(Hindi) Prem ka Uday
भोंदू पसीने में तर, लकड़ी का एक गट्ठा सिर पर लिए आया और उसे जमीन पर पटककर बंटी के सामने खड़ा हो गया, मानो पूछ रहा हो, 'क्या अभी तेरी तबीयत ठीक नहीं हुई?'
शाम हो गयी थी, फिर भी लू चलती थी और आकाश पर धूल छायी हुई थी। प्रकृति बिना खून के शरीर की तरह ढीला हो रहा था। भोंदू सुबह घर से निकला था। दोपहर उसने एक पेड़ की छाँह में काटी थी। समझा था इस तपस्या से देवीजी का मुँह सीधा हो जायगा; लेकिन आकर देखा, तो वह अब भी गुस्से से भरी थी।
भोंदू ने बातचीत छेड़ने के इरादे से कहा- “लो, एक लोटा पानी दे दो, बड़ी प्यास लगी है। मर गया सारे दिन। बाजार में जाऊँगा, तो तीन आने से ज्यादा न मिलेंगे। दो-चार सैंकडे मिल जाते, तो मेहनत सफल हो जाती। बंटी ने झोपड़े के अन्दर बैठे-बैठे कहा- “धरम भी लूटोगे और पैसे भी। मुँह धो रखो।”
भोंदू ने भँवें सिकोड़कर कहा- “क्या धरम-धरम बकती है! धरम करना हँसी-खेल नहीं है। धरम वह करता है, जिसे भगवान् ने माना हो। हम क्या खाकर धरम करें। भर-पेट खाना तो मिलता नहीं, धरम करेंगे।”
बंटी ने अपना वार छोटा पड़ता देखकर चोट पर चोट की- “दुनिया में कुछ ऐसे भी महात्मा हैं, जो अपना पेट चाहे न भर सकें, पर पड़ोसियों को नेवता देते फिरते हैं; नहीं तो सारे दिन जंगल जंगल लकड़ी न तोड़ते फिरते। ऐसे धरमात्मा लोगों को पत्नी रखने की क्यों सूझती है, यही मेरी समझ में नहीं आता। धरम की गाड़ी क्या अकेले नहीं खींचते बनती?”
भोंदू इस चोट से तिलमिला गया। उसकी नसें तन गयीं; माथे पर बल पड़ गये। इस औरत का मुँह वह एक डपट में बंद कर सकता था; पर डाँट-डपट उसने न सीखी थी। जिसकी ताकत की सारे कंजड़ों में धूम थी, जो अकेला सौ-पचास जवानों का नशा उतार सकता था, वह इस औरत के सामने चूँ तक न कर सका। दबी जबान से बोला- “पत्नी धरम बेचने के लिए नहीं लायी जाती, धरम पालने के लिए लायी जाती है।”
यह कंजड़ पति पत्नी आज तीन दिन से और कई कंजड़ परिवारों के साथ इस बाग में उतरा हुआ था। सारे बाग में झोपड़े-ही-झोपड़े दिखायी देते थे। उसी तीन हाथ चौड़ी और चार हाथ लम्बी झोपड़े के अन्दर एक-एक पूरा परिवार जीवन के सभी जरुरतों के साथ कुछ दिनों के लिए रह रहा था। एक किनारे चक्की थी, एक किनारे रसोई का जगह, एक किनारे दो-एक अनाज के मटके। दरवाजे पर एक छोटी-सी खटोली बालकों के लिए पड़ी थी।
हरेक परिवार के साथ दो-दो भैंसें या गधे थे। जब डेरा चलता था तो सारा घर का सामान इन जानवरों पर लाद दीया जाती थी। यही इन कंजड़ों का जीवन था। सारी बस्ती एक साथ चलती थी। आपस में ही शादी-ब्याह, लेन-देन, झगड़े-टंटे होते रहते थे। इस दुनिया के बाहर वाली पूरी दुनिया उनके लिए सिर्फ शिकार का मैदान था। उनके किसी इलाके में पहुँचते ही वहाँ की पुलिस तुरंत आकर अपनी निगरानी में ले लेती थी। पड़ाव के चारों तरफ चौकीदार का पहरा हो जाता था। औरत या आदमी किसी गाँव में जाते तो दो-चार चौकीदार उनके साथ हो लेते थे।
रात को भी उनकी हाजिरी ली जाती थी। फिर भी आस-पास के गाँव में आतंक छाया हुआ था; क्योंकि कंजड़ लोग अक्सर घरों में घुसकर जो चीज चाहते, उठा लेते और उनके हाथ में जाकर कोई चीज लौट न सकती थी। रात में ये लोग अक्सर चोरी करने निकल जाते थे। चौकीदारों को उनसे मिले रहने में ही अपनी अच्छाई दिखती थी। कुछ हाथ भी लगता था और जान भी बची रहती थी। सख्ती करने में जान का डर था, कुछ मिलने का तो जिक्र ही क्या; क्योंकि कंजड़ लोग एक सीमा के बाहर किसी का दबाव न मानते थे। बस्ती में अकेला भोंदू अपनी मेहनत की कमाई खाता था; मगर इसलिए नहीं कि वह पुलिसवालों की खुशामद न कर सकता था। उसकी आजाद आत्मा अपनी ताकत से कमाई किसी चीज का हिस्सा देना मंजूर न करती थी; इसलिए वह यह नौबत आने ही न देती थी।
बंटी को पति की यह अच्छाई एक आँख न भाती थी। उसकी और बहनें नयी-नयी साड़ियाँ और नये-नये गहने पहनतीं, तो बंटी उन्हें देख-देखकर पति की नाकामी पर कुढ़ती थी। इस बारे में दोनों में कितने ही लड़ाई हो चुकी थी; लेकिन भोंदू अपना परलोक बिगाड़ने पर राजी न होता था। आज भी सुबह यही परेशानी आ खड़ी हुई थी और भोंदू लकड़ी काटने जंगलों में निकल गया था। सैंकडे मिल जाते, तो आँसू पुंछते, पर आज सैंकडे भी न मिले। बंटी ने कहा- “ज़िनसे कुछ नहीं हो सकता, वही धरमात्मा बन जाते हैं।”
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भोंदू ने पूछा- “तो मैं निखट्टू हूँ?”
बंटी ने इस सवाल का सीधा-सादा जवाब न देकर कहा- “मैं क्या जानूँ, तुम क्या हो? मैं तो यही जानती हूँ कि यहाँ सस्ती सस्ती चीज के लिए तरसना पड़ता है। यहीं सबको पहनते-ओढ़ते, हँसते-खेलते देखती हूँ। क्या मुझे पहनने-ओढ़ने, हँसने-खेलने की इच्छा नहीं है? तुम्हारे पल्ले पड़कर जिंदगानी बर्बाद हो गयी।”
भोंदू ने एक पल सोच कर कहा- “ज़ानती है, पकड़ा जाऊँगा, तो तीन साल से कम की सजा न होगी।”
बंटी परेशान न हुई। बोली- “ज़ब और लोग नहीं पकड़ जाते; तो तुम्हीं पकड़ जाओगे? और लोग पुलिस को मिला लेते हैं, थानेदार के पाँव सहलाते हैं, चौकीदार की खुशामद करते हैं।”
“तू चाहती है, मैं भी औरों की तरह सबकी खुशामद करता फिरूँ?”
बंटी ने अपनी जिद न छोड़ी- “मैं तुम्हारे साथ सती होने नहीं आयी। फिर तुम्हारे छुरे-गँड़ासे को कोई कहाँ तक डरे। जानवर को भी जब घास-भूसा नहीं मिलता, तो रस्सी तुड़ाकर किसी के खेत में घुस जाता है। मैं तो इंसान हूँ।”
भोंदू ने इसका कुछ जवाब न दिया। उसकी पत्नी कोई दूसरा घर कर ले, यह कल्पना उसके लिए अपमान से भरी थी। आज बंटी ने पहली बार यह धमकी दी। अब तक भोंदू इस तरफ से बेफिक्र था। अब यह नयी संभावना उसके सामने आ गई। उस बुरे दिन को वह अपना काबू चलते अपने पास न आने देगा।
आज भोंदू की आँखों में वह इज्जत नहीं रही, वह भरोसा नहीं रहा। मजबूत दीवार को सहारे की जरूरत नहीं। जब दीवार हिलने लगती है, तब हमें उसको सँभालने की चिन्ता होती है। आज भोंदू को अपनी दीवार हिलती हुई मालूम होती थी। आज तक बंटी अपनी थी। वह जितना अपनी ओर से बेफिक्र था, उतना ही उसकी ओर से भी था। वह जिस तरह खुद रहता था उसी तरह उसको भी रखता था। जो खुद खाता था, वही उसको खिलाता था, उसके लिए कोई खास फिक्र न थी; पर आज उसे मालूम हुआ कि वह अपनी नहीं है, अब उसका खास तौर से सत्कार करना होगा, खास रूप से बहलाना होगा।
सूरज डूब रहा था। उसने देखा, उसका गधा चरकर चुपचाप सिर झुकाये चला आ रहा है। भोंदू ने कभी उसकी खाने-पीने की चिन्ता न की थी; क्योंकि गधा किसी और को अपना स्वामी बनाने की धमकी न दे सकता था। भोंदू ने बाहर आकर आज गधे को पुचकारा, उसकी पीठ सहलायी और तुरन्त उसे पानी पिलाने के लिए डोल और रस्सी लेकर चल दिया। इसके दूसरे ही दिन कस्बे में एक अमीर ठाकुर के घर चोरी हो गयी। उस रात को भोंदू अपने डेरे पर न था। बंटी ने चौकीदार से कहा- “वह जंगल से नहीं लौटा।”
सुबह भोंदू आ पहुँचा। उसकी कमर में रुपयों की एक थैली थी। कुछ सोने के गहने भी थे। बंटी ने तुरन्त गहनों को ले जाकर एक पेड़ की जड़ में गाड़ दिया। रुपयों की क्या पहचान हो सकती थी। भोंदू ने पूछा- “अगर कोई पूछे, इतने सारे रुपये कहाँ मिले, तो क्या कहोगी?”
बंटी ने आँखें नचाकर कहा- “क़ह दूँगी, क्यों बताऊँ? दुनिया कमाती है, तो किसी को हिसाब देने जाती है? हमीं क्यों अपना हिसाब दें।”
भोंदू ने शक के भाव से गर्दन हिलाकर कहा- “यह कहने से गला न छूटेगा, बंटी! तू कह देना, मैं तीन-चार मास से दो-दो, चार-चार रुपये महीना जमा करती आई हूँ। हमारा खर्च ही कौन बड़ा लंबा है।”
दोनों ने मिलकर बहुत-से जवाब सोच निकाले- “ज़ड़ी-बूटियाँ बेचते हैं। एक-एक जड़ी के लिए मुट्ठी-मुट्ठी भर रुपये मिल जाते हैं। खस, सैंकडे, जानवरों की खालें, नख और चर्बी, सभी बेचते हैं।”
इस ओर से बेफिक्र होकर दोनों बाजार चले। बंटी ने अपने लिए तरह-तरह के कपड़े, चूड़ियाँ, बिंदियाँ, बुंदे, सिंदूर, पान-तमाखू, तेल और मिठाई ली। फिर दोनों लोग शराब की दुकान गये। खूब शराब पी। फिर दो बोतल शराब रात के लिए लेकर दोनों घूमते-घामते, गाते-बजाते घड़ी रात गये डेरे पर लौटे। बंटी के पाँव आज जमीन पर न पड़ते थे। आते ही बन-ठनकर पड़ोसियों को अपनी छवि दिखाने लगी। जब वह लौटकर अपने घर आयी और खाना पकाने लगी, तब पड़ोसियों ने बातें करनी शुरू कीं।
“कहीं गहरा हाथ मारा है।”
“बड़ा धरमात्मा बना फिरता था।”
“बगला भगत है।”
“बंटी तो आज जैसे हवा में उड़ रही है।”
“आज भोंदुआ की कितनी खातिर हो रही है। नहीं तो कभी एक लुटिया पानी देने भी न उठती थी।”
रात को भोंदू को देवी की याद आयी। आज तक कभी उसने देवी की वेदी पर बकरे का बलि न दी थी। पुलिस को मिलाने में ज्यादा खर्च था। कुछ आत्म-सम्मान भी खोना पड़ता। देवीजी सिर्फ एक बकरे में राजी हो जाती हैं। हाँ, उससे एक गलती जरूर हुई थी। उसकी बिरादरी के और लोग साधारण तौर पर काम होने से के पहले ही बलि दिया करते थे। भोंदू ने यह खतरा न लिया। जब तक माल हाथ न आ जाय, उसके भरोसे पर देवी-देवताओं को खिलाना उसकी व्यावसायिक दिमाग को न जँचा। औरों से अपने किए को छुपा कर रखना भी चाहता था; इसलिए किसी को खबर भी न दी, यहाँ तक कि बंटी से भी न कहा, बंटी तो खाना बना रही थी, वह बकरे की तलाश में घर से निकल पड़ा।