(hindi) Pisanhari ka kuan
गोमती ने मरते हुए चौधरी विनायक सिंह से कहा- “चौधरी, मेरे जीवन की यही इच्छा थी।”
चौधरी ने गम्भीर हो कर कहा- “इसकी कुछ चिंता न करो काकी; तुम्हारी इच्छा भगवान् पूरी करेंगे। मैं आज ही से मजदूरों को बुला कर काम पर लगाये देता हूँ। भगवान ने चाहा, तो तुम अपने कुएँ का पानी पियोगी। तुमने तो गिना होगा, कितने रुपये हैं?”
गोमती ने एक पल आँखें बंद करके, बिखरी हुई यादों को इकट्ठा करके कहा- “भैया, मैं क्या जानूँ, कितने रुपये हैं? जो कुछ हैं, वह इसी हाँड़ी में हैं। इतना करना कि इतने ही में काम चल जाए। किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे?”
चौधरी ने बंद हाँड़ी को उठा कर हाथों से तौलते हुए कहा- “ऐसा तो करेंगे ही काकी; कौन देने वाला है। एक चुटकी भीख तो किसी के घर से निकलती नहीं, कुआँ बनवाने को कौन देता है। धन्य हो तुम कि अपनी उम्र भर की कमाई इस धर्म के काम के लिए दे दी।”
गोमती ने गर्व से कहा- “भैया, तुम तो तब बहुत छोटे थे। तुम्हारे काका मरे तो मेरे हाथ में एक कौड़ी भी न थी। दिन-दिन भर भूखी पड़ी रहती। जो कुछ उनके पास था, वह सब उनकी बीमारी में उठ गया। वह भगवान् के बड़े भक्त थे। इसीलिए भगवान् ने उन्हें जल्दी से बुला लिया। उस दिन से आज तक तुम देख रहे हो कि किस तरह दिन काट रही हूँ।
मैंने एक-एक रात में मन-मन भर अनाज पीसा है; बेटा! देखने वाले आश्चर्य मानते थे। न-जाने इतनी ताकत मुझमें कहाँ से आ जाती थी। बस, यही इच्छा रही कि उनके नाम का एक छोटा-सा कुआँ गाँव में बन जाए। नाम तो चलना चाहिए। इसीलिए तो आदमी बेटे-बेटी को रोता है।”
इस तरह चौधरी विनायक सिंह को वसीयत करके, उसी रात को बुढ़िया गोमती मर गई। मरते समय आखिरी शब्द, जो उसके मुंह से निकले, वे यही थे- “कुआँ बनवाने में देर न करना।”
उसके पास पैसे हैं यह तो लोगों को अंदाजा था; लेकिन दो हजार है, इसका किसी को अंदाजा न था। बुढ़िया अपने पैसों को बुराइयों की तरह छिपाती थी। चौधरी गाँव का मुखिया और नीयत का साफ आदमी था। इसलिए बुढ़िया ने उसे यह आखिरी आदेश किया था। चौधरी ने गोमती के क्रिया-कर्म में बहुत रुपये खर्च न किये। जैसे ही इन संस्कारों से छुट्टी मिली, वह अपने बेटे हरनाथ सिंह को बुला कर ईंट, चूना, पत्थर का हिसाब करने लगे। हरनाथ अनाज का व्यापार करता था। कुछ देर तक तो वह बैठा सुनता रहा, फिर बोला- “अभी दो-चार महीने कुआँ न बने तो कोई बड़ा हर्ज है?”
चौधरी ने “हुँह!” करके कहा- “हर्ज तो कुछ नहीं, लेकिन देर करने का काम ही क्या है। रुपये उसने दे ही दिये हैं, हमें तो फोकट में यश मिलेगा। गोमती ने मरते-मरते जल्द कुआँ बनवाने को कहा था।”
हरनाथ- “हाँ, कहा तो था, लेकिन आजकल बाजार अच्छा है। दो-तीन हजार का अनाज भर लिया जाए, तो अगहन-पूस तक सवाया हो जायगा। मैं आपको कुछ सूद दे दूँगा। चौधरी का मन शक और डर के दुविधा में पड़ गया। दो हजार के कहीं ढाई हजार हो गये, तो क्या कहना। जगमोहन में कुछ बेल-बूटे बनवा दूँगा। लेकिन डर था कि कहीं घाटा हो गया तो?
इस शक को वह छिपा न सके, बोले- “जो कहीं घाटा हो गया तो?”
हरनाथ ने तड़प कर कहा- “घाटा क्या हो जायगा, कोई बात है?”
“मान लो, घाटा हो गया तो?”
हरनाथ ने गुस्सा होकर कहा- “यह कहो कि तुम रुपये नहीं देना चाहते, बड़े धर्मात्मा बने हो!”
दूसरे बूढ़े लोगों की तरह चौधरी भी बेटे से दबते थे। डरी हुई आवाज में बोले- “मैं यह कब कहता हूँ कि रुपये न दूँगा। लेकिन पराया धन है, सोच-समझ कर ही तो उसमें हाथ लगाना चाहिए। व्यापार का हाल कौन जानता है। कहीं भाव और गिर जाए तो? अनाज में घुन ही लग जाए, कोई दुश्मन घर में आग ही लगा दे। सब बातें सोच लो अच्छी तरह।”
हरनाथ ने ताना मारते हुए कहा- “इस तरह सोचना है, तो यह क्यों नहीं सोचते कि कोई चोर ही उठा ले जाए; या बनी-बनायी दीवार बैठ जाए? ये बातें भी तो होती ही हैं।”
चौधरी के पास अब और कोई दलील न थी, कमजोर सिपाही ने ताल तो ठोंकी, अखाड़े में उतर पड़ा; पर तलवार की चमक देखते ही हाथ-पाँव फूल गये। बगलें झाँक कर चौधरी ने कहा- “तो कितना लोगे?”
हरनाथ कुशल योद्धा की तरह, दुश्मन को पीछे हटता देख कर, फैल कर बोला- “सब का सब दीजिए, सौ-पचास रुपये ले कर क्या खिलवाड़ करना है?”
चौधरी राजी हो गये। गोमती को उन्हें रुपये देते किसी ने न देखा था। लोक-निंदा की संभावना भी न थी। हरनाथ ने अनाज भरा। अनाजों के बोरों का ढेर लग गया। आराम की मीठी नींद सोने वाले चौधरी अब सारी
रात बोरों की रखवाली करते थे, मजाल न थी कि कोई चुहिया बोरों में घुस जाए। चौधरी इस तरह झपटते थे कि बिल्ली भी हार मान लेती। इस तरह छ: महीने बीत गये। पौष में अनाज बिका, पूरे 500 रु. का फायदा हुआ।
हरनाथ ने कहा- “इसमें से 50 रु. आप ले लें।”
चौधरी ने झल्ला कर कहा- “50 रु. क्या खैरात ले लूँ? किसी महाजन से इतने रुपये लिये होते तो कम से कम 200 रु. सूद के होते; मुझे तुम दो-चार रुपये कम दे दो, और क्या करोगे?”
हरनाथ ने ज्यादा बात न बढ़ाई। 150 रु. चौधरी को दे दिया। चौधरी की आत्मा इतनी खुश कभी न हुई थी। रात को वह अपनी कमरे में सोने गया, तो उसे ऐसा लगा कि बुढ़िया गोमती खड़ी मुस्करा रही है। चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा। वह नींद में न था। कोई नशा न खाया था। गोमती सामने खड़ी मुस्करा रही थी। हाँ, उस मुरझाये हुए चहरे पर एक अजीब फुर्ती थी।
कई साल बीत गये! चौधरी बराबर इसी फिक्र में रहते कि हरनाथ से रुपये निकाल लूँ; लेकिन हरनाथ हमेशा ही टालमटोल करता रहता था। वह साल में थोड़ा-सा ब्याज दे देता, पर मूल के लिए हजार बातें बनाता था। कभी लेने का रोना था, कभी चुकते का। हाँ, कारोबार बढ़ता जाता था। आखिर एक दिन चौधरी ने उससे साफ-साफ कह दिया कि तुम्हारा काम चले या डूबे, मुझे परवाह नहीं, इस महीने में तुम्हें जरूर रुपये चुकाने पड़ेंगे। हरनाथ ने बहुत बहाने बताए, पर चौधरी अपने इरादे पर जमे रहे।
हरनाथ ने झुँझला कर कहा- “कहता हूँ कि दो महीने और ठहरिए। माल बिकते ही मैं रुपये दे दूँगा।”
चौधरी ने मजबूती से कहा- “तुम्हारा माल कभी न बिकेगा, और न तुम्हारे दो महीने कभी पूरे होंगे। मैं आज रुपये लूँगा।”
हरनाथ उसी समय गुस्से में भरा हुआ उठा, और दो हजार रुपये लाकर चौधरी के सामने जोर से पटक दिये।
चौधरी ने कुछ झेंप कर कहा- “रुपये तो तुम्हारे पास थे।”
“और क्या बातों से रोजगार होता है?”
“तो मुझे इस समय 500 रुपये दे दो, बाकी दो महीने में दे देना। सब आज ही तो खर्च न हो जाएँगे।”
हरनाथ ने ताव दिखा कर कहा- “आप चाहे खर्च कीजिए, चाहे जमा कीजिए, मुझे रुपयों का काम नहीं। दुनिया में क्या महाजन मर गये हैं, जो आपकी धौंस सहूँ?”
चौधरी ने रुपये उठा कर एक ताक पर रख दिये। कुआँ खुदवाने का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया।
हरनाथ ने रुपये लौटा तो दिये थे, पर मन में कुछ और मनसूबा बाँध रखा था। आधी रात को जब घर में सन्नाटा छा गया, तो हरनाथ चौधरी के कमरे की दरवाजा खिसका कर अंदर घुसा। चौधरी बेखबर सोये थे। हरनाथ ने चाहा कि दोनों थैलियाँ उठा कर बाहर निकल आऊँ, लेकिन जैसे ही हाथ बढ़ाया उसे अपने सामने गोमती खड़ी दिखायी दी। वह दोनों थैलियों को दोनों हाथों से पकड़े हुए थी।
हरनाथ डर कर पीछे हट गया। फिर यह सोच कर कि शायद मुझे धोखा हो रहा हो, उसने फिर हाथ बढ़ाया, पर अबकी वह मूर्ति इतनी भयानक हो गयी कि हरनाथ एक पल भी वहाँ खड़ा न रह सका। भागा, पर बरामदे ही में बेहोश होकर गिर पड़ा। हरनाथ ने चारों तरफ से अपने रुपये वसूल करके व्यापारियों को देने के लिए जमा कर रखे थे। चौधरी ने आँखें दिखायीं, तो वही रुपये ला कर पटक दिया।
दिल में उसी समय सोच लिया था कि रात को रुपये उड़ा लाऊँगा। झूठमूठ चोर का गुल मचा दूँगा, तो मेरी ओर शक भी न होगा। पर जब यह चाल ठीक न उतरी, तो उस पर व्यापारियों के तगादे होने लगे। वादों पर लोगों को कहाँ तक टालता, जितने बहाने हो सकते थे, सब किये। आखिर वह नौबत आ गयी कि लोग नालिश करने की धमकियाँ देने लगे। एक ने तो 300 रु. की नालिश कर भी दी। बेचारे चौधरी बड़ी मुश्किल में फँसे।
दूकान पर हरनाथ बैठता था, चौधरी का उससे कोई वास्ता न था, पर उसकी जो साख थी वह चौधरी के कारण लोग चौधरी को खरा और लेन-देन का साफ आदमी समझते थे। अब भी हालांकि कोई उनसे तकाजा न करता था, पर वह सबसे मुँह छिपाते फिरते थे। लेकिन उन्होंने यह तय कर लिया था कि कुएँ के रुपये न छुऊँगा चाहे कुछ आ पड़े। रात को एक व्यापारी के मुसलमान चपरासी ने चौधरी के दरवाजे पर आ कर हजारों गालियाँ सुनायीं। चौधरी को बार-बार गुस्सा आता था कि चल कर मूँछें उखाड़ लूँ, पर मन को समझाया, “हमसे मतलब ही क्या है, बेटे का कर्ज चुकाना बाप का धर्म नहीं है।”