(hindi) FATIHA

(hindi) FATIHA

सरकारी अनाथालय से निकलकर मैं सीधा फौज में  भर्ती  किया गया। मेरा शरीर मजबूत और ताकतवर था। साधारण इंसानों के मुकाबले मेरे हाथ-पैर कहीं लम्बे और गठीले थे। मेरी लम्बाई पूरी छह फुट नौ इंच थी। फौज में ‘देव’ के नाम से मशहूर था। जब से मैं फौज में  भर्ती  हुआ, तब से मेरी किस्मत ने भी पलटना शुरू किया और मेरे हाथ से कई ऐसे काम हुए, जिनसे इज्जत के साथ-साथ मेरी तनख्वाह भी बढ़ती गई। फौज का हर एक जवान मुझे जानता था। मेजर सरदार हिम्मतसिंह की मेरे ऊपर बहुत कृपा थी; क्योंकि मैंने एक बार उनकी जान बचाई थी। इसके अलावा न जाने क्यों उन्हें देखकर मेरे दिल में भक्ति और श्रद्धा आ जाती। मैं यही समझता कि यह मेरे पूज्य हैं और सरदार साहब का भी व्यवहार मेरे साथ प्यार और दोस्ती भरा था।

मुझे अपने माता-पिता का पता नहीं है, और न उनकी कोई याद है। कभी-कभी जब मैं इस सवाल को सोचने बैठता हूँ, तो कुछ धुँधले-से नजारे दिखाती देते हैं। बडे-बड़े पहाड़ों के बीच में रहता हुआ एक परिवार, और एक औरत का चहरा, जो शायद मेरी माँ का होगा। पहाड़ी के बीच में तो मैं पला बढ़ा ही हुँ। पेशावर से 80 मील दूर पूर्व एक गांव है, जिसका नाम ‘कुलाहा’ है, वहीं पर एक सरकारी अनाथालय है। इसी में मैं पाला गया। यहाँ से निकल कर सीधा फौज में चला गया। हिमालय की जलहवा से मेरा शरीर बना है, और मैं वैसा ही बड़े शरीर का हूँ, जैसे कि सीमाप्रांत के रहने वाले अफ्रीदी, गिलजई, महसूदी आदि पहाड़ी कबीलों के लोग होते हैं। अगर उनके और मेरे जीवन में कुछ अंतर है तो वह सभ्यता का है । मैं थोड़ा- बहुत पढ़-लिख लेता हूँ, बातचीत कर लेता हूँ, अदब-कायदा जानता हूँ,। छोटे-बडे़ का लिहाज कर सकता हूँ, लेकिन मेरा शरीर वैसा ही है, जैसे कि किसी भी सरहद में रहने वाले आदमी का  हो सकता है।

कभी-कभी मेरे मन में इच्छा होती कि आजाद होकर पहाड़ों की सैर करूँ; लेकिन जीविका का सवाल मेरी इच्छा को दबा देता। उस सूखे देश में खाने का कुछ भी ठिकाना नहीं था। वहाँ के लोग एक रोटी के लिए इंसान की हत्या कर डालते, एक कपड़े के लिए मुरदे की लाश चीड़-फाड़ कर फेंक देते और एक बंदूक के लिए सरकारी फौज पर छापा मारते हैं। इसके अलावा उन जंगली जातियों का एक-एक इंसान मुझे जानता था और मेरे खून का प्यासा था। अगर मैं उन्हें मिल जाता, तो जरूर मेरा नाम-निशान दुनिया से मिट जाता। न जाने कितने अफ्रीदियों और गिलजइयों को मैंने मारा था, कितनों को पकड़-पकड़ कर सरकारी जेल में भर दिया था और न मालूम उनके कितने गाँवों को जला कर खाक कर दिया था। मैं भी बहुत सतर्क रहता, और जहाँ तक होता, एक जगह पर हफ्ते से ज्यादा कभी न रहता।

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एक दिन मैं मेजर सरदार हिम्मतसिंह के घर की ओर जा रहा था। उस समय दिन को दो बजे थे। आजकल छुट्टी-सी थी; क्योंकि अभी हाल ही में कई गाँव जला दिये गये थे और जल्दी उनकी तरफ से कोई खतरा नहीं था। हम लोग बेफिक्र हो कर गप्प और हँसी-खेल में दिन गुजारते थे। बैठे-बैठे दिल घबरा गया था। सिर्फ मन बहलाने के लिए सरदार साहब के घर की ओर चला; लेकिन रास्ते में एक दुर्घटना हो गयी। एक बूढ़ा अफ्रीदी, जो अब भी एक हिन्दुस्तानी जवान का सिर मरोड़ देने के लिए काफी था, एक फौजी जवान से भिड़ा हुआ था। मेरे देखते-देखते उसने अपनी कमर से एक तेज छुरा निकाला और उसकी छाती में घुसेड़ दिया। उस जवान के पास एक कारतूसी बंदूक थी, बस उसी के लिए यह सब लड़ाई थी।

पलक मारते-मारते, फौजी जवान का काम तमाम हो गया और बूढ़ा बंदूक ले कर भागा। मैं उसके पीछे दौड़ा; लेकिन दौड़ने में वह इतना तेज था कि बात-की-बात में आँखों के सामने से गायब हो गया। मैं भी बिना सोचे-समझे उसका पीछा कर रहा था। आखिर सरहद पर पहुँचते-पहुँचते उससे बीस हाथ की दूरी पर रह गया। उसने पीछे फिर कर देखा, मैं अकेला उसका पीछा कर रहा था। उसने बंदूक का निशाना मेरी ओर लगाया। मैं फौरन ही जमीन पर लेट गया और बंदूक की गोली मेरे सामने पत्थर पर लगी। उसने समझा कि मैं गोली का शिकार हो गया। वह धीरे-धीरे सावधानी से मेरी ओर बढ़ा। मैं साँस खींच कर लेट गया। जब वह बिलकुल मेरे पास आ गया, शेर की तरह उछल कर मैंने उसकी गरदन पकड़कर जमीन पर पटक दिया और छुरा निकाल कर उसकी छाती में घुसेड़ दिया।

अफ्रीदी खत्म हो गया। इसी समय मेरी फौज के कई लोग भी आ पहुँचे। चारों तरफ से लोग मेरी तारीफ करने लगे। अभी तक मैं अपने आपे में न था; लेकिन अब मेरी सुध-बुध वापस आयी। न मालूम क्यों उस बुड्ढे को देखकर मेरा जी घबराने लगा। अभी तक न मालूम कितने ही अफ्रीदियों को मारा था; लेकिन कभी भी मेरा दिल इतना घबराया न था। मैं जमीन पर बैठ गया और उस बुड्ढे की ओर देखने लगा। फौज के जवान भी पहुँच गये और मुझे घायल जान कर कई तरह के सवाल करने लगे। धीरे-धीरे मैं उठा और चुपचाप शहर की ओर चला। सिपाही मेरे पीछे-पीछे उसी बुड्ढे की लाश घसीटते हुए चले। शहर के निवासियों ने मेरी जय-जयकार का ताँता बाँध दिया। मैं चुपचाप मेजर सरदार हिम्मतसिंह के घर में घुस गया।

सरदार साहब उस समय अपने खास कमरे में बैठे हुए कुछ लिख रहे थे। उन्होंने मुझे देख कर पूछा- “क्यों, उस अफ्रीदी को मार आये ?”

मैंने बैठते हुए कहा- “जी हाँ, लेकिन सरदार साहब, न जाने क्यों मैं कुछ बुजदिल हो गया हूँ।”

सरदार साहब ने आश्चर्य से कहा- “असदखाँ और बुजदिल ! यह दोनों एक जगह होना नामुमकिन है।

मैंने उठते हुए कहा- “सरदार साहब, यहाँ तबीयत नहीं लगती, उठकर बाहर बरामदे में बैठिए। न मालूम क्यों मेरा दिल घबराता है।”

सरदार साहब उठ कर मेरे पास आये और प्यार से मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- “असद, तुम दौड़ते-दौड़ते थक गये हो, और कोई बात नहीं है। अच्छा चलो बरामदे में बैठें। शाम की ठंडी हवा तुम्हें ताजा कर देगी।”

सरदार साहब और मैं, दोनों बरामदे में जाकर कुर्सियों पर बैठ गये। शहर के चौराहे पर उसी बूढ़े की लाश रखी थी और उसके चारों ओर भीड़ लगी हुई थी। बरामदे में जब मुझे बैठे हुए देखा, तो लोग मेरी ओर इशारा करने लगे। सरदार साहब ने यह नजारा देख कर कहा- “असदखाँ, देखा, लोगों की निगाह में तुम कितने ऊँचे हो ? तुम्हारी वीरता को यहाँ का बच्चा-बच्चा तारीफ करता है। अब भी तुम कहते हो कि मैं बुजदिल हूँ।”

मैंने मुस्करा कर कहा- “जब से इस बूढ़े को मारा है, तब से मेरा दिल मुझे धिक्कार रहा है।”

सरदार साहब ने हँस कर कहा- “क्योंकि तुमने अपने से कमजोर को मारा है।”

मैंने खुद को तसल्ली देते हुए कहा- “मुमकिन है, ऐसा ही हो।”

इसी समय एक अफ्रीदी औरत धीरे-धीरे आ कर सरदार साहब के मकान के सामने खड़ी हो गयी। जैसे ही सरदार साहब ने देखा, उनका मुँह सफेद पड़ गया। उनकी डरी हुई नजर उसकी ओर से फिर कर मेरी ओर हो गयी। मैं भी आश्चर्य से उनके मुँह की ओर देखने लगा। उस औरत के जैसा सुगठित शरीर आदमियों का भी कम होता है। खाकी रंग के मोटे कपड़े का पायजामा और नीले रंग का मोटा कुरता पहने हुए थी। बलूची औरतों की तरह सिर पर रूमाल बाँध रखा था। रंग गोरा था और जवानी की चमक फूट-फूट कर बाहर निकली पड़ती थी। इस समय उसकी आँखों में ऐसी भयानक थी, जो किसी के दिल में डर भर दें। औरत की आँखें सरदार साहब की ओर से फिर कर मेरी ओर आयीं और उसने ऐसे घूरना शुरू किया कि मैं भी डर गया। औरत ने सरदार साहब की ओर देखा और फिर जमीन पर थूक दिया और फिर मेरी ओर देखती हुई धीरे-धीरे दूसरी ओर चली गयी।

औरत को जाते देख कर सरदार साहब की जान में जान आयी। मेरे सिर पर से भी एक बोझ हट गया।

मैंने सरदार साहब से पूछा- “क्यों, क्या आप जानते हैं?”

सरदार साहब ने एक गहरी ठंडी साँस लेकर कहा- “हाँ, बहुत अच्छे से। एक समय था, जब यह मुझ पर जान देती थी और असल में अपनी जान पर खेल कर मुझे बचाई भी थी; लेकिन अब इसको मेरी सूरत से नफरत है। इसी ने मेरी बीवी की हत्या की है। इसे जब कभी देखता हूँ मेरे होश-हवास उड़ जाते हैं और वही नजारा मेरी आँखों के सामने नाचने लगता है।”

मैंने सहमी आवाज में पूछा- “सरदार साहब, उसने मेरी ओर भी तो बड़ी भयानक नजर से देखा था। न मालूम क्यों मेरे भी रोएँ खड़े हो गये थे।”

सरदार साहब ने सिर हिलाते हुए बड़ी गम्भीरता से कहा- “असदखाँ, तुम भी होशियार रहो। शायद इस बूढे़ अफ्रीदी से इसका कोई रिश्ता है। मुमकिन है, यह उसका भाई या बाप हो। तुम्हारी ओर उसका देखना कोई मतलब रखता है। बड़ी भयानक औरत है।”

सरदार साहब की बात सुनकर मेरी नस-नस काँप उठी। मैंने बातों का सिलसिला दूसरी ओर फेरते हुए कहा- “सरदार साहब, आप इसको पुलिस के हवाले क्यों नहीं कर देते ? इसको फाँसी हो जायगी।”

सरदार साहब ने कहा- “भाई असदखाँ, इसने मेरे जान बचाई थी और शायद अब भी मुझे चाहती है। इसकी कहानी बहुत लम्बी है। कभी समय मिला तो कहूँगा।”

सरदार की बातों से मुझे भी आश्चर्य हो रहा था। मैंने उनसे वह कहानी सुनाने के लिए आग्रह करना शुरू किया। पहले तो उन्होंने टालना चाहा; पर जब मैंने बहुत जोर दिया तो मजबूर हो कर बोले- “असद, मैं तुम्हें अपना भाई समझता हूँ; इसलिए तुमसे कोई पर्दा न रखूँगा। लो, सुनो-

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