(hindi) Sajjanta Ka Dand

(hindi) Sajjanta Ka Dand

साधारण इंसान की तरह शाहजहाँपुर के डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर सरदार शिवसिंह में भी भलाइयाँ और बुराइयाँ दोनों ही थीं। भलाई यह थी कि उनके यहाँ इंसाफ और दया में कोई न था। बुराई यह थी किभेदभाव  उनमें कोई लालच या स्वार्थ नहीं था। भलाई ने उनके नीचे काम करने वालों को निडर और आलसी बना दिया था, बुराई के कारण उस विभाग के सभी अधिकारी उनकी जान के दुश्मन बन गये थे।

सुबह का समय था। वे किसी पुल की निगरानी के लिए तैयार खड़े थे। मगर घोड़ागाड़ी वाला अभी तक मीठी नींद ले रहा था। रात को उसे अच्छी तरह बता दिया था कि सुबह होने से पहले गाड़ी तैयार कर लेना। लेकिन सुबह भी हुई, सूरज भी निकल आया, ठंडी किरणों में गरमी भी आयी, पर घोड़ागाड़ी वाला की नींद अभी तक नहीं टूटी।

सरदार साहब खड़े-खड़े थक कर एक कुर्सी पर बैठ गये। घोड़ागाड़ी वाला तो किसी तरह जागा, लेकिन चपरासियों का पता नहीं। जो महाशय चिठ्ठी लेने गये थे वे एक मंदिर में खड़े चरणामृत की परीक्षा कर रहे थे। जो ठेकेदार को बुलाने गये थे वे बाबा रामदास की सेवा में बैठे गाँजे का दम लगा रहे थे। धूप तेज होती जाती थी। सरदार साहब झुँझला कर मकान में चले गये और अपनी पत्नी से बोले- “इतना दिन चढ़ आया, अभी तक एक चपरासी का भी पता नहीं। इनके मारे तो मेरे नाक में दम आ गया है।”

पत्नी ने दीवार की ओर देख कर दीवार से कहा- “यह सब उन्हें सिर चढ़ाने का फल है।”

सरदार साहब चिढ़ कर बोले- “क्या करूँ, उन्हें फाँसी दे दूँ ?”

सरदार साहब के पास मोटरकार का तो कहना ही क्या, कोई छोटी गाड़ी भी न थी। वे अपने घोड़ा गाड़ी से ही खुश थे, जिसे उनके नौकर-चाकर अपनी भाषा में उड़नखटोला कहते थे। शहर के लोग उसे इतना इज्जतदार नाम न देकर छकड़ा कहना ही ठीक समझते थे। इस तरह सरदार साहब और काम में भी बड़े पैसे बचाने वाले थे। उनके दो भाई इलाहाबाद में पढ़ते थे। विधवा माँ बनारस में रहती थीं। एक विधवा बहन भी उन्हीं के सहारे थी। इनके सिवा कई गरीब लड़कों को पढ़ाई का खर्च भी देते थे।

इन्हीं कारणों से वे हमेशा खाली हाथ रहते ! यहाँ तक कि उनके कपड़ों पर भी इस आर्थिक दशा का असर दिखायी देता था ! लेकिन यह सब तकलीफ सह कर भी वे लालच को अपने पास फटकने न देते थे ! जो लोगों ने पसंद करते थे वे उनकी सज्जनता की तारीफ करते थे और उन्हें देवता समझते थे। उनकी सज्जनता से उन्हें कोई नुकसान न होता था, लेकिन जिन लोगों से उनके व्यावसायिक सम्बन्ध थे वे उनकी अच्छाई पसंद नकरते थे, क्योंकि उन्हें नुकसान होता था। यहाँ तक कि उन्हें अपनी बीवी से भी कभी-कभी खराब बातें सुननी पड़ती थीं।
एक दिन वे दफ्तर से आये तो उनकी पत्नी ने प्यार से कहा- “तुम्हारी यह सज्जनता किस काम की, जब सारी दुनिया तुम्हें बुरा कह रही है।”

सरदार साहब ने दृढ़ता से जवाब दिया- “दुनिया जो चाहे कहे भगवान तो देखता है।”

रामा ने यह जवाब पहले ही सोच लिया। वह बोली- “मैं तुमसे बहस तो करती नहीं, मगर जरा अपने दिल से सोच कर देखो कि तुम्हारी इस सच्चाई का दूसरों पर क्या असर पड़ता है ? तुम तो अच्छी तनख्वाह पाते हो। तुम अगर हाथ न बढ़ाओ तो तुम्हारा गुजारा हो सकता है ? रूखी रोटियाँ मिल ही जायँगी, मगर ये दस-दस पाँच-पाँच रुपये के चपरासी, दफ्तरी बेचारे कैसे गुज़ारा करें। उनके भी बाल-बच्चे हैं। उनके भी घर-परिवार हैं। शादी-गमी, तिथि-त्योहार यह सब उनके पास लगे हुए हैं। अच्छे बने रहने से काम नहीं चलता। बताओ उनका गुजर कैसे हो ? अभी रामदीन चपरासी की घरवाली आयी थी। रोते-रोते उसका आँचल भीग रहा था। लड़की सयानी हो गयी है। अब उसकी शादी करनी पड़ेगी। ब्राह्मण की जाति हजारों का खर्च। बताओ उसके आँसू का इल्जाम किसके सर आएगा ?”

ये सब बातें सच थीं। इनसे सरदार साहब को इनकार नहीं हो सकता था। उन्होंने खुद इस बारे में बहुत कुछ सोचा था। यही कारण था कि वह अपने नीचे काम करने वालों के साथ बड़ी नरमी का व्यवहार करते थे। लेकिन सच्चाई और अच्छाई से मिलने वाली खुशी चाहे जो हो, उनका पैसे में मोल बहुत कम है।

वे बोले- “तुम्हारी बातें सब सच हैं, लेकिन मैं मजबूर हूँ। अपने नियमों को कैसे तोडूँ ? अगर मेरा वश चले तो मैं उन लोगों की तनख्वाह बढ़ा दूँ। लेकिन यह नहीं हो सकता कि मैं खुद लूट मचाऊँ और उन्हें लूटने दूँ।”

रामा ने ताना मारते हुए कहा- “तो यह हत्या का इल्जाम किस पर आएगा ?”

सरदार साहब ने गुस्से से जवाब दिया- “यह उन लोगों पर पड़ेगी जो अपनी हैसियत और कमाई से ज्यादा खर्च करना चाहते हैं। चपरासी बनकर क्यों वकील के लड़के से लड़की की शादी करना चाहते हैं। दफ्तरी को अगर नौकर की जरूरत हो तो यह किसी पाप से कम नहीं। मेरे घोड़ागाड़ी वाले की बीवी अगर चाँदी की माला गले में डालना चाहे तो यह उसकी बेवकूफी है। इस झूठे दिखावे का भागीदार मैं नहीं बन सकता।

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इंजीनियरों का ठेकेदारों से कुछ ऐसा ही रिश्ता है जैसे मधु-मक्खियों का फूलों से। अगर वे अपनी किस्मत से ज्यादा पाने की कोशिश न करें तो उनसे किसी को शिकायत नहीं हो सकती। यह शहद कमीशन कहलाता है। रिश्वत जीना और मरना दोनों को ही बर्बाद कर देती है। उसमें डर है, चोरी है, बदमाशी है। मगर कमीशन एक मनोहर वाटिका है, जहाँ न इंसान का डर है, न भगवान का डर, यहाँ तक कि वहाँ आत्मा की छिपी हुई चुटकियों का भी जाना आना नहीं है। और कहाँ तक कहें उसकी ओर बदनामी आँख भी नहीं उठा सकती। यह वह बलिदान है जो हत्या होते हुए भी धर्म का एक हिस्सा है। ऐसी हालत में अगर सरदार शिवसिंह अपने चमकदार चरित्र को इस धब्बे से साफ रखते थे और उस पर घमंड करते थे तो माफी के काबिल थे।

मार्च का महीना बीत रहा था। चीफ इंजीनियर साहब जिले में मुआयना करने आ रहे थे। मगर अभी तक इमारतों का काम अधूरा था। सड़कें खराब हो रही थीं, ठेकेदारों ने मिट्टी और कंकड़ भी नहीं जमा किये थे।
सरदार साहब रोज ठेकेदारों को ताकीद करते थे, मगर इसका कुछ फल न होता था।

एक दिन उन्होंने सबको बुलाया। वे कहने लगे- “तुम लोग क्या यही चाहते हो कि मैं इस जिले से बदनाम होकर जाऊँ। मैंने तुम्हारे साथ कोई बुरा सलूक नहीं किया। मैं चाहता तो आपसे काम छीन कर खुद करा लेता, मगर मैंने आपको नुकसान पहुँचाना ठीक न समझा। उसकी मुझे यह सजा मिल रही है। खैर !”

ठेकेदार लोग यहाँ से चले तो बातें होने लगीं। मिस्टर गोपालदास बोले- “अब आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा।”

शाहबाज़ खाँ ने कहा- “किसी तरह इसका जनाजा निकले तो यहाँ से …”

सेठ चुन्नीलाल ने फरमाया- “इंजीनियर से मेरी जान-पहचान है। मैं उसके साथ काम कर चुका हूँ। वह उन्हें खूब लथेड़ेगा।”

इस पर बूढ़े हरिदास ने उपदेश दिया- “यारो, स्वार्थ की बात है। नहीं तो सच यह है कि यह इंसान नहीं, देवता है। भला और नहीं तो साल भर में कमीशन के 10 हजार तो होते होंगे। इतने रुपयों को कबाड़ की तरह छोटा समझना क्या कोई सहज बात है ? एक हम हैं कि कौड़ियों के पीछे ईमान बेचते फिरते हैं। जो अच्छा आदमी हमसे एक पैसा भी न लिया हो, सब तरह के तकलीफ उठा कर भी जिसकी नीयत न बीगड़ी हो, उसके साथ ऐसा गलत और खराब बर्ताव करना पड़ता है। इसे अपनी बदकिस्मती के सिवा और क्या समझें।”

शाहबाज़ खाँ ने फरमाया- “हाँ, इसमें तो कोई शक नहीं कि यह इंसान अच्छाई का फरिश्ता है।”

सेठ चुन्नीलाल ने गम्भीरता से कहा- “खाँ साहब ! बात तो वही है, जो तुम कहते हो। लेकिन किया क्या जाय ? अच्छी नियत से तो काम नहीं चलता। यह दुनिया तो धोखाधड़ी की है।”

मिस्टर गोपालदास बी. ए. पास थे। वे गर्व के साथ बोले- “इन्हें जब इस तरह रहना था तो नौकरी करने की क्या जरूरत थी ? यह कौन नहीं जानता की नीयत को साफ रखना अच्छी बात है। मगर यह भी तो देखना चाहिए कि इसका दूसरों पर क्या असर पड़ता है। हमको तो ऐसा आदमी चाहिए जो खुद खाये और हमें भी खिलावे। खुद हलवा खाय, हमें रूखी रोटियाँ ही खिलावे। वह अगर एक रुपया कमीशन लेगा तो उसकी जगह पाँच का फायदा कर देगा। इन महाशय के यहाँ क्या है ? इसीलिए आप जो चाहें कहें, मेरी तो कभी इनसे पट नहीं सकती।”

शाहबाज़ खाँ बोले- “हाँ, अच्छे और ईमानदार रहना जरूर अच्छी चीज है, मगर ऐसी अच्छाई ही से क्या जो दूसरों की जान ले ले।”

बूढ़े हरिदास की बातों पर जिन लोगों ने हामी भरी थी वे सब गोपालदास की हाँ में हाँ मिलाने लगे ! कमजोर आत्माओं में सच्चाई की रोशनी जुगनू की चमक है।

सरदार साहब के एक बेटी थी। उसकी शादी मेरठ के एक वकील के लड़के से पक्की हुई थी। लड़का होनहार था। जाति-कुल का ऊँचा था। सरदार साहब ने कई महीने की दौड़-धूप में इस शादी को तय किया था। और सब बातें तय हो चुकी थीं, सिर्फ दहेज तय नहीं हुआ था। आज वकील साहब की एक चिट्ठी आई। उसने इस बात को भी तय कर दिया, मगर भरोसे, उम्मीद और वादे के बिलकुल उल्टा। पहले वकील साहब ने एक जिले के इंजीनियर के साथ किसी तरह की रकम तय करना बेकार समझा। बड़ी सस्ती दयालुता दिखाई। इस शर्मनाक और बुरे व्यवहार पर खूब आँसू बहाये।

मगर जब ज्यादा पूछताछ करने पर सरदार साहब की दौलत का राज खुल गया तब दहेज तय करना जरुरी हो गया। सरदार साहब ने डरते हुए चिट्ठी को खोला, पाँच हजार रुपये से कम पर शादी नहीं हो सकती। वकील साहब बहुत दुखी और शर्मिंदा थे कि वे इस बारे में साफ बोलने पर मजबूर किये गये। मगर वे अपने खानदान के कई बूढ़े खुर्राट, न समझने वाले, स्वार्थ में अंधे हो चुके महात्माओं के हाथों बहुत तंग थे। उनका कोई वंश न था। इंजीनियर साहब ने एक लम्बी साँस खींची सारी उम्मीदें मिट्टी में मिल गयीं। क्या सोचते थे, क्या हो गया। परेशान हो कर कमरे में टहलने लगे।

उन्होंने जरा देर बाद चिट्ठी को उठा लिया और अंदर चले गये। सोचा कि यह चिट्ठी रामा को सुनावें, मगर फिर ख्याल आया कि यहाँ हमदर्दी की कोई उम्मीद नहीं। क्यों अपनी कमजोरी दिखाऊँ ? क्यों बेवकूफ बनूँ ? वह बिना बातों के बात न करेगी। यह सोच कर वे आँगन से लौट गये।

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