(hindi) Doodh ka Daam
अब बड़े-बड़े शहरों में दाइ, नर्स और लेडी डाक्टर, सभी पैदा हो गयी हैं; लेकिन देहातों में बच्चों की डिलीवरी करवाने के लिए भंगिनें ही हुआ करती थीं और आने वाले समय में इसमें कोई बदलाव होने की आशा नहीं थी। बाबू महेशनाथ अपने गाँव के जमींदार थे, पढ़े-लिखे थे और डिलीवरी की व्यवस्था में सुधार की ज़रुरत को मानते थे, लेकिन इसमें जो बाधाएँ थीं, उन्हें कैसे जीता जाए? कोई नर्स देहात में जाने के लिए राजी न हुई और बहुत कहने-सुनने से राजी भी हुई, तो इतनी लम्बी-चौड़ी फीस माँगी कि बाबू साहब को सिर झुकाकर चले आने के सिवा और कुछ न सूझा।
लेडी डाक्टर के पास जाने की उनकी हिम्मत न पड़ी। उसकी फीस पूरी करने के लिए तो शायद बाबू साहब को अपनी आधी जायदाद बेचनी पड़ती; इसलिए जब तीन लड़कियों के बाद चौथा लड़का पैदा हुआ, तो फिर वही गूदड़ और उसकी पत्नी ही याद आए। बच्चे अक्सर रात को ही पैदा होते हैं। एक दिन आधी रात को चपरासी ने गूदड़ के दरवाज़े पर ऐसी आवाज़ लगायी कि पास-पड़ोस के लोग भी जाग गए । भई लड़की का जन्म तो हुआ नहीं था जो मरी हुई आवाज से पुकारता।
गूदड़ के घर में इस शुभ मौके के लिए महीनों से तैयारी हो रही थी। डर था तो यही कि फिर बेटी न हो जाय, नहीं तो वही बँधा हुआ पांच सौ रूपए और एक साड़ी मिलकर रह जायगी। इस बारे में पति-पत्नी में कितनी ही बार झगड़ा हो चुका था, शर्त लग चुकी थी। पत्नी कहती, ‘अगर अबकी बेटा न हो तो मुँह न दिखाऊँ; हाँ-हाँ, मुँह न दिखाऊँ, सारे लक्षण बेटे के हैं और गूदड़ कहता, ‘देख लेना, बेटी होगी और बीच खेत बेटी होगी। बेटा निकले तो मूँछें मुँड़ा लूँगा, हाँ-हाँ, मूँछें मुड़ा लूँगा।‘ शायद गूदड़ समझता था कि इस तरह अपनी पत्नी में बेटे की कामना को मज़बूत करके बेटे के आने के लिए रास्ता साफ कर रहा है।
भूंगी बोली, ‘अब मूँछ मुँड़ा ले दाढ़ीदार ! कहती थी ना, बेटा होगा मगर सुनता ही न था। अपनी ही रट लगाये जाता था। मैं आज तेरी मूँछें मूँङूँगी।‘
गूदड़ ने कहा, ‘अच्छा मूँड लेना भलीमानस ! मूँछें क्या फिर निकलेंगी ही नहीं ? तीसरे दिन देख लेना, फिर जैसी-की-तैसी होंगी, मगर जो कुछ मिलेगा, उसमें आधा मैं रख लूँगा, कहे देता हूँ”।
भूँगी ने अँगूठा दिखाया और अपने तीन महीने के बच्चे को गूदड़ के हवाले कर चपरासी के साथ चल पड़ी।
गूदड़ ने पुकारा, ‘अरी ! सुन तो, कहाँ भागी जाती है ? मुझे भी बधाई बजाने जाना पड़ेगा। इसे कौन सँभालेगा ?’
भूँगी ने दूर ही से कहा, ‘इसे वहीं ज़मीन पर सुला देना। मैं आकर दूध पिला दूँगी।‘
महेशनाथ के यहाँ अब भूँगी की खूब ख़ातिरदारी होने लगीं। सुबह हरीरा मिलता, दोपहर को पूरियाँ और हलवा, शाम और रात को गूदड़ को भी भरपूर खाना मिलता था। भूँगी अपने बच्चे को दिन-रात में एक-दो बार से ज्यादा दूध न पिला सकती थी। उसके लिए ऊपर के दूध का बंदोबस्त किया गया था। भूँगी का दूध बाबू साहब का भाग्यवान् बच्चा पीता था और यह सिलसिला बारहवें दिन भी बन्द न हुआ। मालकिन मोटी-ताजी देवी थी; पर अबकी बार कुछ ऐसा संयोग हुआ कि उन्हें दूध हुआ ही नहीं। तीनों लड़कियों की बार इतना दूध होता था कि लड़कियों को बदहजमी हो जाती थी। अब की एक बूँद नहीं हुआ।
इसलिए भूँगी दाई भी थी और दूध पिलाने वाली माँ भी। मालकिन कहतीं ‘भूँगी, हमारे बच्चे को पाल दे, फिर जब तक तू जिये, बैठकर खाती रहना। पाँच बीघे ज़मीन की माफी दिलवा दूंगी। नाती-पोते तक चैन करेंगे” और भूँगी का लाड़ला ऊपर का दूध हजम न कर सकने के कारण बार-बार उलटी करता और दिन-ब-दिन दुबला होता जा रहा था।
भूँगी कहती, ‘बहूजी, मूँड़न में चूड़े लूँगी, कहे देती हूँ।‘
बहूजी, जवाब देतीं, ‘हाँ हाँ, चूड़े लेना भाई, धमकाती क्यों है ? चाँदी के लेगी या सोने के।‘
'वाह बहूजी! चाँदी के चूड़े पहन के किसे मुँह दिखाऊँगी, क्या हंसी नहीं उड़ेगी?'
'अच्छा, सोने के लेना भाई, कह तो दिया।'
'और शादी में गले की माला लूंगी और चौधरी (गूदड़) के लिए हाथों के कड़े।'
'वह भी लेना, भगवान् वह दिन तो दिखाए।'
घर में मालकिन के बाद भूँगी का राज चलता था। महराज, नौकर- चाकर सब उसका रोब मानते थे। यहाँ तक कि खुद बहूजी भी उससे दब जाती थीं। एक बार तो उसने महेशनाथ को भी डाँटा था। लेकिन वो हँसकर टाल गये। बात चली थी भंगियों की। महेशनाथ ने कहा था, “दुनिया में और चाहे जो कुछ हो जाय, भंगी तो भंगी ही रहेंगे। इन्हें आदमी बनाना मुश्किल है”। इस पर भूँगी ने कहा था,” मालिक, भंगी तो बड़ों-बड़ों को आदमी बनाते हैं, उन्हें कोई क्या आदमी बनाएगा”। यह गुस्ताखी करके किसी दूसरे मौके पर भला भूँगी क्या बच सकती थी ? लेकिन आज बाबू साहब ठठाकर हँसे और बोले, “भूँगी बात बड़े पते की कहती है”।
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भूँगी का राज साल-भर से ज़्यादा न चल सका। देवताओं ने बच्चे को भंगिन का दूध पिलाने पर आपत्ति की, मोटेराम शास्त्री तो प्रायश्चित्त करने के लिए कहने लगे । बच्चे का दूध तो छुड़ा दिया गया; लेकिन प्रायश्चित्त की बात हँसी में उड़ गयी। महेशनाथ ने फटकारकर कहा, ‘प्रायश्चित्त की खूब कही शास्त्रीजी, कल तक उसी भंगिन का खून पीकर पला, अब उसमें छूत घुस गयी। वाह रे आपका धर्म”। शास्त्रीजी अपने सिर की चोटी यानी शिखा फटकारकर बोले “यह सच है, वह कल तक भंगिन का खून पीकर पला। मांस खाकर पला, यह भी सच है; लेकिन कल की बात कल थी, आज की बात आज। जगन्नाथपुरी में छूत-अछूत सब एक लाइन में खाते हैं; पर यहाँ तो नहीं खा सकते। बीमारी में तो हम भी कपड़े पहने खा लेते हैं, खिचड़ी तक खा लेते हैं बाबूजी; लेकिन ठीक हो जाने पर तो नियम का पालन करना ही पड़ता है। मुश्किल के वक़्त की बात अलग है”।
‘'तो इसका यह मतलब है कि धर्म बदलता रहता है क़भी कुछ, कभी कुछ ?'
'और क्या ! राजा का धर्म अलग, प्रजा का धर्म अलग, अमीर का धर्म अलग, गरीब का धर्म अलग, राजा-महाराजा जो चाहें खायँ, जिसके साथ चाहें खायँ, जिसके साथ चाहें शादी करें, उनके लिए कोई बन्धन नहीं है। पैसे वाले लोग हैं। बन्धन तो बीच वालों यानी मिडिल क्लास के लिए है।'
प्रायश्चित्त तो न हुआ; लेकिन भूँगी को गद्दी से उतरना पड़ा ! हाँ, दान-दक्षिणा इतनी मिली की वह अकेले ले न जा सकी और सोने के चूड़े भी मिले। एक की जगह दो नयी, सुन्दर साड़ियाँ मामूली नहीं, जैसी लड़कियों के समय मिली थीं।
उसी साल प्लेग ने महामारी का रूप लिया. गूदड़ उसकी चपेट में आ गया और चल बसा । अब भूँगी अकेली रह गयी; पर घर-बार वैसे का वैसा चलता रहा। लोग ताक लगाये बैठे थे कि भूँगी अब गयी। फलां भंगी से बातचीत हुई, फलां चौधरी आये, लेकिन भूँगी न कहीं आयी, न कहीं गयी, यहाँ तक कि पाँच साल बीत गये और उसका बच्चा मंगल, कमज़ोर और हमेशा बीमार रहने पर भी, दौड़ने लगा। बाबू साहब के बेटे सुरेश के सामने वो पिद्दी-सा लगता था, दुबला पतला और कमज़ोर।
एक दिन भूँगी महेशनाथ के घर का नाला साफ कर रही थी। वहाँ महीनों से गंदगी जमा हो रही थी जिससे आँगन में पानी भरा रहने लगा था। वो नाले में एक लम्बा मोटा बाँस डालकर जोर से हिला रही थी। उसका पूरा दाहिना हाथ नाले के अन्दर था कि अचानक उसने चिल्लाकर हाथ बाहर निकाला और उसी वक्त एक काला साँप नाले से निकलकर भागा। लोगों ने दौड़कर उसे मार तो डाला; लेकिन भूँगी को न बचा सके। वो समझे, पानी का साँप है, ज़हरीला नहीं होगा, इसलिए लापरवाही की गयी। जब ज़हर शरीर में फैल गया और लहरें आने लगीं, तब पता चला कि वह पानी का साँप नहीं, ज़हरीला सांप था।
मंगल अब अनाथ था। वो दिन-भर महेशबाबू के दरवाज़े पर मँडराया करता। घर में इतना जूठा खाना बचता था कि ऐसे दस-पाँच बच्चे पल सकते थे। खाने की कोई कमी न थी। हाँ, उसे तब बुरा जरूर लगता था, जब उसे मिट्टी के बर्तनों में ऊपर से खाना दिया जाता था। सब लोग अच्छे-अच्छे बरतनों में खाते थे और उसके लिए मिट्टी के बर्तन ! वैसे तो उसे इस भेदभाव का बिलकुल ज्ञान न था, लेकिन गाँव के लड़के चिढ़ा-चिढ़ाकर उसका अपमान करते रहते थे। कोई उसे अपने साथ खेलने भी नहीं देता था।
यहाँ तक कि जिस बिस्तर पर वह सोता था, वह भी अछूत था। मकान के सामने एक नीम का पेड़ था। इसी के नीचे मंगल का डेरा था। एक फटा-सा बिस्तर का टुकड़ा, दो मिट्टी के बर्तन और एक धोती, जो सुरेश बाबू की उतरन थी. ठंड, गरमी, बरसात हरेक मौसम में वह जगह एक जैसी रहती और भाग्य का बली मंगल झुलसती हुई लू, कंपकपाने वाली सर्दी और तेज़ बारिश में भी जिन्दा और पहले से कहीं स्वस्थ था। बस, उसका कोई अपना था, तो गाँव का एक कुत्ता, जो दूसरे कुत्तों के जुल्म से दुखी होकर मंगल की शरण में आ गया था। दोनों एक ही खाना खाते, एक ही बिस्तर पर सोते, तबियत भी दोनों की एक-सी थी और दोनों एक-दूसरे के स्वभाव को जान गये थे। उनके बीच आपस में कभी झगड़ा न होता।
गाँव के धार्मात्मा लोग बाबूसाहब की इस उदारता पर आश्चर्य करते। ठीक दरवाज़े के सामने पचास हाथ भी न होगा मंगल का पड़ा रहना उन्हें सोलह आने धर्म के खिलाफ़ लगता था। छि: ! यही हाल रहा, तो थोड़े ही दिनों में धर्म का अन्त ही समझो। भंगी को भी भगवान् ने ही रचा है, यह हम भी जानते हैं। उसके साथ हमें किसी तरह का अन्याय न करना चाहिए, यह किसे नहीं मालूम ? भगवान् का तो नाम ही पतित-पावन है यानी हर एक को पवित्र करने वाला, हर एक का उद्धार करने वाला ; लेकिन समाज की मर्यादा भी कोई चीज़ है ! उस दरवाज़े पर जाते हुए हिचकिचाहट होती है। अब गाँव के मालिक हैं, जाना तो पड़ता ही है; लेकिन बस यही समझ लो कि घृणा होती है।