(hindi) Hooked: How to Build Habit-Forming Products
इंट्रोडक्शन
रिसर्च कहता है कि करीब 79% स्मार्टफोन यूजर्स को सुबह उठने के 15 मिनट बाद अपना फोन चेक करने की आदती है. एवरेज लेवल पर बात करे तो लोग आमतौर पर दिन में कोई 34 बाद अपना फोन ब्राउज़ करते है. लेकिन कुछ एक्सपर्ट्स ये भी कहते है कि दिन भर में लोग 150 बार तक अपना फोन चेक करते है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता आज ज़्यादातर लोग अपने स्मार्टफोन या सोशल मिडिया के हूक्ड यानी एडिक्टेड है. अक्सर हम खुद को बोलते है कि हम सिर्फ कुछ मिनट्स के लिए फेसबूक या इन्स्टाग्राम चेक करते है पर असल में हम घंटो तक ब्राउज़ करते रहते है और इस बात का हमे भी पता नहीं चलता. आज के इन्सान की सबसे लेटेस्ट हैबिट है इंटरनेट.
कोगनिटिव साईंकोलोजिस्ट हैबिट को एक ऑटोमेटिक बिहेवियर मानते है जो खास सिचुएशन या कारणों से ट्रिगर होती है. ये वो हैबिट हैं जो हम unconscious वे में करते है. आज कंपनी डिज़ाइनर्स ये सीखने की कोशिश कर रहे है कि कैसे उनके प्रोडक्ट्स हमारी हैबिट और हमारे माइंड का पार्ट बन जाए.
आज के दौर में सिर्फ एडवरटाईजिंग ही काफी नहीं है. कंपनीज़ हुक्स यूज़ करती है ताकि हमे उनके प्रोडक्ट्स इतने टेम्प्टिंग लगे कि हम खुद ब खुद उनकी तरफ खिंचते चले जाए.
इस किताब में आप हुक मॉडल के बारे में पढोगे जिसे ऑथर नीर इयाल ने प्रोपोज़ किया है. इसमें चार फेज़ के बारे में बताया गया है जो कंपनीज़ हमारे अंदर हैबिट फॉर्म करने के लिए यूज़ करती है. क्योंकि कंपनीज़ ये गोल रखती है कि यूजर्स बिना किसी कॉस्टली एडवरटाईज़िंग या मैसेजिंग के बिना ही उनके प्रोडक्ट्स के साथ लगातार एंगेज रहे यानी उनके प्रोडक्ट्स यूज़ करते रहे.
हुक मॉडल के साथ यूजर्स हमेशा और ज्यादा की चाहत में वापस आता है. ये यूजर सोशल मिडिया और ऑनलाइन गेम के लिए लॉयल रहता है.
हुक मॉडल के चार phase हैं – ट्रिगर्स, एक्शन, वेरिएबल रिवॉर्ड और इन्वेस्टमेंट. हर टाइम जब भी हम इन फेसेज़ से गुजरते है हमारी हैबिट्स बनती है और मजबूत होती चली जाती है. तो चलिए इन चारो फेसेज़ को एक-एक करके डिस्कस करते है.
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ट्रिगर
अपने सामने एक क्रोस या दो परपेंडीक्यूलर लाइन इमेजिन करो. इन लाइंस से हमे चार सेक्शन मिलेंगे. इसके फर्स्ट सेक्शन में ट्रिगर है. ट्रिगर एक्सटर्नल भी होते है और इंटरनल भी. इसके दूसरे सेक्शन में एक्शन है. तीसरे सेक्शन में वेरिएबल रिवॉर्ड है और चौथे सेक्शन में इन्वेस्टमेंट है.
इस लाइन में एक एरो भी है जो क्लोकवाइज़ चलता है यानि ट्रिगर से इन्वेस्टमेंट की तरफ और फिर गोल-गोल घूमता है. यही है हमारा हुक मॉडल. तो टेक कंपनीज़ हमारे अंदर जो हैबिट डालती है उसका सीक्रेट है कि ये हैबिट ट्रिगर से स्टार्ट होती है.
यिन स्टैंडफोर्ड यूनीवरसिटी में पढ़ती है. वो इस जाने-माने कॉलेज की एक टिपिकल स्टूडेंट है. लेकिन उसकी एक प्रॉब्लम है, यिन को इन्स्टाग्राम की लत लग गई है.
इन्स्टाग्राम यानी फोटो और वीडियो शेयरिंग एप जिसे 2012 में फेसबुक ने $1 बिलियन में खरीद लिया था. तब से लेकर आज तक इन्स्टाग्राम ने 150 मिलियन से भी ज्यादा यूजर्स बना लिए है. यिन कहती है कि इन्स्टाग्राम उसे बड़ा मजेदार लगता है. वो हर मोमेंट को कैप्चर कर लेना चाहती है, इससे पहले कि वो उसकी नजरो से गायब हो जाए. चलिए डिस्कस करते है कि यिन और उसके जैसे बाकि यूजर्स को इन्स्टाग्राम की ये आदत कैसे लगी.
क्या आपको मालूम है पर्ल यानी मोती कैसे बनते है? असल में ओएस्टर की बॉडी के अंदर एक डिफेंस सिस्टम होता है जो एक चमकीली कोटिंग रिलीज़ करता है. जब भी कोई अनवांटेड पैरासाइट या रेत का छोटा सा पार्टिकल इसकी बॉडी के अंदर आता है तो उसके चारो ओर चमकीली कोटिंग की परत जमती चली जाती है और कोटिंग की कई लेयर्स के बाद जाकर एक पर्ल बनता है.
ठीक इसी तरह बार-बार एक ही बिहेवियर रिपीट करने पर वो हमारी हैबिट बन जाती है. अब ट्रिगर को आप अनवांटेड पैरासाइट या छोटा सा सैंड पार्टिकल मान लीजिए जिसके पर्ल के अंदर जाते ही ओएस्टर रिएक्ट करने लगता है. ट्रिगर्स दो टाइप के होते है. एक्स्टेनल और इंटरनल.
एक्सटर्नल ट्रिगर्स वो स्टीमुली है जो हमारे एनवायरमेंट से हमे मिलते है. इन्हें हम क्लियर कॉल्स टू एक्शन भी बोल सकते है. इसके एक्साम्प्ल्स हो सकते है जैसे वो नोटीफिकेश्न जो हमे एप्स से आते रहते है या साईंन अप या स्बसक्राइब बटन जो हम ब्लोग या वेबसाईट में देखते है.
अब एक कोका-कोला वेंडिंग मशीन इमेजिन करो जहाँ एक यंग मेन हाथ में कोक की बोटल पकडे दिखता है. और इसके नीचे लिखा है”थर्स्टी? और इसके साथ ही एक गैप या होल टाइप बना है जिसमे आप पैसे इन्सर्ट करके अपनी ड्रिंक कलेक्ट कर सकते हो, ये सारे एक्स्टेनल ट्रिगर्स है.
एक और एक्जाम्पल है ऑनलाइन बैंकिंग वेबसाईट मिंट.कॉम का. आप इनके होम पेज पर एक बड़ा सा चमकदार बटन देख सकते हो” लॉग इन टू मिंट” यहाँ आप अपना ई-मेल आईडी और पासवर्ड डालकर अपना बेलेंस पता कर सकते हो या क्रेडिट कार्ड डील चेक कर सकते हो.
तो देखा आपने, कैसे ट्रिगर आपको एक्शन लेने पर तुरंत मजबूर करते है. लेकिन इंटर्नल ट्रिगर्स का क्या? क्या हमारी बोरडम या अकेलापन ही हमे अपना फोन ब्राउज़ करने के लिए मजबूर करती है. ये हमारे पहले के एक्जाम्पल की तरह है जहाँ यिन को डर है कि अगर उसने इन्स्टाग्राम अकाउंट पर अपनी पिक्चर पोस्ट नहीं की तो वो मोमेंट हमेशा के लिए चले जायेंगे.
इंटर्नल ट्रिगर ईमोश्न्स है जो हमे कुछ करने के लिए उकसाते है. अब ये नेगेटिव इमोशंस भी हो सकते है जैसे गुस्सा, स्ट्रेस, फ्रस्ट्रेशन, कन्यूजन, बोरियत या अकेलापन वगैरह यानी जब ये इमोशंस हमारे अंदर चल रहे होते है, उस वक्त हम तुरंत अपने दर्द का कोई सोल्यूशन या ईलाज चाहते है.
मिसौरी यूनीवरसिटी में 216 स्टूडेंट इस बात के लिए खुद से तैयार हुए कि उनकी इन्टरनेट हैबिट को ट्रेक किया जाए. एक साल तक ओब्ज़ेर्व करने के बाद रिसर्च र्स ने पाया कि जो स्टूडेंट डिप्रेस्ड थे, वो ऑनलाइन गेमिंग, बिंज watching या चैटिंग में ज्यादा वक्त गुजारते थे. खुद को रिलेक्स फील कराने के लिए ये लोग इंटरनेट का हद से ज्यादा यूज़ कर रहे थे.
अब ज़रा सोचिये, आप एटीएम की लाइन में खड़े हो या किसी ट्रेन से जा रहे हो. आप बोर हो रहे हो इसलिए अपना फोन ब्राउज़ करना शुरू कर देते हो. लेकिन इंटर्नल ट्रिगर्स इतने इफेक्टिव क्यों होते है? . क्योंकि ये ठीक ऐसा ही है जैसे खुजली वाली जगह को खुजा देने के बाद आराम मिलता है. और हर बार जब आप कोई बिहेवियर रिपीट करते हो तो आप अपनी हैबिट को स्ट्रोंग बना रहे होते हो.