(Hindi) Outliers
परिचय
एक Outlier कौन होता है ? आउटलायर्स वो इंसान है जो बाकियों से कुछ हटकर करे. वे भीड़ का हिस्सा नहीं होता है बल्कि कुछ अलग और अनोखा होता है. ऐसे लोग जो सफलता की चोटी छूते है. आउटलायर्स जीनियस होते है, एथलीट, रॉक स्टार, बिज़नस टाईकून्स और दुनिया के बिलेनियर लोग होते है. मगर उनका राज क्या है ?
हम अक्सर ऐसे लोगो को ज्यादा पंसद करते है जो कामयाब है. गरीब से अमीर बनने की कहानी हमें इंस्पायर करती है. ऐसे लोगो के बारे में हम बहुत सी बाते जानना चाहते है जैसे कि उनकी लाइफस्टाइल क्या है, वे कैसे रहते है ? उनकी पर्सनेलिटी कैसी है? क्या उनमें कोई खास टेलेंट है ? ऐसी बहुत से सवाल हमारे दिमाग में उठते है ?
हमें लगता है कि अपनी किसी ख़ास क्वालिटीज़ की वजह से वे कामयाब है. मगर असलियत कुछ और ही है जो हमें अक्सर दिखाई नहीं देती. इस किताब में हमें कुछ ऐसी बाते सीखने को मिलेंगी जो बतायेंगी कि सक्सेस को लेकर हमारी सोच कहाँ गलत है. हमारे हिसाब से सक्सेस सिर्फ एक पर्सनल चीज़ है. हमें लगता है कि जो लोग सक्सेसफुल है उन्होंने सब कुछ अपने दम पर ही किया है. उनकी कामयाबी के पीछे सिर्फ और सिर्फ उनकी ही काबिलियत है. तो क्या सिर्फ टेलेंट होने से ही काम चल जायेगा? अपब्रिंगिंग का क्या ? उन लोगो का क्या जो उनकी कामयाबी के पीछे है ? सोसाइटी और कल्चर का क्या जिसे वे बीलोंग करते है ?इन आउटलायर्स की कहानी पढके हम इन सवालो के ज़वाब ढूढने की कोशिश करेंगे. हमें इनसे सीख लेकर सक्सेस को नए नज़रिए से समझने की कोशिश करेंगे.
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कैनेडीयन हौकी
हौकी कैनेडा का पोपुलर सपोर्ट है. वहां के लड़के इसे किंडरगारटेन से ही सीखना शुरू कर देते है. हर साल स्कूलों में हौकी लीग होती है. मगर सवाल ये कि वे अपने नेशनल टीम के लिए बेस्ट प्लेयर कैसे चुनते है ? और ये बात गौर करने वाली है कि ज़्यादातर बेस्ट हौकी प्लेयर्स जनवरी से मार्च के बीच पैदा हुए लोग है. तो ऐसा कैसे हो गया ? इसका सीक्रेट ये है कि हौकी कोच क्लास के सबसे बड़ी Age वाले लडको को ही चुनते है. जैसे कि मान लो कोई लड़का दिसम्बर में पैदा हुआ है तो उसे टीम में नहीं चुना जाएगा. बड़ी Age वाले लड़के फिजिकली ज्यादा माबूत होते है इसलिए उन्हे चुना जाता है. Age में महीनो का गेप लडको की बॉडी में काफी डिफ़रेंस पैदा करता है. 9 से 10 की उम्र के बीच वाले लडको का चुनाव इसी हिसाब से किया जाता है.
जो लड़के उम्र में बड़े होते है उन्हें कोच ट्रेनिंग देता है, उन्हें बाकियों से तीन गुना ज्यादा प्रेक्टिस भी करनी पड़ती है. अपने टीन्स में पहुंचने तक ये लड़के हौकी के खेल में एक्सपर्ट हो चुके है. और फिर उन्हें बड़ी लीग्स में खेलने के लिए भेज दिया जाता है. यही सेलेक्सन प्रोसेस बाकी खेलो के लिए भी है. एज डीफरेन्स ओलंपिक्स में भी काफी मायने रखती है. साल के दुसरे हिस्से के महीनो में पैदा हुए बच्चो का टेलेंट अक्सर अनदेखा ही रह जाता है. छोटी उम्र वाले बच्चो को अक्सर स्पोर्ट्स में उतना एंकरेजमेंट नहीं मिल पाता जितना मिलना चाहिए. पर अगर उन्हें भी उतना ही सपोर्ट और मौका मिले तो उनका हुनर भी निखर सकता है. हो सकता है उनमे से भी कोई सक्सेसफुल एथलीट बन जाये.
कैनेडा की नेशनल हौकी टीम इस को-इन्सिडेन्स की वजह से ही आउटलायर्स बनी. ये इसलिए हुआ क्योंकि उनके प्ल्येर्स पहले पैदा हुए थे और फिजिकली मज़बूत थे. उन्हें सक्सेसफुल होने का मौका दिया गया. और इसी तरह एक के बाद एक मौके उन्हें मिलते रहे. हमारा समाज उन्ही को ज्यादा मौके देता है जो ज्यादा सक्सेसफुल होते है. उनके लिए हर दरवाज़ा खुला होता है जो उनका स्टेट्स और भी ऊँचा कर देता है. और वे लोग जो फेल होते है उन्हें समाज डिसमिस कर देता है. क्योंकि ये हमारा सक्सेस को देखने का नजरिया है. हम केवल पर्सनल अचीवमेंट को ही सब कुछ समझते है. हम कभी भी ये नहीं सोचते कि हम किसे मौका दे रहे है और किसे नहीं, सक्सेसफुल होने में इसका भी एक बड़ा हाथ है.
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10,000 Hours
“जब आप किसी चीज़ में एक्सपर्ट हो जाते है तो उसकी प्रेक्टिस करना छोड़ देते है, क्योंकि अब आपको और प्रेक्टिस करने की ज़रुरत महसूस नहीं होती” 1990 में बेर्लिने के एकेडमी ऑफ़ म्यूजिक में एक स्टडी की गयी थी जिसमे साइकोलोजिस्ट का एक ग्रुप ये पता करना चाहता था कि प्रेक्टिस और टेलेंट, सक्सेस के लिए कितने ज़रूरी है. क्या वाईलेनिस्ट अपने टेलेंट की वजह से ही इतना अच्छा कर पाते है ? या फिर ये उनकी प्रेक्टिस का नतीजा है ?साईंकोलोजिस्ट ने ये पाया कि जो स्टूडेंट जितना ज्यादा टाइम प्रेक्टिस में लगाते है वे उतना ही अच्छा वायोलिन बजाते थे. बच्चे जैसे जैसे बड़े होते है उतना ज्यादा वक्त वे अपनी प्रेक्टिस को देते है.. और बीस साल की उम्र तक आते-आते वे बेस्ट वायोलिनिस्ट बन चुके होते है और पहले से 10,000 घंटे की प्रेक्टिस कर चुके होते है.
यही स्टडी पियानिस्ट पर भी की गयी, जो अमेच्योर थे उन्होंने बचपन में सिर्फ 2,000 घंटे ही प्रेक्टिस की थी मगर प्रोफेशनल लोग हर साल अपने प्रेक्टिस का टाइम बड़ा देते थे और 20 साल के होते-होते इन्होने कुल 10,000 घंटो की प्रेक्टिस कर ली होती है. और साकोलोजिस्ट को पता लगा कि इसमें “नेचुरल” जैसी कोई बात नहीं है. ऐसा कोई मूयुजिशियन नहीं हुआ जो कम प्रेक्टिस करके भी बेस्ट म्युजिशियन बना. किसी भी चीज़ में वर्ल्ड क्लास बनने के लिए आपको कम से कम 10,000 घंटे की प्रेक्टिस तो करनी ही पड़ेगी. बाकि स्टडीज में भी ये जादुई नंबर प्रूव हो चूका है.
म्यूजिशियन से लेकर एथलीट, राइटर और क्रिमिनल मास्टरमाइंड्स तक सबको टॉप तक पहुँचने के लिए 10,000 घंटे प्रेक्टिस की ज़रुरत पड़ती है. ऐसा लगता है कि शायद हमारे दिमाग को किसी भी चीज़ का मास्टर बनने और उसमे महारत हासिल करने में 10,000 घंटे तो चाहिए ही चाहिए. लेकिन सच तो ये कि हर कोई 10,000 घंटे स्पेंड नहीं कर सकता. इसे आप खुद से अचीव कर ले, ये पॉसिबल नहीं है. जब आप छोटे होते है तब आपके पेरेंट्स सपोर्टिव होने चाहिए. बड़े होने के बाद आपके पास इतना खाली टाइम होना चाहिए. लेकिन अगर आप गरीब है और काम करना आपकी मजबूरी है तब आपके पास इतना टाइम नहीं होगा कि आप प्रेक्टिस कर सके. ऐसे में 10,000 घंटे की प्रेक्टिस होना किसी बड़े मौके से कम नहीं है. आप बिल गेट्स का उदाहरण ले लीजिये. वे 8th ग्रेड से ही प्रोग्रामिंग करते आ रहे है. ये उनके लिए ख़ास अपोरचुयूनिटी थी क्योंकि ये 1960 का वक्त था. उस टाइम में सिर्फ अमीर लोगो के पास ही कम्पुटर होता था. बिल गेट्स के पिता एक वकील थे और उनकी माँ अमीर घर की थी. उन्होंने बिल गेट्स को सीयेटेल के एक एलाईट स्कूल लेकसाइड में डाला जो 1968 में कुछ ऐसे गिने चुने स्कूले में शामिल था जहाँ कि कंप्यूटर क्लब था. स्कूल में 8th ग्रेड से लेकर हाई स्कूल तक बिल गेट्स ने प्रोग्रामिंग की प्रेक्टिस लगातार की.
जब बिल गेट्स कॉलेज से निकल कर माइक्रो-सॉफ्ट स्टार्ट करने की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में 10,000 घंटे से ज्यादा की प्रेक्टिस कर ली थी. वे एक बहुत ब्रिलियंट प्रोग्रामर और एंट्प्रेन्योर थे. मगर बिल गेट्स को वो ख़ास मौका मिला जैसा कि वे खुद कहते है “ मै बहुत लकी था” एक आउटलायर बनने के लिए आपको एक ख़ास अपोर्च्यूनिटी की ज़रुरत है. आपको वे लकी मौका मिलना चहिये जिससे आप खुद को प्रूव कर सके. अगर आपके पास हटकर टेलेंट है तो आपको एक हटकर मौके की भी सख्त ज़रुरत है.