(hindi) Do Kabrein

(hindi) Do Kabrein

अब न वह जवानी है, न वह नशा, न वह पागलपन। वह महफिल उठ गई, वह दिया बुझ गया, जिससे महफिल की रोशनी थी। वह प्यार की मूर्ति अब नहीं रही। हाँ, उसके प्यार का असर अब भी दिल पर है और उसकी कभी न मिटने वाली यादें आँखों के सामने । बहादुर औरतों में ऐसी वफा, ऐसा प्यार, ऐसा व्रत होना साधारण नहीं है, और अमीरों में ऐसी शादी, ऐसा समर्पण, ऐसी भक्ति और भी अनदेखा है। कुँवर रनवीरसिंह रोज बिना रुके शाम के समय जुहरा की कब्र  देखने जाते, उसे फूलों से सजाते, आँसुओं से सींचते।

15 साल बीत गये, एक दिन भी ऐसा नहीं हुआ कि  वो न गए हों। प्यार की भक्ति ही उनके जीने की वजह थी, उस प्यार का जिसमें उन्होंने जो कुछ देखा वही पाया और जो कुछ महसूस किया, उसी की याद अब भी उन्हें खुश कर देती है। इस भक्ति में सुलोचना भी उनके साथ होती, जो जुहरा की देन और कुँवर साहब की सारी इच्छाओं का केन्द्र थी।

कुँवर साहब ने दो शादियाँ की थीं, पर दोनों बीवियों में से एक के भी बच्चे नहीं थे। कुँवर साहब ने फिर शादी न की । एक दिन एक महफिल में उन्हें जुहरा दिखी। उस निराश पति और उदास लड़की की आपस में ऐसी बनती थी, मानो पुराने बिछड़े हुए दो साथी फिर मिल गये हों।

जीवन का अच्छा समय प्यार और खुशियों से भरा हुआ आया मगर अफसोस ! पाँच साल के कम समय में वो भी खत्म हो गया। वह खुशियों से भरा सपना, जागने पर निराशा में खो गया। वह सेवा और व्रत की देवी तीन साल की सुलोचना को उनकी गोद में देकर हमेशा के लिए चली गई। कुँवर साहब ने अपने प्यार के द्वारा दिए गए हुक्म को इतनी खुशी से निभाया कि देखने वालों को आश्चर्य होता था। कितने ही तो उन्हें पागल समझते थे।

जब सुलोचना सोती वो सोते, जब वह जागती तब जागते, उसे खुद पढ़ाते, उसके साथ सैर करते इतने ध्यान से, जैसे कोई विधवा अपने अनाथ बच्चे को पालती है।

जब से वह यूनिवर्सिटी गई, उसे खुद गाड़ी से छोड़ने और लेने जाते। वह उसके माथे पर से वह दाग धो डालना चाहते थे, जो मानो भगवान ने कठोर हाथों से लगा दिया था। पैसा तो उसे न धो सका, शायद पढ़ाई धो डाले। एक दिन शाम को कुँवर साहब जुहरा की कब्र को फूलों से सजा रहे थे और सुलोचना कुछ दूर पर खड़ी अपने कुत्ते को गेंद खिला रही थी कि अचानक उसने अपने कॉलेज के प्रोफेसर डाक्टर रामेन्द्र को आते देखा। उसने शर्माकर मुँह फेर लिया, मानो उन्हें देखा ही ना हो। उसे लगा कि कहीं रामेन्द्र इस कब्र के बारे में कुछ पूछ न लें।

यूनिवर्सिटी में दाखिल हुए उसे एक साल हुआ था। इस एक साल में उसने कई तरह के प्यार देख लिए थे। कहीं मस्ती थी, कहीं मजाक था, कहीं बुराई थी, कहीं इच्छा थी, कहीं आजादी थी, लेकिन कहीं वह अच्छी भावनाएँ न थी, जो प्यार का जड़ है। सिर्फ रामेन्द्र ही एक ऐसे सज्जन थे, जिन्हें अपनी ओर ताकते देखकर उसके दिल में कुछ होने लगता था; पर उनकी आँखों में कितनी मजबूरी, कितनी हार, कितना दर्द छिपा होता था ! रामेन्द्र ने कुँवर साहब की ओर देखकर कहा, ‘तुम्हारे बाबा इस कब्र पर क्या कर रहे हैं?’

सुलोचना का चेहरा कानों तक लाल हो गया। बोली, ‘यह इनकी पुरानी आदत है।’
रामेन्द्र –‘क़िसी महान इंसान की समाधि है?’
सुलोचना इस सवाल का जवाब नहीं देना चाहती थी। रामेन्द्र यह तो जानते थे कि सुलोचना कुँवर साहब की नाजायज बेटी है; पर उन्हें यह न मालूम था कि यह उसकी माँ की कब्र है और कुँवर साहब अब भी उससे इतना प्यार करते हैं। मगर यह सवाल उन्होंने बहुत धीमी आवाज में न किया था। कुँवर साहब जूते पहन रहे थे। यह सवाल उनके कान में पड़ गया। उन्होंने जल्दी से जूता पहन लिया और पास जाकर बोले –‘दुनिया की आँखों में तो वह महान न थी; पर मेरी आँखों में थी और है। यह मेरे प्यार की समाधि है।’

सुलोचना की इच्छा हो रही थी कि यहाँ से भाग जाऊँ; लेकिन कुँवर साहब को जुहरा की तारीफ करने में दिली सुख मिलता था। रामेन्द्र का आश्चर्य देखकर वो बोले ‘इसमें वह देवी सो रही है, जिसने मेरे जीवन को स्वर्ग बना दिया था। यह सुलोचना उसी की देन है।’

रामेन्द्र ने कब्र की तरफ देखकर आश्चर्य से कहा, ‘अच्छा !’
कुँवर साहब ने मन ही मन मे उस प्यार के लिए खुश होते हुए कहा, ‘वह जीवन ही कुछ और था, प्रोफेसर साहब। ऐसी तप मैंने और कहीं नहीं देखी। आपको फुरसत हो, तो मेरे साथ चलिए। आपको उन यादों …

सुलोचना बोल उठी, ‘वे सुनाने की चीज नहीं हैं, दादा !’
कुँवर –‘मैं रामेन्द्र बाबू को पराया नहीं समझता।’
रामेन्द्र को प्यार का यह अनोखा रूप खजाने सा लगा । वह कुँवर साहब के साथ ही उनके घर आये और कई घंटे तक उन इच्छाओं में डूबी हुई प्यार की यादों को सुनते रहे। जो चीज माँगने के लिए उन्हें साल भर से हिम्मत न होती थी, सोच में पड़कर रह जाते थे, वह आज उन्होंने माँग लिया।

लेकिन शादी के बाद रामेन्द्र को नया एहसास हुआ। औरतों का उनके घर आना-जाना प्राय: बंद हो गया। इसके साथ ही दोस्तों का आना जाना बढ़ गया। दिन भर उनका सिलसिला लगा रहता था। सुलोचना उनकी खातिरदारी में लगी रहती। पहले एक-दो महीने तक तो रामेन्द्र ने इधर ध्यान नहीं दिया; लेकिन जब कई महीने गुजर गये और फिर भी औरतों ने आना शुरू नहीं किया तो उन्होंने एक दिन सुलोचना से कहा, ‘यह लोग आजकल अकेले ही आते हैं !’

सुलोचना ने धीरे से कहा, ‘हाँ, देखती तो हूँ।’
रामेन्द्र –‘इनकी औरतें तुमसे तो नहीं बचतीं?’
सुलोचना –‘शायद बचतीं हों।’
रामेन्द्र –‘मगर वे लोग तो आजाद ख्याल के हैं। इनकी औरतें भी पढ़ी लिखी हैं, फिर यह क्या बात है ?’

सुलोचना ने दबी जबान से कहा, ‘मेरी समझ में कुछ नहीं आता।’
रामेन्द्र ने कुछ देर सोच कर कहा, ‘हम लोग किसी दूसरी जगह चले जायँ, तो क्या फर्क पड़ता है? वहाँ तो कोई हमें न जानता होगा।’

सुलोचना ने इस बार तेज आवाज में कहा, ‘दूसरी जगह क्यों जायें। हमने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है, किसी से कुछ माँगते नहीं। जिसे आना हो आये, न आना हो न आये। मुँह क्यों छिपायें।’

धीरे-धीरे रामेन्द्र को एक और बात समझ आने लगी, जो औरतों के व्यवहार से कहीं ज़्यादा  शर्मनाक और बेइज्जत करने वाली थी । रामेन्द्र को अब पता चलने लगा कि ये लोग जो आते हैं और घंटों बैठे सामाजिक और राजनीतिक सवालों पर बहस किया करते हैं, असल में बातचीत करने के लिए नहीं बल्कि सुलोचना को देखने के लिए आते हैं। उनकी आँखें सुलोचना को खोजती रहती हैं।

उनके कान उसी की बातों की ओर लगे रहते हैं। उसकी सुंदरता का मजा उठाना ही उनका असली मकसद है। यहाँ उन्हें वह हिचक नहीं होती, जो किसी भले आदमी की बहू-बेटी की ओर आँख उठाने से होती है। शायद वे सोचते हैं, यहाँ उन्हें कोई रोक-टोक नहीं है।

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कभी-कभी जब रामेन्द्र के न रहने पर कोई आ जाते, तो सुलोचना को बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ता। अपनी नजरों से, अपने गंदे इशारों से, अपनी दोहरी बातों से, अपनी लम्बी साँसों से उसे दिखाना चाहते थे, कि हम भी तुम्हारी दया के भिखारी हैं। अगर रामेन्द्र का तुम पर पूरा हक है, तो थोड़ा हक हमारा भी हैं। सुलोचना उस समय जहर का घूँट पीकर रह जाती।

अब तक रामेन्द्र और सुलोचना दोनों क्लब जाया करते थे। वहाँ अच्छे लोगों का भीड़ रहती थी। जब तक रामेन्द्र को किसी की ओर शक न था, वह उसे जोर करके अपने साथ ले जाते थे। सुलोचना के पहुँचते ही वहाँ  एक हड़बड़ी मच जाती थी। जिस मेज पर सुलोचना बैठती, उसे लोग घेर लेते थे। कभी-कभी सुलोचना गाती थी। उस समय सब-के-सब मदहोश हो जाते।

क्लब में औरतें ज्यादा न थी। मुश्किल से पाँच-छ: औरतें आती थीं; मगर वे भी सुलोचना से दूर-दूर रहती थीं, बल्कि अपनी बातों और इशारों से वे उसे बताना चाहती थीं कि तुम आदमियों का दिल खुश करो, हम अच्छे घर की बहुओं के पास तुम नहीं आ सकतीं। लेकिन जब रामेन्द्र के सामने यह कड़वा सच आया, तो उन्होंने क्लब जाना छोड़ दिया, दोस्तों के यहाँ आना-जाना भी कम कर दिया और अपने यहाँ आने वालों की भी बेइज्जती करने लगे। वह चाहते थे कि मेरे अकेलेपन मे कोई खलल न डाले। आखिर उन्होंने बाहर आना-जाना छोड़ दिया।

अपने चारों ओर धोखेधड़ी का जाल-सा बिछा हुआ लगता था, किसी पर भरोसा न कर सकते थे, किसी से अच्छाई की उम्मीद नहीं। सोचते ऐसे चालाक, धोखा देनेवाले, दोस्ती के नाम पर गला काटनेवाले आदमियों से मिलें ही क्यों?

वे स्वभाव से मिलनसार आदमी थे। दोस्तों के बीच रहने वाले। यह अकेलापन जहाँ किसी से मिलना जुलना न था, न मजाक, न कोई चहल-पहल, उनके लिए जेल से कम न था। हालांकि सुलोचना से हंसी मजाक करते रहते थे; लेकिन सुलोचना की तेज और शक भरी आँखों से अब यह बात छिपी न थी कि यह हालात इनसे सहे नहीं जा रहे। वह दिल में सोचती इनकी यह हालत मेरे ही कारण तो है, मैं ही तो इनके जीवन का काँटा हो गई हूँ !

एक दिन उसने रामेन्द्र से कहा, ‘आजकल क्लब क्यों नहीं चलते? कई हफ्ते हुए घर से निकलते तक नहीं।’
रामेन्द्र ने बेदिली से कहा, ‘मेरा जी कहीं जाने को नहीं चाहता। अपना घर सबसे अच्छा है।’

सुलोचना—‘ज़ी तो ऊबता ही होगा। मेरे कारण यह परेशानी क्यों झेल रहे हो ? मैं तो न जाऊँगी। उन औरतों से मुझे नफरत होती है। उनमें एक भी ऐसी नहीं, जिसके दामन पर काले दाग न हों; लेकिन सब सीता बनी फिरती हैं। मुझे तो उनके चेहरे से चिढ़ हो गई है। मगर तुम क्यों नहीं जाते ? कुछ दिल ही बहल जायगा।’

रामेन्द्र –‘दिल नहीं पत्थर बहलेगा। जब अन्दर आग लगी हुई हो, तो बाहर शांति कहाँ ?’
सुलोचना चौंक पड़ी। आज पहली बार उसने रामेन्द्र के मुँह से ऐसी बात सुनी थी । वह अपने को ही  अलग किया हुआ समझती थी। अपनी बेइज्जती जो कुछ थी, उसकी थी। रामेन्द्र के लिए तो अब भी सब दरवाजे खुले हुए थे। वह जहाँ चाहें जा सकते हैं,

जिनसे चाहें मिल सकते हैं, उनके लिए कौन-सी रुकावट है। लेकिन नहीं, अगर उन्होंने किसी अच्छे घर की औरत से शादी की होती, तो उनकी यह हालत क्यों होती ? ऊँचे घरानों की औरतें आतीं, आपस में दोस्ती बढ़ती, जीवन सुख से कटता; सब के साथ अच्छा लगता। अब तो सबकी आँखों में चुभता है। मैंने आकर सारे तालाब को गंदा कर दिया। उसके चहरे पर उदासी छा गई। रामेन्द्र को भी तुरन्त मालूम हो गया कि उनकी जबान से एक ऐसी बात निकल गई जिसके दो मतलब हो सकते हैं।

उन्होंने फौरन बात बनाई –‘क्या तुम समझती हो कि हम और तुम अलग-अलग हैं। हमारा और तुम्हारा जीवन एक है। जहाँ तुम्हारा मान नहीं वहाँ मैं कैसे जा सकता हूँ। फिर मुझे भी समाज के इन दोहरे लोगों से नफरत हो रही है। मैं इन सबों की सच्चाई जानता हूँ। ओहदे या पैसे से किसी के पाप धुल नहीं जाते। जो ये लोग करते हैं, वह अगर कोई नीचे ओहदे का आदमी करता, उसे कहीं मुँह दिखाने की हिम्मत न होती। मगर यह लोग अपनी सारी बुराइयाँ दयालुता के पीछे छिपाते हैं। इन लोगों से दूर रहना ही अच्छा।’

सुलोचना का मन शांत हो गया।

दूसरे साल सुलोचना की एक सुंदर सी बेटी हुई। उसका नाम रखा गया शोभा। कुँवर साहब का शरीर इन दिनों कुछ अच्छा न था। मंसूरी गये थे। यह खबर पाते ही रामेन्द्र को तार दिया कि माँ और बेटी को लेकर यहाँ आ जाओ। लेकिन रामेन्द्र इस मौके पर न जाना चाहते थे। अपने दोस्तों की अच्छाई और दयालुता की आखिरी परीक्षा लेने का इससे अच्छा और कौन-सा मौका हो सकता था। सलाह हुई, एक शानदार दावत दी जाय। प्रोग्राम में संगीत भी शामिल था।

कई अच्छे-अच्छे गाने वाले बुलाये गये। अँग्रेजी, हिन्दुस्तानी, मुसलमानी सभी प्रकार के खानों का इंतजाम किया गया। कुँवर साहब जैसे तैसे मंसूरी से आये। उसी दिन दावत थी। तय समय पर बुलाए गए लोग एक-एक करके आने लगे। कुँवर साहब खुद उनका स्वागत कर रहे थे। खाँ साहब आये, मिर्जा साहब आये, मीर साहब आये; मगर पंडितजी, बाबूजी, लाला साहब, चौधरी साहब ,कक्कड़, मेहरा और चोपड़ा, कौल और हुक्कू, श्रीवास्तव और खरे किसी का पता न था।

यह सभी लोग होटलों में सब कुछ खाते थे, अंडे और शराब उड़ाते थे इस बारे में किसी तरह की सोचते या चिंता न करते थे। फिर आज क्यों नहीं आए? इसलिए नहीं कि छूत-छात की सोच रहे थे; बल्कि इसलिए कि वह खुद को यहाँ होने का मतलब, इस शादी के लिए हामी भरना समझते थे और हामी भरने की उनकी इच्छा न थी।
दस बजे रात तक कुँवर साहब दरवाज़े पर खड़े रहे। जब उस समय तक कोई न आया, तो कुँवर साहब ने आकर रामेन्द्र से कहा, ‘अब लोगों का इन्तजार करना बेकार है। मुसलमानों को खिला दो और बाकी सामान गरीबों को दिला दो।’ रामेन्द्र एक कुर्सी पर बेवकूफ की तरह बैठे हुए थे।

दुखी आवाज में बोले, ‘ज़ी हाँ, यही तो मैं सोच रहा हूँ।’
कुँवर –‘मैंने तो पहले ही समझ लिया था। हमारी बेइज्जती नहीं हुई। खुद उन लोगों की सच्चाई बाहर आ गई।’

रामेन्द्र –‘ख़ैर, परीक्षा तो हो गई। कहिए तो अभी जाकर एक-एक की खबर लूँ।’
कुँवर साहब ने आश्चर्य से कहा, ‘क्या उनके घर जाकर ?’
रामेन्द्र –‘ज़ी हाँ। पूछूँ कि आप लोग जो समाज-सुधार की बातें करते फिरते हैं, वह किस दम पर?’

कुँवर –‘बेकार है। जाकर आराम से लेटो। अच्छाई और बुराई की सबसे बड़ी पहचान अपना दिल है। अगर हमारा दिल गवाही दे कि यह काम बुरा नहीं तो फिर सारी दुनिया मुँह फेर ले, हमें किसी की परवाह न करनी चाहिए।’

रामेन्द्र –‘लेकिन मैं इन लोगों को यों न छोडूँगा एक-एक की पोल न खोल दी तो नाम नहीं।

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