(hindi) GUPT DHAN
बाबू हरिदास के ईंट बनाने की भट्ठी शहर से मिली हुई थी । आसपास के देहातों से हज़ारों आदमी और औरतें रोज़ आते और भट्ठी से ईंट सिर पर उठा कर ऊपर लाइन से सजाते। एक आदमी भट्ठी के पास एक टोकरी में कौड़ियाँ लिए बैठा रहता था। मजदूरों को ईंटों की संख्या के हिसाब से कौड़ियाँ बाँटता। ईंटें जितनी ज्यादा होतीं उतनी ही ज्यादा कौड़ियाँ उसे मिलतीं थीं। इस लालच में बहुत से मजदूर अपनी क्षमता के बाहर काम करते। बूढ़ों और बच्चों को ईंटों के बोझ से अकड़े हुए देखना बहुत ही दुखद नज़ारा था। कभी-कभी बाबू हरिदास ख़ुद आकर कौड़ीवाले के पास बैठ जाते और ईंटें लादने को प्रोत्साहित करते।
यह नज़ारा तब और भी दुखद हो जाता था जब ईंटों की आम से ज़्यादा ज़रुरत आ पड़ती। उसमें मजदूरी दुगनी कर दी जाती और मजदूर लोग अपनी क्षमता से दुगनी ईंटें ले कर चलते। एक-एक कदम उठाना मुशकिल हो जाता। उन्हें सिर से पैर तक पसीने में डूबे भट्टी की राख चढ़ाये ईंटों का पहाड़ सिर पर रखे, बोझ से दबे देख कर ऐसा लगता था मानो लालच का भूत उन्हें जमीन पर पटक कर उनके सिर पर सवार हो गया है। सबसे दुखदायी दशा एक छोटे लड़के की थी जो हमेशा अपनी उम्र के लड़कों से दुगनी ईंटें उठाता और सारे दिन जी तोड़ मेहनत और धीरज के साथ अपने काम में लगा रहता। उसके चेहरे पर ऐसी दीनता छायी रहती थी, उसका शरीर इतना कमज़ोर था कि उसे देख कर दया आ जाती थी।
दूसरे लड़के बनिये की दुकान से गुड़ ला कर खाते, कोई सड़क पर जाने वाले इक्कों और हवा गाड़ियों की बहार देखता और कोई अपनी अपनी लड़ाई में अपनी जीभ और बाहुबल के जौहर दिखाता, लेकिन इस गरीब लड़के को अपने काम से काम था। उसमें लड़कपन की न चंचलता थी, न शरारत, न खिलाड़ीपन, यहाँ तक कि उसके होंठों पर कभी हँसी भी न आती थी। बाबू हरिदास को उसकी दशा पर दया आती। कभी-कभी कौड़ीवाले को इशारा करते कि उसे हिसाब से ज़्यादा कौड़ियाँ दे दो। कभी-कभी वे उसे कुछ खाने को दे देते।
एक दिन उन्होंने उस लड़के को बुला कर अपने पास बैठाया और उसका हालचाल पूछने लगे। उन्हें पता चला कि उसका घर पास ही के गाँव में है। घर में एक बूढ़ी माँ के सिवा कोई नहीं है और वह माँ भी किसी पुराने रोग से बीमार रहती है। घर का सारा भार इसी लड़के के सिर था। कोई उसे रोटियाँ बनाकर देने वाला भी न था। शाम को जाता तो अपने हाथों से रोटियाँ बनाता और अपनी माँ को खिलाता था। जाति का ठाकुर था। किसी समय उसका कुल दौलत जायदाद से सम्पन्न था। लेन-देन होता था और चीनी का कारखाना चलता था। कुछ जमीन भी थी लेकिन भाइयों की होड़ और जलन ने उसे इतनी बुरी हालत में पहुँचा दिया कि अब रोटियों के लाले थे। लड़के का नाम मगनसिंह था।
हरिदास ने पूछा- “गाँव वाले तुम्हारी कुछ मदद नहीं करते?”
मगन- “वाह, उनका वश चले तो मुझे मार डालें। सब समझते हैं कि मेरे घर में रुपये गड़े हैं”।
हरिदास ने उत्सुकता से पूछा- “पुराना घराना है, कुछ-न-कुछ तो होगा ही। तुम्हारी माँ ने इस बारे में तुमसे कुछ नहीं कहा ?”
मगन- “बाबूजी नहीं, एक पैसा भी नहीं। रुपये होते तो अम्माँ इतनी तकलीफ क्यों उठातीं”।
बाबू हरिदास मगनसिंह से इतने ख़ुश हुए कि मजदूरी के काम से निकालकर अपने नौकरों में रख लिया। उसे कौड़ियाँ बाँटने का काम दिया और भट्टी में मुंशी जी को हिदायत दे दी कि इसे कुछ पढ़ना-लिखना सिखाइए। अनाथ के भाग्य जाग उठे।
मगनसिंह बहुत मन लगाकर काम करता था और काफ़ी बुद्धिमान भी था। उसे कभी देर न होती, वो कभी छुट्टी न करता । थोड़े ही दिनों में उसने बाबू साहब का विश्वास जीत लिया। लिखने-पढ़ने में भी माहिर हो गया।
बरसात के दिन थे। भट्टी में पानी भरा हुआ था। काम धंधा बंद था। मगनसिंह तीन दिनों से हाजिर नहीं हुआ था। हरिदास को चिंता हुई, क्या बात है, कहीं बीमार तो नहीं हो गया, कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी ? कई आदमियों से पूछताछ की, पर कुछ पता न चला ! चौथे दिन पूछते-पूछते मगनसिंह के घर पहुँचे। घर क्या था पुराने ठाटबाट के नाम पर टूटा फूटा घर रह गया था । उनकी आवाज सुनते ही मगनसिंह बाहर निकल आया। हरिदास ने पूछा- “कई दिन से आये क्यों नहीं, माँ का क्या हाल है ?”
मगनसिंह ने भरे गले से जवाब दिया- “अम्माँ आजकल बहुत बीमार है, कहती है अब न बचूँगी। कई बार आपको बुलाने के लिए मुझसे कह चुकी है, पर मैं संकोच के मारे आपके पास न आता था। अब आप सौभाग्य से आ गये हैं तो जरा चल कर उसे देख लीजिए। उसकी इच्छा भी पूरी हो जाय”।
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हरिदास अंदर गये। वो घर अपनी कहानी ख़ुद बयान कर रहा था, उसमें सुख सुविधा के लिए कोई चीज़ न थी। कंकड़, ईंटों के ढेर चारों ओर पड़े हुए थे। विनाश का जीता जागता रूप था । सिर्फ़ दो कोठरियाँ रहने लायक थीं। मगनसिंह ने एक कोठरी की ओर उन्हें इशारे से बुलाया । हरिदास अंदर गये तो देखा कि बूढ़ी औरत एक सड़े हुए लकड़ी के टुकड़े पर पड़ी कराह रही है।
उनकी आहट पाते ही उसने आँखें खोलीं और अनुमान से पहचान गयी, बोली- “आप आ गये, बड़ी दया की। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी, मेरे अनाथ बच्चे के मालिक अब आप ही हैं। जैसे आपने अब तक उसकी रक्षा की है, वह आशीर्वाद उस पर हमेशा बनाये रखिएगा। मेरे दुःख के दिन पूरे हो गये। इस मिट्टी को पार लगा दीजिएगा। एक दिन घर में लक्ष्मी का वास था। बुरे दिन आये तो उन्होंने भी आँखे फेर लीं। पुरखों ने इसी दिन के लिए कुछ जमा पूँजी धरती माँ को सौंप दी थी।
उसका बिल बहुत संभाल कर रखा था; पर बहुत दिनों से उसका कहीं पता नहीं चल रहा । मगन के पिता ने बहुत खोजा पर उन्हें न मिला , नहीं तो हमारी दशा इतनी बुरी न होती। आज तीन दिन हुए मुझे वह बिल अपने आप रद्दी कागजों में मिल गया। तब से उसे छिपा कर रखे हुए हूँ, मगन बाहर है। मेरे सिरहाने जो बक्सा रखी है, उसी में वह बिल है। उसमें सब बातें लिखी हैं। उसी से ठिकाने का भी पता चलेगा। मौका मिले तो उसे खुदवा डालिएगा। मगन को दे दीजिएगा। यही कहने के लिए आपको बार-बार बुला रही थी। आपके सिवा मुझे किसी पर विश्वास न था। संसार से धर्म उठ गया है। किसकी नीयत पर भरोसा किया जाय।
हरिदास ने बिल के बारे में किसी से न कहा। उनकी नीयत बिगड़ गयी। दूध में मक्खी पड़ गयी। बिल से पता चला कि पैसा उस घर से 500 डग पश्चिम की ओर एक मंदिर के चबूतरे के नीचे है।
हरिदास उस दौलत को भोगना चाहते थे, पर इस तरह कि किसी को कानों-कान खबर न हो। ये काम मुश्किल था। नाम पर धब्बा लगने का बहुत बड़ा ख़तरा था जो संसार में सबसे बड़ा कलंक है। कितनी घोर नीचता थी। जिस अनाथ की रक्षा की, जिसे बच्चे की तरह पाला, उसके साथ विश्वासघात ! वो कई दिनों तक इसकी पीड़ा सहते रहे। अंत में मन में चल रहे सवाल जावाब ने विवेक को हरा दिया। मैंने कभी धर्म का त्याग नहीं किया और न कभी करूँगा। क्या कोई ऐसा आदमी भी है जिसका मन जीवन में एक बार भी भटका न हो। अगर है तो वह इंसान नहीं, देवता है। मैं इंसान हूँ। मुझे देवताओं की गिनती में बैठने का दावा नहीं करता.
मन को समझाना बच्चे को फुसलाने जैसा होता है। हरिदास शाम को सैर करने के लिए घर से निकल जाते। जब चारों ओर सन्नाटा छा जाता तो मंदिर के चबूतरे पर आ बैठते और एक कुदाली से उसे खोदते। दिन में दो-एक बार इधर-उधर ताक-झाँक करते कि कोई चबूतरे के पास खड़ा तो नहीं है। रात के सन्नाटे और ठहराव में उन्हें अकेले बैठे ईंटों को हटाते हुए उतना ही डर लगता था जितना किसी भ्रष्ट वैष्णव को मांस मछली खाने से होता है।
चबूतरा लम्बा-चौड़ा था। उसे खोदने में एक महीना लग गया और अभी आधी मंजिल भी तय न हुई थी । इन दिनों उनकी दशा उस आदमी की-सी थी जो कोई मंत्र जप रहा हो। उनके मन पर चंचलता छायी रहती। आँखों की रौशनी तेज़ हो गयी थी। वो बहुत गुम-सुम रहते, मानो ध्यान में हों। किसी से बातचीत न करते, अगर कोई छेड़ कर बात करता तो झुँझला पड़ते। भट्टी की ओर बहुत कम जाते। समझदार और सोचने विचारे वाले आदमी थे। आत्मा बार-बार इस कुटिल काम से भागती, वो फ़ैसला करते कि अब चबूतरे की ओर न जाऊँगा, पर शाम होते ही उन पर एक नशा-सा छा जाता, बुद्धि-विवेक का अपहरण हो जाता। जैसे कुत्ता मार खाकर थोड़ी देर के बाद टुकड़े के लालच में जा बैठता है, वही दशा उनकी थी। यहाँ तक कि दूसरा महीना भी बीत गया।
अमावस की रात थी। हरिदास दिल में जमी हुई दुष्टता के कालिख के समान चबूतरे पर बैठे हुए थे। आज चबूतरा खुद जाएगा । जरा देर तक और मेहनत करनी पड़ेगी। कोई चिंता नहीं। घर में लोग चिंतित हो रहे होंगे। पर अभी पता चल जाएगा कि चबूतरे के नीचे क्या है। पत्थर का तहखाना निकल आया तो समझ जाऊँगा कि दौलत ज़रूर होगी । तहखाना न मिले तो मालूम हो जायगा कि सब धोखा ही धोखा है। कहीं सचमुच तहखाना न मिले तब तो अच्छा मज़ाक बना । मुफ्त में उल्लू बन गया । पर नहीं, कुदाली खट-खट बोल रही थी । हाँ, पत्थर की चट्टान है। उन्होंने टटोल कर देखा। भ्रम दूर हो गया। सच में वहाँ चट्टान थी। तहखाना मिल गया; लेकिन हरिदास खुशी से उछले-कूदे नहीं।