(hindi) Haar Ki Jeet

(hindi) Haar Ki Jeet

केशव से मेरी पुरानी अनबन थी। लिखना और पढ़ना, हंसी और मजाक सभी जगहों में मुझसे कोसों आगे था। उसके गुणों की चाँद की रोशनी में मेरे दीए की रोशनी कभी न दीखती। एक बार उसे नीचा दिखाना मेरे जीवन की सबसे बड़ी इच्छा थी। उस समय मैं कभी नहीं माना। अपनी गलतियां कौन मानता है पर असल में मुझे भगवान ने उसके जैसा दिमाग नहीं दिया था। अगर मुझे कुछ तसल्ली थी तो यह कि पढ़ाई में चाहे मुझे उनसे कंधा मिलाना कभी नसीब न हो, पर दुनियादारी के मामले में मैं जीत ही जाऊँगा।

लेकिन बदकिस्मती से जब हम दोनों की शादी एक ही समय में हुई और वह जीतता हुआ नजर आया तो मैं परेशान हो गया। हम दोनों ने ही एम.ए. के लिए साम्यवाद यानि communism (सभी चीजों में सबके लिए समान अधिकार का principle) का विषय लिया था। हम दोनों ही साम्यवादी थे। केशव के बारे में तो यह स्वाभाविक बात थी। वह ऊँचे खानदान से न था, न वह अमीरी ही थी जो इस कमी को पूरा कर देती। मेरी हालत इसके उल्टे थी। मैं खानदान का जमींदार और अमीर था। मेरी साम्यवादिता पर लोगों को आश्चर्य होता था। हमारे साम्यवाद के प्रोफेसर बाबू हरिदास भाटिया साम्यवाद के सिद्धांतों को मानने वाले थे, लेकिन शायद पैसे को नजरअंदाज न कर सकते थे। अपनी लज्जावती के लिए उन्होंने तेज दिमाग केशव को नहीं, मुझे पसंद किया।

एक दिन शाम के समय वह मेरे कमरे में आये और परेशान होकर बोले- “शारदाचरण, मैं महीनों से एक बड़ी चिंता में पड़ा हुआ हूँ। मुझे उम्मीद है कि तुम उसका हल निकाल सकते हो ! मेरा कोई बेटा नहीं है। मैंने तुम्हें और केशव दोनों ही को बेटे जैसा समझा है। हालांकि केशव तुमसे चालाक है, पर मुझे भरोसा है कि आज की दुनिया में तुम्हें जो सफलता मिलेगी, वह उसे नहीं मिल सकती। इसलिए मैंने तुम्हीं को अपनी लज्जा के लिए चुना है। क्या मैं उम्मीद करूँ कि मेरी मन की इच्छा पूरी होगी।”

मैं आजाद था, मेरे माता-पिता मेरे बचपन में ही गुजर गये थे। मेरे परिवार में अब ऐसा कोई न था, जिसकी इजाजत लेने की मुझे जरूरत होती। लज्जावती जैसी अच्छे स्वभाव की, सुन्दरी, पढ़ीलिखी बीवी को पा कर कौन पति होगा जो अपने भाग्य को न सराहता। मैं फूला न समाया। लज्जा एक खिला हुआ बाग थी, जहाँ गुलाब की सुगंध थी और हरियाली की ठंडक, हवा के हल्के झोंके थे और चिड़ियों का मिठा संगीत। वह खुद साम्यवाद पसंद करती थी। औरतों के प्रतिनिधि बनने और ऐसे ही दूसरी चीजों के बारे में उसने मुझसे कितनी ही बार बातें की थीं। लेकिन प्रोफेसर भाटिया की तरह सिर्फ सिद्धान्तों की भक्त न थी, उनको व्यवहार में भी लाना चाहती थी।

वह चालाक केशव को पसंद करती थी। फिर भी मैं जानता था कि प्रोफेसर भाटिया के आदेश को वह कभी नहीं टाल सकती, हालांकि उसकी इच्छा के खिलाफ मैं उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए तैयार न था। इस बारे में मैं खुद की मर्जी का सिद्धांत मानता था। इसलिए मैं केशव की दुख और बेचैनी का जितनी उम्मीद थी उतनी खुशी न उठा सका। हम दोनों ही दुखी थे, और मुझे पहली बार केशव से सहानुभूति हुई। मैं लज्जावती से सिर्फ इतना पूछना चाहता था कि उसने मुझे क्यों नजरों से गिरा दिया। पर उसके सामने ऐसे नाजुक सवाल करते हुए मुझे शर्म आई, और यह स्वाभाविक था, क्योंकि कोई औरत अपने मन की बात को नहीं खोल सकती। लेकिन शायद लज्जावती इस हालात को मुझे बताना अपना कर्तव्य समझ रही थी। वह इसका मौका ढूँढ़ रही थी। किस्मत से उसे जल्दी ही मौका मिल गया।

शाम का समय था। केशव राजपूत हॉस्टल में साम्यवाद पर एक भाषण देने गया हुआ था। प्रोफेसर भाटिया उस समारोह के प्रधान थे। लज्जा अपने बँगले में अकेली बैठी हुई थी। मैं अपने बेचैन दिल के भाव छिपाये हुए, दुख और निराशा की आग मे जलता हुआ उसके पास आ कर बैठ गया। लज्जा ने मेरी ओर एक उड़ती हुई नजर डाली और दया के भाव से बोली- “कुछ परेशान जान पड़ते हो ?”

मैंने बनावटी दुख से कहा- “तुम्हारी बला से।”

लज्जा- “केशव का भाषण सुनने नहीं गये ?”

मेरी आँखों से आग सी निकलने लगी। उसे दबा करके बोला- “आज सिर में दर्द हो रहा था।”

यह कहते-कहते यूं ही मेरे आँखों से आँसू की कई बूँदें टपक पड़ीं। मैं अपने दुख को दिखा करके उसकी दया नहीं चाहता था। मेरे हिसाब में रोना औरतों के लिए ही ठीक था। मैं उस पर गुस्सा जताना चाहता था और निकल पड़े आँसू। मन के भाव इच्छा के काबू में नहीं होते।

मुझे रोते देख कर लज्जा की आँखों से आँसू गिरने लगे।

मैं बुरी भावना नहीं रखता, बुरे दिल का नहीं हूँ, लेकिन न जाने क्यों लज्जा के रोने पर मुझे इस समय एक खुशी हो रही थी। उस दुखी हालत में भी मैं उसे ताना मारने से बाज न आ सका। बोला- “लज्जा, मैं तो अपनी किस्मत को रोता हूँ। शायद तुम्हारी नाइंसाफी की दुहाई दे रहा हूँ; लेकिन तुम्हारे आँसू क्यों ?”

लज्जा ने मेरी ओर घिन के भाव से देखा और बोली- “मेरे आँसुओं का कारण तुम न समझोगे क्योंकि तुमने कभी समझने की कोशिश नहीं की। तुम मुझे बुरा भला सुना कर अपने मन को शांत कर लेते हो। मैं किसे जलाऊँ। तुम्हें क्या मालूम है कि मैंने कितना आगा-पीछा सोचकर, दिल को कितना दबाकर, कितनी रातें करवटें बदल कर और कितने आँसू बहा कर यह तय किया है। तुम्हारे खानदान की इज्जत, तुम्हारी अमीरी एक दीवार की तरह मेरे रास्ते में खड़ी है। उस दीवार को मैं पार नहीं कर सकती। मैं जानती हूँ कि इस समय तुम्हें घर की इज्जत और अमीरी का जरा स भी घमंड नहीं है। लेकिन यह भी जानती हूँ कि तुम्हारा कालेज की ठंडी छाया में पला हुआ साम्यवाद बहुत दिनों तक दुनिया की लू और गरमी को न सह सकेगा। उस समय तुम जरूर अपने फैसले पर पछताओगे और कुढ़ोगे। मैं तुम्हारे दूध की मक्खी और दिल का काँटा बन जाऊँगी।”

मैंने दुखी होकर कहा- “जिन कारणों से मेरा साम्यवाद चला जायगा, क्या वह तुम्हारे साम्यवाद को जीता छोड़ेगा ?”

लज्जा- “हाँ, मुझे पूरा यकीन है कि मुझ पर उनका जरा भी असर न होगा। मेरे घर में कभी अमीरी नहीं रही और घर की हालत तुम अच्छी तरह जानते हो। बाबू जी ने सिर्फ अपनी कड़ी मेहनत से यह ओहदा पाया है। मैं वह नहीं भूली जब मेरी माँ जिंदा थीं और बाबू जी 11 बजे रात को प्राइवेट ट्यूशन कर के घर आते थे। तो मुझे अमीरी और खानदान की इज्जत का घमंड कभी नहीं हो सकता, उसी तरह जैसे तुम्हारे दिल से यह घमंड कभी मिट नहीं सकता। यह घमंड मुझे उसी दशा में होगा जब मैं अपनी याददाश्त खो दूँगी।”

मैंने अक्खड़पन से कहा- “खानदान की इज्जत को तो मैं मिटा नहीं सकता, मेरे वश की बात नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मैं आज अमीरी को छोड़ सकता हूँ।”

लज्जा बेरहमी से बोली- “फिर वही भावुकता ! अगर यह बात तुम किसी नासमझ बच्ची से करते तो शायद वह फूली न समाती। मैं एक ऐसे फैसले के बारे में, जिस पर दो लोगों के सभी जीवन का सुख-दुख टिका हुआ है, भावुकता का सहारा नहीं ले सकती। शादी बनावट नहीं है। भगवान गवाह है, मैं मजबूर हूँ, मुझे अभी तक खुद मालूम नहीं है कि मेरी नाव किधर जायेगी; लेकिन मैं तुम्हारी जिंदगी खराब नहीं कर सकती।”

मैं यहाँ से चला तो इतना निराश न था जितना परेशान। लज्जा ने मेरे सामने एक नयी परेशानी खड़ी कर दी थी।

हम दोनों साथ-साथ एम.ए. हुए। केशव पहला हुआ, मैं दूसरा। उसे नागपुर के एक कालेज में शिक्षक की नौकरी मिल गई। मैं घर आ कर अपनी जायदाद संभालने लगा। चलते समय हम दोनों गले मिल कर और रो कर विदा हुए। दुश्मनी और जलन को कालेज में छोड़ दिया।

मैं अपने प्रांत का पहला ताल्लुकेदार था, जिसने एम.ए. किया हो। पहले तो सरकारी अधिकारियों ने मेरी खूब आवभगत की; लेकिन जब मेरे सामाजिक सिद्धांतों के बारे में जाना तो उनकी दया कुछ कम हो गई। मैंने भी उनसे मिलना-जुलना छोड़ दिया। अपना ज्यादातर समय किरायदारों के बीच में ही बिताने लगा।

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पूरा साल भर भी न गुजरने पाया कि एक ताल्लुकेदार की मौत ने कौंसिल में एक जगह खाली कर दी। मैंने कौंसिल में जाने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं की। लेकिन काश्तकारों ने अपना नेता बनने का भार मेरे ही सिर रखा। बेचारा केशव तो अपने कालेज में लेक्चर देता था, किसी को खबर भी न थी कि वह कहाँ है और क्या कर रहा है और मैं अपने खानदान के नाम की बदौलत कौंसिल का मेम्बर हो गया। मेरी भाषण अखबारों में छपने लगीं। मेरे सवालों की तारीफ होने लगी।

कौंसिल में मेरा खास सम्मान होने लगा, कई लोग ऐसे निकल आये जो जनतावाद के भक्त थे। पहले वह हालातयों से कुछ दबे हुए थे, अब वह खुल पड़े। हम लोगों ने लोकवादियों का अपना एक अलग दल बना लिया और किसानों के हकों को जोरों के साथ बताना शुरू किया। ज्यादातर अमीरों ने मेरी बात न मानी। कई लोगों ने धमकियाँ भी दीं; लेकिन मैंने अपने तय रास्ते को न छोड़ा। सेवा के इस अच्छे मौके को कैसे हाथ से जाने देता। दूसरा साल खत्म होते-होते जाति के प्रधान नेताओं में मेरी गिनती होने लगी। मुझे बहुत मेहनत करना, बहुत पढ़ना, बहुत लिखना और बहुत बोलना पड़ता, पर जरा भी न घबराता। इस मेहनती होने के लिए केशव का कर्जदार था। उसी ने मुझे ऐसा बना दिया था।

मेरे पास केशव और प्रोफेसर भाटिया के चिट्ठी बराबर आती रहती थी। कभी-कभी लज्जावती भी मिलती थी। उसके चिट्ठियों में श्रद्धा और प्यार का परिणाम दिनोंदिन बढ़ता जाता था। वह मेरी देशसेवा का बड़े उदार, बड़े अच्छे शब्दों में बखान करती। मेरे बारे में उसे पहले जो शक थे, वह मिटते जाते थे। मेरी तपस्या उस देवी को आकर्षित करने लगी थी। केशव के चिट्ठियों से उदासीनता टपकती थी। उसके कालेज में पैसे की कमी थी। तीन साल हो गये थे, पर उसकी तरक्की न हुई थी। चिट्ठियों से ऐसा लगता था था मानो वह जीवन से असंतुष्ट है। शायद इसका मुख्य कारण यह था कि अभी तक उसके जीवन का सपना पूरा न हुआ था।

तीसरे साल गर्मियों की तातील में प्रोफेसर भाटिया मुझसे मिलने आये और बहुत खुश हो कर गये। उसके एक ही सप्ताह पीछे लज्जावती की चिट्ठी आई, अदालत ने फैसला सुना दिया, मेरी डिग्री हो गयी। केशव की पहली बार मेरे मुकाबले में हार हुई। मेरी खुशी की कोई सीमा न थी। प्रो. भाटिया का इरादा भारत के सब प्रांतों में घूमने का था। वह साम्यवाद पर एक किताब लिख रहे थे जिसके लिए हर बड़े नगर में कुछ खोज करने की जरूरत थी। लज्जा को अपने साथ ले जाना चाहते थे। तय हुआ कि उनके लौट आने पर आगामी चैत के महीने में हमारी शादी हो जाए। मैं यह जुदाई के दिन बड़ी बेसब्री से काटने लगा। अब तक मैं जानता था बाजी केशव के हाथ रहेगी, मैं निराश था, पर शांत था। अब उम्मीद थी और उसके साथ बड़ी अशांति थी।

मार्च का महीना था। इंतजार का समय पूरा हो चुका था। कड़ी मेहनत के दिन गये, फसल काटने का समय आया। प्रोफेसर साहब ने ढाका से चिट्ठी लिख थी कि कई जरूरी कारणों से मेरा लौटना मार्च में नहीं मई में होगा। इसी बीच में कश्मीर के दीवान लाला सोमनाथ कपूर नैनीताल आये। बजट पेश था। उन पर व्यवस्थापक सभा में बहस हो रहा था। गवर्नर की ओर से दीवान साहब को पार्टी दी गयी। सभा के नेताओं को भी निमंत्रण मिला। कौंसिल की ओर से मुझे अभिवादन करने का मौका मिला।

मेरी बकवास को दीवान साहब ने बहुत पसंद किया। चलते समय मुझसे कई मिनट तक बातें कीं और मुझे अपने डेरे पर आने का आदेश दिया। उनके साथ उनकी बेटी सुशीला भी थी। वह पीछे सिर झुकाये खड़ी रही। जान पड़ता था, भूमि को पढ़ रही है। पर मैं अपनी आँखों को काबू में न रख सका। वह उतनी ही देर में एक बार नहीं, कई बार उठी और जैसे बच्चा किसी अजनबी की चुमकार से उसकी ओर लपकता है, पर फिर डर कर माँ की गोद से चिमट जाता है; वह भी डर कर आधे रास्ते से लौट गयी। लज्जा अगर खिला हुआ बाग थी तो सुशीला ठंडी नदी की धारा थी जहाँ पेड़ों के कुंज थे, खेलते हुए हिरणों के झुंड थे, सुंदरता और लहरों का मीठा संगीत था।

मैं घर पर आया तो ऐसा थका हुआ था जैसे कोई मंजिल मारकर आया हूँ। सुंदरता जिंदगी का रस है। मालूम नहीं क्यों इसका असर इतना खतरनाक होता है।

लेटा तो वही चहरा सामने था। मैं उसे हटाना चाहता था। मुझे डर था कि एक पल भी उस भँवर में पड़ कर मैं खुद को सँभाल न सकूँगा। मैं अब लज्जावती का हो चुका था, वही अब मेरे दिल की मालिक थी। मेरा उस पर कोई हक न था लेकिन मेरा सारा धिरज, सारी दलीलें बेकार हुईं। पानी के बहाव में नाव को धागे से कौन रोक सकता है। आखिर में हताश हो कर मैंने खुद को सोच की लहरों में डाल दिया। कुछ दूर तक नाव तेज लहरों के साथ चली, फिर उसी लहरों में खो गयी।

दूसरे दिन मैं तय समय पर दीवान साहब के डेरे पर जा पहुँचा, इस तरह् काँपता और हिचकता जैसे कोई बच्चा आग की चमक से चौंक-चौंक कर आँख बंद कर लेता है कि कहीं वह चमक न जाय, कहीं मैं उसकी चमक न देख लूँ; भोला-भाला किसान भी अदालत के सामने इतना घबराया न होता होगा। सच्चाई यह थी कि मेरी आत्मा हार चुकी थी, उसमें अब बदला लेने की शक्ति न रही थी।

दीवान साहब ने मुझसे हाथ मिलाया और कोई घंटे भर तक आर्थिक और सामाजिक सवालों पर बातचीत करते रहे। मुझे उनकी  बहुत सी चीजों के बारे में जानकारी पर आश्चर्य होता था। ऐसा बात करने में अच्छा इंसान मैंने कभी न देखा था। साठ साल की उम्र थी, पर हंसी मजाक के मानो भंडार थे। न जाने कितने श्लोक, कितनी कविता, कितने शेर उन्हें याद थे। बात-बात पर कोई न कोई सटीक बैठने वाली पंक्तियाँ निकाल लाते थे। दुख है उस स्वभाव के लोग अब गायब होते जाते हैं। वह पढ़ाने का तरीका ना जाने कैसा था, जो ऐसे-ऐसे रत्न पैदा करता था। अब तो यह कहीं दिखायी ही नहीं देती।

हर इंसान चिन्ता की मूर्ति है, उसके होंठों पर कभी हँसी आती ही नहीं। खैर, दीवान साहब ने पहले चाय मँगवायी, फिर फल और मेवे मँगवाये। मैं रह-रह कर इधर-उधर बेचैन आँखों से देखता था। मेरे कान उसकी आवाज सुनने के लिए खुले हुए थे, आँखें दरवाजे की ओर लगी हुई थीं। डर भी था और लगाव भी, झिझक भी थी और खिंचाव भी। बच्चा झूले से डरता है पर उस पर बैठना भी चाहता है।

लेकिन रात के नौ बज गये, मेरे लौटने का समय आ गया। मन में लज्जित हो रहा था कि दीवान साहब दिल में क्या कह रहे होंगे। सोचते होंगे इसे कोई काम नहीं है ? जाता क्यों नहीं, बैठे-बैठे दो ढाई घंटे तो हो गये।

सारी बातें खत्म हो गयीं। उनके लतीफे भी खत्म हो गये। वह शांति छा गयी, जो कहती है कि अब चलिए फिर मुलाकात होगी। यार जिंदा व सोहबत बाकी। मैंने कई बार उठने का इरादा किया, लेकिन इंतजार में आशिक की जान भी नहीं निकलती, मौत को भी इंतजार का सामना करना पड़ता है। यहाँ तक कि साढ़े नौ बज गये और अब मुझे विदा होने के सिवाय कोई रास्ता न रहा, जैसे दिल बैठ गया।

जिसे मैंने डर कहा है, वह असल में डर नहीं था, वह बेचैनी की चरम सीमा थी।

यहाँ से चला तो ऐसा ढीला ढाला और बेजान था मानो जान निकल गये हों। अपने को कोसने लगा। अपनी छोटेपन पर उनमें शर्मिंदा हुआ। तुम समझते हो कि हम भी कुछ हैं। यहाँ किसी को तुम्हारे मरने-जीने की परवाह नहीं। माना उसके लक्षण कुँवारियों के-से हैं। दुनिया में कुँवारी लड़कियों की कमी नहीं। सुंदरता भी ऐसी भी कोई चीज नहीं जो आसानी से पाई न जा सके। अगर हर सुंदर और कुंवारी लड़की को देख कर तुम्हारी वही हालत होती रही तो भगवान ही मालिक है।

वह भी तो अपने दिल में यही सोचती होगी। हर सुंदर लड़के पर उसकी आँखें क्यों उठें। अच्छे घर की औरतों के यह ढंग नहीं होते। आदमियों के लिए अगर यह सुंदरता की ओर खींचाव शर्मनाक है तो औरतों के लिए खतरनाक है। किसी दो को तीसरे से भी इतना नुकसान नहीं पहुँच सकता, जितना सुंदरता को।

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