(hindi) Kayar

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लड़के का नाम केशव था, लड़की का प्रेमा। दोनों एक ही कालेज में और एक ही क्लास में पढ़ते थे। केशव नये विचारों का था, जात-पात के बन्धनों का विरोधी। प्रेमा पुराने संस्कारों की कायल थी, पुरानी मर्यादाओं और प्रथाओं में पूरा विश्वास रखने वाली; लेकिन फिर भी दोनों में गहरा प्रेम हो गया था और यह बात सारे कालेज में मशहूर थी। केशव ब्राह्मण होकर भी वैश्य जाति यानी बिज़नेस करने वाले की लड़की  प्रेमा से शादी करके अपना जीवन सार्थक करना चाहता था। उसे अपने माता-पिता की परवाह न थी। कुल-मर्यादा का विचार भी उसे ढ़ोंग और नाटक सा लगता था। उसके लिए अगर कोई चीज़ सच्ची थी, तो बस प्रेम; लेकिन प्रेमा के लिए माता-पिता और कुल-परिवार के आदेश के खिलाफ़ एक कदम बढ़ाना भी नामुमकिन था।
शाम का समय था। विक्टोरिया-पार्क के एक सुनसान जगह में दोनों आमने-सामने हरियाली पर बैठे हुए थे। सैर करने वाले एक-एक करके विदा हो गये; लेकिन ये दोनों अभी वहीं बैठे रहे । उनमें एक ऐसी बात छिड़ी हुई थी, जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।

केशव ने झुँझलाकर कहा—“इसका यह मतलब है कि तुम्हें मेरी परवाह नहीं है?”
प्रेमा ने उसे शान्त करने की कोशिश करके कहा—“तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो, केशव! लेकिन मैं इस बात को माँ और पिताजी के सामने कैसे छेड़ूं, यह मेरी समझ में नहीं आता। वे लोग पुरानी मान्यताओं के भक्त हैं। मेरी तरफ से कोई ऐसी बात सुनकर मन में जो-जो ख़याल आएँगे  , उसकी तुम कल्पना कर सकते हो?”
केशव ने गुस्से के भाव से पूछा—“तो तुम भी उन्हीं पुरानी रूढ़ियों की गुलाम हो?”
प्रेमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में प्रेम भरकर कहा—“नहीं, मैं उनकी गुलाम नहीं हूँ, लेकिन माँ और पिताजी की इच्छा मेरे लिए और सब चीजों से ज़्यादा अहमियत रखती है”।
‘तो तुम्हारा अपना व्यक्तित्व कुछ नहीं है?’

‘ऐसा ही समझ लो।’
‘मैं तो समझता था कि ये ढकोसले मूर्खों के लिए हैं; लेकिन अब मालूम हुआ कि तुम-जैसी बुद्धिमान पढ़ी लिखी लड़की भी उनकी पूजा करती हैं। जब मैं तुम्हारे लिए संसार को छोडऩे को तैयार हूँ तो तुमसे भी यही उम्मीद करता हूँ।’
प्रेमा ने मन में सोचा, “मेरा अपने शरीर पर क्या अधिकार है। जिन माता-पिता ने अपने खून से मेरी रचना की है, और अपने प्रेम से उसे पाला है, उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कोई काम करने का मेरा कोई हक नहीं”।

उसने दीनता के साथ केशव से कहा—“क्या प्रेम औरत और आदमी के रूप में ही किया जा सकता  है, दोस्ती के रूप में नहीं? मैं तो इसे आत्मा का बन्धन समझती हूँ”।
केशव ने कठोर भाव से कहा—“इन बड़ी-बड़ी बातों से तुम मुझे पागल कर दोगी, प्रेमा! बस, इतना ही समझ लो मैं निराश होकर जिन्दा नहीं रह सकता। मैं प्रैक्टिकल आदमी हूँ, और कल्पनाओं के संसार में सच का आनन्द उठाना मेरे लिए नामुमकिन है”।

यह कहकर उसने प्रेमा का हाथ पकडक़र अपनी ओर खींचने की कोशिश की। प्रेमा ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और बोली—“नहीं केशव, मैं कह चुकी हूँ कि मैं आज़ाद नहीं हूँ। तुम मुझसे वह चीज न माँगो, जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है”।

केशव को अगर प्रेमा ने कठोर शब्द कहे होते तो भी उसे इतना दु:ख न हुआ होता। एक पल तक वह मन मारे बैठा रहा, फिर उठकर निराशा भरी आवाज़ में बोला—‘जैसी तुम्हारी इच्छा!” धीरे-धीरे कदम उठाता हुआ वो वहाँ से चला गया। प्रेमा अब भी वहीं बैठी आँसू बहाती रही।

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रात को खाना खाकर प्रेमा जब अपनी माँ के साथ लेटी, तो उसकी आँखों में नींद न थी। केशव ने उसे एक ऐसी बात कह दी थी, जो चंचल पानी में पडऩे वाली छाया की तरह उसके दिल पर छायी हुई थी। हर पल उसका रूप बदल रहा था। वह उसे शांत नहीं कर पा रही थी। माँ से इस बारे  में कुछ कहे तो कैसे? शर्म मुँह बन्द कर देती थी। उसने सोचा, अगर केशव के साथ मेरी शादी  न हुई तो उस समय मेरा क्या कर्त्तव्य होगा। अगर केशव ने कुछ गुस्ताख़ी कर डाली तो मेरे लिए संसार में फिर क्या रह जायगा; लेकिन मेरा बस ही क्या है। इस तरह के विचारों में एक बात जो उसके मन में पक्की थी, वह यह थी कि केशव के सिवा वह और किसी से शादी न करेगी।

उसकी माँ ने पूछा—“क्या तुझे अब तक नींद न आयी? मैंने तुझसे कितनी बार कहा कि थोड़ा-बहुत घर का काम-काज किया कर; लेकिन तुझे किताबों से ही फुरसत नहीं मिलती। चार दिन में तू पराये घर जायगी, कौन जाने कैसा घर मिले। अगर कुछ काम करने की आदत न रही, तो वहाँ कैसे निभाएगी?”

प्रेमा ने भोलेपन से कहा—“मैं पराये घर जाऊँगी ही क्यों?”
माँ ने मुस्कराकर कहा—“लड़कियों के लिए यही तो सबसे बड़ी मुश्किल है, बेटी! माँ-बाप की गोद में पलकर जैसे ही सयानी हुई, दूसरों की हो जाती है। अगर अच्छे लोग मिले, तो जीवन आराम से कट गया, नहीं तो रो-रोकर दिन काटना पड़ाता है । सब भाग्य का खेल है। अपनी बिरादरी में तो मुझे कोई घर पसंद नहीं आता । कहीं लड़कियों का सम्मान नहीं; लेकिन करना तो बिरादरी में ही पड़ेगा। न जाने यह जात-पात का बन्धन कब टूटेगा?”

प्रेमा डरते-डरते बोली—“कहीं-कहीं तो बिरादरी के बाहर भी शादियाँ होने लगी हैं!”
उसने कहने को कह दिया; लेकिन उसका दिल काँप रहा था कि माँ कुछ भाँप न जायँ।
माता ने चकित होकर पूछा—“क्या हिन्दुओं में ऐसा हुआ है!”
फिर उन्होंने  ख़ुद ही उस सवाल का जवाब भी दिया—“और दो-चार जगह ऐसा हो भी गया, तो उससे क्या होता है?”
प्रेमा ने इसका कुछ जवाब न दिया, डर था कि माँ कहीं उसका मतलब समझ न जायँ। उसका भविष्य एक अन्धेरी खाई की तरह उसके सामने मुँह खोले खड़ा था, मानों उसे निगल जायगा।
फ़िर उसे न जाने कब नींद आ गयी।

सुबह प्रेमा सोकर उठी, तो उसके मन में एक अजीब सी हिम्मत का उदय हो गया था। सभी अहम् फैसले हम अचानक लिया करते हैं, मानो कोई दिव्य-शक्ति हमें उनकी ओर खींच ले जाती है; वही हालत प्रेमा की थी। कल तक वह माता-पिता के फ़ैसले को ही सही मानती थी, पर मुसीबत को सामने देखकर उसमें उस हवा के जैसी हिम्मत पैदा हो गयी थी, जिसके सामने कोई पहाड़ आ गया हो। वही धीमी हवा तेज़ी से पहाड़ की चोटी पर चढ़ जाती है और उसे कुचलती हुई दूसरी तरफ जा पहुँचती है। प्रेमा मन में सोच रही थी—“मान लिया कि , यह शरीर माता-पिता की देन है; लेकिन आत्मा तो मेरी है। मेरी आत्मा को जो कुछ भुगतना पड़ेगा, वह इसी शरीर से तो भुगतना पड़ेगा। अब वह इस बारे में संकोच करना गलत ही नहीं, ख़तरनाक समझ रही थी। अपने जीवन को क्यों एक झूठे सम्मान पर बलिदान करे? उसने सोचा शादी का आधार अगर प्रेम न हो, तो वह शरीर के  व्यापार  जैसा ही तो है। आत्म-समर्पण क्यों बिना प्रेम के भी हो सकता है? इस कल्पना से ही कि न जाने किस अनजान लड़के से उसके शादी हो जाए , उसका दिल विद्रोह कर उठा।

वह अभी नाश्ता करके कुछ पढऩे जा रही थी कि उसके पिता ने प्यार से पुकारा—“मैं कल तुम्हारे प्रिन्सिपल के पास गया था, वे तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहे थे”।
प्रेमा ने सरल भाव से कहा—“आप तो यों ही कहा करते हैं”।

‘नहीं, सच।’
यह कहते हुए उन्होंने अपने टेबल की दराज खोली, और मखमली चौखटों में जड़ी हुई एक तस्वीर निकालकर उसे दिखाते हुए बोले—“यह लडक़ा आई०सी०एस० के टेस्ट में फर्स्ट आया है। इसका नाम तो तुमने सुना होगा?”
बूढ़े पिता ने ऐसी भूमिका बाँध दी थी कि माँ उनका मतलब न समझ सकी लेकिन प्रेमा भाँप गयी! उसका मन तीर की तरह निशाने पर जा पहुँचा। उसने बिना तस्वीर की ओर देखे कहा—“नहीं, मैंने तो उसका नाम नहीं सुना”।

पिता ने बनावटी आश्चर्य से कहा—“क्या! तुमने उसका नाम ही नहीं सुना? आज के न्यूज़पेपर में उसकी तस्वीर और जीवन की कहानी छपी है”।
प्रेमा ने रुखाई से जवाब दिया—“होगा, मगर मैं तो उस टेस्ट का कोई महत्त्व नहीं समझती। मैं तो समझती हूँ, जो लोग इस टेस्ट में बैठते हैं वे बहुत ही स्वार्थी होते हैं। आखिर उनका मकसद  इसके सिवा और क्या होता है कि अपने गरीब, दलित भाइयों पर राज करें और खूब दौलत जमा करें। यह तो जीवन में कोई ऊँचा मकसद नहीं है”।
इस आपत्ति में जलन थी, अन्याय था; बेरहमी थी। पिता जी ने समझा था, प्रेमा यह बखान सुनकर लट्टू हो जायगी। यह जवाब सुनकर वो तीखे स्वर में बोले—“तू तो ऐसी बातें कर रही है जैसे तेरे लिए दौलत और अधिकार की कोई कीमत ही नहीं”.

प्रेमा ने ढिठाई से कहा—“हाँ, मैं तो इसकी कीमत नहीं समझती। मैं तो आदमी में त्याग देखती हूँ। मैं ऐसे नौजवानों को जानती हूँ, जिन्हें यह पद जबरदस्ती भी दिया जाए, तो स्वीकार न करेंगे”।
पिता ने हंसी उड़ाते हुए कहा—“यह तो आज मैंने नई बात सुनी। मैं तो देखता हूँ कि छोटी-छोटी नौकरियों के लिए लोग मारे-मारे फिरते हैं। मैं जरा उस लडक़े की सूरत देखना चाहता हूँ, जिसमें इतना त्याग हो। मैं तो उसकी पूजा करूँगा”।

शायद किसी दूसरे मौके पर ये शब्द सुनकर प्रेमा शर्म से सिर झुका लेती; पर इस समय उसकी हालत उस सिपाही की तरह थी, जिसके पीछे गहरी खाई हो। आगे बढऩे के सिवा उसके पास और कोई रास्ता न था। अपने गुस्से को संयम से दबाती हुई, आँखों में विद्रोह भरे, वह अपने कमरे में गयी, और केशव की कई तस्वीरों में से एक चुनकर लायी, जो उसकी नज़र में सबसे खराब थी और पिता के सामने रख दी। बूढ़े पिता ने तस्वीर को बेपरवाह के भाव से देखना चाहा; लेकिन पहली नज़र में ही उसने उन्हें आकर्षित कर लिया। ऊँचा कद और दुबला पतला होने पर भी उसके  डील डौल से स्वास्थ्य और संयम का अनुभव हो रहा था। चेहरे पर प्रतिभा का तेज न था; पर बुद्धिमानी और समझदारी की ऐसी झलक थी , जो उनके मन में विश्वास पैदा कर रही थी।
उन्होंने उस तस्वीर की ओर देखते हुए पूछा—“यह किसकी तस्वीर है?”
प्रेमा ने संकोच से सिर झुकाकर कहा—“यह मेरे ही क्लास में पढ़ते हैं”।
‘अपनी ही बिरादरी का है?’

प्रेमा का चेहरा फ़ीका पड़ गया। इसी सवाल के जवाब पर उसकी किस्मत का फैसला हो जायगा। उसके मन में पछतावा हुआ कि बेकार मैं इस तस्वीर को यहाँ लायी। उसमें एक पल के लिए जो हिम्मत आयी थी, वह इस पैने सवाल के सामने कमज़ोर हो गई । वो दबी हुई आवाज में बोली—‘जी नहीं, वह ब्राह्मण हैं।’ और यह कहने के साथ ही बेचैन होकर कमरे से निकल गयी मानों यहाँ की हवा में उसका गला घुटा जा रहा हो और दीवार की आड़ में खड़ी होकर रोने लगी।

लाला जी को तो पहले ऐसा गुस्सा आया कि प्रेमा को बुलाकर साफ-साफ कह दें कि यह नामुमकिन  है। वे उसी गुस्से में दरवाजे तक आये, लेकिन प्रेमा को रोते देखकर नरम हो गये। इस लड़के के प्रति प्रेमा के मन में क्या भाव थे, यह उनसे छिपा न रहा। वे लड़कियों को पढ़ाने में पूरा विश्वास करते थे; लेकिन इसके साथ ही कुल-मर्यादा की रक्षा भी करना चाहते थे। अपनी ही जाति के अच्छे लड़के के लिए अपना सब कुछ न्योंछावर कर सकते थे; लेकिन उस रेखा के बाहर अच्छे से अच्छा और योग्य से योग्य लड़के की कल्पना भी उनके सहन शक्ति से बाहर थी। इससे बड़ा अपमान वे सोच ही न सकते थे।

उन्होंने कठोर आवाज़ में कहा—“आज से कालेज जाना बन्द कर दो, अगर पढ़ाई कुल-मर्यादा को डुबाना ही सिखाती है, तो ऐसी पढ़ाई धूल है”।
प्रेमा ने दुखी आवाज़ में कहा—“परीक्षा तो करीब आ गयी है”।
लाला जी ने कठोरता से कहा—“आने दो”।
और फिर अपने कमरे में जाकर विचारों में डूब गये।

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