(hindi) BRAND SENSE- Build Powerful Brands Through Touch, Taste, Smell, Sight, And Sound
इंट्रोडक्शन
क्या आपको लगता है कि ये सिर्फ़ एक इत्तेफाक है कि कुछ brand दूसरों से ज़्यादा हिट होते है?
क्या आपने इस बात पर गौर किया है कि आपकी लाख कोशिशों के बावजूद आपका मार्केटिंग कैंपेन उतना असरदार नहीं है जितना होना चाहिए था ?
क्या आप भी ये चाहते है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग आपके ब्रैंड के बारे में जाने, उसे नोटिस करे?
इस किताब में आप सीखेंगे कि पिछले कुछ दशकों में ब्रांडिंग की दुनिया में काफी सारे बदलाव आये है.
आप ये भी पढ़ोगे कि मार्केटिंग के लिए बेहद जरूरी है कि सिर्फ़ आँखों या कानों तक पहुँचने वाली चीज़ से ऊपर उठे.
आप इस किताब में भी पढ़ोगे कि कैसे अपने ब्रैंड के हर छोटे-बड़े हिस्सों पर अलग-अलग नजर डालते हुए उसे एक ऑब्जेक्टिव की तरह लिया जाए.
इस किताब में आप पढ़ेंगे कि आने वाले वक्त में brand का फ्यूचर क्या होगा.
आप सीखोगे कैसे एक सेंसरी ब्रैंड क्रिएट किया जाता है जो ज़्यादा से ज़्यादा कंज्यूमर्स की नजरों में आये.
इस किताब से आपको कुछ ऐसी इम्पोर्टेंट टीचिंग यानी सीख मिलेगी जो दुनिया के सभी बड़े धर्म हमें सिखाते है.
तो क्या आप तैयार है अपने ब्रैंड को अपनी तरक्की का जरिया बनाने के लिए?
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A Cottage Industry Turns Professional
आज की दुनिया में जहाँ ज़बरदस्त कॉम्पटीशन है, वहां सक्सेसफुल मार्केटिंग कैंपेन और यूनिक branding मिलकर तय कर सकते है कि प्रॉडक्ट सक्सेसफुल रहेगा या फेल. लेकिन आज की इस भाग-दौड़ भरी दुनिया में जहाँ हमारे आस-पास रोज़ ही कुछ ना कुछ नया होता है वहां ये बड़े अफोसस की बात है कि कुछ मार्केटिंग कैंपेन्स लोगों की नजरों से बड़ी जल्दी उतर जाते है. अगर आपका मार्केटिंग कैम्पन ने कंज्यूमर्स का ध्यान आकर्षित करने में नाकामयाब रहा तो इसका सीधा मतलब है कि आपने एक मौक़ा गँवा दिया क्योंकि branding का मेन गोल ही प्रॉडक्ट को सक्सेसफुल बनाना है.
कुल मिलाकर ब्रैंड बिल्डिंग एक टू-सेंसरी अफेयर रही है, जो मेनली या तो साईट ( जैसे मैगजीन में एडवरटाईजिंग) या साउंड (जैसे रेडियो पर एडवरटाईजिंग) पर या फिर दोनों (जैसे टीवी पर एडवरटाईजिंग) पर फोकस करती है.
Brandऔर branding भी कई स्टेज के साथ ईवोल्व हुई है, जो साल 1950 में ” यूनिक सेलिंग प्रोपोजीशन” यानी USP से शुरू हुई थी जब सिर्फ़ एक ख़ास टाइप का प्रॉडक्ट ही available हुआ करता था और हर प्रॉडक्ट अपने आप में अलग हुआ करता था.
फिर इसके बाद 1960 के दौर में आया” ईमोशनल सेलिंग प्रोपोजीशन” यानी ESP, जहाँ लोग ईमोशनल रीस्पोंस की वजह से मिलते-जुलते प्रोडक्ट्स के बीच कोई एक प्रॉडक्ट अपनी पसंद का चुनते थे. इसका एक बढिया एक्जाम्पल है कोक और पेप्सी. यहाँ तक कि आज भी कई लोग कोला की एक कैन के बजाए सिर्फ़ नाम के दीवाने है.
1980 में “ऑर्गेनाईजेशनल सेलिंग प्रोपोजीशन” यानी OSP का दौर आया जहाँ ब्रैंड के पीछे जो ऑर्गेनाईजेशन या कंपनी होती थी, वो खुद ब्रैंड बन जाया करती थी. इसका एक एक्जाम्पल है नाइकी , एक ऐसी कंपनी जिसके एम्प्लोईज़ अपने ब्रैंड के साथ इतने इन्वोल्व हो गए कि उनमे से हर एक एम्प्लोई जब खुद ब्रैंड पहन कर काम पर जाता था तो वो एक तरह से कंपनी का ब्रैंड एम्बेसडर ही लगता था.
फिर 1990 के टाइम पर” ब्रैंड सेलिंग प्रोपोजीशन” यानी बीएसपी का ट्रेंड चल पड़ा था. इसमें brand खुद प्रोडक्ट्स से ज़्यादा स्ट्रोंग और इफेक्टिव होते है और प्रॉडक्ट एक्सटेंशन्स खुद ओरिजिनल प्रॉडक्ट से ज़्यादा प्रॉफिटेबल साबित होता है. इसके कुछ एक्जाम्पल है पोकेमोन, हैरी पॉटर और डिज्नी जैसे ब्रांड्स. आपने देखा होगा इन brand के कई सारे गेम्स, बाथ प्रोडक्ट्स, बेडिंग वगैरह मार्केट में आते है. कई कंज्यूमर्स ओरिजिनल स्टोरीज़ से ज़्यादा ब्रैंड और ब्रांडेड प्रोडक्ट्स को ज़्यादा अहमियत देते है.
1990 खत्म होते-होते ” मी सेलिंग प्रोपोजीशन” यानी एमएसपी का दौर आ गया था. इस वक्त तक कई नई टेक्नोलोजीज़ आ चुकी थी जिसकी वजह से छोटी क्वांटीटीज़ में प्रोडक्ट्स बनाकर बेचना और प्रॉफिट कमाना और भी आसान हो गया था. इसलिए कंज्यूमर्स अब अपने brand की ओनरशिप ले सकते थे. इसे हम कुछ बड़ी कंपनीज़ के जैसे लेवी और नाइकी के एक्जाम्पल से समझ सकते है, जो अपने वेबसाईट के जरिये प्रोडक्ट्स को कस्टमाईज़ करके बेच सकती थी.
और इससे हम आज की और फ्यूचर की branding ट्रेंड तक पहुँच चुके है जिसे कहते है” होलिस्टिक सेलिंग प्रोपोजीशन” जिसे HSP बोलते है. आज की इस बदलती दुनिया में जहाँ लोग ऑथेंटिक एक्सपिरिएंस की तलाश में है, brand ऐसे होने चाहिए जो उनकी ज़रूरतें पूरी कर सके यानी लोग जो चाहते है, brand उन्हें प्रोवाइड कर सके. एचएसपी brand सेन्सरी ब्राडिंग का फायदा उठाते हुए ट्रेडिशन पर बेस्ड होते है और साथ ही इनमे रिलीजियस ट्रेट्स भी होते है.
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Some Companies Are Doing It Right
आज की इस दुनिया में जहाँ एक चीज़ पर ज़्यादा वक्त तक फोकस रखना मुश्किल है, वहां branding कैम्पेन हर साल एडवरटाईजिंग में ज़्यादा से ज़्यादा पैसा खर्च कर रही है, लेकिन इसके बावजूद ज़्यादा कन्यूमर्स को अपनी तरफ खींच नहीं पाती. तो क्या अब लोग सेम चीज़े देख-देख कर और सुन-सुनकर इतने बोर हो चुके है कि उन्हें अब कुछ फर्क ही नहीं पड़ता?
इन्सान के पास पांच इन्द्रियां होती है जिन्हें फाइव सेंसेस भी कहा जाता है, यानी देखने और सुनने के अलावा हमारे पास महसूस करने, सूंघने और स्वाद लेने की भी पॉवर है पर इसके बावजूद ज़्यादातर एड कैंपेन अपना मैसेज सिर्फ़ इमेज और साउंड के जरिये देते है. अगर brand अपना मैसेज मैक्सीमम लोगों तक पहुंचाना चाहते है तो उन्हें एड प्रोमोट करने के टू डाइमेंश्न्ल वे से कुछ हटकर सोचना पड़ेगा. उन्हें अपने कंज्यूमर्स को स्मेल, टेस्ट और टच के थ्रू अपील करना होगा.
ऐसा नहीं है कि सारे brand एक जैसी सोच रखते है, बल्कि कुछ brand ऐसे भी है जो औरों से हटकर एड कैंपेन करते है, इसका एक क्लासिक एक्जाम्पल है सिंगापुर एयरलाइन . 1973 में सिंगापुर एयरलाइन ने अपनी सिंगापुर गर्ल को इंट्रोड्यूस करके branding की दुनिया में एक नया ईतिहास रच दिया था.
इससे पहले एयरलाइन के एडवरटाईजिंग कैम्पेन में हमेशा फिजिकल एक्सपिरिएंस पर हो फोकस किया गया था– जैसे कैबिन के डिजाईन, खाना जो फ्लाईट में सर्व किया जाता है, कम्फर्ट और प्राइसिंग वगैरह. तब तक एयरलाइन को कभी भी फुल सेंसरी एक्सपिरिएंस का ख्याल तक नहीं आया था जो वो सच में ऑफर कर सकते थे. पर सिंगापुर एयरलाइन पहली ऐसी कंपनी बनी जिसने एयर ट्रेवल के इमोशनल एक्सपिरिएंस पर बेस्ड कैम्पेन निकाल कर अपना नाम सुनहरे अक्षरों में लिख दिया था, उन्होंने अपने ब्रैंड को बड़े ही केयरफूली डिजाईन किया था.
एक आम एयरलाइन से एक एंटरटेनमेंट कंपनी बनकर, उन्होंने अपनी एक नई पहचान बनाई. उन्होंने औरों से हटकर ऐसे ब्रैंड टूल्स अडॉप्ट किये जिसने सारा गेम ही चेंज कर दिया था.
उन्होंने अपने स्टाफ की uniform के लिए सबसे बढिया सिल्क का इस्तेमाल किया जो उन्हें केबिन डेकोर से मैच करता था. स्टाफ के लिए ड्रेसिंग कोड काफी स्ट्रिक्ट था. हर छोटी-बड़ी चीज़ का ध्यान रखा जाता था, यहाँ तक कि एयरहोस्टेस को एक खास ढंग से मेक-अप करने कहा गया था.
और यही सिंगापुर गर्ल एक आईकन बन गई. केबिन क्रू मेंबर्स को सेलेक्ट करने के लिए बड़ा स्ट्रिक्ट क्राइटेरिया रखा गया था. जैसे कि क्रू मेंबर की उम्र छब्बीस से ज़्यादा नहीं हो सकती थी और उनकी बॉडी ऐसी हो कि वन साइज़ uniform में फिट हो सके और साथ ही इस जॉब के लिए किसी एड मॉडल जैसा खूबसूरत होना पहली शर्त थी.
इनकी ट्रेनिंग भी आम फ्लाईट अटेंडेंट से अलग होती थी, उन्हें हर चीज़ के लिए स्पेशल इंस्ट्रक्शन दी गई थी जैसे कि पैसेंजर्स से कैसे बात करनी है, केबिन में चलना-फिरना कैसे है, और ये भी कि खाना कैसे सर्व करना है. यानी कुल मिलाकर सिंगापुर एयरलाइन का स्टाफ सिर से पैर तक एक चलता-फिरता ब्रैंड लगता था.
दरअसल सिंगापुर एयरलाइन एक असली सेंसरी ब्रैंड एक्सपिरिएंस क्रिएट कर रही थी, जो पैसेंजर्स को सुनने और देखने से कही ज़्यादा फील करने के मौके देती थी, यहाँ तक कि उनके कैप्टेन की अनाउंसमेंट भी एड एजेंसी से स्क्रिप्ट होकर आती थी.
और branding उस वक्त अपने पीक पर पहुँच गई जब एयरलाइन ने “Stefan Floridian Waters” इंट्रोड्यूस किया. एक ऐसा अरोमा जो उनके इस सेंसरी एक्सपीरिएंस के लिए खासा तौर पर डिजाईन किया गया था. कई लोगों को ये एक अलग तरह की फेमीनाईन, स्मूथ और एक्ज़ोटिक एशियन स्मेल लगती थी. ये सेंट फ्लाईट अटेंडेंट के परफ्यूम की खुशबू बन गई थी और टेकऑफ से पहले दिए जाने वाले हॉट टोवेल्स से भी यही खुशबू आती थी. यानी ये खुशबू सिंगापुर एयरलाइन की पहचान बन गई थी जो उनके हर प्लेन में इस्तेमाल की जाती थी. इन सभी बदलावों ने सिंगापुर एयरलाइन की अपनी एक ब्रैंड इमेज बना दी थी.
सिंगापुर एयरलाइन के रेगुलर ट्रेवलर्स को प्लेन में चढ़ते ही भीनी-भीनी खुशबू के साथ अपनी कई खुशनुमा ट्रिप याद आ जाया करती थी और इस तरह सिंगापुर एयरलाइन का ब्रैंड अपने लॉयल पैसेंजर्स की खूबसूरत यादों का हिस्सा बनने में कामयाब रहा.