(Hindi) Durasha

(Hindi) Durasha

[होली का दिन]
(समय-9 बजे रात आनंदमोहन तथा दयाशंकर बातचीत करते जा रहे हैं।)

आनंदमोहन – “हम लोगों को देर तो न हुई। अभी तो नौ बजे होंगे !”

दयाशंकर – “नहीं अभी क्या देर होगी !”

आनंदमोहन – “वहाँ बहुत इंतज़ार न कराना। क्योंकि एक तो दिन भर गली-गली घूमने के बाद मुझमें इंतज़ार करने की ताकत ही नहीं, दूसरे ठीक ग्यारह बजे बोर्डिंग हाउस का दरवाज़ा बंद हो जाता है।”

दयाशंकर – “अजी चलते-चलते थाली सामने आयेगी। मैंने तो सेवती से पहले ही कह दिया है कि नौ बजे तक सामान तैयार रखना।”

आनंदमोहन – “तुम्हारा घर तो अभी दूर है। यहाँ मेरे पैरों में चलने की ताकत ही नहीं। आओ कुछ बातचीत करते चलें। भला यह तो बताओ कि परदे के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? भाभी जी मेरे सामने आयेंगी या नहीं? क्या मैं उनका चहरा देख पाऊंगा? सच कहो।”

दयाशंकर – “तुम्हारे और मेरे बीच में तो भाईचारे का रिश्ता है। अगर सेवती मुँह खोले हुए भी तुम्हारे सामने आ जाय तो मुझे कोई तकलीफ नहीं। लेकिन साधारणतः मैं परदे की प्रथा पर भरोसा करता हूँ और साथ देता हूँ। क्योंकि हम लोगों की सामाजिक नीति इतनी पवित्र नहीं है कि कोई औरत अपनी शर्म-भाव को चोट पहुँचाये बिना अपने घर से बाहर निकले।”

आनंदमोहन – “मेरे ख्याल में तो पर्दा ही गलत हरकतों का मूल कारण है। पर्दे से स्वभावतः आदमियों के मन में उत्सुकता पैदा होती है। और वह भाव कभी तो बातों में दिखता है और कभी तिरछी नजरों में।”

दयाशंकर – “जब तक हम लोग इतने पक्के इरादे वाले  न हो जायँ कि सतीत्व को बचाने के लिए जान दे सकें तब तक परदे की प्रथा को तोड़ना समाज के रास्ते में जहर बोना है।”

आनंदमोहन – “आपके ख्याल से तो यही साबित होता है कि यूरोप में सतीत्व-रक्षा के लिए रात-दिन खून की नदियाँ बहा करती हैं।”

दयाशंकर – “वहाँ इसी बेपर्दगी(बिना पर्दे) ने तो सतीत्व-धर्म को बर्बाद कर दिया है। अभी मैंने किसी अखबार में पढ़ा था कि एक औरत ने किसी आदमी पर इस तरह का मुकदमा किया था कि उसने मुझे बेशर्मी से गलत नजर से घूरा था। लेकिन विचारक ने उस औरत को सर से पैर तक देख कर यह कह कर मुकदमा खारिज कर दिया कि हर इंसान को हक है कि बाजार में नौजवान औरत को घूर कर देखे। मुझे तो यह मुकदमा और यह फैसला पूरी तरह मजाकिया जान पड़ते हैं और किसी भी समाज के लिए शर्मनाक हैं।”

आनंदमोहन – “इस बात को छोड़ो। यह तो बताओ कि इस समय क्या-क्या खिलाओगे दोस्त नहीं तो दोस्त की बात ही हो।”

दयाशंकर – “यह तो सेवती की खाना बनाने की काबिलियत पर निर्भर है। पूरियाँ और कचौरियाँ तो होंगी ही। हो सकता है खूब खरी भी होंगी। जितना हो सके खस्ते और समोसे भी आयेंगे। खीर आदि के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। आलू और गोभी की रसे वाली तरकारी और मटर दालमोट भी मिलेंगे। फीरिनी के लिए भी कह आया था। गूलर के कोफते और आलू के कबाब यह दोनों सेवती खूब पकाती है। इनके सिवा दही-बड़े और चटनी-अचार तो पूछना बेकार ही है। हाँ शायद किशमिश का रायता भी मिले जिसमें केसर की सुगंध उड़ती होगी।”

आनंदमोहन – “दोस्त मेरे मुँह में तो पानी भर आया। तुम्हारी बातों ने तो मेरे पैरों में जान डाल दी। शायद पँख होते तो उड़ कर पहुँच जाता।”

दयाशंकर – “लो अब तो आ ही जाते हैं। यह तम्बाकू वाले की दूकान है इसके बाद चौथा मकान मेरा ही है।”

आनंदमोहन – “मेरे साथ बैठ कर एक ही थाली में खाना। कहीं ऐसा न हो कि ज्यादा खाने के लिए मुझे भाभी जी के सामने शर्मिंदा होना पड़े।”

दयाशंकर – “इससे तुम बेफिक्र रहो। उन्हें कम खाने वाले आदमी से चिढ़ है। वे कहती हैं- “जो खायेगा ही नहीं, दुनिया में काम क्या करेगा? आज शायद तुम्हारी बदौलत मुझे भी काम करने वालों की कतार में जगह मिल जावे। कम से कम कोशिश तो ऐसी ही करना।”

आनंदमोहन – “भाई जितना हो सके कोशिश करूँगा। शायद तुम ही जीत जाओ।”

दयाशंकर – “यह लो आ गये। देखना सीढ़ियों पर अँधेरा है। शायद दीया जलाना भूल गयी।”

आनंदमोहन – “कोई हर्ज नहीं। अंधेरे की दुनिया ही में तो सिकंदर को अमृत मिला था।”

दयाशंकर – “अंतर इतना ही है कि अंधेरे की दुनिया में पैर फिसले तो पानी में गिरोगे और यहाँ फिसला तो पथरीली सड़क पर।”

[ज्योतिस्वरूप आते हैं ]

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ज्योति.- “सेवक भी आ गया। देर तो नहीं हुई? डबल मार्च करता आया हूँ।”

दयाशंकर – “नहीं अभी तो देर नहीं हुई। शायद आपकी खाना खाने की इच्छा आपको समय से पहले खींच लायी।”

आनंदमोहन – “आपका परिचय कराइए। मुझे आपसे देखा-देखी नहीं है।”

दयाशंकर – “(अँगरेजी में) मेरे दूर के रिश्ते में साले होते हैं। एक वकील के मुंशी हैं। जबरदस्ती नाता जोड़ रहे हैं। सेवती ने निमंत्रण दिया होगा मुझे कुछ भी पता नहीं। ये अँगरेजी नहीं जानते।”

आनंदमोहन – “इतना तो अच्छा है। अँगरेजी में ही बात करेंगे।

दयाशंकर – “सारा मजा किरकिरा हो गया। खराब इंसान के साथ बैठ कर खाना, फोड़े के आप्रेशन के बराबर है।”

आनंदमोहन – “किसी उपाय से इन्हें विदा कर देना चाहिए।”

दयाशंकर – “मुझे तो चिंता यह है कि अब दुनिया के कामकाजीयों में हमारी और तुम्हारी गिनती ही न होगी। पाला इसके हाथ रहेगा।”

आनंदमोहन – “खैर ऊपर चलो। मजा तो जब आवे कि इन महाशय को आधे पेट ही उठना पड़े।”

[तीनों आदमी ऊपर जाते हैं ]

दयाशंकर – “अरे !”

कमरे में भी रोशनी नहीं घुप अँधेरा है। लाला ज्योतिस्वरूप- “देखिएगा कहीं ठोकर खा कर न गिर पड़ियेगा।”

आनंदमोहन – “अरे गजब…(अलमारी से टकरा कर धम् से गिर पड़ता है)।”

दयाशंकर – “लाला ज्योतिस्वरूप क्या आप गिरे चोट तो नहीं आयी?”

आनंदमोहन – “अजी मैं गिर पड़ा। कमर टूट गयी। तुमने अच्छी दावत की।”

दयाशंकर – “भले आदमी सैकड़ों बार तो आये हो। मालूम नहीं था कि सामने आलमारी रखी हुई है। क्या ज़्यादा चोट लगी?”

आनंदमोहन – “अंदर जाओ। थालियाँ लाओ और भाभी जी से कह देना कि थोड़ा-सा तेल गर्म कर लें। मालिश कर लूँगा।”

ज्योति.- “महाशय यह आपने क्या रख छोड़ा है। ज़मीन पर गिर पड़ा।”

दयाशंकर – “उगालदान तो नहीं लुढ़का दिया? हाँ, वही तो है। सारा फर्श ख़राब हो गया।”

आ.- “दोस्तों जा कर लालटेन जला लाओ। कहाँ ला कर काल-कोठरी में डाल दिया।”

दयाशंकर – “(घर में जा कर) अरे ! यहाँ भी अँधेरा है !” चिराग तक नहीं। सेवती कहाँ हो?”

सेवती – “बैठी तो हूँ।”

दयाशंकर – “यह बात क्या है चिराग क्यों नहीं जले !” तबीयत तो अच्छी है?”

सेवती – “बहुत अच्छी है। बारे तुम आ तो गये ! मैंने समझा था कि आज आपको देखना ही न होगा।”

दयाशंकर .- “बुखार है क्या? कब से आया है?”

सेवती – “नहीं बुखार वुखार कुछ नहीं, चैन से बैठी हूँ।”

दयाशंकर – “तुम्हारा पुराना वायुगोला(गैस से बना ट्यूमर) तो नहीं उभर आया?”

सेवती – “(ताना मार के) हाँ, वायुगोला(गैस से बना ट्यूमर) ही तो है। लाओ कोई दवा है?”

दयाशंकर – “अभी डाक्टर के यहाँ से मँगवाता हूँ।”

से.- “कुछ मुफ़्त की रकम हाथ आ गयी है क्या? लाओ मुझे दे दो, अच्छी हो जाऊँ।”

दयाशंकर – “तुम तो हँसी कर रही हो। साफ-साफ कोई बात नहीं कहती। क्या मेरे देर से आने की यही सजा है? मैंने नौ बजे आने का वादा किया था। शायद दो-चार मिनट ज्यादा हुए हों। सब चीज़ें तैयार हैं न?”

सेवती – “हाँ बहुत ही खस्ता, भर भर के मक्खन डाला था।”

दयाशंकर – “आनंदमोहन से मैंने तुम्हारी खूब तारीफ की है।”

सेवती – “भगवान ने चाहा तो वे भी तारीफ ही करेंगे। पानी रख आओ हाथ-वाथ तो धोयें।”

दयाशंकर – “चटनियाँ भी बनवा ली हैं न? आनंदमोहन को चटनियाँ बहुत पसंद है।”

सेवती – “खूब चटनी खिलाओ। सेरों बना रखी है।”

दयाशंकर – “पानी में केवड़ा डाल दिया है?”

से.- हाँ, ले जा कर पानी रख आओ। पानी शुरू करें, प्यास लगी होगी।”

आनंदमोहन – “(बाहर से) दोस्त जल्दी आओ। अब इन्तजार करने की ताकत नहीं है।”

दयाशंकर – “जल्दी मचा रहा है। लाओ थालियाँ परसो।”

सेवती – “पहले चटनी और पानी तो रख आओ।”

दयाशंकर – “(रसोई में जा कर) अरे !” यहाँ तो चूल्हा बिलकुल ठंडा पड़ गया है। महरी आज सबेरे ही काम कर गयी क्या?”

सेवती – “हाँ खाना पकने से पहले ही आ गयी थी।”

दयाशंकर – “बर्तन सब मँजे हुए हैं। क्या? कुछ पकाया ही नहीं?”

सेवती – “भूत-प्रेत आ कर खा गये होंगे।”

दयाशंकर – “क्या? चूल्हा ही नहीं जलाया गजब कर दिया।”

सेवती – “गजब मैंने कर दिया या तुमने?”

दयाशंकर – “मैंने तो सब सामान ला कर रख दिया था। तुमसे बार-बार पूछ लिया था कि किसी चीज़ की कमी हो तो बतलाओ। फिर खाना क्यों न पका? क्या अजीब रहस्य है ! भला मैं इन दोनों को क्या मुँह दिखाऊँगा।”

आनंदमोहन – “दोस्त क्या तुम अकेले ही सब सामान चट कर रहे हो? इधर भी लोग उम्मीद लगाये बैठे हैं। इन्तजार दम तोड़ रहा है।”

सेवती – “अगर सब सामान ला कर रख ही देते तो मुझे बनाने में क्या तकलीफ थी?”

दयाशंकर – “अच्छा अगर दो-एक चीजों की कमी ही रह गयी थी, तो इसका क्या मतलब कि चूल्हा ही न जले? यह तो किस दोष का सजा दिया है, आज होली का दिन और यहाँ आग ही न जली?”

सेवती – “जब तक ऐसे चरके न खाओगे तुम्हारी आँखें न खुलेंगी।”

दयाशंकर – “तुम तो पहेलियों से बातें कर रही हो। आखिर किस बात पर नाराज हो? मैंने कौन-सा पाप किया? जब मैं यहाँ से जाने लगा था तुम खुश थीं और इसके पहले भी मैंने तुम्हें दुखी नहीं देखा था। तो मेरी गैरहाजिरी में कौन ऐसी बात हो गयी कि तुम इतनी रूठ गयीं?”

सेवती – “घर में औरतों को कैद करने की यह सजा है।”

दयाशंकर – “अच्छा तो यह इस जुर्म की सजा है। मगर तुमने मुझसे पर्दे की बुराई नहीं की। बल्कि इस बारे पर जब कोई बात छिड़ती थी तो तुम मेरे विचारों से सहमत ही रहती थीं। मुझे आज ही पता चला कि तुम्हें पर्दे से कितनी नफरत है ! क्या दोनों मेहमानों से यह कह दूँ कि पर्दे की तरफदारी की सजा में मेरे यहाँ भूखहड़ताल है, आप लोग ठंडी-ठंडी हवा खायें।”

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