(Hindi) Kaptan Sahab
जगत सिंह को स्कूल जाना दवाई खाने या मछली का तेल पीने से कम नापसंद न था। वह सैर करने वाला, आवारा, घुमक्कड़ लड़का था। कभी अमरूद के बागों की ओर निकल जाता और अमरूदों के साथ माली की गालियाँ बड़े शौक से खाता। कभी दरिया की सैर करता और मल्लाहों की छोटी नाव में बैठकर उस पार के देहातों में निकल जाता। गालियाँ खाने में उसे मजा आता था। गालियाँ खाने का कोई मौका वह हाथ से न जाने देता।
सवार के घोड़े के पीछे ताली बजाना, घोड़ागाड़ी को पीछे से पकड़ कर अपनी ओर खींचना, बूढों की चाल की नकल करना, उसके मनोरंजन की चीजें थी। आलसी काम तो नहीं करता; पर बुरी आदतों का दास होता है, और बुरी आदतें पैसे के बिना पूरे नहीं होतीं। जगत सिंह को जब मौका मिलता घर से रुपये उड़ा ले जाता। नकद न मिले, तो बरतन और कपड़े उठा ले जाने में भी उसे शर्म न आती थी। घर में शीशियाँ और बोतलें थीं, वह सब उसने एक-एक करके रद्दी बाजार पहुँचा दी।
पुराने दिनों की कितनी चीजें घर में पड़ी थीं, उसके मारे एक भी न बची। इस कला में ऐसा अच्छा और काबिल था कि उसकी चतुराई और तेजी पर आश्चर्य होता था। एक बार बाहर ही बाहर, सिर्फ दीवार के सहारे अपने दो-मंजिला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ही से पीतल की एक बड़ी थाली लेकर उतर आया। घर वालें को आहट तक न मिली।
उसके पिता ठाकुर भक्त सिहं अपने कस्बे के डाकखाने के मुंशी थे। अफसरों ने उन्हे शहर का डाकखाना बड़ी दौड़-धूप करने पर दिया था; लेकिन भक्त सिंह जिन इरादों से यहाँ आये थे, उनमें से एक भी पूरा न हुआ। उल्टे नुकसान यह हुआ कि देहात में जो सब्जी, उपले-ईंधन मुफ्त मिल जाते थे, वे सब यहाँ बंद हो गये। यहाँ सबसे पुरानी जान पहचान न थी, न किसी को दबा सकते थे, न सता सकते थे। इस बुरी हालत में जगत सिंह की चोरियां बहुत अखरतीं। उन्होंने कितनी ही बार उसे बड़ी बेरहमी से पीटा।
जगत सिंह बड़े शरीर का होने पर भी चुपके में मार खा लिया करता था। अगर वह अपने पिता के हाथ पकड़ लेता, तो वह हिल भी न सकते; पर जगत सिंह इतना बदतमीज न था। हाँ, मार-पीट, घुड़की-धमकी किसी का भी उस पर असर न होता था।
जगत सिंह जैसे ही घर में कदम रखता; चारों ओर से काँव-काँव मच जाती, माँ दुर-दुर करके दौड़ती, बहने गालियाँ देने लगती; मानो घर में कोई साँड़ घुस आया हो। घर वाले उसकी सूरत से जलते थे। इन तिरस्कारों ने उसे बेशर्म बना दिया था। तकलीफों को जानने के कारण वह बेफिक्र-सा हो गया था। जहाँ नींद आ जाती, वहीं पड़ा रहता; जो कुछ मिल जाता, वही खा लेता।
जैसे-जैसे घर वालें को उसकी चोरी की कला के तरीकों का पता चलता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते जाते थे। यहाँ तक कि एक बार पूरे महीने-भर तक उसकी दाल न गली। चरस वाले के कई रुपये ऊपर चढ़ गये। गाँजे वाले ने धुआँधार तकाजे करने शुरू किय। हलवाई कड़वी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत का निकलना मुश्किल हो गया। रात-दिन ताक-झाँक में रहता; पर मौका न मिलता था।
आखिर एक दिन बिल्ली के भाग का छींका टूटा। भक्तसिंह दोपहर को डाकखानें से चले, जो एक बीमा-रजिस्ट्री थी, जेब में डाल ली। कौन जाने कोई डाकिया शरारत कर जाए; लेकिन घर आये तो लिफाफे को अचकन की जेब से निकालने का होश न रहा। जगत सिंह तो ताक लगाये हुए था ही। पैसे के लालच से जेब टटोली, तो लिफाफा मिल गया। उस पर कई आने के टिकट लगे थे। वह कई बार टिकट चुरा कर आधे दामों पर बेच चुका था। चट लिफाफा उड़ा लिया। अगर उसे मालूम होता कि उसमें नोट हैं, तो शायद वह न छूता; लेकिन जब उसने लिफाफा फाड़ डाला और उसमें से नोट निकल पड़े तो वह बड़ी मुसीबत में पड़ गया। वह फटा हुआ लिफाफा गला-फाड़ कर उसके गलत हरकत को धिक्कारने लगा।
उसकी हालत उस शिकारी की-सी हो गयी, जो चिड़ियों का शिकार करने जाए और अंजाने में किसी आदमी पर निशाना मार दे। उसके मन में पश्चाताप था, शर्म थी, दुख था, पर उसमे भूल की सजा सहने की ताकत न थी। उसने नोट लिफाफे में रख दिये और बाहर चला गया।
गरमी के दिन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था; पर जगत की आँखें में नींद न थी। आज उसकी बुरी तरह पिटाई होगी- इसमें शक न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीं, दस-पाँच दिन के लिए उसे कहीं खिसक जाना चाहिए। तब तक लोगों का गुस्सा शांत हो जाता। लेकिन कहीं दूर गये बिना काम न चलेगा। बस्ती में वह ज्यादा दिन तक छुपकर नहीं रह सकता। कोई न कोई जरुर ही उसका पता बता देगा और वह पकड़ लिया जायगा। दूर जाने के लिए कुछ न कुछ खर्च तो पास होना ही चहिए।
क्यों न वह लिफाफे में से एक नोट निकाल ले? यह तो मालूम ही हो जायगा कि उसी ने लिफाफा फाड़ा है, फिर एक नोट निकल लेने में क्या नुकसान है? दादा के पास रुपये तो है ही, झक मार कर दे देंगे। यह सोचकर उसने दस रुपये का एक नोट उड़ा लिया; मगर उसी समय उसके मन में एक नयी कल्पना का पैदा हुई। अगर ये सब रुपये लेकर किसी दूसरे शहर में कोई दूकान खोल ले, तो बड़ा मजा हो। फिर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों किसी की चोरी करनी पड़े! कुछ दिनों में वह बहुत-सा रुपया जमा करके घर आयेगा; तो लोग कितने चौंक जाएँगे!
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उसने लिफाफे को फिर निकाला। उसमें कुल दो सौ रुपए के नोट थे। दो सौ में दूध की दूकान खूब चल सकती है। आखिर मुरारी की दूकान में दो-चार दूध के डब्बों और दो-चार पीतल के थालों के सिवा और क्या है? लेकिन कितने ठाट से रहता है! रुपयों की चरस उड़ा देता है। एक-एक दाँव पर दस-दस रुपए रख देता है, फायदा न होता, तो वह ठाट कहाँ से निभाता? इस खुशी भरी कल्पना में वह इतना मग्न हुआ कि उसका मन उसके काबू से बाहर हो गया, जैसे लहरों में किसी के पाँव उखड़ जाएँ और वह लहरों में बह जाए।
उसी दिन शाम को वह बम्बई चल दिया। दूसरे ही दिन मुंशी भक्तसिंह पर घपले का मुकदमा दायर हो गया।
बम्बई के किले के मैदान में बैंड़ बज रहा था और राजपूत रेजिमेंट के सजीले सुंदर जवान ड्रिल कर रहै थे, जिस तरह हवा बादलों को नए-नए रुप में बनाती और बिगाड़ती है, उसी तरह सेना नायक सैनिकों को नए-नए रुप में बना बिगाड़ रहा था।
जब ड्रिल खतम हो गयी, तो एक पतले शरीर का लड़का नायक के सामने आकर खड़ा हो गया। नायक ने पूछा- “क्या नाम है?”
सैनिक ने फौजी सलाम करके कहा- “जगत सिंह?”
“क्या चाहते हो।”
“फौज में भरती कर लीजिए।”
“मरने से तो नहीं डरते?”
“बिलकुल नहीं-राजपूत हूँ।”
“बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।”
“इसका भी डर नहीं।”
“अदन जाना पड़ेगा।”
“खुशी से जाऊँगा।”
कप्तान ने देखा, बला का हाजिर-जवाब, मनचला, हिम्मत का अमीर जवान है, तुरंत फौज में भरती कर लिया। तीसरे दिन रेजिमेंट अदन को रवाना हुआ। मगर जैसे-जैसे जहाज आगे चलता था, जगत का दिल पीछे रह जाता था। जब तक जमीन का किनारा नजर आता रहा, वह जहाज के डेक पर खड़ा लगाव भरी नजरों से उसे देखता रहा। जब वह जमीन-का किनारा पानी में गायब हो गया तो उसने एक ठंडी साँस ली और मुँह ढंक कर रोने लगा। आज जीवन में पहली बार उसे अपनों की याद आयी। वह छोटा-सा कस्बा, वह गाँजे की दूकान, वह सैर-सपाटे, वह यार-दोस्तों के जमघट आँखों में फिरने लगे। कौन जाने, फिर कभी उनसे मिलना होगा या नहीं। एक बार वह इतना बेचैन हुआ कि जी में आया, पानी में कूद पड़े।
जगतसिंह को अदन में रहते तीन महीने गुजर गए। तरह-तरह की नई चीजों ने कई दिन तक उसे मुग्ध किये रखा; लेकिन पुराने संस्कार फिर जागने लगे। अब कभी-कभी उसे प्यार करने वाली माता की याद आने लगी, जो पिता के गुस्से, बहनों के धिक्कार और अपनों के अपमान में भी उसकी रक्षा करती थी। उसे वह दिन याद आया, जब एक बार वह बीमार पड़ा था। उसके बचने की कोई उम्मीद न थी, पर न तो पिता को उसकी कुछ चिन्ता थी, न बहनों को। सिर्फ माता थी, जो रात की रात उसके सिरहाने बैठी अपनी मीठी, प्यार भरी बातों से उसकी तकलीफ शांत करती रही थी। उन दिनों कितनी बार उसने उस देवी को अकेले रात में रोते देखा था।
वह खुद बीमारी से कमजोर हो रही थी; लेकिन उसकी देखभाल में वह अपने दर्द को ऐसी भूल गयी थी, मानो उसे कोई तकलीफ ही नहीं। क्या उसे माता के दर्शन फिर होंगे? वह इसी दुख और निराशा में समुद्र के किनारे चला जाता और घण्टों लगातार आती लहरों को देखा करता। कई दिनों से उसे घर पर एक चिट्ठी भेजने की इच्छा हो रही थी, लेकिन शर्म और ग्लानि के कारण वह टालता जाता था। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। उसने चिट्ठी लिखी और अपने अपराधों के लिए माफी माँगी। चिट्ठी शुरू से आखिर तक भक्ति से भरी हुई थी। आखिर में उसने इन शब्दों में अपनी माता को आश्वासन दिया था- “माता जी, मैने बड़ी-बड़ी बदमाशियां की हैं, आप लोग मुझसे तंग आ गयी थी, मै उन सारी भूलों के लिए सच्चे दिल से शर्मिंदा हूँ और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जीता रहा, तो कुछ न कुछ करके दिखाऊँगा। तब शायद आपको मुझे अपना बेटा कहने में शर्म न होगी। मुझे आर्शीवाद दीजिए कि अपनी कसम पूरी कर सकूँ।”
यह चिट्ठी लिखकर उसने डाकखाने में छोड़ी और उसी दिन से जवाब का इंतजार करने लगा; लेकिन एक महीना गुजर गया और कोई जवाब न आया। उसका जी घबराने लगा। जवाब क्यों नहीं आता? कहीं माता जी बीमार तो नहीं हैं? शायद दादा ने गुस्से से जवाब न लिखा होगा? कोई और मुसीबत तो नहीं आ पड़ी? कैम्प में एक पेड़ के नीचे कुछ सिपाहियों ने शालिग्राम की एक मूर्ति रख छोड़ी थी। कुछ श्रद्धालू सैनिक रोज उस प्रतिमा पर जल चढ़ाया करते थे। जगत सिंह उनकी हँसी उड़ाया करता; पर आज वह पागलों की तरह मूर्ति के सामने जाकर बड़ी देर तक सर झुकाए बैठा रहा।
वह इसी ध्यान की अवस्था में बैठा था कि किसी ने उसका नाम लेकर पुकार, यह दफ्तर का चपरासी था और उसके नाम की चिट्ठी लेकर आया था। जगतसिंह ने चिट्ठी हाथ में ली, तो उसका सारा शरीर काँप उठा। भगवान की स्तुति करके उसने लिफाफा खोला ओर चिट्ठी पढ़ी। लिखा था- “तुम्हारे दादा को घपले के इल्जाम में पाँच साल की सजा हो गई। तुम्हारी माता इस दुख में मरने की हालत है। छुट्टी मिले, तो घर चले आओ।”
जगत सिंह ने उसी समय कप्तान के पास जाकर कहा -“हुजूर, मेरी माँ बीमार है, मुझे छुट्टी दे दीजिए।”
कप्तान ने कठोर आँखों से देखकर कहा- “अभी छुट्टी नहीं मिल सकती।”
“तो मेरा इस्तीफा ले लीजिए।”
“अभी इस्तीफा नहीं लिया जा सकता।”
“मै अब एक पल भी नहीं रह सकता।”
“रहना पड़ेगा। तुम लोगों को बहुत जल्द लड़ाई पर जाना पड़ेगा।”
“लड़ाई छिड़ गयी! आह, तब मैं घर नहीं जाऊँगा? हम लोग कब तक यहाँ से जाएंगे?”
“बहुत जल्द, दो चार ही दिनों में।”