(Hindi) Sadgati

(Hindi) Sadgati

दुखी चमार दरवाजे पर झाड़ू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके तो चमारिन ने कहा- “तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न! ऐसा न हो, कहीं चले जाएँ।”

दुखी- “हाँ जाता हूँ; लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज पर?”

झुरिया- “कहीं से खटिया न मिल जायेगी? ठाकुर के घर से माँग लाना।”

दुखी- “तू तो कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि आग लग जाती है। ठाकुर मुझे खटिया देंगे! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे! एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला, खटिया कौन देगा! हमारे उपले, सेंठे, भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहें उठा ले जाएँ। ला, अपनी खटिया धोकर रख दें। गर्मी के दिन तो हैं। उनके आते-आते सूख जाएगी।”

झुरिया- “वे हमारी खटिया पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नियम धर्म से रहते हैं!”

दुखी ने जरा परेशान होकर कहा, “हाँ, यह बात तो है। महुए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाए। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हैं, वह पवित्र है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ।”

झुरिया- “पत्तल मैं बना लूँगी। तुम जाओ, लेकिन हाँ, उन्हें “सीधा” भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूँ?”

दुखी- “क़हीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाय और थाली भी फूटे! बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी गुस्सा चढ़ आता है। गुस्से में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं, लड़के को ऐसा पीटा कि आज तक टूटा हाथ लिये फिरता है। पत्तल में सीधा भी देना, हाँ। लेकिन तू छूना मत।”

झूरी- “कहार की लड़की को लेकर साह की दूकान से सब चीजें ले आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आधा सेर चावल, पाव भर दाल, आधा पाव घी, नमक, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। कहार की लड़की न मिले तो भुर्जिन(आग में अनाज भूनने वाली जाति) के हाथ-पैर जोड़कर ले आना। तू कुछ मत छूना, नहीं गजब हो जायगा।”

इन बातों को समझा करके दुखी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडितजी से निवेदन करने चला। खाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता। नजराने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या था। उसे खाली देखकर तो बाबा दूर ही से दुत्कारते। पं. घासीराम भगवान के परम भक्त थे। नींद खुलते ही भगवान की उपासना में लग जाते।

मुँह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भांग की तैयारी थी। उसके बाद आधा घण्टे तक चन्दन रगड़ते, फिर आईने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोली की बिन्दी होती थी।

फिर छाती पर, बाहों पर चन्दन की गोल-गोल मुद्रिकाएं बनाते। फिर ठाकुरजी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान दरवाजे पर आ जाते! भगवान की उपासना का तुरंत फल मिल जाता। वही उनकी खेती थी।

आज वह पूजा घर से निकले, तो देखा दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। दुखी उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ और उन्हें साष्टांग दंडवत्(जमीन पर लेटकर प्रणाम करना) करके हाथ बाँधकर खड़ा हो गया। यह तेजस्वी मूर्ति देखकर उसका दिल श्रृद्धा से भर गया! कितनी दिव्य मूर्ति थी। छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, चिकना सिर, फूले गाल, ब्रह्म के तेज सी चमकती आँखें। रोली और चंदन देवताओं की प्रतिभा(ब्रिलिएंस) दे रही थी। दुखी को देखकर बोले – “आज कैसे चला रे दुखिया?

TO READ OR LISTEN COMPLETE BOOK CLICK HERE

दुखी ने सिर झुकाकर कहा- “बिटिया की सगाई कर रहा हूँ महाराज। कुछ मुहूर्त निकलवाना है। कब मर्जी होगी?”

घासी- “आज मुझे छुट्टी नहीं। हाँ शाम तक आ जाऊँगा।”

दुखी- “नहीं महराज, जल्दी मर्जी हो जाए। सब सामान ठीक कर आया हूँ। यह घास कहाँ रख दूँ?”

घासी- “इस गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर दरवाजा तो साफ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं खाना खा लूँ। फिर जरा आराम करके चलूँगा। हाँ, यह लकड़ी भी चीर देना।  खेत  में चार टोकनी भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसा रखने वाले कमरे में रख देना।”

दुखी फौरन बताया हुआ काम करने लगा। दरवाजे पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा। तब बारह बज गये। पंडितजी खाना खाने चले गये। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी जोर की भूख लगी; पर वहाँ खाने को क्या धरा था। घर यहाँ से मील भर था। वहाँ खाने चला जाय, तो पंडितजी बिगड़ जायँ।

बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाँठ थी; जिस पर पहले कितने ही भक्तों ने अपना जोर आजमा लिया था। वह उसी दम-खम के साथ लोहे से लोहा लेने के लिए तैयार थी। दुखी घास छीलकर बाजार ले जाता था। लकड़ी चीरने की उसे आदत न थी। घास उसके खुरपे के सामने सिर झुका देती थी। यहाँ कस-कसकर कुल्हाड़ी का भरपूर हाथ लगाता; पर उस गाँठ पर निशान तक न पड़ता था।

कुल्हाड़ी उखड़ जाती। पसीने में तर था, हाँफता था, थककर बैठ जाता था, फिर उठता था। हाथ उठाये न उठते थे, पाँव काँप रहे थे, कमर न सीधी होती थी, आँखों के नीचे अँधेरा हो रहा था, सर में चक्कर आ रहे थे, तितलियाँ उड़ रही थीं, फिर भी अपना काम किये जाता था। अगर एक चिलम तम्बाकू पीने को मिल जाती, तो शायद कुछ ताकत आती।

उसने सोचा, यहाँ चिलम और तम्बाकू कहाँ मिलेगी। बाह्मनों का पूरा है। बाह्मन लोग हम नीच जातों की तरह तम्बाकू थोड़े ही पीते हैं। अचानक उसे याद आया कि गाँव में एक कहार भी रहता है। उसके यहाँ जरूर चिलम-तमाखू होगी। तुरत उसके घर दौड़ा। खैर मेहनत सफल हुई। उसने तमाखू भी दी और चिलम भी दी; पर आग वहाँ न थी। दुखी ने कहा- “आग की चिन्ता न करो भाई। मैं जाता हूँ, पंडितजी के घर से आग माँग लूँगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी।”

पंडितजी खाना खा रहे थे। पंडिताइन ने पूछा, “यह कौन आदमी आग माँग रहा है?”

पंडित- “अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा है थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।”

पंडिताइन ने भँवें चढ़ाकर कहा, “तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रों के चक्कर में धर्म-कर्म किसी बात की होश ही नहीं रहा। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार(एक तरह की गाली) से चला जाय, नहीं तो इस आग से मुँह जला दूँगी। आग माँगने चले हैं।”

पंडितजी ने उन्हें समझाकर कहा, “भीतर आ गया, तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। जरा-सी आग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लकड़हारा यही लकड़ी फाड़ता, तो कम-से-कम चार आने लेता।”

पंडिताइन ने गरजकर कहा, “वह घर में आया क्यों!”

पंडित ने हारकर कहा, “ससुरे की बदकिस्मती थी और क्या!”

पंडिताइन- “अच्छा, इस समय तो आग दिये देती हूँ, लेकिन फिर जो इस तरह घर में आयेगा, तो उसका मुँह ही जला दूँगी।”

दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, बेकार आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार कैसे चला आये। बड़े पवित्र होते हैं यह लोग, तभी तो संसार पूजता है, तभी तो इतना मान है। भर-चमार थोड़े ही हैं। इसी गाँव में बूढ़ा हो गया; मगर मुझे इतनी अक्ल भी न आई।

इसलिए जब पंडिताइन आग लेकर निकलीं, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया। दोनों हाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता हुआ बोला, “पड़ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला आया। चमार की अक्ल ही तो ठहरी। इतने बेअक्ल न होते, तो लात क्यों खाते।

TO READ OR LISTEN COMPLETE BOOK CLICK HERE

SHARE
Subscribe
Notify of
Or
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments