही बना रहता है. दुनिया बनने से पहले ब्रह्मांड में consciousness और matter मौजूद थे और जब चेतना तत्व या consciousness matter के संपर्क में आई तब इस सृष्टि का निर्माण हुआ.

भगवान् कहते हैं कि अगर परमात्मा को पाना है तो मनुष्य को इन आठों प्रकृति से ऊपर उठकर उनसे परे जाना होगा तब परा प्रकृति को अनुभव किया जा सकता है. ऐसा केवल योग साधना के द्वारा ही संभव है इसलिए भगवान् ने पहले ही योग की प्रक्रिया के बारे में बड़े विस्तार से समझा दिया था.

इसके बाद भगवान् कहते हैं कि जीवन की शुरुआत करने के लिए इन दोनों प्रकृति की ज़रुरत होती है. परा और अपरा प्रकृति को जोड़ने का काम एनर्जी करती है जिसे प्राण कहते हैं. जब दोनों प्रकृति के बीच का ये पुल यानी प्राण शरीर से निकल जाता है तो शरीर बेजान हो जाता है.

जिस तरह धागा एक-एक मणि में पिरोया हुआ होता है, जिसके आधार पर माला बनती है, ठीक उसी तरह ब्रह्मांड की हर चीज़ में भगवान् धागे के रूप में पिरोये हुए हैं. जिस तरह माला तैयार हो जाने पर सिर्फ़ मणियाँ दिखाई देती हैं और उसका आधार, धागा कहीं छुप जाता है, ठीक उसी तरह भगवान् भी दिखाई नहीं देते लेकिन वो सभी जीवों के आधार हैं. भगवान पूरे ब्रह्मांड का आधार हैं, जैसे धागे के बिना मणियाँ बिखर जाती हैं ; भगवान् के बिना भी सारे ग्रह, नक्षत्र, तारे सभी तितर-बितर हो जाएंगे। भगवान ही वो एकमात्र तत्व हैं जिनके कारण पूरा ब्रह्मांड टिका हुआ है।

इस श्लोक में अपरा प्रकृति से परे जाने के लिए इसलिए कहा गया है क्योंकि मनुष्य के मन में लगातार ख़यालों का आना जाना लगा रहता है. वो हमेशा आज और कल की चिंता में डूबा रहता है, अगर मन में कोई दुविधा हो तो सही फ़ैसला लेने की क्षमता खो देता है जिससे चिंता बढ़ने लगती है या मनुष्य मैं, मेरा के अहंकार में घिरा रहता है. मनुष्य इन्हीं आठों प्रकृति में अपना जीवन जीता रहता है और भगवान् को पाने की कोशिश ही नहीं करता. केवल मनुष्य का जीवन ही जीव को परमात्मा तक पहुंचा सकता है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिला सकता है इसलिए मनुष्यों के कल्याण के लिए भगवान् उन्हें अपरा प्रकृति की माया से निकलकर उन तक पहुँचने के रास्ते पर चलने के लिए कहते हैं.

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