(hindi) MINDSET – The New Psychology of Success
इंट्रोडक्शन
जब आपका सामना फेलियर से होता है तो आपके मन में सबसे पहला थॉट क्या आता है? क्या आपका कांफिडेंस तुरंत कम हो जाता है या आप उस हार को एक लर्निंग एक्सपीरियंस के रूप में देखते हैं? क्या आप हर एक चैलेंज को इस नज़रिए से देखते हैं कि वो बस ये साबित करने का एक मौका है कि आप कितने स्मार्ट और टैलेंटेड हैं या आप उसे ऐसी चीज़ के रूप में देखते हैं जो आपको ग्रो करने में मदद करती है?
क्योंकि हर इंसान बिलकुल यूनिक और दूसरों से अलग होता है इसलिए हमारे एक्सपीरियंस भी एक दूसरे से बहुत अलग होते हैं. यहाँ तक कि अगर हमारा सामना बिलकुल एक जैसी प्रॉब्लम से होता है जैसे कि किसी टफ एग्जाम को पास करने के लिए तैयारी करना, तब भी हम अपने ख़ुद के तरीके से उससे डील करते हैं.
तो ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोग एक चैलेंज को पार करने के बाद ग्रो करने लगते हैं वहीँ कुछ लोग उसके आगे घुटने टेक कर वहाँ से कभी आगे ही नहीं बढ़ पाते? आपके हर सवाल का जवाब इस बुक में मौजूद है. इस बुक के द्वारा आप समझेंगे कि कैसे अपने बारे में आपकी सोच आपकी जिंदगी के हर पहलू पर अपना गहरा असर डालती है. आप जानेंगे कि आपका माइंडसेट यानी नज़रिया कितना इम्पोर्टेन्ट होता है.
ये आपके जीने के तरीके और प्रॉब्लम का सामना करने की एबिलिटी पर असर डालता है. इसमें आपको अलग-अलग माइंडसेट वाले लोग किस तरह अपनी जिंदगी जीते हैं उसकी भी झलक देखने को मिलेगी. इस तरह आप अपने ख़ुद के माइंडसेट के बारे में जानेंगे और ये भी समझेंगे कि अगर ज़रुरत पड़ी तो आप ख़ुद को कैसे बदल सकते हैं.
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The Mindsets
क्या ये प्रकृति है या परवरिश है जो एक इंसान को उसकी पर्सनालिटी देती है? हालांकि, इंसान होने के नाते हम सभी में कुछ बातें कॉमन ज़रूर हैं लेकिन फ़िर भी हम सब एक दूसरे से बिलकुल अलग और यूनिक हैं. हमारे जैसा बिलकुल कार्बन कॉपी पूरी दुनिया में नहीं है.
कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि हर इंसान का एक बेसिक नेचर होता है जो कभी नहीं बदलता. कुछ फिजिकल कैरेक्टरिस्टिक का फ़र्क ज़रूर होता है जो हमें एक दूसरे से अलग बनाता है. वहीँ दूसरी ओर, कुछ एक्सपर्ट्स का मानना है कि लोगों का माइंडसेट इस बात से बनता है कि उनकी परवरिश किस तरह की गई थी, उन्हें अपनी जिन्दगी में कैसे माहौल और challenges का सामना करना पड़ा और वो किस नज़रिए से चीज़ों को देखते हैं. तो अब इन दोनों में से कौन सही है?
तो जवाब है, दोनों. ये दोनों साथ-साथ चलते हैं. अब, आप ख़ुद को कैसे देखते हैं वो आपको बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है. ये बात सुनने में अजीब लग रही होगी लेकिन ये बिलकुल सच है.
कुछ लोगों को लगता है कि वो बहुत होशियार और स्मार्ट हैं और इसमें उन्हें बिलकुल भी डाउट नहीं होता तो इसे फिक्स्ड माइंडसेट कहते हैं. इन लोगों का मानना है कि हम सब एक लेवल ऑफ़ इंटेलिजेंस और लिमिटेड कैपेसिटी के साथ पैदा होते हैं और इसे कम या ज़्यादा नहीं किया जा सकता. इनका माइंडसेट जैसे एक पत्थर की लकीर हो जाती है जहां वो ख़ुद को बदलना ही नहीं चाहते और ये इनके अंदर एक गहरी इच्छा को जन्म देता है. ये लोग हर किसी को ये साबित करना चाहते हैं कि ये कितने स्मार्ट हैं.
ऑथर ने इस माइंडसेट को बहुत से लोगों में देखा है जो इसे अपने एजुकेशन, करियर और रिलेशनशिप में दिखाने की कोशिश करते हैं. ऐसे लोगों को लगता है कि हर सिचुएशन ख़ुद को स्मार्ट साबित करने का एक मौका है और अगर वो ऐसा नहीं पाए तो वो ख़ुद को एक फेलियर समझने लगते हैं.
इन सब से अलग एक और माइंडसेट है जो कहती है कि एफर्ट के ज़रिए ख़ुद को बदला जा सकता है. इसे ग्रोथ माइंडसेट कहा जाता है. ऐसा तब होता है जब आपको लगता है कि जिन qualities के साथ आप बड़े हुए हैं उसकी वजह से आप एक पॉइंट पर आकर अटक गए हैं. इसलिए आप बड़े जुनून और जोश के साथ ख़ुद को बदलने की कोशिश करने लगते हैं क्योंकि आप जानते हैं कि आपको अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है. इन लोगों का मानना है कि पैदायशी टैलेंट जैसी कोई चीज़ नहीं होती और किसी भी चीज़ को एफर्ट और लगातार प्रैक्टिस के ज़रिए हासिल किया जा सकता है. आइए इसे एक एग्ज़ाम्पल से समझते हैं.
इमेजिन कीजिए कि आप एक कॉलेज स्टूडेंट हैं और जब आप मंडे को कॉलेज गए तो आपका वो दिन बहुत ही बुरा गुज़रा. ना सिर्फ़ आपको अपने पसंदीदा क्लास में बहुत कम मार्क्स मिले बल्कि आपको पार्किंग का फाइन भी देना पड़ा. इसके बाद जब आपने अपने दोस्त के साथ अपने इमोशंस को शेयर करने की कोशिश की तो उसने आपकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया. अब अगर यहाँ आपका फिक्स्ड माइंडसेट होगा तो आप ख़ुद के लिए बुरा महसूस करने लगेंगे. और तो और आप यहाँ तक सोच लेंगे कि आपकी जिंदगी बिलकुल बेकार है और इस पूरी दुनिया में आप सबसे बड़े बेवक़ूफ़ हैं.
जब आपका माइंडसेट फिक्स्ड होता है तो आप ख़ुद पर दया करने लगते हैं, अपने गुस्से और दुःख को कम करने के लिए जंक फ़ूड खाने लगते हैं और इस बात पर गंगा जमुना बहाने लगते हैं कि आप कितने बड़े loser हैं. ऐसे लोग दूसरों को दोष देने और बहाने बनाने की सोच को अपना लेते हैं. ये किसी चीज़ की ज़िम्मेदारी लेना नहीं चाहते.
आप इन सब चीज़ों में ना जाने कितना टाइम waste करते हैं लेकिन दो मिनट इस बात पर गौर नहीं करते कि क्या सच में आपका दिन इतना बुरा था कि आप इस तरह रियेक्ट करें? क्योंकि फिक्स्ड माइंडसेट वाले लोग हर वक़्त ख़ुद को साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं उन्हें लगता है कि छोटी सी भी गलती का मतलब है कि वो फेल गए हैं. उनके इमोशन एक्सट्रीम होते हैं, उन्हें बीच का रास्ता दिखाई नहीं देता. अगर वो पहली कोशिश में कामयाब नहीं होते तो वो बस मान लेते हैं कि उनके पास वो स्किल और टैलेंट ही नहीं है और उन्हें अब कोशिश करना बंद कर देना चाहिए.
अब इसी सिचुएशन को ग्रोथ माइंडसेट में इमेजिन करें. अब ख़ुद को बुद्धू कहने की बजाय आपके साथ हुई हर घटना को आप एनालाइज करने लगते हैं. आपको लगता है कि शायद आपको पढ़ने की अलग technique यूज़ करनी चाहिए, गाड़ी को पार्किंग ज़ोन में पार्क करना चाहिए और सोचना चाहिए कि शायद आपका दोस्त ख़ुद उस वक़्त परेशान होगा इसलिए आपकी बात पर ध्यान नहीं दे पाया. भले ही आपको बुरा लग रहा हो कि आपका दिन कितना ख़राब था, आप हर चीज़ को एक अलग नज़रिए से देखकर उसे डील करने की कोशिश करते हैं. क्या आप फ़र्क देख पा रहे हैं? ये हमें कितने नेगेटिव इमोशन से बचाता है.
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Inside the Mindsets
जब आपका माइंडसेट फिक्स्ड होता है तो आप एफर्ट को एक बुरी चीज़ समझते हैं. क्योंकि आपकी सोच फ्लेक्सिबल नहीं होती, तो आप बस मान लेते हैं कि या तो आप बहुत स्मार्ट हैं या बिलकुल स्मार्ट नहीं हैं.
लेकिन अगर आप ग्रोथ माइंडसेट वाले हैं तो आप समझते हैं कि एफर्ट करना ही आपको स्मार्ट बनाता है. इसमें आपका मकसद किसी को कुछ साबित करना नहीं होता बल्कि आपका गोल होता है ख़ुद को लगातार इम्प्रूव करते रहना.
हालांकि ये माइंडसेट सिर्फ़ एक बिलीफ सिस्टम है लेकिन ये बहुत पावरफुल होते हैं. कैरल ड्वेक ने होंगकोंग यूनिवर्सिटी में एक एक्सपेरिमेंट करने का फ़ैसला किया. इस यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लिए इंग्लिश लैंग्वेज का इस्तेमाल किया जाता है. ज़ाहिर सी बात है कि वहाँ कुछ स्टूडेंट्स ऐसे भी थे जो इस लैंग्वेज को अच्छे से नहीं समझते थे. जब उन्हें एक सर्वे में पूछा गया कि अगर उन्हें एक ऐसा कोर्स ऑफर किया जाए जो उनकी इंग्लिश लैंग्वेज की स्किल को बेहतर करेगा तो क्या वो उसे करना चाहेंगे?
जिन स्टूडेंट्स ने हाँ में जवाब दिया उनका ग्रोथ माइंडसेट था. उनका मानना था कि आप कुछ सीखकर या ख़ुद को बदल कर ज़्यादा स्मार्ट बन सकते हैं. वहीँ दूसरी ओर, जिन स्टूडेंट्स का फिक्स्ड माइंडसेट था उन्हें उस कोर्स में बिलकुल दिलचस्पी नहीं थी और उनका जवाब ना था. उनका मानना था कि हर इंसान की बुद्धिमानी का एक लेवल होता है और इसे बदलने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता. जब ब्रेन वेव्स (brainwaves) की बात आती है तब भी फिक्स्ड और ग्रोथ माइंडसेट के लोगों में अलग अलग पैटर्न देखा गया है.
कैरल ने कोलंबिया के लेबोरेटरी में कुछ लोगों के ब्रेन वेव्स को स्टडी किया और ये समझने की कोशिश की कि वेव्स किस पॉइंट पर बढ़ते हैं या उसमें कुछ बदलाव आता है. उनकी टीम ने कुछ participants से सवाल पूछे और उनकी वेव्स को तब measure किया गया जब उन्हें ये बताया जाता था कि उनका जवाब सही था या गलत.
जिन लोगों का फिक्स्ड माइंडसेट था, उनके ब्रेन वेव्स में तभी कोई हलचल दिखाई दी जब उन्हें जवाब बताया जाता था. दूसरे शब्दों में, वो लेबोरेटरी में मौजूद लोगों को साबित करना चाहते थे कि वो कितने स्मार्ट और बुद्धिमान थे. लेकिन जब उन्हें कोई इनफार्मेशन दी जाती जिससे वो कुछ सीख सकते थे, तब उनके वेव्स ने कोई इंटरेस्ट नहीं दिखाया यानी जब उन्होंने गलत जवाब दिया तो उन्होंने सही जवाब से कुछ सीखने की कोशिश नहीं की.
जब ग्रोथ माइंडसेट वालों को स्टडी किया गया तो टीम ने ये देखा कि जब उन्हें कोई इनफार्मेशन दी जाती तो उनमें उसे जानने की दिलचस्पी जाग उठती थी. वो स्टूडेंट्स जानते थे कि सीखने से उन्हें आगे बढ़ने और ग्रो करने में मदद मिलेगी.
क्योंकि फिक्स्ड माइंडसेट वाले चुनौतियों का सामना करने से कतराते हैं, वो हमेशा अपने कम्फर्ट ज़ोन में रहना चाहते हैं और अपना कांफिडेंस उन चीज़ों के ज़रिए बढ़ाते हैं जिन्हें वो आसानी से और अच्छे से कर सकते हैं. वो ख़ुद को सबसे ऊपर और बेस्ट समझते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके पास जो नॉलेज और टैलेंट है उसके ऊपर कुछ सीखने की गुंजाइश ही नहीं है और वो सब कुछ पहले से ही जानते हैं.
लेकिन अगर वो इसे भी इम्प्रूव कर अपने फुल पोटेंशियल तक पहुँच जाते तो क्या होगा? यहाँ फ़िर वही बात आती है कि ऐसे लोग मेहनत करना और रिस्क लेना पसंद नहीं करते. इनकी सोच होती है कि अगर आपको किसी चीज़ में एफर्ट लगाने की ज़रुरत है तो इसका मतलब है कि आप उस चीज़ में अच्छे नहीं हैं तो उसे बेकार में ट्राय करने करने का क्या मतलब. उनकी सुई इसी बात पर अटकी रहती है कि या तो उनके पास पास पूरी स्किल है या बिलकुल भी नहीं है.
लेकिन अगर आपने सीखने से इंकार कर दिया तो आप इम्प्रूव कैसे करेंगे? ग्रोथ माइंडसेट वाले अक्सर ख़ुद से यही सवाल पूछते हैं इसलिए वो चैलेंज एक्सेप्ट करने के लिए तैयार रहते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि अगर वो फेल भी हुए तब भी वो उससे कुछ ना कुछ ज़रूर सीखेंगे और ऐसा नहीं है कि ग्रोथ माइंडसेट वालों को फेलियर से तकलीफ़ नहीं होती लेकिन वो इस फेलियर को ख़ुद को तोड़ने नहीं देते. उनका ज़ज्बा होता है कि “मैं फेल हुआ तो क्या हुआ, मैं अपनी गलतियों से सीखकर दोबारा इसका सामना कर इसे पार करूंगा.”
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The Truth About Ability and Accomplishment
अब सवाल आता है कि क्या आपके माइंडसेट का आपके स्कूल की परफॉरमेंस पर असर पड़ता है? कैरल और उनके साथियों द्वारा किए गए एक स्टडी ने साबित किया है कि हाँ इसका असर होता है. उन्होंने कुछ केमिस्ट्री स्टूडेंट्स की परफॉरमेंस और उनके माइंडसेट को स्टडी किया. उनका कोर्स ये डिसाइड करने वाला था कि वो प्री मेड करिकुलम में सिलेक्ट होंगे या नहीं. वो स्टूडेंट्स काफ़ी tensed थे लेकिन उन्हें कहीं ना कहीं उम्मीद भी थी.
जब स्टूडेंट्स क्लास अटेंड करते थे तो रिसर्च करने वालों ने उनके पढ़ने की स्ट्रेटेजी और उनके माइंडसेट को नोट करना शुरू किया. उन्होंने देखा कि ग्रोथ माइंडसेट वाले स्टूडेंट्स को अच्छे मार्क्स मिले थे. जब उन्हें किसी टेस्ट में कम मार्क्स मिलते तो वो ज़्यादा मेहनत कर दोबारा टेस्ट के लिए तैयारी करते. वहीँ फिक्स्ड माइंडसेट वाले स्टूडेंट्स का अगर एक एग्जाम ख़राब हो जाता तो वो बाकी बचे हुए एग्जाम में भी अच्छा परफॉर्म नहीं करते थे.
फिक्स्ड माइंडसेट वालों के पढ़ने की स्ट्रेटेजी कुछ इस तरह है, वो अपनी किताबें और नोट्स पढ़ते हैं. अगर उन्हें कोई कांसेप्ट समझ नहीं आता तो वो उसे समझने की कोशिश नहीं करते बल्कि उसे रटने लगते हैं. अब अगर उन्हें कम मार्क्स मिलते हैं तो वो मान लेते हैं कि उनका डॉक्टर बनने का सपना वहीँ ख़त्म हो गया है. वो इसी बात पर अड़े रहते हैं कि उनसे जितना हो सकता था उन्होंने किया और मेहनत करने से कुछ नहीं होता.
वहीँ ग्रोथ माइंडसेट वाले स्टूडेंट्स ने सिर्फ़ एग्जाम पास करने के लिए पढ़ाई नहीं की बल्कि उन्होंने उस कोर्स को समझने की कोशिश की. वो कांसेप्ट को समझते हैं, उसे अंधाधुन रट्टा नहीं मारते. जब उन्हें कम मार्क्स मिलते तो वो उसे एक मोटिवेशन के रूप में लेकर और मेहनत से पढ़ते थे. यहाँ एक और प्रूफ़ है कि सही माइंडसेट और सही टीचिंग के ज़रिए कोई भी एक्स्ट्राऑर्डिनरी परफॉरमेंस दे सकता है.
लॉस एंजिल्स में गारफील्ड हाई स्कूल सबसे ख़राब स्कूल था. वहाँ के टीचर्स और स्टूडेंट्स दोनों में ही जोश और मोटिवेशन की कमी थी. लेकिन वहाँ ग्रोथ माइंडसेट वाले ऐसे दो ख़ास टीचर थे जिन्होंने सोचा कि वहाँ के स्टूडेंट्स कॉलेज लेवल का calculus सीख सकते थे. उन दोनों टीचर के नाम थे Jaime Escalante और Benjamin Jimenez. उन्होंने बच्चों को सिर्फ़ calculus पढ़ाया ही नहीं बल्कि उन्हें मैथ्स में नेशनल चार्ट पर सबसे टॉप पर पहुंचाया भी.
अपने ग्रोथ माइंडसेट के कारण, जेमी और बेंजामिन ने बच्चों को पढ़ने के लिए मोटीवेट किया. उन्होंने उनसे कहा कि वो ख़ुद को एक फेलियर ना समझें और मेहनत हमें कुछ भी अचीव करने के लायक बना देती है. स्टूडेंट्स ने उनकी बातों को सीरियसली लिया और ख़ुद पर यकीन करने का माइंडसेट अपनाने लगे कि वो उस एग्जाम को बखूबी पास कर सकते थे और अंत में बिलकुल वैसा ही हुआ. उन्होंने इतना अच्छा परफॉर्म किया था कि उन्हें इसके लिए अवार्ड भी दिया गया.
तो ये हमें क्या बताता है? स्टूडेंट्स को बुद्धू, स्टुपिड जैसे लेबल देना उन्हें पढ़ने से रोकता है. लेकिन जब इन दोनों टीचर्स ने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया तो उन्होंने अपने स्टूडेंट्स को बेवक़ूफ़ नहीं समझा बल्कि इन एक्स्ट्राऑर्डिनरी टीचर्स ने उन्हें मोटीवेट करने के लिए अलग अलग रास्ता ढूँढा. उन्होंने बच्चों पर विश्वास दिखाया और इसी विश्वास ने बच्चों को ख़ुद पर विश्वास करना सिखाया और अंत में ऐसा रिजल्ट सबके सामने था जिसकी सिवाय इन दो टीचर्स के किसी को भी उम्मीद नहीं थी.