(hindi) Sachai Ka Uphar

(hindi) Sachai Ka Uphar

तहसीली स्कूल बराँव के टीचर मुंशी भवानीसहाय को बागवानी का बहुत शौक था। गमलों में तरह-तरह के फूल और पत्तियाँ लगा रखी थीं। दरवाजों पर लताएँ चढ़ा दी थीं। इससे स्कूल की सुंदरता बढ़ गई थी। वह मिडिल क्लास के लड़कों से भी अपने बगीचे के सींचने और साफ करने में मदद लिया करते थे। ज्यादातर लड़के इस काम को शौक से करते। इससे उनका मनोरंजन होता था लेकिन क्लास में चार-पाँच लड़के जमींदारों के थे। वो ऐसे बिगड़े हुए थे कि यह मनोरंजक काम भी उन्हें बेकार लगता। उन्होंने बचपन से आलसी जीवन जीया था।

अमीरी का झूठा अभिमान दिल में भरा हुआ था। वह हाथ से कोई काम करना शर्म की बात समझते थे। उन्हें इस बगीचे से चिढ़ थी। जब उनके काम करने की बारी आती, तो कोई-न-कोई बहाना कर भाग जाते। इतना ही नहीं, दूसरे लड़कों को बहकाते और कहते, “वाह ! पढ़ें फारसी, बेचें तेल ! अगर खुरपी-कुदाल ही करना है, तो स्कूल में किताबों से सिर मारने की क्या जरूरत ? यहाँ पढ़ने आते हैं, मजदूरी करने नहीं।“ मुंशीजी इसके के लिए उन्हें कभी-कभी सजा दे देते थे । इससे उनका गुस्सा और भी बढ़ जाता । आखिर में यहाँ तक नौबत आ पहुँची कि एक दिन उन लड़कों ने सलाह करके उस फूल के बगीचे को बर्बाद करने का फ़ैसला किया।

दस बजे स्कूल लगता था, लेकिन उस दिन वह आठ बजे ही आ गये और बगीचे में घुसकर उसे उजाड़ने लगे। कहीं पौधे उखाड़ फेंके कहीं गमलों को रौंद डाला, पानी की नलियाँ तोड़ डालीं, गमलों की मेड़ें खोद डाली। मारे डर के दिल धड़क रहा था कि कहीं कोई देख न ले । लेकिन एक छोटी सी फुलवाड़ी के उजड़ने में कितनी देर लगती है ? दस मिनट में हरा-भरा बाग बर्बाद हो गया। तब लड़के जल्दी से निकले, लेकिन दरवाजे तक आए थे कि उन्हें अपने साथ पढ़ने वाले साथी की सूरत दिखाई दी। वो एक-दुबला-पतला, गरीब और बुद्धिमान लड़का था। उसका नाम बाजबहादुर था। बड़ा गम्भीर, शांत लड़का था। बदमाश लड़के उससे जलते थे। उसे देखते ही उनका खून सूख गया। भरोसा हो गया कि इसने जरूर देख लिया है ।

यह मुंशीजी से कहे बिना न रहेगा। बुरे फँसे। आज खैर नहीं है। यह राक्षस इस समय यहाँ क्या करने आया था ? आपस में इशारे हुए कि इसे साथ में मिला लेना चाहिए। जगतसिंह उनका मुखिया था। आगे बढ़कर बोला- “आज इतने सबेरे कैसे आ गए ? हमने तो आज तुम लोगों के गले की फाँसी छुड़ा दी। लाला बहुत काम कराया करते थे, यह करो, वह करो। मगर यार देखो, कहीं मुंशीजी से मत कह देना, नहीं तो लेने के देने पड़ जायँगे।“

जयराम ने कहा- “कह क्या देंगे, अपने ही तो हैं। हमने जो कुछ किया है, वह सबके लिए किया है, सिर्फ़  अपनी भलाई के लिए नहीं। चलो यार, तुम्हें बाजार की सैर करा दें, मुँह मीठा करा दें।“

बाजबहादुर ने कहा- “नहीं, मुझे आज घर पर पाठ याद करने का समय नहीं मिला। यहीं बैठकर पढ़ूंगा।“

जगतसिंह- “अच्छा, मुंशीजी से कहोगे तो नहीं?”

बाजबहादुर- “मैं ख़ुद कुछ न कहूँगा, लेकिन उन्होंने मुझसे पूछा तो ?”

जगतसिंह- “कह देना, मुझे नहीं मालूम।“

बाजबहादुर- “यह झूठ मुझसे न बोला जाएगा।“

जयराम- “अगर तुमने चुगली की और हमें मार पड़ी, तो हम तुम्हें पीटे बिना न छोड़ेंगे।“

बाजबहादुर- “हमने कह दिया कि चुगली न करेंगे लेकिन मुंशीजी ने पूछा, तो झूठ भी न बोलेंगे।“

जयराम- “तो हम तुम्हारी हड्डियाँ भी तोड़ देंगे।“

बाजबहादुर- “इसका तुम्हें अधिकार है।

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दस बजे जब स्कूल लगा और मुंशी भवानीसहाय ने बाग की यह हालत देखी तो गुस्से से आग बबूला हो गए। बाग उजड़ने का इतना दुख न था, जितना लड़कों की शरारत का। अगर किसी साँड़ ने यह काम किया होता, तो वह सिर्फ़ हाथ मलकर रह जाते। लेकिन लड़कों की इस बदमाशी को सहन न कर सके। जैसे ही लड़के क्लास में बैठ गए, वह गुस्से में आए और पूछा- “यह बाग किसने उजाड़ा?”

कमरे में सन्नाटा छा गया। अपराधियों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। मिडिल क्लास के 25 स्टूडेंट में कोई ऐसा न था, जो इस घटना को न जानता हो लेकिन किसी में यह हिम्मत न थी कि उठकर साफ-साफ कह दे। सबके-सब सिर झुकाए चुपचाप बैठे थे।

मुंशीजी का गुस्सा और भी बढ़ गया। चिल्लाकर बोले- “मुझे पता है कि यह तुम्हीं लोगों में से किसी की शरारत है। जिसे मालूम हो, साफ कह दे, नहीं तो मैं एक लाइन से पीटना शुरू करूँगा, फिर कोई यह न कहे कि हम बेकार मारे गए।“

एक लड़का भी न बोला। वही सन्नाटा ! मुंशीजी- “देवीप्रसाद, तुम जानते हो ?”

देवी- “जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।“

“शिवदत्त, तुम जानते हो ?”

“जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।“

“बाजबहादुर, तुम कभी झूठ नहीं बोलते, तुम्हें मालूम है ?”

बाजबहादुर खड़ा हो गया, उसके चहरे पर बहादुरी झलक रही थी। आँखों में हिम्मत झलक रहा था। बोला- “जी हाँ !”

मुंशीजी ने कहा- “शाबाश!”

अपराधियों ने बाजबहादुर की ओर लाल आँखों से देखा और मन में कहा- “अच्छा !”

भवानीसहाय बड़े धीरज वाले इंसान थे। जितना हो सके लड़कों को तकलीफ नहीं देते थे, लेकिन ऐसी बदमाशी की सजा देने में वह जरा सी भी दया न दिखाते थे। छड़ी मँगाकर पाँचों अपराधियों को दस-दस छड़ियाँ लगायीं, सारे दिन बेंच पर खड़ा रखा और चाल-चलन के रजिस्टर में उनके नाम के सामने काले निशान बना दिए।

बाजबहादुर से बदमाश लड़के ऐसे ही जला करते थे, आज उसके  सच बोलने के कारण उसके खून के प्यासे हो गए। दर्द में सहानुभूति पैदा करने की ताकत होती है। इस समय क्लास के ज्यादातर लड़के अपराधियों के दोस्त बन गए थे। उनमें साजिश रची जाने लगी कि आज बाजबहादुर की खबर ली जाय। ऐसा मारो कि फिर स्कूल में मुँह न दिखाए। यह हमारे घर का भेदी है।

धोखेबाज ! बड़ा सच्चे की दुम बना है ! आज इसे सच बोलने का हाल मालूम हो जायगा। बेचारे बाजबहादुर को इन सब की जरा भी खबर न थी। दुश्मनों ने उसे अंधेर में रखने का पूरी कोशिश की थी।

छुट्टी होने के बाद बाजबहादुर घर की तरफ चला। रास्ते में एक अमरूद का बाग था। वहां जगतसिंह और जयराम कई लडकों के साथ खड़े थे। बाजबहादुर चौंका, समझ गया कि यह लोग मुझे छेड़ने पर उतारू हैं। लेकिन बचने का कोई तरीका न था। कुछ हिचकता हुआ आगे बढ़ा। जगत सिंह बोला- “आओ लाला ! बहुत रास्ता दिखाये! आओ, सच बोलने का इनाम लेते जाओ।“

बाजबहादुर- “रास्ते से हट जाओ, मुझे जाने दो।“

जयराम- “जरा सच बोलने का मजा तो चखते जाइए।“

बाजबहादुर- “मैंने तुमसे कह दिया कि जब मेरा नाम लेकर पूछेंगे तो मैं कह दूँगा।“

जयराम- “हमने भी तो कह दिया था कि तुम्हें इस काम का इनाम दिये बिना न छोड़ेंगे।“

यह कहते ही वह बाजबहादुर की तरफ घूँसा तानकर बढ़ा। जगत सिंह ने उसके दोनों हाथ पकड़ने चाहे। जयराम का छोटा भाई शिवराम अमरूद की एक टहनी लेकर झपटा। बाकी लड़के चारों तरफ खड़े होकर तमाशा देखने लगे. यह ‘रिजर्व’ सेना थी, जो जरूरत पड़ने पर साथी-दल की मदद के लिए तैयार रहती थी। बाजबहादुर दुबला पतला था। उसकी मरम्मत करने को वह तीन मजबूत लड़के काफी थे। सब लोग यही समझ रहे थे कि पल भर में वो तीनों उसे गिरा लेंगे। बाजबहादुर ने देखा कि दुश्मनों ने हथियार के साथ हमला करना शुरू कर दिया, तो उसने तिरछी नजर से इधर-उधर देखा। तब तेजी से झपटकर शिवराम के हाथ से अमरूद की टहनी छीन ली और दो कदम पीछे हटकर टहनी ताने हुए बोला- “तुम मुझे सच बोलने का इनाम या, सजा देने वाले कौन होते हो ?”

दोनों ओर से दाँव पेंच होंने लगे। बाजबहादुर था तो कमजोर, पर बहुत ही तेज और सतर्क था, उस पर सच का भरोसा दिल को और भी ताकतवर बनाए हुए था। सच चाहे सिर कटा दे, लेकिन कदम पीछे नहीं हटता। कई मिनट तक बाजबहादुर उछल-उछलकर वार करता और हटाता रहा। लेकिन अमरूद की टहनी कहाँ तक थाम सकती थी । जरा देर में उसकी धज्जियाँ उड़ गईं। जब तक उसके हाथ में वह हरी तलवार रही कोई उसके पास आने की हिम्मत न करता था। निहत्था होने पर भी वह ठोकरो और घूँसों से जबाव देता रहा। मगर आखिर में ज्यादा संख्या की जीत हुई। बाजबहादुर की पसली में जयराम का एक घूंसा ऐसा पड़ा कि वह बेदम होकर गिर पड़ा। आँखें पथरा गईं और बेहोशी सी आ गई। दुश्मनों ने यह हालत देखी, तो उनके होश उड़ गए। समझे, इसकी जान निकल गई। वो सब जोर से भागे।

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