(hindi) Pashu Se Manushya
दुर्गा माली डॉक्टर मेहरा, बार-ऐट ला, के यहाँ नौकर था। पाँच रुपये महिने का तनख्वाह पाता था। उसके घर में बीवी और दो-तीन छोटे बच्चे थे। बीवी पड़ोसियों के लिए गेहूँ पीसा करती थी। दो बच्चे, जो समझदार थे, इधर-उधर से लकड़ियाँ, गेहूँ, उपले चुन लाते थे। लेकिन इतनी मेहनत करने पर भी वे बहुत तकलीफ में थे। दुर्गा, डॉक्टर साहब की नजर बचा कर बगीचे से फूल चुन लेता और बाजार में पुजारियों के हाथ बेच दिया करता था। कभी-कभी फलों पर भी हाथ साफ किया करता। यही उसकी ऊपरी कमाई थी। इससे खाने पीने आदि का काम चल जाता था। उसने कई बार डॉक्टर महोदय से तनख्वाह बढ़ाने के लिए प्रार्थना की, लेकिन डॉक्टर साहब नौकर की तनख्वाह बढ़ाने को छूत की बीमारी समझते थे, जो धीरे धीरे बढ़ती जाती है।
वो साफ कह दिया करते कि, “भाई मैं तुम्हें बाँधे तो हूँ नहीं। तुम्हारा गुजारा यहाँ नहीं होता; तो और कहीं चले जाओ, मेरे लिए मालियों की कमी नहीं है।”
दुर्गा में इतनी हिम्मत न थी कि वह लगी हुई नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी ढूँढ़ने निकलता। इससे ज्यादा तनख्वाह पाने की उम्मीद भी नहीं। इसलिए वह इसी निराशा में पड़ा हुआ जीवन के दिन काटता और अपने किस्मत को रोता था।
डॉक्टर महोदय को बागबानी से खास प्यार था। कई तरह के फूल-पत्ते लगा रखे थे। अच्छे-अच्छे फलों के पौधे दरभंगा, मलीहाबाद, सहारनपुर आदि जगहों से मँगवा कर लगाये थे। पेड़ों को फलों से लदे हुए देख कर उन्हें दिली खुशी होती थी। अपने दोस्तों के यहाँ गुलदस्ते और शाक-भाजी की टोकरियां तोहफे के तौर पर भिजवाते रहते थे। उन्हें फलों को खुद खाने का शौक न था, पर दोस्तों को खिलाने में उन्हें बेहद खुशी मिलती थी। हर फल के मौसम में दोस्तों की दावत करते, और 'पिकनिक पार्टियाँ' उनके मनोरंजन का जरूरी हिस्सा थीं।
एक बार गर्मियों में उन्होंने अपने कई दोस्तों को आम खाने की दावत दी। मलीहाबादी पेड़ में आम खूब लगे हुए थे। डॉक्टर साहब इन फलों को हर दिन देखा करते थे। ये पहले ही फले थे, इसलिए वे दोस्तों से उनके मिठास और स्वाद की तारीफ सुनना चाहते थे। इस सोच से उन्हें वही खुशी थी, जो किसी पहलवान को अपने चेलों के करतब दिखाने से होता है। इतने बड़े सुन्दर और सुकोमल आम खुद उन्होंने न देखे थे। इन फलों के स्वाद पर उन्हें इतना भरोसा था कि वे एक फल चख कर उनकी परीक्षा करना जरूरी न समझते थे, खासतौर पर इसलिए कि एक फल की कमी एक दोस्त को उसके स्वाद से दूर कर देगी।
शाम का समय था, चैत का महीना। दोस्त सब आ कर बगीचे के तालाब के किनारे कुरसियों पर बैठे थे। बर्फ और दूध का इंतजाम पहले ही से कर लिया गया था, पर अभी तक फल न तोड़े गये थे। डॉक्टर साहब पहले फलों को पेड़ में लगे हुए दिखा कर तब उन्हें तोड़ना चाहते थे, जिसमें किसी को यह शक न हो कि फल इनके बाग के नहीं हैं। जब सब सज्जन जमा हो गये तब उन्होंने कहा- “आप लोगों को तकलीफ होगा, पर जरा चलकर फलों को पेड़ में लटके हुए देखिए। बड़ा ही सुंदर नजारा है। गुलाब में भी ऐसी आँखों को भाने वाली लाली न होगी। रंग से स्वाद टपक पड़ता है। मैंने इसकी कलम खास मलीहाबाद से मँगवायी थी और उसे खास तरीके से बड़ा किया है।”
दोस्त उठे। डॉक्टर साहब आगे-आगे चले रास्ते के दोनों ओर गुलाब के पौधे थे । उनकी सुंदरता दिखाते हुए वे आखिर में आम के पेड़ के सामने आ गये। मगर, आश्चर्य ! वहाँ एक फल भी न था। डॉक्टर साहब ने समझा, शायद वह यह पेड़ नहीं है। दो पग और आगे चले, दूसरा पेड़ मिल गया। और आगे बढ़े, तीसरा पेड़ मिला। फिर पीछे लौटे और चौंक कर आम के पेड़ के नीचे आ कर रुक गये। इसमें कोई शक नहीं कि पेड़ यही है, पर फल क्या हुए ? बीस-पच्चीस आम थे, एक का भी पता नहीं !
दोस्तों की ओर अपराधी की तरह आँखों से देख कर बोले- “आश्चर्य है कि इस पेड़ में एक भी फल नहीं है। आज सुबह मैंने देखा था, पेड़ फलों से लदा हुआ था। यह देखिए, फलों का डंठल है। यह जरूर माली की बदमाशी है। मैं आज उसकी हड्डियाँ तोड़ दूँगा। उस पाजी ने मुझे कितना धोखा दिया ! मैं बहुत शर्मिंदा हूँ कि आप लोगों को बेकार तकलीफ हुई। मैं सच कहता हूँ, इस समय मुझे जितना दुख है, उसे बता नहीं कर सकता। ऐसे रंगीले, कोमल, सुंदर फल मैंने अपने जीवन में कभी न देखे थे। उनके ऐसे गायब हो जाने से मेरे दिल के टुकड़े हुए जाते हैं।”
यह कह कर वे उदास हो कर कुरसी पर बैठ गये। दोस्तों ने सांत्वना देते हुए कहा- “नौकरों का सब जगह यही हाल है। आप हम लोगों की तकलीफ का दुख न करें। आम न सही दूसरे फल सही।”
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एक आदमी ने कहा- “साहब, मुझे तो सब आम एक ही से मालूम होते हैं। आम, मोहनभोग, लँगड़े, बम्बई, फजली, दशहरी इनमें कोई फ़र्क ही नहीं मालूम होता, न जाने आप लोगों को कैसे उनके स्वाद में फर्क मालूम होता है।”
दूसरे आदमी बोले- “यहाँ भी वही हाल है। इस समय जो फल मिले, वही मँगवाइए। जो गये उनका अफसोस क्या ?”
डॉक्टर साहब ने दुखी भाव से कहा- “आमों की क्या कमी है, सारा बाग भरा पड़ा है, खूब शौक से खाइए और बाँध कर घर ले जाइए। वे हैं और किस लिए ? पर वह रस और स्वाद कहाँ ? आपको यकीन न होगा, उन सुफेदों ऐसे लाल थे कि सेब मालूम होते थे। सेब भी देखने में ही सुन्दर होता है, उसमें वह ध्यान खिंचने वाला आकर्षण, वह मिठास कहाँ ! इस माली ने आज वह काम किया है कि मन चाहता है नमकहराम को गोली मार दूँ। इस समय सामने आ जाय तो मुँह नोच लुँ।”
माली बाजार गया हुआ था। डॉ. साहब ने नौकर से कुछ आम तुड़वाये, दोस्तों ने आम खाये, दूध पिया और डॉक्टर साहब को धन्यवाद दे कर अपने-अपने घर चले गए। लेकिन मिस्टर मेहरा वहाँ हौज के किनारे हाथ में हंटर लिए माली का इंतजार करते रहे। चहरे से जान पड़ता था मानो खुद गुस्सा जिंदा हो गया था।
कुछ रात गये दुर्गा बाजार से लौटा। वह चौकन्नी आँखों से इधर-उधर देख रहा था। जैसे ही उसने डॉक्टर साहब को हौज के किनारे हाथ में हंटर लिये बैठे देखा, उसके होश उड़ गये। समझ गया कि चोरी पकड़ ली गयी। इसी डर से उसने बाजार में खूब देर की थी। उसने समझा था, डॉक्टर साहब कहीं सैर करने गये होंगे, मैं चुपके कटहल के नीचे अपनी झोंपड़ी में जा बैठूँगा, सबेरे कुछ पूछताछ भी हुई तो मुझे सफाई देने का मौका मिल जायगा। कह दूँगा, सरकार, मेरे झोपड़े की तलाशी ले लें, इस तरह मामला दब जायगा। समय सफल चोर का सबसे बड़ा दोस्त है। एक-एक पल उसे बेकसूर साबित करता जाता है। लेकिन जब वह रँगे हाथों पकड़ा जाता है तब उसे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं रहता। खून के सूखे हुए धब्बे रंग के दाग बन सकते हैं, पर ताजा खून साफ नजर आता है। दुर्गा के पैर थम गये, छाती धड़कने लगी। डॉक्टर साहब की निगाह उस पर पड़ गयी थी। अब उलटे पाँव लौटना बेकार था।
डॉक्टर साहब उसे दूर से देखते ही उठे कि चल कर उसकी खूब मरम्मत करूँ। लेकिन वकील थे, सोचा कि इसका बयान लेना जरूरी है। इशारे से निकट बुलाया और पूछा- “आम के पेड़ में कई आम लगे हुए थे। एक भी नहीं दिखायी देता। क्या हो गये ?”
दुर्गा ने मासूमियत से जवाब दिया- “हुजूर, अभी मैं बाजार गया हूँ तब तक तो सब आम लगे हुए थे। इतनी देर में कोई तोड़ ले गया हो तो मैं नहीं कह सकता।”
डॉक्टर- “तुम्हे किस पर शक है ?”
दुर्गा- “सरकार, अब मैं किसे बताऊँ ! इतने नौकर-चाकर हैं, न जाने किसकी नीयत बिगड़ी हो।”
डॉक्टर- “मेरा शक तुम्हारे ऊपर है, अगर तोड़ कर रखे हो तो ला कर दे दो या साफ-साफ कह दो कि मैंने तोड़े हैं, नहीं तो मैं बुरी तरह पेश आऊँगा।”
चोर सिर्फ सजा से ही नहीं बचना चाहता, वह बेइज्जती से भी बचना चाहता है। वह सजा से उतना नहीं डरता जितना बेइज्जती से। जब उसे सजा से बचने की कोई उम्मीद नहीं रहती, उस समय भी वह अपने अपराध को नहीं मानता। वह दोषी बन कर छूट जाने से बेकसूर बन कर सजा भुगतना सही समझता है। दुर्गा इस समय अपराध मान कर सजा से बच सकता था, पर उसने कहा- “हुजूर मालिक हैं, जो चाहें करें, पर मैंने आम नहीं तोड़े। सरकार ही बतायें, इतने दिन मुझे आपकी नौकरी करते हो गये, मैंने एक पत्ती भी छुई है।”
डॉक्टर- “तुम कसम खा सकते हो ?”
दुर्गा- “गंगा की कसम जो मैंने आमों को हाथ से छुआ भी हो।”
डॉक्टर- “मुझे इस कसम पर भरोसा नहीं है। तुम पहले लोटे में पानी लाओ, उसमें तुलसी की पत्तियाँ डालो, तब कसम खा कर कहो कि अगर मैंने तोड़े हों तो मेरा लड़का मेरे काम न आये। तब मुझे विश्वास आएगा।”
दुर्गा- “हुजरू साँच को आँच क्या, जो कसम कहिए खाऊँगा। जब मैंने काम ही नहीं किया तो मुझ पर कसम क्या पड़ेगी।”
डॉक्टर- “अच्छा, बातें न बनाओ, जा कर पानी लाओ।”
डॉक्टर महोदय इंसान के चाल चलन के जानकार थे। हमेशा अपराधियों से व्यवहार रहता था। हालांकि दुर्गा जबान से सच्चाई की बातें कर रहा था, पर उसके दिल में डर समाया हुआ था। वह अपने झोपड़े में आया, लेकिन लोटे में पानी लेकर जाने की हिम्मत न हुई। उसके हाथ थरथराने लगे। ऐसी घटनाएँ याद आ गयीं जिनमें झूठी कसम खाने पर भगवान के गुस्से का वार हुआ था। भगवान के सब जगह होने का ऐसा दिल को छूने वाला यकीन उसे कभी नहीं हुआ था। उसने तय किया, 'मैं झूठी कसम न खाऊँगा, यही न होगा, निकाल दिया जाऊँगा। नौकरी फिर कहीं न कहीं मिल जायगी और नौकरी भी न मिले तो मजदूरी तो कहीं नहीं गयी है। कुदाल भी चलाऊँगा तो शाम तक आध सेर आटे का इंतजाम हो जायगा।' वह धीरे-धीरे खाली हाथ डॉक्टर साहब के सामने आ कर खड़ा हो गया !