(hindi) Lokmat ka Samman

(hindi) Lokmat ka Samman

बेचू धोबी को अपने गाँव और घर से उतना ही प्यार था, जितना हर इंसान को होता है। उसे रूखी-सूखी और आधे पेट खाकर भी अपना गाँव पूरी दुनिया से प्यारा था। अगर  उसे बूढ़ी किसान औरतों की गालियाँ खानी पड़ती तो बहुओं से ‘बेचू दादा’ कहकर पुकारे जाने का गौरव भी मिलता था। खुशी और दुख के हर मौकों पर उसका बुलावा होता था, खासकर शादियों में तो उसका होना दूल्हा और दुल्हन से कम जरूरी न था। उसकी बीवी घर में पूजी जाती थी, दरवाजे पर बेचू का स्वागत होता था। वह लहंगा पहने कमर में घंटियाँ बाँधे बाजे वालों को साथ लिये एक हाथ मृदंग और दूसरा अपने कान पर रख कर जब बिरहे और बोल गाने लगता तो आत्मसम्मान से उसकी आँखें भर जाती थीं। हाँ, धेले पर कपड़े धोकर भी वह अपनी हालत से संतुष्ट रह सकता था, लेकिन जमींदार के नौकरों की कठोरता और अत्याचार कभी-कभी इतनी ज़्यादा हो जाती थीं कि उसका मन गाँव छोड़कर भाग जाने को चाहने लगता था। गाँव में कारिन्दा साहब के अलावा पाँच-छह चपरासी थे। उनके साथ वालों की संख्या कम न थी। बेचू को इन लोगों के कपड़े मुफ्त धोने पड़ते थे। उसके पास इस्तरी न थी। उनके कपड़ों पर इस्तरी करने के लिए उसे दूसरे-दूसरे गाँव के धोबियों की विनती करनी पड़ती थी। अगर कभी बिना इस्तरी किये ही कपड़े ले जाता तो उसकी शामत आ जाती थी। मार पड़ती, घंटों चौपाल के सामने खड़ा रहना पड़ता, गालियों की वह बौछार पड़ती कि सुनने वाले कानों पर हाथ रख लेते, उधर से गुजरने वाली औरतें शर्म से सिर झुका लेतीं।

जेठ का महीना था। आसपास के ताल-तलैया सब सूख गए थे । बेचू को बहुत रात गए ही दूर के एक ताल पर जाना पड़ता था। यहाँ भी धोबियों की बारी बँधी हुई थी। बेचू की बारी पाँचवें दिन पड़ती थी। पहर रात रहे कपड़े लाद कर ले जाता। मगर जेठ की धूप में 9-10 बजे के बाद खड़ा न हो सकता। आधे कपड़े भी न धुल पाते, बिना धुले कपड़े समेट कर घर चला आता। गाँव के सरल लोग उसकी तकलीफ सुन कर शांत हो जाते थे; न कोई गालियाँ देता, न मारने दौड़ता। जेठ की धूप में उन्हें भी पुर चलाना और खेत जोतना पड़ता था। उनके पैरों के तलवे फट जाते  थे, उसका दर्द वो जानते थे। लेकिन कारिंदा महाशय को खुश करना इतना आसान न था। उनके आदमी रोज बेचू के सिर पर सवार रहते थे।

वह बड़ी गम्भीरता से कहते- “तू एक-एक हफ्ते तक कपड़े नहीं लाता, क्या यह भी कोई ठंड के दिन हैं, आजकल पसीने से दूसरे दिन कपड़े मैले हो जाते हैं; कपड़ों से बू आने लगती है और तुझे कुछ भी परवाह नहीं रहती।”

बेचू हाथ-पैर जोड़कर किसी तरह उन्हें मनाता रहता था, यहाँ तक कि एक बार उसे बातें करते 9 दिन हो गये और कपड़े तैयार न हो सके। धुल तो गये थे, पर इस्तरी न हुई थी। आखिर मजबूर होकर बेचू दसवें दिन कपड़े लेकर चौपाल पहुँचा। मारे डर के उसके पैर आगे न उठते थे। कारिंदा साहब उसे देखते ही गुस्से से लाल हो गये। बोले- “क्यों बे पाजी, तुझे गाँव में रहना है कि नहीं?”

बेचू ने कपड़ों की गठरी तख्त पर रख दी और बोला- “क्या करूँ सरकार, कहीं भी पानी नहीं है और न मेरे इस्तरी ही है।”

कारिंदा- “पानी तेरे पास नहीं है और सारी दुनिया में है। अब तेरा इलाज इसके सिवाय और कुछ नहीं है कि गाँव से निकाल दूँ। शैतान, हमसे झूठ बोलता है, पानी नहीं, इस्तरी नहीं।”

बेचू- “मालिक, गाँव आपका है, चाहे रहने दें, चाहे निकाल दें, लेकिन यह कलंक न लगायें, इतनी उम्र आप ही लोगों की सेवा करते हो गयी, पर चाहे कितनी ही भूल-चूक हुई हो, कभी नीयत खराब नहीं हुई। अगर गाँव में कोई कह दे कि मैंने कभी गाहकों के साथ ऐसी चाल चली है तो उसकी टाँग की रास्ते निकल जाऊँ। यह तरीका शहर के धोबियों का है।”

जालिमों का तर्क से विरोध है। कारिंदा साहब ने कुछ और गालियां दी। बेचू ने भी इंसाफ और दया की दुहाई दी। फल यह हुआ कि उसे आठ दिन हल्दी और गुड़ पीना पड़ा। नवें दिन उसने सब गाहकों के कपड़े जैसे-तैसे धो दिये, अपना बोरिया-बँधना सँभाला और बिना किसी से कुछ कहे-सुने रात को पटने की राह ली। अपने पुराने गाहकों से विदा होने के लिए जितने धिरज की जरूरत थी, उसमें वह नहीं था।

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बेचू शहर में आया तो ऐसा जान पड़ा कि मेरे लिए पहले से ही जगह खाली थी। उसे सिर्फ एक कोठरी किराये पर लेनी पड़ी और काम चल निकला। पहले तो वह किराया सुनकर चकराया। देहात में तो उसे महीने में इतनी धुलाई भी न मिलती थी। पर जब धुलाई की कीमत मालूम हुई तो किराये का दुख मिट गया। एक ही महीने में ग्राहकों की संख्या उसके गिनने की ताकत से ज्यादा हो गयी। यहाँ पानी की कमी न थी। वह वादे का पक्का था। अभी शहरी जीवन के गलत आदतों से आजाद था। कभी-कभी उसकी एक दिन की मजदूरी देहात के साल भर की कमाई से ज़्यादा हो जाती थी।

लेकिन तीन-चार महीने में उसे शहर की हवा लगने लगी। पहले नारियल पीता था, अब हुक्का पीने लगा । नंगे पाँव जूते से सज गये और मोटा अनाज अब उसे पचता नहीं था। पहले कभी-कभी तीज-त्यौहार के दिन शराब पी लिया करता था, अब थकान मिटाने के लिए रोज पीने लगा था । बीवी को गहनों की लालच हुई । और धोबिनें बन-ठनकर निकलती हैं, मैं किससे कम हूँ। लड़के खाने पर लट्टू हुए, हलवे और मूँगफली की आवाज सुनकर बेचैन हो जाते। उधर मकान के मालिक ने किराया बढ़ा दिया; भूसा और खली भी मोतियों के दाम बिकते थे । दोनों बैलों का पेट भरने में अच्छी खासी रकम निकल जाती थी। इसलिए पहले कई महीनों में जो बचत हो जाती थी, वह अब गायब हो गयी। कभी-कभी खर्च का पलड़ा भारी हो जाता; लेकिन बचत करने का कोई तरीका समझ में नहीं आता था। आखिर बीवी ने बेचू की नज़र बचाकर गाहकों के कपड़े किराए में देने शुरू किये। बेचू को यह बात मालूम हुई तो बिगड़ कर बोला- “अगर मैंने फिर यह शिकायत सुनी तो मुझसे बुरा कोई न होगा। इसी इलजाम पर तो मैंने बाप-दादे का गाँव छोड़ दिया। यहाँ से भी निकालना चाहती है क्या?”

बीवी ने जवाब दिया- “तुम्हीं से तो एक दिन भी दारू के बिना नहीं रहा जाता। मैं क्या पैसे ला कर लुटाती हूँ। जो खर्च लगे वह देते जाओ। मुझे इससे कुछ मिठाई थोड़े ही मिलती है।”

पर धिरे धिरे नैतिक ज्ञान ने जरूरत के सामने सिर झुकाना शुरू किया। एक बार उसे कई दिन तक बुखार आया। बीवी उसे डोली पर बिठाकर वैद्य जी के यहाँ ले गयी। वैद्य जी ने नुस्खा लिख दिया। घर में पैसे न थे। बेचू बीवी को डरी हुई नजरों से देखकर बोला- “तो क्या होगा? दवा मँगानी ही है?”

बीवी- “जो कहो वह करूँ।”

बेचू- “किसी से उधार न मिलेगा?”

बीवी- “सबसे तो उधार ले चुकी। मुहल्ले में चलना मुश्किल हो गया है। अब किससे लूँ। अकेले जितना काम हो सकता है, करती हूँ। अब छाती फाड़ के मर थोड़ी ही जाऊँगी? कुछ पैसे ऊपर से मिल जाते थे, लेकिन तुमने उसकी मनाही कर दी है। तो मेरा क्या बस है? दो दिन से बैल भूखे खड़े हैं। दो रुपये हों तो इनका पेट भरे।”

बेचू- “अच्छा, जो तेरे जी में आये कर, किसी तरह काम तो चला। मुझे मालूम हो गया कि शहर में अच्छी नीयत वाले आदमी का गुजारा नहीं हो सकता।”

उस दिन से यहाँ दूसरे धोबियों के जैसा व्यवहार होने लगा।

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