(hindi) Sewa Marg

(hindi) Sewa Marg

तारा ने बारह साल दुर्गा की तपस्या की। न पलंग पर सोयी, न बाल को सँवारा और न आँखों  में काजल लगाया। ज़मीन पर सोती, गेरुआ कपड़े पहनती और रूखी रोटियाँ खाती। उसका चेहरा मुरझाई हुई कली की तरह था, आखों में कोई चमक नहीं थी और दिल एक सुनसान बंज़र मैदानके समान था । उसकी  सिर्फ़ यही तमन्ना थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ। शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था, पर यह लौ दिल से नहीं बुझती थी, यही उसकी इच्छा उसके जीवन का मकसद था ।

‘क्या तू सारा जीवन रो-रोकर काटेगी ? इस समय के देवता पत्थर के हो गए हैं। पत्थर को भी कभी किसी ने पिघलते देखा है ? देख, तेरी सखियाँ फूलों की तरह खिल रही हैं, नदी की तरह बढ़ रही हैं; क्या तुझे मुझ पर दया नहीं आती ?’ तारा कहती-‘माँ, अब तो जो लगन लग गई , वह लग गई । या तो देवी के दर्शन पाऊँगी या यही इच्छा लिये संसार से चली जाऊँगी। तुम समझ लो, मैं मर गई।’

इस तरह पूरे बारह साल बीत गये और तब देवी प्रसन्न हुई। रात का समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। मंदिर में एक धुँधला-सा घी का दीपक जल रहा था। तारा दुर्गा के पैरों पर माथा झुकाए सच्ची भक्ति का परिचय दे रही थी। अचानक उस पत्थर की मूर्ति के तन में जैसे जान आने लगी। तारा के रोंगटे खड़े हो गए। वह धुँधला दीपक अद्भुत तेज़ के साथ चमकने लगा। मंदिर में मन को मोहने वाली  सुगंध फैल गई और हवा में जैसे एक जिंदादिली महसूस होने लगी। देवी का उज्जवल रूप चाँद की तरह चमकने लगा। ज्योति के समान उनकी आँखें जगमगा उठीं । होंठ खुल गए और आवाज आयी-“तारा; मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। माँग, क्या वर माँगती है?”

तारा खड़ी हो गई। उसका शरीर इस तरह काँप रहा था, जैसे सुबह के समय कांपती हुई आवाज़ में किसी किसान के गाने की धुन । उसे लग रहा था, मानो वह हवा में उड़ी जा रही है। उसे अपने दिल में ऊँचें विचार और रौशनी का आभास हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर भक्ति-भाव से कहा-“भगवती तुमने मेरी बारह साल की तपस्या पूरी की, किस मुहं से तुम्हारा गुण गाऊँ। मुझे संसार की वे नायाब चीज़ें दो, जो इच्छाओं की सीमा और मेरे अरमानों का अंत है। मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ, जो सूरज को भी मात कर दे”।

देवी ने मुस्कराकर कहा-“दिया”।
तारा-“वह दौलत , जो काल-चक्र को भी शर्मिंदा करे”।
देवी ने मुस्कराकर कहा-“दिया”।
तारा-“वह सुंदरता, जो अद्भुत हो, जिसकी कोई बराबरी ना कर सके ”।
देवी ने मुस्कराकर कहा-“यह भी दिया”।

तारा ने कुंवरि ने बाकी की रात जागकर बिताई । सुबह उसकी आँखें पल -भर के लिए झपक गई। जागी तो देखा कि मैं सिर से पाँव तक हीरे व जवाहरात से लदी हूँ। उसके आलिशान महल  के कलश आसमान से बातें कर रहे थे। पूरा महल संगमरमर से बना हुआ और  बेशकीमती पत्थरों से जड़ा हुआ था। दरवाज़े पर मीलों तक हरियाली छायी थी। दासियाँ सोने के गहनों से लदी हुई सुनहरे कपड़े पहने हुए चारों ओर दौड़ रही थीं। तारा को देखते ही वे सोने के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ी। तारा ने देखा कि मेरा पलंग हाथी दाँत का है। ज़मीन पर बड़े कोमल बिछौने बिछे हुए हैं। सिरहाने की ओर एक बड़ा सुन्दर ऊँचा शीशा रखा हुआ है।

तारा ने उसमें अपना रूप देखा, तो चकित रह गई। उसका रूप चाँद को भी शर्मिंदा कर सकता था। दीवार पर कई नामी गिरामी  चित्रकारों के मनमोहक चित्र टँगे थे। पर ये सब-के सब तारा की सुन्दरता के आगे फीके थे। तारा को अपनी सुन्दरता का घमंड हुआ। वह कई दासियों को लेकर बगीचे में गयी। वहाँ का नज़ारा देखकर वह मुग्ध हो गयी। हवा में गुलाब और केसर की भीनी-भीनी ख़ुशबू घुली हुई थी। रंग-बिरंगे फूल, हवा के मंद-मंद झोंकों से मतवालों की तरह झूम रहे थे। तारा ने एक गुलाब का फूल तोड़ लिया और उसके रंग और कोमलता की अपने होठों से तुलना करने लगी। गुलाब में वह कोमलता न थी। बगीचे के बीच में जामुनी रंग के मणि से जड़ा हुआ तालाब था।

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इसमें हंस और बतख खेल रहे थे। अचानक तारा को ध्यान आया, मेरे घर के लोग कहाँ हैं ? दासियों से पूछा। उन्होंने कहा—‘वे लोग पुराने घर में हैं।’ तारा ने छत पर जाकर देखा। उसे अपना पहला घर एक साधारण झोंपड़े की तरह दिखा, उसकी बहनें उसकी साधारण दासियों के समान भी न थीं। माँ को देखा, वह आँगन में बैठी चरखा कात रही थी। तारा पहले सोचा करती थी, कि जब मेरे दिन चमकेंगे, तब मैं इन लोगों को भी अपने साथ रखूँगी और उनकी अच्छे से सेवा करूँगी। पर इस समय दौलत के अभिमान ने उसकी पवित्र इच्छा को कमज़ोर बना दिया था। उसने घर वालों को देखा, उसकी आँखों में उनके लिए प्रेम न था  और फ़िर  वह उस मनोहर गाने  को सुनने चली गयी, जिसकी धुन उसके कानों में आ रही थी।

एक बार ज़ोर से बिजली चमकी और बिजली की छटाओं से ज्योति के समान तेजस्वी नौजवान निकलकर तारा के सामने नम्रता से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा—“तुम कौन हो ?”
नौजवान ने कहा— “श्रीमती, मुझे बिजली सिंह कहते हैं। मैं श्रीमती का सेवक हूँ”।
उसके विदा होते ही हवा के तेज़ गर्म झोंके चलने लगे। आकाश में एक रौशनी दिखाई दी। यह पल भर में उतरकर तारा कुँवरि के पास ठहर गया उसमें से एक ज्वालामुखी जैसे इंसान ने निकलकर तारा के पैरों को चूमा। तारा ने पूछा—“तुम कौन हो ?”
उस आदमी ने जवाब दिया— “श्रीमती, मेरा नाम अग्नि सिंह है ! मैं श्रीमती का सेवक हूँ”।

वह अभी जाने भी न पाया था कि सारा महल रौशनी से रोशन हो गया। लग रहा था , सैकड़ों बिजलियां मिलकर चमक रही हैं। हवा तेज़ हो गई। एक जगमगाता हुआ सिंहासन आकाश पर दिखने लगा । वह जल्दी से पृथ्वी की ओर चला और तारा कुँवरि के पास आकर ठहर गया। उससे एक तेजस्वी बालक, जिसके रूप से गम्भीरता झलक रही थी, निकलकर तारा के सामने निष्ठा के भाव  से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा— “तुम कौन हो ?”

बालक ने जवाब दिया— “श्रीमती ! मुझे मिस्टर रेडियम कहते हैं। मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा”।

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