(hindi) Istifa

(hindi) Istifa

दफ्तर का बाबू एक बेजबान जीव है। मजदूरों को ऑंखें दिखाओ, तो वह त्योरियाँ बदल कर खड़ा हो जाए। कुली को एक डाँट बताओं, तो सिर से बोझ फेंक कर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को डाँटो, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की नजर से देख कर चला जायेगा। यहाँ तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दो लातें जड़ने लगता है; मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे ऑंखे दिखायें, डाँट बतायें, झिड़कें या ठोकरें मारों, उसक माथे पर बल न आयेगा।

उसे अपने बुराइयों पर जो काबू होता है, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, उसमें सभी मानवी अच्छाइयाँ मौजूद होती हैं। खंडहर की भी एक दिन किस्मत जागती हैं दीवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती है, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अँधेरी किस्मत में रोशनी का जलावा कभी नहीं दिखाई देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुस्कराहट की रोशनी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन है, कभी हरा भादों नहीं। लाला फतहचंद ऐसे ही एक बेजबान जीव थे।

कहते हैं, इंसान पर उसके नाम का भी असर पड़ता है। फतहचंद की हालत में यह बात सच साबित न हो सकी। अगर उन्हें “हारचंद” कहा जाय तो शायद यह गलत न होगा। दफ्तर में हार, जिंदगी में हार, दोस्तों में हार, जीतन में उनके लिए चारों ओर निराशाऍं ही थीं। लड़का एक भी नहीं, लड़कियाँ थीं; भाई एक भी नहीं, भाभियाँ दो, जेब में पैसे नहीं, मगर दिल में दया और अच्छाई, सच्चा दोस्त एक भी नहीं, जिससे दोस्ती हुई, उसने धोखा दिया, इस पर सेहत भी अच्छी नहीं, बत्तीस साल की उम्र में बाल सफेद होने लगे थे।

ऑंखों में रोशनी नहीं, हाजमा खराब, चेहरा पीला, गाल चिपके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत। नौ बजे दफ्तर जाते और छ: बजे शाम को लौट कर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है; इसकी उन्हें बिलकुल खबर न थी। उनकी दुनिया लोक-परलोक जो कुछ था, दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिंदगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से कुछ लेनादेना था, न ईमान से। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद लम्बा समय गुजर गया था।

जाड़ो के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। फतहचंद साढ़े पाँच बजे दफ्तर से लौटै तो चिराग जल गये थे। दफ्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते; चुपके से खटिए पर लेट जाते और पंद्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते तब कहीं जाकर उनके मुँह से आवाज निकलती। आज भी हर दिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा तो मालूम हुआ कि दफ्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुँह-हाथ धोने के लिए लोटा-गिलास माँज रही थी। बोली- “उससे कह दे, क्या काम है। अभी तो दफ्तर से आये ही हैं, और बुलावा आ गया है?”

चपरासी ने कहा है- “अभी फिर बुला लाओ। कोई बड़ा जरूरी काम है।”

फतहचंद की खामोशी टूट गयी। उन्होंने सिर उठा कर पूछा- “क्या बात है?”

शारदा- “कोई नहीं दफ्तर का चपरासी है।”

फतहचंद ने सहम कर कहा- “दफ्तर का चपरासी! क्या साहब ने बुलाया है?”

शारदा- “हाँ, कहता है, साहब बुला रहे है। यह कैसा साहब है तुम्हारा, जब देखो बुलाया करता है? सबेरे के गए अभी मकान लौटे हो, फिर भी बुलावा आ गया!”

फतहचंद न सँभल कर कहा- “जरा सुन लूँ, किसलिए बुलाया है। मैंने सब काम खत्म कर दिया था, अभी आता हूँ।”

शारदा- “जरा नाश्ता तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेंगी।

यह कह कर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट ओर सेव लायी। फतहचंद उठ कर खड़े हो गये, लेकिन खाने की चीजें देख कर वह खटिए पर बैठ गये और प्याली की ओर चाव से देख कर खटिए पर बैठ गये ओर प्याली की ओर चाव से देख कर डरते हुए बोले- “लड़कियों को दे दिया है न?”

शारदा ने ऑंखे चढ़ाकर कहा- “हाँ-हाँ; दे दिया है, तुम तो खाओ।”

इतने में चपरासी ने फिर पुकार- “बाबू जी, हमें बड़ी देर हो रही हैं।”

शारदा- “कह क्यों नहीं देते कि इस समय न आयेंगें।”

फतहचन्द ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फंकियाँ लगायी, एक गिलास पानी पिया और बाहर की तरफ दौड़े। शारदा पान बनाती ही रह गयी।

चपरासी ने कहा- “बाबू जी! आपने बड़ी देर कर दी। अब जरा जल्दी चलिए, नहीं तो जाते ही डाँट बतायेगा।”

फतहचन्द ने दो कदम दौड़ कर कहा- “चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह, चाहे डाँट लगायें या दाँत दिखायें। हमसे दौड़ा नहीं जाता। बँगले ही पर है न?”

चपरासी- “भला, वह दफ्तर क्यों आने लगा। बादशाह  है कि दिल्लगी?”

चपरासी को तेज चलने का आदत थी। बेचारे बाबू फतहचन्द धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी ही दूर चल कर हाँफ उठे। मगर आदमी तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके कदम उठातें जाते थे। यहाँ तक कि जाँघो में दर्द होने लगा और आधा रास्ता खत्म होते-होते पैरों ने उठने से इनकार कर दिया। सारा शरीर पसीने से तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। ऑंखों के सामने तितलियाँ उड़ने लगीं।

चपरासी ने ललकारा- “जरा कदम बढ़ाय चलो, बाबू!”

फतहचन्द बड़ी मुश्किल से बोले- “तुम जाओ, मैं आता हूँ।”

वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गये और सिर को दोनों हाथों से थाम कर दम मारने लगें चपरासी ने इनकी यह हालत देखी, तो आगे बढ़ा। फतहचन्द डरे कि यह शैतान जाकर न-जाने साहब से क्या कह दे, तो गजब ही हो जायगा। जमीन पर हाथ टेक कर उठे और फिर चलें मगर कमजोरी से शरीर हाँफ रहा था। इस समय कोई बच्चा भी उन्हें जमीन पर गिरा सकता था। बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब बँगलें पर पहुँचे। साहब बँगले पर टहल रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ देखते थे और किसी को आते न देख कर मन में झल्लाते थे।
चपरासी को देखते ही ऑंखें निकाल कर बोल- “इतनी देर कहाँ था?”

चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा- “हुजूर! जब वह आयें तब तो; मै दौड़ा चला आ रहा हूँ।”

साहब ने पैर पटक कर कहा- “बाबू क्या बोला?”
चपरासी- “आ रहे है हुजूर, घंटा-भर में तो घर में से निकले।”

इतने में फतहचंद आंगन के तार के अंदरदर से निकल कर वहाँ आ पहुँचे और साहब को सिर झुक कर सलाम किया।

साहब ने कड़कर कहा- “अब तक कहाँ था?”

फतहचनद ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका खून सूख गया। बोले- “हुजूर, अभी-अभी तो दफ्तर से गया हूँ, जैसे ही चपरासी ने आवाज दी, हाजिर हुआ।”

साहब- “झूठ बोलता है, झूठ बोलता है, हम घंटे-भर से खड़ा है।”

फतहचन्द- “हुजूर, मैं झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर हो गयी हो, मगर घर से चलने में मुझे बिल्कुल देर नहीं हुई।”

साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा- “चुप रह सूअर, हम घण्टा-भर से खड़ा है, अपना कान पकड़ो!”

फतहचन्द ने खून की घूँट पीकर कहा- “हुजूर मुझे दस साल काम करते हो गए, कभी…..।”

साहब- “चुप रह सूअर, हम कहता है कि अपना कान पकड़ो!”

फतहचन्द- “जब मैंने कोई कुसूर किया हो?'

साहब- “चपरासी! इस सूअर का कान पकड़ो।”

चपरासी ने दबी जबान से कहा- “हुजूर, यह भी मेरे अफसर है, मै इनका कान कैसे पकडूँ?”

साहब- “हम कहता है, इसका कान पकड़ो, नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा।”

चपरासी- “हुजूर, मैं यहाँ नौकरी करने आया हूँ, मार खाने नहीं। मैं भी इज्जतदार आदमी हूँ। हुजूर, अपनी नौकरी ले लें! आप जो हुक्म दें, वह बजा लाने को हाजिर हूँ, लेकिन किसी की इज्जत नहीं बिगाड़ सकता। नौकरी तो चार दिन की है। चार दिन के लिए क्यों जमाने-भर से बिगाड़ करें।”

साहब अब गुस्से को न बर्दाश्त कर सके। हंटर लेकर दौड़े। चपरासी ने देखा, यहाँ खड़े रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ। फतहचन्द अभी तक चुपचाप खड़े थे। चपरासी को न पाकर उनके पास आया और उनके दोनों कान पकड़कर हिला दिया। बोला- “तुम सूअर गुस्ताखी करता है? जाकर आफिस से फाइल लाओ।”

फतहचन्द ने कान हिलाते हुए कहा- “कौन-सा फाइल?”

“तुम बहरा है सुनता नहीं? हम फाइल माँगता है।”

फतहचन्द ने किसी तरह हिम्मत कर के कहा- “आप कौन-सा फाइल माँगते हैं?”

साहब- “वही फाइल जो हम माँगता है। वही फाइल लाओ। अभी लाओ।”

बेचारे फतहचन्द को अब ओर कुछ पूछने की हिम्मत न हुई साहब बहादूर एक तो ऐसे ही तेज-मिजाज थे, इस पर हुकूमत का घमंड और सबसे बढ़कर शराब का नशा। हंटर लेकर पिल पड़ते, तो बेचार क्या कर लेते? चुपके से दफ्तर की तरफ चल पड़े।

साहब ने कहा- “दौड़ कर जाओ। दौड़ो।”

फतहचनद ने कहा- “हुजूर, मुझसे दौड़ा नहीं जाता।”

साहब- “ओ, तुम बहूत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखायेगा। दौड़ो (पीछे से धक्का देकर) तुम अब भी नहीं दौड़ेगा?”

यह कह कर साहब हंटर लेने चले। फतहचन्द दफ्तर के बाबू होने पर भी इंसान ही थे। अगर वह ताकतवर होते, तो उस बदमाश का खून पी जाते। अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर जरूर चला देते; लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तकदीर में लिखा था। वे बेतहाश भागे और फाटक से बाहर निकल कर सड़क पर आ गये।

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