(hindi) Khuchad

(hindi) Khuchad

बाबू कुन्दनलाल अदालत से लौटे, तो देखा कि उनकी पत्नी जी एक सब्जी वाली से कुछ साग-भाजी ले रही हैं। सब्जी वाली पालक टके सेर कहती है, वह डेढ़ पैसे दे रही हैं। इस पर कई मिनट तक बहस होती रही। आखिर सब्जी वाली डेढ़ ही पैसे पर राजी हो गई। अब तराजू और बाट का सवाल छिड़ा। दोनों पल्ले बराबर न थे। एक में वजन ज्यादा था। बाट भी पूरे न उतरते थे। पड़ोसिन के घर से सेर आया। साग तुल जाने के बाद अब थोड़ा ज्यादा का सवाल उठा। पत्नीजी और माँगती थीं, सब्जी वाली कहती थी- “अब क्या सेर-दो-सेर ज्यादा ले लोगी बहूजी।”

खैर, आधे घंटे में वह सौदा पूरा हुआ, और सब्जी वाली फिर कभी न आने की धमकी देकर बिदा हुई। कुन्दनलाल खड़े-खड़े यह तमाशा देखते रहे। सब्जी वाली के जाने के बाद पत्नी जी लोटे में  पानी लाईं तो उन्होंने कहा- “आज तो तुमने जरा-सी सब्ज़ी लेने में पूरा आधा घंटे लगा दिये। इतनी देर में तो हजार-पाँच का सौदा हो जाता। जरा-जरा से साग के लिए इतनी ठाँय-ठाँय करने से तुम्हारा सिर भी नहीं दुखता?”

रामेश्वरी ने कुछ शर्मिंदा होकर कहा- “पैसे मुफ्त में तो नहीं आते!”

“ठीक है लेकिन समय की भी कुछ कीमत है। इतनी देर में तुमने बड़ी मुश्किल से एक धेले की बचत की। सब्जी वाली ने भी दिल में कहा होगा, कहाँ की गँवारिन है। अब शायद भूलकर भी इधर न आये।”

“तो, फिर मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि पैसे की जगह धेले का सौदा लेकर बैठ जाऊँ।”

“इतनी देर में तो तुमने कम-से-कम 10 पन्ने पढ़ लिए  होते। कल कामवाली से घंटों माथा पच्ची की । परसों दूधवाले के साथ घंटों बहस की। जिन्दगी क्या इन्हीं बातों में खर्च करने को दी गई है?”

कुन्दनलाल अक्सर ही पत्नी को उपदेश देते रहते थे। यह उनकी दूसरी शादी थी। रामेश्वरी को आये अभी दो तीन महीने ही हुए थे। अब तक तो बड़ी ननद जी ऊपर के काम किया करती थीं। रामेश्वरी की उनसे न बनती थी ।

उसको मालूम होता था, यह मेरा सब कुछ ही लुटाये देती हैं। आखिर वह चली गईं। तब से रामेश्वरी घर की मालकिन है; वह बहुत चाहती है कि पति को खुश रखे। उनके इशारों पर चलती है; एक बार जो बात सुन लेती है, गाँठ बाँध लेती है। पर रोज ही कोई नई बात हो जाती है, और कुन्दनलाल को उसे उपदेश देने का मौका मिल जाता है। एक दिन बिल्ली दूध पी गई। रामेश्वरी दूध गर्म करके लाई और पति के सिरहाने रखकर पान बना रही थी कि बिल्ली ने दूध पर अपना भगवान का दिया हुआ हक साबित कर दिया। रामेश्वरी यह सहन न कर सकी। डंडा लेकर बिल्ली को इतनी  जोर से मारा कि वह दो-तीन लुढ़कियाँ खा गई। कुन्दनलाल लेटे-लेटे अखबार पढ़ रहे थे। बोले- “और जो मर जाती तो ?”

रामेश्वरी ने ढिठाई के साथ कहा- “तो मेरा दूध क्यों पी गई?”

“उसे मारने से दूध मिल तो नहीं गया?”

“जब कोई नुकसान कर देता है, तो उस पर गुस्सा आता ही है।”

“नहीं  आना चाहिए। जानवर के साथ आदमी भी क्यों जानवर हो जाय? आदमी और जानवर में इसके सिवा और क्या फ़र्क  है?”

कुन्दनलाल कई मिनट तक दया, विवेक और शांति की शिक्षा देते रहे। यहाँ तक कि बेचारी रामेश्वरी मारे ग्लानि के रो पड़ी। इसी तरह एक दिन रामेश्वरी ने एक भिखारी को डाँट दिया, तो बाबू साहब ने फिर उपदेश देना शुरू किया। बोले- “तुमसे न उठा जाता हो, तो लाओ मैं दे आऊँ। गरीब को यों नहीं  डाँटना चाहिए।”

रामेश्वरी ने त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहा- “दिन भर तो तांता लगा रहता है। कोई कहाँ तक दौड़े। सारा देश भिखमंगों से ही भर गया है शायद।”

कुन्दनलाल ने ताने  के भाव से मुस्कराकर कहा- “उसी देश में तो तुम भी बसती हो!”

“इतने भिखमंगे आ कहाँ से जाते हैं? ये सब काम क्यों नहीं करते?”

“कोई आदमी इतना नीच नहीं होता, जो काम मिलने पर भीख माँगे। हाँ, अपंग हो, तो दूसरी बात है। अपंगों का भीख के सिवा और क्या सहारा हो सकता है?”

“सरकार इनके लिए अनाथालय क्यों नहीं खुलवाती?”

“जब आजादी मिल जाएगी, तब शायद खुल जायँ; अभी तो कोई उम्मीद नहीं है मगर आजादी भी धर्म  से ही मिलेगी।”

“लाखों साधु-संन्यासी, पंडे-पुजारी मुफ्त का माल उड़ाते हैं, क्या इतना धर्म काफी नहीं है? अगर इस धर्म  से आजादी मिलती, तो कब की मिल चुकी होती।”

“इसी धर्म का प्रसाद है कि हिन्दू-जाति अभी तक जिंदा है, नहीं तो कब की पाताल पहुँच चुकी होती। रोम, यूनान, ईरान, सीरिया किसी का अब निशान भी नहीं है। यह हिन्दू-जाति है, जो अभी तक समय के खतरनाक वारों का सामना करती चली आई है।”

“आप समझते होंगे; हिन्दू-जाति जिंदा है। मैं तो उसे उसी दिन से मरा हुआ समझती हूँ, जिस दिन से वह गुलाम हो गई थी । जीवन आजादी का नाम है, गुलामी तो मौत है।”

कुन्दनलाल ने अपनी पत्नी  को आश्चर्य भरी आँखों से देखा, ऐसे विद्रोही ख्याल उसमें कहाँ से आ गये? देखने में तो वह बिलकुल भोली लगती थी। समझे, कहीं सुन-सुना लिया होगा। कठोर होकर बोले — “क्या बेकार की बहस करती हो। शर्म  तो आती नहीं, ऊपर से और बक-बक करती हो।”

रामेश्वरी यह फटकार पाकर चुप हो गई। एक पल वहाँ खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे कमरे से चली गई।

एक दिन कुन्दनलाल ने कई दोस्तों की दावत की। रामेश्वरी सबेरे से रसोई में घुसी तो शाम तक सिर न उठा सकी। उसे यह मेहनत बुरी मालूम हो रही थी। अगर दोस्तों की दावत करनी थी तो खाना बनवाने का कोई इंतजाम क्यों नहीं किया? सारा बोझ उसी के सिर क्यों डाल दिया! उससे एक बार पूछ तो लिया होता कि दावत करूँ या न करूँ। होता तब भी यही; जो अब हो रहा था। वह दावत के प्रस्ताव को बड़ी खुशी से हाँ करती, तब वह समझती, दावत मैं कर रही हूँ। अब वह समझ रही थी, मुझसे बेकार में काम लिया जा रहा है। खैर, खाना तैयार हुआ, लोगों ने खाना खाया  और चले गये; मगर मुंशीजी मुँह फुलाये बैठे हुए थे। रामेश्वरी ने कहा- “तुम क्यों नहीं खा लेते, क्या अभी सबेरा है?”

बाबू साहब ने आँखें फाड़कर कहा- “क्या खा लूँ, यह खाना है, या बैलों का चारा !”

रामेश्वरी के तन बदन में आग लग गई। सारा दिन चूल्हे के सामने जली; उसका यह इनाम! बोली- “मुझसे जैसा हो सका बनाया। जो बात अपने बस की नहीं है, उसके लिए क्या करती?”

“पूड़ियाँ सब कठोर  हैं!”

“होंगी।”

“कचौड़ी में इतना नमक था किसी ने छुआ तक नहीं।”

“होगा।”

“हलुआ अच्छी तरह भुना नहीं कच्चा लग रहा था।”

“होगा।”

“शोरबा इतना पतला था, जैसे चाय।”

“होगा।”

“औरत का पहला धर्म यह है कि वह रसोई के काम में अच्छी हो।”

फिर उपदेशों का तार बँधा; यहाँ तक कि रामेश्वरी ऊब कर चली गई! पाँच-छ: महीने गुजर गये। एक दिन कुन्दनलाल के एक दूर के रिश्तेदार उनसे मिलने आये। रामेश्वरी को जैसे ही उनकी खबर मिली, नाश्ते के लिए मिठाई भेजी; और कामवाली से कहला भेजा आज यहीं खाना खाईएगा। वह महाशय फूले न समाये। बोरिया-बँधना लेकर पहुँच गये और डेरा डाल दिया। एक हफ्ता गुजर गया; वह टलने का नाम भी नहीं लेते। आवभगत में कोई कमी होती, तो शायद उन्हें कुछ चिन्ता होती; पर रामेश्वरी उनके सेवा-सत्कार में जी-जान से लगी हुई थी। फिर वह भला क्यों हटने लगे।

एक दिन कुन्दनलाल ने कहा- “तुमने यह बुरी बीमारी पाल ली है ।”

रामेश्वरी ने चौंककर पूछा- “कैसी बीमारी?”

“इन्हें टहला क्यों नहीं देतीं?”

“मेरा क्या बिगाड़ रहे हैं?

“कम-से-कम 10 की रोज चपत दे रहे हैं और अगर यही खातिरदारी रही, तो शायद जीते-जी टलेंगे भी नहीं।”

“मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि कोई दो-चार दिन के लिए आ जाय, तो उसके सर पर सवार हो जाऊँ। जब तक उनकी इच्छा हो रहें।”

“ऐसे मुफ्तखोरों का सत्कार करना पाप है। अगर तुमने इतना सर न चढ़ाया होता, तो अब तक चला गया  होता। जब दिन में तीन बार खाना और पचासों बार पान मिलता है, तो क्या उसे कुत्ते ने काटा है, जो अपने घर जाय।”

“रोटी का चोर बनना तो अच्छा नहीं!”

“अच्छे और बुरे का ख्याल तो कर लेना चाहिए। ऐसे आलसियों को खिलाना-पिलाना असल में उन्हें जहर देना है, जहर से तो सिर्फ जान निकल जाती हैं; यह खातिरदारी तो आत्मा को बर्बाद कर देती है। अगर
यह जनाब महीने भर भी यहाँ रह गये, तो फिर जिंदगी-भर के लिए बेकार हो जायँगे। फिर इनसे कुछ न होगा और इसका सारा दोष तुम्हारे सिर होगा।”

तर्क का तांता बँध गया। सबूतों की झड़ी लग गई। रामेश्वरी चिढ़कर चली गई। कुन्दनलाल उससे कभी सन्तुष्ट भी हो सकते हैं, उनके उपदेशों की बारिश कभी बन्द भी हो सकती है, यह सवाल उसके मन में बार-बार उठने लगा।

एक दिन देहात से भैंस का ताजा घी आया। इधर महीनों से बाजार का घी खाते-खाते नाक में दम हो रहा था। रामेश्वरी ने उसे खौलाया, उसमें लौंग डाली और कड़ाही से निकालकर एक मटकी में रख दिया। उसकी सौंधी-सौंधी सुगंध से सारा घर महक रहा था। कामवाली चौका-बर्तन करने आई तो उसने चाहा कि मटकी चौके से उठाकर छींके पर रख दे। पर संयोग की बात, उसने मटकी उठाई, तो वह उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी। सारा घी बह गया। धमाका सुनकर रामेश्वरी दौड़ी, तो कामवाली खड़ी रो रही थी और मटकी चूर-चूर हो गई थी। तड़पकर बोली- “मटकी कैसे टूट गई? मैं तेरी तनख्वाह से काट लूँगी। राम-राम, सारा घी मिट्टी में मिला दिया! तेरी आँखें फूट गई थीं क्या? या हाथों में दम नहीं था? इतनी दूर से मँगाया था , इतनी मेहनत से गर्म किया; मगर एक बूँद भी गले के नीचे न गया। अब खड़ी क्या रही है, जा अपना काम कर।”

कामवाली ने आँसू पोंछकर कहा- “बहूजी, अब तो गलती हो गई, चाहे तनख्वाह काटो, चाहे जान से मारो। मैंने तो सोचा उठाकर ऊपर रख दूँ, तो चौका लगाऊँ। क्या जानती थी कि किस्मत में यह लिखा है। न-जाने किसका मुँह देखकर उठी थी।”

रामेश्वरी – “मैं कुछ नहीं जानती, सब रुपये तेरी तनख्वाह से वसूल कर लूँगी। एक रुपया जुर्माना न किया तो कहना।”

कामवाली- “मर जाऊँगी सरकार, कहीं एक पैसे का ठिकाना नहीं है।”

रामेश्वरी – “मर या जी, मैं कुछ नहीं जानती।”

कामवाली ने एक मिनट तक कुछ सोचा और बोली- “अच्छा, काट लीजिएगा सरकार। आपसे सब्र नहीं होता; मैं सब्र कर लूँगी। यही होगा ना कि भूखों मर जाऊँगी। जीकर कौन-सा सुख भोग रही हूँ कि मरने से डरूँ। समझ लूँगी; एक महीना कोई काम नहीं किया। आदमी से बड़े-बड़े नुक्सान हो जाते हैं, यह तो बस घी ही था।”

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