(hindi) Rewire: Change Your Brain to Break Bad Habits, Overcome Addictions, Conquer Self-Destructive Behavior

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Introduction

क्या आपको खुद पर गुस्सा आता है जब आप डाइटिंग पर होने के बाद भी चॉकलेट खा लेते हैं? क्या आपने कभी खुद को प्रॉमिस किया है कि आप वो सब करना बंद कर देंगे जो आपके लिए अच्छा नहीं है, आप अपनी जिंदगी को बदलने की कोशिश करते हैं, लेकिन कुछ ही दिनों बाद आप कोशिश करना बंद कर देते हैं।

इस बुक में, आप जानेंगे की हम वो चीजें क्यों करते हैं जो हमारे लिए सही नहीं है। आप दिमाग के उन दो हिस्सों के बारे में जानेंगे जो हमारे अंदर आपस में लड़ रहे हैं। हमारी बुरी आदतों के लिए यही जिम्मेदार हैं। जब बात आती है बुरी आदतों के बनने की, आप सीखेंगे कि कैसे हमारा बचपन इसमें एक अहम रोल निभाता है।

आप सीखेंगे कि कैसे पावर और सेल्फ कंट्रोल की मदद से हम अपने सेल्फ डिस्ट्रक्टिव बिहेवियर पर काबू पा सकते हैं। अंत में, आप उस 12-स्टेप प्रोग्राम के बारे में जानेंगे जो लोगों को उनकी बुरी आदतों पर जीत पाने में मदद करता है।
क्या आप अपने ब्रेन को री-वायर करने के लिए तैयार हैं?

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दो दिमाग, जो साथ में काम नहीं करते (Two Brains, Not Working Together)

जैसे ही आप एक और चिप्स का पैकेट खोलते हैं या एक और सिगरेट पीते हैं, आपका दिमाग आपको यह करने के लिए मना करता है। आप जानते हैं कि खुद को नुकसान पहुँचाने वाली चीजें आपको नहीं करनी है, लेकिन फिर भी आप खुद को रोक नहीं पाते। आप नहीं जानते कि आप वो सब क्यों कर रहे हैं जो आपको नुकसान पहुंचा सकता है, और आप कोशिश करते हैं कि आप ऐसा ना करें। लेकिन आप हमेशा इसमें नाकामयाब हो जाते हैं।

जो चीजें हमारे लिए बुरी हैं उन्हें करना सेल्फ डिस्ट्रक्टिव बिहेवियर कहा जाता है और यह हमारे दो दिमागों से आती हैं जो आपस में ठीक से कम्युनिकेट नहीं कर रहे। हमारा एक दिमाग हमें कुछ करने को बोलता है और दूसरा कुछ और। दरअसल, हमारे पास एक कॉन्शियस सेल्फ है और एक ऑटोमेटिक सेल्फ। हालांकि इन दोनों की अपनी अपनी प्रॉब्लम हैं, ऑटोमेटिक सेल्फ वह है जहाँ से हमारा सेल्फ डिस्ट्रक्टिव बिहेवियर आता है, जहाँ हमारे biases और assumptions होते हैं यानि कि वो बातें जिन्हें  हमने पहले से ही मान लिया है या उनके लिए एक राय बना ली है। यहाँ आपको अपनी पुरानी बुरी आदतें भी मिल जाएंगी और साथ ही साथ वह फिलिंग्स भी जिन्हें आप बाहर नहीं लाना चाहते।

दूसरी तरफ, कॉन्शियस सेल्फ, चीजों के बारे में सावधानी से सोचने के लिए ज़िम्मेदार होता है, जैसे डिसीजन लेना। कॉन्शियस सेल्फ इस बात का ध्यान रखता है कि वह जो भी डिसाइड करे, उससे हमें किसी तरह का नुकसान ना हो। क्योंकि इसे बहुत ध्यान से काम करना होता है इसलिए यह एक वक्त में एक ही चीज पर फोकस कर सकता है। जब हमारा कॉन्शियस सेल्फ बिज़ी होता है, ऑटोमेटिक सेल्फ तब तक खुद से बहुत सारे बुरे डिसीजन ले चुका होता है। जब आपका कॉन्शियस सेल्फ इस बात को लेकर परेशान हो रहा होता है कि किस टॉपिक पर प्रोजेक्ट बनाएँ,आपका ऑटोमेटिक सेल्फ आपको स्टडी टेबल पर रखी चॉकलेट खाने को कहता है। इस तरह दो अलग-अलग बातें कर रहे इन हिस्सों से डील करने का सबसे अच्छा तरीका है कि हम अपने ऑटोमेटिक सेल्फ को अच्छे डिसीजन लेने के लिए ट्रेन करें।

सेल्फ डिस्ट्रक्टिव बिहेवियर को रोकना उतना मुश्किल नहीं है जितना कि लगता है। बहुत सारी स्टडीज हमें बताती हैं कि एक इंसान अपने ब्रेन का स्ट्रक्चर बदल सकता है। इसे प्लास्टिसिटी ऑफ द ब्रेन कहा जाता है। जब आप अपने self-destructive बिहेवियर को बदलने के तरीके सीखते हैं, आपके ब्रेन में सेल्स के बीच नए कनेक्शन बनते हैं। फिर ये कनेक्शन आपके उन पुराने कनेक्शन को बदल देते है जो आपको ज्यादा खाने, सिगरेट या शराब पीने को कहते हैं।

लेकिन इन नए कनेक्शन के बनने के लिए आपको अपनी नई अच्छी आदतों के साथ कंसिस्टेंट रहना होगा, जितना ज्यादा आप अपनी अच्छी आदतों की प्रैक्टिस करेंगे, इन्हें ऑटोमेटिकली करना उतना ही आसान होगा। आप इस बुक को पूरा पढ़ सकते हैं और उन तरीकों के बारे में जान सकते हैं जिनसे आपको अपने सेल्फ डिस्ट्रक्टिव बिहेवियर को बदलने में मदद मिलेगी। लेकिन अगर आप अपनी अच्छी आदतों को रोज और लंबे समय तक प्रैक्टिस नहीं करेंगे, तो आप अपनी बुरी आदतों को बिल्कुल भी नहीं बदल पाएंगे।

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द ऑटोडिस्ट्रक्ट  मेकैनिज्म (The Autodestruct Mechanism)

जैसा कि पहले बताया है, ऑटोमेटिक सेल्फ अपना काम बिना सोचे समझे अनकॉन्शियसली करता है। यानी कि यह बिना हमारी जानकारी के ही हमारे लिए डिसीजन ले लेता है। इसका मकसद हमें खुश, कंफर्टेबल और कॉन्फिडेंट रखना है। हालांकि इसके इरादे अच्छे हैं, लेकिन ऑटोमेटिक सेल्फ हमसे वह काम करवाता है जो उस वक्त तो हमें खुशी देता है, पर बाद में वह हमारे लिए नुक़सानदेह साबित हो सकता   है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऑटोमेटिक सेल्फ हमारे bias, assumption और कुछ चीजों के बारे में नॉलेज की कमी से प्रभावित होकर काम करता है। कैसे हमारा ऑटोमेटिक सेल्फ हमारे साथ गड़बड़ करता है, इस बेसिक एग्जांपल से जानते हैं:

जब आप उन कपड़ों को पहनते हैं जिन्हें आप बिल्कुल पसंद नहीं करते, क्योंकि अंदर कहीं ना कहीं, अनकॉन्शियस लेवल पर आप चाहते हैं कि आप भी स्कूल में बाकी बच्चों की तरह दिखें और उनके बीच फिट हो सकें। शुरू शुरू में आपको खुशी होती है क्योंकि आपको लगता है कि आप उन्हीं में से एक हैं। लेकिन बाद में आपको नफरत होने लगती है क्योंकि आप कोई और होने का दिखावा कर रहे हैं।

यह समझने के लिए कि ऑटोमेटिक सेल्फ की पकड़ डिस्ट्रक्टिव बिहेवियर पर इतनी स्ट्रांग क्यों होती है, उससे पहले हम अपने सोचने के तरीके के बारे में बात करते हैं। जैसे जैसे हम अपनी जिंदगी जीते जाते हैं, हम चाहते हैं कि हर चीज का कोई मतलब हो। हम पैटर्न बनाने लगते हैं ताकि जिंदगी प्रिडिक्टेबल हो सके। अगर आप अच्छे काम करेंगे तो आपको उसका अच्छा फल मिलेगा।

जैसे-जैसे हम ज्यादा पैटर्न्स बनाते हैं, हम उन्हें मैनेज करने के लिए एक स्ट्रक्चर बनाते हैं जिसे हम पैराडाइम भी कहते है। रियलिटी और दुनिया के बारे में हमारे सोचने का तरीका ही पैराडाइम है। जब हम बड़े हो रहे होते हैं, इसी सोच को अपनी जिंदगी में लागू करते रहते हैं।, जल्द ही यह परमानेंट और ना बदली जा सकने वाली सोच बन जाती है। हम उन लोगों से अपनी नजदीकियां बढ़ाने लगते हैं जो हमारे सोचने के तरीके को सपोर्ट करते हैं। हम उन लोगों से दूर रहने लगते हैं जो हमारी सोच को चैलेंज करते हैं या उसके खिलाफ जाते हैं।

अगर कोई आदमी इस बात से सहमत नहीं है कि हर वीकेंड ड्रिंक करने में बड़ा मज़ा है, हम उससे दूर रहते हैं। बार में जाने वाले लोग हमारे दोस्त बन जाते हैं क्योंकि हमें लगता है वे कूल हैं। हमारे परिवार वाले और दोस्त हमें बताते हैं कि वह हमारी हरकतों की वजह से चिंतित हैं, हम उनकी हाँ में हाँ  मिला देते हैं लेकिन उनकी बात सुनते नहीं है। क्योंकि हम अपनी सोच के बारे में कॉन्शियस नहीं हैं , हमारे कॉन्शियस सेल्फ को हमारी प्रॉब्लमैटिक सोच को ठीक करने का मौका ही नहीं मिलता। हम हर उस चीज को ब्लॉक कर देते हैं जो हमारे खुद को और दुनिया को देखने के नज़रिए को चैलेंज करती हैं। जब हमें अपने self-destructive बिहेवियर के बारे में बात करनी पड़ती है, हम अपने आप को बचाने लगते हैं। हम इसे नकारने लगते हैं, बहस करते हैं या फिर टॉपिक ही बदल देते हैं। हम अपने पैराडाइम को बचाने के लिए कुछ भी करते हैं।

अगर आप चाहते हैं कि आप अपने गलत पैराडाइम के बारे में अवेयर रहे,तो एक डायरी रखना अच्छी शुरुआत हो सकती है। अक्सर हम उन फैक्ट्स और इवेंट्स को नकार देते हैं जो हमारी उम्मीद के मुताबिक नहीं होती। इसका मतलब है कि हम खुद को सही मानते हैं और बाकी दुनिया को गलत। इसलिए, जब आप अगली बार किसी बात को लेकर निराश हों,  तो इसे अपनी डायरी में नोट कर लें।

सबसे पहले, उस बात को लिखें जिसके होने की आपको उम्मीद थी। फिर जो असल में हुआ उसे लिखे। फिर इस बारे में जो भी आपके गलत beliefs यानि सोच रहे हो,  उन्हें नोट करें। फिर, अपने गलत सोच से निकाले गए नतीजों को लिखें। अंत में, यह जानने की कोशिश करें कि आप क्या अलग कर सकते थे। example के लिए आपको अपने स्कूल रिपोर्ट में अच्छा करने की उम्मीद थी। लेकिन असल में हुआ क्या कि आप इसे टालते रहे, और जिसका परिणाम, आपका काम बहुत average रहा। आपके बायस पैराडाइम ने सोचा कि आप अपनी रिपोर्ट बहुत जल्दी बना सकते हो। फिर, आप ठान लेते हो की अगली बार जब आपको रिपोर्ट बनानी होगी, आप उसे टालेंगे नहीं और उस पर समय रहते काम करना शुरू कर देंगे।

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