(Hindi) Road Less Travelled

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इंट्रोडक्शन(Introduction)

क्या आपने कभी अपनी पर्सनालिटी या जैसे आप हैं वैसे क्यों हैं, के बारे में सोचा है? आपकी पसंद, नापसंद और शौक किस वजह से है ? जब आप बड़े हो रहे थे तब किस चीज़ या किस इंसान का आप पर सबसे ज्यादा प्रभावहुआ ?अपने बचपन की वोसबसे पहली कौन सी बात है जो आपको अब तक याद है ?

ये बुक साइकोथेरेपी के बारे में हैं.साइकोथेरेपी इलाज़ करने का एकतरीकाहोताहै जिसमें साइकोथेरपिस्ट (डॉक्टर) से बातें कर के इलाज़ किया जाता है मतलब अगर किसी के मन में चल रही कोई बात उसे परेशान कर रही है या तकलीफ पहुंचा रही है तो डॉक्टर से इस बारे में खुल कर बात करने सेसमस्या को ठीक किया जा सकता है.डॉ. स्कॉटपेक को ऐसे पेशेंट्स का इलाज़ करने का कई सालों का अनुभव है.उन सब की अलग अलग कहानियाँ हैं. उन लोगों ने अलग अलग मुश्किलों का सामना किया है.इस बुक में डॉ. स्कॉट ने 4 बातों के ज़रिये इसे समझाने की कोशिश की है. वो हैं डिसिप्लिन, प्यार, रिलिजन और एक ऐसी शक्ति जो इंसान की समझ और ज्ञान के बाहर हैजिसे ऑथर ग्रेस (grace) कहते हैं.

इस बुक में आप जानेंगे कि किसी इंसान में सेल्फ डिसिप्लिन या खुद पर कण्ट्रोल रखने की शक्ति कहाँ से आती है, वो ये कैसे सिखता है. आप प्यार का असली मतलब समझेंगे.आप दुनिया को देखने का नजरिया और स्पिरिचुअल ग्रोथ के बारे में भी सीखेंगे.

तो हम उम्मीद करते हैं कि इस बुक को पढ़ने के बाद आप खुद को और भी अच्छे से समझने लगेंगे. डॉ. स्कॉट अपने पेशेंट्स और साइकोथेरेपी को लेकर बहुत भावुक हैं. अगर इस समय आप अपने जीवन में किसी तकलीफ का सामना रहे हैं तो हम आशा करते हैं कि ये समरी आपको बेहतर महसूस कराने में मदद करेगी.

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डिसिप्लिन(Discipline)

ज़िन्दगीआसान नहीं है, एक के बाद एक कोई न कोई समस्या हमारे सामने खडी रहती है. ये नेगेटिव सोच नहीं है बल्कि एक सच है. इसलिए हमें ज़िन्दगी जैसी भीहै उसे वैसे ही अपनाना होगा और हर मुसीबत का सामना करना होगा.

और इन सब का सामना करने का सबसे बड़ा हथियार है सेल्फ डिसिप्लिन मतलब खुद पर कण्ट्रोल रखना. अगर आपका खुद पर कण्ट्रोल होगा तो आप मुसीबतों से भागेंगे नहीं. अपनी तकलीफ भुलाने के लिए आप शराब या नशे का सहारा नहीं लेंगे.आपअपना मानसिक संतुलन नहीं खोएंगे.

जो इंसान डिसिप्लिन से जीता है वो किसी भी समस्या को देख कर उसे हल करने के उपाय ढूंढता है. ऐसा इंसान इसे सुलझाने की ज़िम्मेदारी लेता है, इससे भागता नहीं है. वो इसे पार करके और नई ऊंचाइयां पाने की कोशिश करता है.

ये हमारे अन्दर कहाँ से आता है ? जवाब आसन है, बचपन से. ये हम अपने पेरेंट्स से सिखते हैं. अगर कोई बच्चा बचपन से ही इसे अपना लेता है तो वो बड़ा हो कर एक ज़िम्मेदार और इंडिपेंडेंट इंसान बनता है. पेरेंट्स इसे दो तरीके से सिखा सकते हैं. या तो वो उनके सामने अच्छा बर्ताव करकेउन्हें सिखा सकते हैं या प्यार से सिखा सकते हैं.

टॉड 10 साल का बच्चा है. जब भी उससे कोई गलती होती है तो उसके पेरेंट्स थप्पड़ से या मार कर उसे सज़ा देते हैं. वो उसे ठीक से पेश आने के लिए डांटते रहते हैं मगर वो ये सब बातें समझ ही नहीं पाता.

क्योंकि उसके पेरेंट्स खुद हमेशा उसके सामने लड़ते रहते हैं, शराब पीते हैं. वादा करके उसे पूरा नहीं करते और झूठ बोलते हैं. वो टॉड से जो कहते हैं उसे खुद ही फॉलो नहीं करते इसलिए टॉड ने कभी अच्छी आदतें नहीं सीखी.

एक बच्चे की नज़र में उसके पेरेंट्स तो हमेशा सही होते हैं ना, वो सोचता है कि वो कभी कुछ गलत नहीं करते. बच्चा वही सिखता है जो वो अपने पेरेंट्स को करते हुए देखता है.

अगर वो अपने पेरेंट्स को डिसिप्लिन, ज़िम्मेदारी और अच्छा बर्ताव करते हुए देखता है तो उसे लगता है कि इस दुनिया में रहने का यही सही तरीका है, हमें ऐसा ही होना चाहिए.

दूसरा तरीका होता है प्यार से समझा कर सिखाना. सोचिये कि एक गुलाब का बगीचा है और एक बूढा आदमी है.वोरोज़ सुबह अपने पौधों को पानी देते हैंऔर उनसे बातें करते रहते. वो उनसे प्यार से बात करते और उनकी देखभाल करते थे. वोपौधेउनके लिए बहुत अनमोल थे. अगर सच में हमारे बच्चे हमारे लिए मायने रखते हैं और अगर हम उनसे सच में प्यार करते हैं तो हमें उनके साथ समय बिताना चाहिए और उस समय में उन्हें अच्छी सीख देनी चाहिए.

इससे आप ये भी देख पाएँगे कि आपका बच्चा कहाँ गलती कर रहा है और आप उसे समझा कर ठीक कर पाएँगे.एक्जाम्पल के लिए अगर आपकी 7 साल की बेटी झूठ बोल रही होगी तो आप एक बार में समझ जाएँगे. आप उसे समझाएंगे कि जो उसने किया वो गलत है और क्यों गलत है. फिर आप उसे प्यार से गले लगाकर किस करेंगे.पर अगर आपके पास समय ही नहीं होगा तो आप इसे अनदेखा कर देंगे. आप उसे उसी समय उसकी गलती नहीं बता पाएँगे जिससे ये उसकी आदत बन जाएगी और वो हमेशा झूठ बोलने लगेगी.

और फिर वो समय आएगा जब आप उसके झूठ से तंग आ जाएँगे. फिर आप उस पर हाथ उठाएंगे लेकिन तब वो सही गलत के बारे में सीख नहीं पाएगी. मारने से सिर्फ आपका उससे रिश्ता खराब होगा.

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डीलेइंग ग्रैटिफिकेशन    (Delaying Gratification)

अपने काम से पूरी तरह संतुष्टना होकर काम में लगे रहना और बाद में उसका आनंद लेना ये दिखाता है कि इनाममिलने से पहले ही हम में कड़ी मेहनत करने की शक्ति है. ये डिसिप्लिन का बहुत ज़रूरी हिस्सा है.

और ज्यादा अच्छे से समझने के लिए आइये मैरी के बारे में बात करते हैं, वो 32 साल की फाइनेंसियल एनालिस्ट हैं. वो हर काम कल पर टाल देती थी, हर काम करने में देर करती थी जिसकी वजह से वो बहुत कम काम कर पाती थी और उसे नुक्सान भी हो रहा था. वो डॉ. पेक के पास मदद के लिए गई.

डॉ. पेक ने मैरी से उसके बॉस, उसके काम और उसके साथ काम करने वाले लोगों के बारे में सब पूछ लिया लेकिन उन्हें उसके हर काम को टालने का कारण समझ में नहीं आया. फिर एक दिन, डॉ. पेकने उससे एक सीधा साधा सवाल पूछा.

“क्या आपको केक खाना पसंदहै”? उन्होंनेपूछा. मैरी ने कहा “हाँ, मुझे केक बहुत पसंद है. मुझे केक के ऊपर की लेयर जिसे आइसिंग कहते हैं वो सबसे ज्यादा पसंद है. मैंसबसे पहले उसे ही खाती हूँ.”

अब डॉ. पेक को कारण पता चला. मैरीहमेशा आसान काम पहले करती थी. वो ज़रूरी लेकिन थोड़ा मुश्किल काम बाद में करने के लिए छोड़ देती थी. वो अपना पूरा समय उसे टालने में हीबर्बाद कर देती है जिसकी वजह से ज़रूरी काम करने के लिए बहुत कम समय बचता था.

डॉ. पेक ने मैरी को ऑफिस पहुँच कर सबसे पहले मुश्किल काम ख़तम करने के लिए कहा. वोपहले कुछ घंटों में इसे कर के फिर आराम से आसान काम कर सकती थी जिससे उसे अपने काम में मज़ा भी आने लगेगा और ख़ुशी भी मिलेगी.

ये आदत हम पांच साल की छोटी उम्र में सीखते हैं. जैसे एक बच्ची अपनी दोस्त को किसी गेम में खेलने का पहला मौका दे दे तो उसे अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता है.

अगर 12 साल की उम्र तक उसकी यही आदत रहे तो वो स्कूल से घर पहुँच कर सबसे पहले अपना होमवर्क ख़तम करेगी वो भी बिना किसी के कहे. वो बाद में टीवी देखेगी. ऐसा इसलिए क्योंकि बचपन से ही उसे आदत पड़ चुकी है कि इंतज़ार कर के या काम पहलेख़तम करके वो एन्जॉय कर सकती है.

दूसरी तरफ, एकटीनएजर जिसने ये बचपन में सिखा ही नहीं, उसेपढ़ाईकरने में मज़ा ही नहीं आएगा. वो बस अपना स्कूल और क्लास मिस करती रहेगीयाउसेबीच में हीछोड़ देगी. उसकेदिमाग में बस यही बात बैठ चुकी होगी कि “अभी खेलो, बाद में काम करो”. ऐसा भी हो सकता है कि ये आदत उसके बड़े होने पर भी ऐसी ही बनी रहे, कभी ना बदले.

डॉ. पेक को पता चला कि मैरी ने अपनी सारी छुट्टियां अपने पेरेंट्स के साथ नहीं बल्कि जो उसका ध्यान रखते थे उनके साथ बिताई हैं. उसके पेरेंट्स के पास तो उसके लिए समय ही नहीं था. इसलिए वो कभी सीख ही नहीं पाई कि पहले काम पूरा कर लेना चाहिए और उसके बाद खेलना और टीवी देखना चाहिए. इसलिए वो कभीडिसिप्लिन या खुद पर कण्ट्रोल करना सीख ही नहीं पाई.

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फॉलिंग इन लव (Falling in Love)

डॉ. पेक के कई पेशेंट्स हैं जिनकी शादी में और प्रेम संबंधोंमें बहुत झगड़े और मनमुटाव होते रहते हैं. डॉ. पेक का मानना है कि ये इसलिए होता है क्योंकि हम प्यार को ठीक से समझ ही नहीं पाएं हैं.

पहले तो ये समझने की ज़रुरत है कि प्यार असल में है क्या? डॉ. पेक का मानना है कि दूसरे की भावना का सम्मान करना, एक दूसरे को समय देना और एक दूसरे की ज़िन्दगी को और अच्छा बनाने में मदद करना, इसे प्यार कहते हैं. कोई समस्या हो तो उसे सुन कर हल करने में मदद करना, लेने की बजाय देने की भावना रखना, ये प्यार होता है.इसके बारे में सबसे आम ग़लतफहमी ये है कि जब आप किसी को पसंद करने लगता है तो आपको लगता है  कि मैं प्यार में पड़ गया हूँ, मुझे उससे प्यार हो गया है.बस ऐसा समझना ही तो सबसे बड़ी गलती है.

इसके दो कारण है. पहला, ऐसा अक्सर तब होता है जब हम किसी के रूप या उसके शरीर के प्रति मोहित हो जाते हैं, ये सिर्फ सेक्स से जुड़ा होता है. हम प्यार तो अपने माँ बाप और बच्चों से भी करते हैं पर हम कभी ये नहीं कहते कि हम उनके प्यार में पड़ गए हैं. इसलिए प्यार में पड़ने का मतलब ज़्यादातर सेक्स के सम्बंधित होता है, भावनाओं से नहीं.

दूसरा,इस तरह के प्यार का अनुभव सिर्फ कुछ समय के लिए होता है, हमेशा के लिए नहीं. वो ख़ुशी वो नशा कुछ ही समय में फीका पड़ जाता है. इसी कारण दो लोगों में  प्यार कम हो जाता है.

इसे अच्छे से समझने के लिए हमें ईगो यानी “मैं” के बारे में समझना होगा. येहमारे बचपन सेहीशुरू हो जाता है.

जैसे, एक छे महीने की बच्ची को“मैं” का मतलब समझ में आने लगता है. वोदेखती है कि जब उसे भूख लगती है तो उसकी माँ तुरंत उसके पास नहीं आ सकती. वो जब खेलना चाहती है तो हमेशा उसकी माँ उसके साथ नहीं खेल सकती. वो बच्ची समझने लगती है कि उसकीमाँके भी अपने काम हैं, वो भी एक अलग इंसान है.
अब यहीं, एक साल की बच्ची खुद को और अच्छे से समझने लगती हैजैसे “ये मेरा हाथ है”, “ये मेरे पैर हैं”, “ये मेरी आवाज़ है” और“मुझे ऐसा महसूस हो रहा है”. वो समझनें लगती है कि क्या उसका है और क्या नहीं. इसे ही हम “मैं” या ईगो बाउंड्री कहते हैं.

दो साल के बच्चे को लगता है कि उसकी हर इच्छा को उसकी माँ पूरा करे. वो अपनी माँ को अपने “मैं” का हिस्सा समझती है. इसलिए इस उम्र के बच्चे बहुत शैतान होते हैं. अगर उसकी माँ उसकी बात नहीं मानती है तो वो बहुत उदास हो जाती है.इसलिए इस उम्र के बच्चे बहुत नखरे भी करते हैं.

प्यार में पड़ना भी कुछ ऐसा ही है, बच्चों जैसे नखरे और नासमझी. इंसान को ऐसा लगने लगता है जैसे वो कुछ भी कर सकता है, जैसे हर काम करना संभव है. एक अलग सा नशा और ख़ुशी छाई रहती है.

उस ख़ास इंसान के साथ होने से ऐसा लगने लगता है जैसे आपका अकेलापन ख़तम हो गया है, आप खुद को पूरा महसूस करने लगते हैं. ऐसा लगता है कोई भी मुश्किल आ जाए बस आराम से सामना कर लेंगे.

मगर ये ख़्वाबों का महल जल्दी ही टूट जाता है. फिर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आने वाली मुश्किलें सामने आने लगती हैं.जैसे अगर एक को फिल्म देखने का मन है तो दूसरे का नहीं है. एक को सेक्स करने की इच्छा है तो दूसरे को नहीं.

धीरे धीरे दोनों को समझ में आने लगता है कि वो एक दूसरे जैसे नहीं हैं,वो दो अलग अलग लोग हैं.इसलिए झगड़े होने लगते हैं, प्यार भी कम होने लगता है और फिर से ईगो अपनी जगह पर चला जाता है. एक बार फिर वो दो अलग अलग इंसान बन जाते हैं.

इसलिए प्यार में पड़ने का मतलब होता है कि कुछ समय के लिए हम इस ईगो को भूल जाते हैं. ये जो रोमांटिक प्यार की झूठी बातें है वो बस बच्चा पैदा कर के ह्यूमन रेस को आगे बढाने के ही काम आती है.

इसलिए कई लोग उस परफेक्ट इंसान को ढूंढते ढूंढते दुखी हो जाते हैं. वो ऐसे इंसान की तलाश करते रहते हैं जिनका साथ उन्हें पूरा कर सके, उनके अधूरेपन को मिटा सके. और यही कभी न ख़त्म होने वाली खोज उन्हेंबहुत दुःख और तकलीफ देती है.

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