(hindi) Sati
दो सौ साल से जयादा बीत गये हैं; पर चिंतादेवी का नाम अभी भी चला आ रहा था । बुंदेलखंड के एक उजाड़ जगह में आज भी मंगलवार को हज़ारों आदमी और औरतें चिंतादेवी की पूजा करने आते थे । उस दिन वो सुनसान जगह सुहाने गीतों से गूँज उठता था , टीले और टोकरे औरतों के रंग-बिरंगे कपड़ों से सजे रहते थे। देवी का मंदिर एक ऊँचे टीले पर बना हुआ था। उसके कलश पर लहराता हुआ लाल झंडा दूर से ही दिखायी दे जाता था । मन्दिर इतना छोटा था कि उसमें मुश्किल से एक साथ दो आदमी समा सकते थे ।
अंदर कोई मूर्ती नहीं थी , सिर्फ़ एक छोटी-सी वेदी यानी समाधी बनी हुई थी। नीचे से मन्दिर तक पत्थर की सीढ़ियाँ थीं । भीड़-भाड़ में धक्का खाकर कोई नीचे न गिर पड़े, इसलिए सीढ़ियों की दीवार दोनों तरफ बनी हुई थी । यहीं चिंतादेवी सती हुई थीं; पर प्रथा के अनुसार वह अपने मरे हुए पति के साथ चिता पर नहीं बैठी थीं। उनके पति हाथ जोड़े उनके सामने खड़ा था; पर उन्होंने उसकी ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा था । वह पति के शरीर के साथ नहीं, उसकी आत्मा के साथ सती हुईं। उस चिता पर पति का शरीर न था, उसकी इज्ज़त और आत्म सम्मान भस्मीभूत हो रहा था।
यमुना तट पर कालपी एक छोटा-सा नगर है। चिंतादेवी उसी नगर के एक वीर बुन्देल की बेटी थी। उसकी माँ उसके बचपन में ही गुज़र चुकी थी। उसके पालन-पोषण का भार पिता पर पड़ा। जंग का समय था, योद्धाओं को कमर खोलने की भी फुरसत न मिलती थी, वे घोड़े की पीठ पर खाना खाते और घोड़े पर ही झपकियाँ ले लेते थे। चिंता का बचपन पिता के साथ जंग के कैंप और मैदानों में कटा। उनके पिता उन्हें किसी गुफ़ा या पेड़ की आड़ में छिपा कर मैदान में चले जाते। चिंता बेफ़िक्र होकर मिट्टी के किले बनाती और उन्हें तोड़ती। उसके घर थे, उसकी गुड़ियाँ ओढ़नी नहीं ओढ़ती थीं। वह सिपाहियों के गुड्डे बनाती और उन्हें जंग के मैदान में खड़ा कर देती । कभी-कभी उसके पिता शाम तक भी न लौटते; पर चिंता को डर छू तक न पाता। वो सुनसान जगह में भूखी-प्यासी रात-रात भर बैठी रह जाती।
उसने नेवले और सियार की कहानियाँ कभी न सुनी थीं। वीरों के बलिदान की कहानियाँ, और वह भी योद्धाओं के मुँह से सुन-सुन कर वह आदर्शवादि बन गयी थी। एक बार तीन दिन तक चिंता को अपने पिता की खबर न मिली। वह एक पहाड़ी की गुफ़ा में बैठी मन ही मन एक ऐसा किला बना रही थी, जिसे दुश्मन किसी तरह जान न सके। दिन भर वह उसी किले का नक्शा सोचती और रात को उसी किले का सपना देखती। तीसरे दिन शाम के समय उसके पिता के कई साथियों ने आ कर उसके सामने रोना शुरू किया। चिंता ने आश्चर्यचकित होकर पूछा—“पिता जी कहाँ हैं ? तुम लोग क्यों रो रहे हो ?” किसी ने इसका जवाब न दिया।
वे जोर से दहाड़े मार-मार कर रोने लगे। चिंता समझ गयी कि उसके पिता ने वीरता के साथ अपनी जान दे दी है। उस तेरह साल की बच्ची की आँखों से आँसू की एक बूँद भी न गिरी, चेहरे पर जरा भी दुःख ना आया, एक आह भी न निकली। वो हँस कर बोली — “अगर उन्होंने वीरगति पायी, तो तुम लोग रोते क्यों हो ? योद्धाओं के लिए इससे बढ़ कर और कौन सी मौत हो सकती है ? इससे बढ़कर उनकी वीरता का और क्या इनाम मिल सकता है ? यह रोने का नहीं, ख़ुशी मनाने का अवसर है”।
एक सिपाही ने चिंतित आवाज़ में कहा —“हमें तुम्हारी चिंता है। तुम अब कहाँ रहोगी ?”
चिंता ने गम्भीरता से कहा —“इसकी तुम कुछ चिंता न करो, दादा ! मैं अपने पिता की बेटी हूँ। जो कुछ उन्होंने किया, वही मैं भी करूँगी। अपनी मातृ भूमि को दुश्मनों के पंजे से छुड़ाने में उन्होंने अपनी जान दे दी। मेरे सामने भी वही आदर्श है। जा कर अपने आदमियों को सँभालिए। मेरे लिए एक घोड़ा और हथियारों का इंतज़ाम कर दीजिए। भगवान् ने चाहा, तो आप लोग मुझे किसी से कम न पायेंगे, लेकिन अगर आप मुझे पीछे हटते हुए देखें , तो तलवार के एक हाथ से इस जीवन का अंत कर देना। यही मेरी आपसे विनती है। जाइए, अब देर न कीजिए”। सिपाहियों को चिंता की वीरता से भरी बातें सुनकर बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ। हाँ, उन्हें यह शक ज़रूर हुआ कि क्या ये कोमल सी बच्ची अपने इरादे पर अटल रह सकेगी ?
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पाँच साल बीत गये। पूरे प्रांत में चिंतादेवी की धाक जम गयी। दुश्मनों के कदम उखड़ गये। वह जीत की जीती जागती मूर्ति थी, उसे तीरों और गोलियों के सामने बिना डरे खड़े देख कर सिपाहियों को जोश मिलता रहता था । उसके सामने वे कैसे कदम पीछे हटाते ? कोमल सी लड़की आगे बढ़े, तो कौन सा आदमी पीछे हटेगा ! सुंदरियों के सामने योद्धाओं की वीरता अजेय हो जाती है। उसकी एक नज़र भी कायरों की रग-रग में बहादुरी भर देती है। चिंता की छवि और नाम ने मनचले सूरमाओं को चारों ओर से खींच-खींच कर उसकी सेना को सजा दिया , जान पर खेलने वाले भौंरे चारों ओर से आ-आ कर इस फूल पर मँडराने लगे।
इन्हीं योद्धाओं में रत्नसिंह नाम का एक नौजवान राजपूत भी था। यों तो चिंता के सैनिकों में सभी तलवार के धनी थे; बात बात पर जान देने वाले, उसके इशारे पर आग में कूदने वाले, उसकी आज्ञा पर तुरंत आकाश के तारे तोड़ लाने को भी चल पड़ते; लेकिन रत्नसिंह सबसे पहले था। चिंता भी दिल ही दिल में उससे प्रेम करती थी। रत्नसिंह दूसरे वीरों की तरह अक्खड़, मुँहफट या घमंडी न था और लोग अपने-अपने नाम और यश को खूब बढ़ा-बढ़ा कर बयान करते, ख़ुद की बड़ाई करते हुए उनकी जबान न रुकती थी। वे जो कुछ करते, चिंता को दिखाने के लिए। उनका मकसद अपना कर्तव्य न था, बल्कि चिंता थी। रत्नसिंह जो कुछ करता, शांत भाव से करता। अपनी तारीफ़ करना तो दूर रहा, वह चाहे कोई शेर ही क्यों न मार आये, उसकी चर्चा तक न करता।
उसकी नम्रता, संकोच की सीमा से भिड़ गयी थी। औरों के प्रेम में दिल बहलाने का भाव था; पर रत्नसिंह के प्रेम में त्याग और तप। दूसरे लोग मीठी नींद सोते थे; पर रत्नसिंह तारे गिन-गिन कर रात काटता था और सब अपने दिल में समझते थे कि चिंता मेरी होगी , सिर्फ़ रत्नसिंह निराश था, और इसलिए उसे किसी से कोई जलन नहीं थी । औरों को चिंता के सामने चहकते देख कर उसे उनकी बात करने की कला पर आश्चर्य होता, हर पल उसका निराशा से भरा अन्धकार और भी घना हो जाता था। कभी-कभी वह अपने भोलेपन पर झुँझला उठता , क्यों भगवान् ने उसे वो गुण नहीं दिए , जो औरतों के मन को मोहित करते हैं ? उसे कौन पूछेगा ? उसकी हालत को कौन जानता है ? पर वह मन में झुँझला कर रह जाता था। दिखावा करना उसके स्वभाव में न था।
आधी से ज़्यादा रात बीत चुकी थी। चिंता अपने खेमे यानी टेंट में आराम कर रही थी। सैनिक भी कड़ी मंजिल पार करने के बाद कुछ खा-पी कर बेपरवाह होकर नींद में पड़े हुए थे। आगे एक घना जंगल था। जंगल के उस पार दुश्मनों का एक दल डेरा डाले पड़ा था। चिंता उसके आने की खबर पा कर भागी-भागी चली आ रही थी। उसने सुबह दुश्मनों पर धावा बोलने का फ़ैसला कर लिया था। उसे विश्वास था कि दुश्मनों को मेरे आने की खबर न होगी; लेकिन यह उसका भ्रम था। उसी की सेना का एक आदमी दुश्मनों से मिला हुआ था। यहाँ की खबरें वहाँ रोज़ पहुँचती रहती थीं। उन्होंने चिंता से मुक्त होने के लिए एक षडयंत्र रच रखा था , उसकी गुप्त हत्या करने के लिए तीन साहसी सिपाहियों को चुना गया था। वे तीनों जानवरों की तरह दबे-पाँव जंगल को पार करके आये और पेड़ों की आड़ में खड़े हो कर सोचने लगे कि चिंता का खेमा कौन-सा है ? सारी सेना बे-खबर सो रही थी, इससे उन्हें अपने काम की कामयाबी में ज़रा भी शक न था। वे पेड़ों की आड़ से निकले, और जमीन पर मगरमच्छ की तरह रेंगते हुए चिंता के खेमे की ओर चले।
सारी सेना बे-खबर सो रही थी, पहरे के सिपाही थक कर चूर हो जाने के कारण नींद में मग्न हो गये थे। सिर्फ एक आदमी खेमे के पीछे मारे ठंड के सिकुड़ा हुआ बैठा था। यही रत्नसिंह था। आज उसके लिए यह कोई नयी बात न की थी। पड़ावों में उसकी रातें इसी तरह चिंता के खेमे के पीछे बैठे-बैठे कटती थीं। दुश्मनों की आहट पा कर उसने तलवार निकाल ली, और चौंक कर उठ खड़ा हुआ। देखा , तीन आदमी झुके हुए चले आ रहे हैं। अब क्या करे ? अगर शोर मचाता है, तो सेना में खलबली मच जाएगी, और अँधेरे में लोग एक-दूसरे पर वार करके आपस ही में कट मरेंगे। इधर अकेले तीन जवानों से भिड़ने में जान को ख़तरा था। ये ज़्यादा सोचने का मौका न था। उसमें योद्धाओं की तरह तुरंत फ़ैसला लेने की शक्ति थी; उसने तुरन्त तलवार खींच ली, और उन तीनों पर टूट पड़ा। कई मिनट तक तलवारें छपाछप चलती रहीं। फिर सन्नाटा छा गया। उधर वे तीनों घायल हो कर गिर पड़े, इधर यह भी जख्मों से चूर हो कर बेहोश हो गया।