(hindi) Pareeksha
जब रियासत देवगढ़ के दीवान सरदार सुजानसिंह बूढ़े हुए तो उन्हें भगवान् की याद आयी। उन्होंने जाकर महाराज से विनती की कि दीनबंधु ! दास ने महाराज की सेवा चालीस साल तक की, अब मेरी उम्र भी ढल गयी, राज-काज सँभालने की शक्ति नहीं रही। कहीं कोई गलती हो जाय तो बुढ़ापे में दाग लग जाएगा। सारी जिंदगी का मान सम्मान मिट्टी में मिल जाएगा।
राजा साहब अपने अनुभवी और नीति को मानने वाले दीवान का बड़ा आदर करते थे। उन्होंने बहुत समझाया, लेकिन जब दीवान साहब न माने, तो हारकर उन्होंने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली; पर शर्त यह लगा दी कि रियासत के लिए नया दीवान उन्हें ही खोजना पड़ेगा।
दूसरे दिन देश के जाने माने अखबारों में यह विज्ञापन निकला कि देवगढ़ के लिए एक क़ाबिल दीवान की जरूरत है। जो लोग ख़ुद को इस पद के लायक समझते हैं वे दीवान सुजानसिंह की सेवा में प्रस्तुत हों। यह जरूरी नहीं है कि वे ग्रेजुएट हों, मगर शरीर से हट्टा कट्टा होना ज़रूरी है और जिनकी खाना हज़म करने की शक्ति कमज़ोर हो उन्हें वहाँ आने का कष्ट उठाने की कोई जरूरत नहीं है। एक महीने तक उम्मीदवारों (candidate) के रहन-सहन, हावभाव और व्यवहार की परख की जायगी। विद्या का कम, लेकिन कर्तव्य का ज़्यादा विचार किया जाएगा। जो महाशय इस परीक्षा में खरे उतरेंगे, वे इस उच्च पद के लिए चुने जाएँगे।
इस विज्ञापन ने सारे मुल्क में तहलका मचा दिया। ऐसा ऊँचा पद और किसी तरह का बंधन नहीं ? सिर्फ़ नसीब का खेल है। हज़ारों आदमी अपना-अपना भाग्य परखने के लिए चल दिए। देवगढ़ में नये-नये और रंग-बिरंगे लोग दिखायी देने लगे। हर रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मेला-सा उतरता। कोई पंजाब से चला आ रहाथा, कोई मद्रास से, कोई नई फैशन का प्रेमी था, कोई पुरानी सादगी पर मर मिटने वाला। पंडितों और मौलवियों को भी अपने-अपने भाग्य की परीक्षा करने का मौका मिला। वो बेचारे डिग्री के नाम को रोया करते थे, लेकिन यहाँ उसकी कोई जरूरत नहीं थी। रंगीन कपड़े, चोगे और तरह-तरह के अंगरखे और कंटोप देवगढ़ में अपनी सुंदरता दिखाने लगे। लेकिन सबसे बड़ी संख्या ग्रेजुएटों की थी, क्योंकि डिग्री का बंधन न होने पर भी डिग्री से परदा तो ढँका ही रहता है।
सरदार सुजानसिंह ने इन महानुभावों के आदर-सत्कार का बड़ा अच्छा बंदोबस्त कर दिया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे हुए रोज़ा रखने वाले मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हर एक आदमी अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर अ नौ बजे दिन तक सोया करते थे, आजकल वे बगीचे में टहलते हुए सूरज का दर्शन करते थे। मि. ब को हुक्का पीने की लत थी, वो आजकल आधी रात बीत जाने के बाद दरवाज़ा बन्द करके अँधेरे में सिगार पीते थे।
मि. द , स और ज से अपने अपने घरों में नौकरों की नाक में दम कर रखा था, लेकिन ये सज्जन आजकल ‘आप’ और ‘जनाब’ के बगैर नौकरों से बात नहीं करते थे ! मि. ल को किताब से नफ़रत थी, लेकिन आजकल वे बड़े-बड़े ग्रन्थ देखने-पढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बात कीजिए, वह नम्रता और सदाचार का देवता बना हुआ दिखाता था। शर्मा जी देर रात से ही वेद-मंत्र पढ़ने में लगते थे और मौलवी साहब को नमाज और तलावत के सिवा और कोई काम न था। लोग समझते थे कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं काम सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है।
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लेकिन इंसानों का वह बूढ़ा जौहरी आड़ में बैठा हुआ देख रहा था कि इन बगुलों में हंस कहाँ छिपा हुआ है।
एक दिन नये फैशन वालों को सूझी कि आपस में हॉकी का खेल हो जाय। यह प्रस्ताव हॉकी के मँजे हुए खिलाड़ियों ने पेश किया। यह भी तो आखिर एक हुनर है। इसे क्यों छिपा रखें। संभव है, कुछ हाथों की सफाई ही काम कर जाय। चलिए तय हो गया, फील्ड बन गयी, खेल शुरू हो गया और बॉल किसी ऑफिस के नौसिखिए की तरह ठोकरें खाने लगा।
रियासत देवगढ़ में यह खेल बिलकुल निराली बात थी। पढ़े-लिखे भले लोग शतरंज और ताश जैसे गंभीर खेल खेलते थे। दौड़ने भागने के खेल बच्चों के खेल समझे जाते थे।
खेल बड़े जोश से जारी था। एक ओर के लोग जब बॉल को लेकर तेजी से उड़ते तो ऐसा लगता कि कोई लहर बढ़ती चली आ रही है। लेकिन दूसरी ओर के खिलाड़ी इस बढ़ती हुई लहर को इस तरह रोक लेते कि मानो लोहे की दीवार है।
शाम तक यही धूमधाम रही। लोग पसीने से तर बतर हो गये। खून की गर्मी आँख और चेहरे से झलक रही थी। सब हाँफते-हाँफते बेदम हो गये, लेकिन हार-जीत का फैसला न हो सका।
अँधेरा हो गया था। इस मैदान से जरा दूर हटकर एक नाला था। उस पर कोई पुल नहीं था। राहगीरों को नाले में से चल कर आना पड़ता था। खेल अभी बन्द ही हुआ था और खिलाड़ी बैठे सांस ले रहे थे कि एक किसान अनाज से भरी हुई गाड़ी लिये हुए उस नाले में आया। लेकिन कुछ तो नाले में कीचड़ था और कुछ उसकी चढ़ाई इतनी ऊँची थी कि गाड़ी ऊपर नहीं चढ़ सकती थी। वह कभी बैलों को ललकारता, कभी पहियों को हाथ से ढकेलता लेकिन बोझ ज़्यादा था और बैल कमजोर। गाड़ी ऊपर को न चढ़ती और चढ़ती भी तो कुछ दूर चढ़कर फिर खिसककर नीचे पहुँच जाती।
किसान बार-बार जोर लगाता और बार-बार झुँझला कर बैलों को मारता, लेकिन गाड़ी उभरने का नाम न लेती। बेचारा इधर-उधर निराश हो कर ताकता मगर वहाँ कोई मदद करने वाला नजर न आता। गाड़ी को अकेले छोड़कर वो कहीं जा भी नहीं सकता था । बड़ी मुसीबत में फँसा हुआ था। इसी बीच खिलाड़ी हाथों में डंडे लिये घूमते-घामते उधर से निकले। किसान ने उनकी तरफ सहमी हुई आँखों से देखा, लेकिन किसी से मदद माँगने की उसकी हिम्मत न हुई । खिलाड़ियों ने भी उसे देखा मगर बन्द आँखों से, जिनमें हमदर्दी न थी। उनमें स्वार्थ था, घमंड था, मगर दया और इंसानियत का नाम भी न था।
लेकिन उसी झुंड में एक ऐसा आदमी था जिसके दिल में दया थी और हिम्मत भी । आज हॉकी खेलते हुए उसके पैर में चोट लग गयी थी। वो लँगड़ाता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था। तभी अचानक उसकी नज़र गाड़ी पर पड़ी। वो ठहर गया । उसे किसान की सूरत देखते ही सब बातें समझ में आ गई। उसने डंडा एक किनारे रखा. कोट उतारा और किसान के पास जाकर बोला,”मैं तुम्हारी गाड़ी निकाल दूँ ?”
किसान ने देखा एक गठे हुए बदन का लम्बा आदमी सामने खड़ा है। वो झुककर बोला- “हुजूर, मैं आपसे कैसे कहूँ ?” नौजवान ने कहा, “लगता है, तुम यहाँ बड़ी देर से फँसे हो। अच्छा, तुम गाड़ी पर जाकर बैलों को साधो, मैं पहियों को ढकेलता हूँ, अभी गाड़ी ऊपर चढ़ जाएगी”।
किसान गाड़ी पर जा बैठा। नौजवान ने पहिये को जोर लगा कर उठाया । कीचड़ बहुत ज्यादा था। वह घुटने तक जमीन में गड़ गया, लेकिन उसने हिम्मत न हारी। उसने फिर ज़ोर लगाया, उधर किसान ने बैलों को ललकारा। बैलों को सहारा मिला, हिम्मत बँध गयी, उन्होंने कंधे झुकाकर एक बार जोर लगाया तो गाड़ी नाले से ऊपर आ गई ।