(hindi) Brahm Ka Swang

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औरत

मैं असल में अभागिन हूँ, नहीं तो क्या मुझे रोज ऐसे बुरे नजारे देखने पड़ते ! दुख की बात यह है कि वे मुझे सिर्फ देखने ही नहीं पड़ते, बल्कि बदकिस्मती ने उन्हें मेरे जीवन का मुख्य भाग बना दिया है। मैं उस अच्छे ब्राह्मण की बेटी हूँ, जिनके इंतजाम बड़े-बड़े धार्मिक कामों में जरूरी समझे जाते हैं। मुझे याद नहीं, घर पर कभी बिना नहाए और पूजा किये पानी की एक बूँद भी मुँह में डाली हो। मुझे एक बार तेज बुखार में नहाए बिना दवा पीनी पड़ी थी; उसका मुझे महीनों दुख रहा। हमारे घर में धोबी कदम नहीं रखने पाता ! चमारिन आंगन में भी नहीं बैठ सकती थी। लेकिन यहाँ आ कर मैं मानो भ्रष्ट दुनिया में पहुँच गयी हूँ।

मेरे पति बड़े दयालु, अच्छे चाल चलन वाले और लायक आदमी हैं ! उनके अच्छे गुणों को देख कर मेरे पिताजी ने उन्हें पसंद किया था। लेकिन ! वे क्या जानते थे कि यहाँ लोग अघोर-पंथ को मानने हैं। संध्या और पूजा तो दूर रही, कोई यहाँ रोज नहाता भी नहीं है। बैठक में रोज मुसलमान, ईसाई सब आया-जाया करते हैं और पति जी वहीं बैठे-बैठे पानी, दूध, चाय पी लेते हैं। इतना ही नहीं, वह वहीं बैठे-बैठे मिठाइयाँ भी खा लेते हैं।

अभी कल की बात है, मैंने उन्हें लेमोनेड पीते देखा था। घोड़े सम्भालने वाला जो चमार है, बेरोक-टोक घर में चला आता है। सुनती हूँ वे अपने मुसलमान दोस्तों के घर दावतें खाने भी जाते हैं। यह भ्रष्टाचार मुझसे नहीं देखा जाता। मेरा मन घिन से भर जाता है। जब वे मुस्कराते हुए मेरे पास आ जाते हैं और हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लेते हैं तो मेरा जी चाहता है कि जमीन फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ। हाय हिंदू जाति ! तूने हम औरतों को आदमियों की दासी बनना ही क्या, हमारे जीवन का सबसे बड़ा कर्तव्य बना दिया ! हमारी सोच की, हमारे सिद्धांतों की, यहाँ तक कि हमारे धर्म की भी कुछ कीमत नहीं रही।

अब मुझे धीरज नहीं। आज मैं इस हालात को खत्म कर देना चाहती हूँ। मैं इस राक्षसी भ्रष्ट-जाल से निकल जाऊँगी। मैंने अपने पिता के घर में जाने का फैसला कर लिया है। आज यहाँ सब मिलकर खाना खा रहे हैं, मेरे पति उसमें शामिल ही नहीं, बल्कि इसे करवाने वालों में से एक हैं। इन्हीं के बढ़ावे और मेहनत से यह अधर्मी अत्याचार हो रहा है। सभी जातियों के लोग एक साथ बैठ कर खाना खा रहे हैं। सुनती हूँ, मुसलमान भी एक ही लाइन में बैठे हुए हैं।

आकाश क्यों नहीं गिर पड़ता ! क्या भगवान् धर्म को बचाने के लिए अवतार न लेंगे। ब्राह्मण जाति अपने करीबी दोस्तों के सिवाय दूसरे ब्राह्मणों का पकाया खाना भी नहीं खाते, वही महान् जाति इस बुरी हालत मे आ गयी कि कायस्थों, बनियों, मुसलमानों के साथ बैठ कर खाने में जरा सी भी शर्म नहीं करती, बल्कि इसे जातीय बड़प्पन, जातीय एकता के अच्छे के लिए समझती है।

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आदमी –

कब वह अच्छा समय आएगा कि इस देश की औरतों में दिमाग आएगा और वे देश को एक करने में आदमियों की मदद करेंगी ? हम कब तक ब्राह्मणों के झूठी शान में फँसे रहेंगे ? हमारी पत्नियां कब  जानेंगी कि औरतों और आदमियों की सोच का मिलना और समान होना कुंडली मिलने से कहीं ज्यादा जरूरी है। अगर यह पता होता तो मैं वृन्दा का पति न होता और न वृन्दा मेरी पत्नी। हम दोनों की सोच में जमीन और आसमान का फ़र्क है। हालांकि वह सीधे नहीं कहती, लेकिन मुझे यकीन है कि वह मेरी सोच से घृणा करती है, मुझे ऐसा लगता है कि वह मुझे छुना भी नहीं चाहती। यह उसकी गलती नहीं, यह हमारे माता-पिता की गलती है, जिन्होंने हम दोनों पर ऐसा घोर अत्याचार किया।

कल वृन्दा खुल पड़ी। मेरे कई दोस्तों ने एक साथ मिल कर खाने का बात कही था। मैंने उसका खुशी से उसका साथ दिया। कई दिन के बहस के बाद आखिर को कल कुछ गिने-गिनाये लोगों ने एक साथ खाने का आयोजन कर ही डाला। मेरे अलावा सिर्फ चार और लोग ब्राह्मण थे, बाकी दूसरी जातियों के लोग थे। यह बात वृन्दा से सही न गयी। जब मैं खाना खा कर लौटा तो वह ऐसी परेशान थी मानो उसकी दुखती रग दबा दी गई हो। मेरी ओर दुखी नजरों से देख कर बोली, “अब तो स्वर्ग का दरवाज़ा ज़रूर खुल गया होगा !”

यह कठोर शब्द मेरे दिल पर तीर के समान लगे ! ऐंठकर बोला, “स्वर्ग और नर्क की चिंता में वे रहते हैं जो अपाहिज हैं, जो कुछ करना नहीं चाहते हैं, जिनमें जान नहीं हैं। हमारा स्वर्ग और नर्क सब इसी दुनिया में है। हम इस दुनिया में कुछ कर जाना चाहते हैं।”

वृन्दा- “धन्य है आपके हिम्मत को, आपके काबिलियत को। आज दुनिया में हर जगह सुख और शांति का हो जायगी। आपने दुनिया को पार लगा दिया है। इससे बढ़ कर उसका और अच्छा क्या हो सकता है ?”

मैंने झुँझला कर कहा- “अब तुम्हें इन बातों के समझने की भगवान ने दिमाग ही नहीं दिया, तो क्या समझाऊँ। इस आपसी भेदभाव से हमारे देश को जो नुकसान हो रहा है, उसे मोटे से मोटे दिमाग का इंसान भी समझ सकता है। इस भेद को मिटाने से देश का कितना अच्छा होता है, इसमें किसी को शक नहीं। हाँ, जो जानकर भी अनजान बने उसकी बात दूसरी है।”

वृन्दा- “बिना एक साथ खाना खाए आपसी प्यार पैदा नहीं हो सकता ?”

मैंने इस बहस में पड़ना जरूरी नहीं समझा। किसी ऐसे तरीके कै आजमाना ज्यादा सही समझा, जिसमें बहस की जगह ही न हो। वृन्दा की धर्म पर बड़ी श्रद्धा है, मैंने उसी के हथियार से उसे हराने का तय किया। बड़े गम्भीर भाव से बोला- “अगर नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है। लेकिन सोचो तो यह बड़ी नाइंसाफी है कि हम सब एक ही पिता के बच्चे होते हुए, एक दूसरे से नफरत करें, ऊँच-नीच की चिंता करते रहें। यह सारा जगत उसी भगवान का बड़ा रूप है। हर जीव में वही भगवान रहते हैं। सिर्फ इसी सांसारिक परदे ने हमें एक दूसरे से अलग कर दिया है। असल में हम सब एक हैं। जिस तरह सूरज की रोशनी अलग-अलग घरों में जा कर अलग नहीं हो जाती, उसी तरह भगवान की महान् आत्मा अलग अलग जीवों में जा कर अलग नहीं होती।”

मेरी इस शिक्षा देने वाली बातों ने वृन्दा के अशांत दिल को शांत कर दिया। वह पूरे मन से मेरी बात सुनती रही। जब मैं चुप हुआ तो उसने मुझे भक्ति-भाव से देखा और रोने लगी।

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औरत –

पति की बातों ने मुझे जगा दिया, मैं अँधेरे कुएँ में पड़ी थी। इस उपदेश ने मुझे उठा कर पहाड़ की उजली ऊँचाई पर बैठा दिया। मैंने अपनी कुलीनता से, झूठे अभिमान से, अपने जाति की पवित्रता के घमंड में, कितनी आत्माओं का अपमान किया ! भगवान, तुम मुझे माफ करो, मैंने अपने इतने अच्छे पति से इस बेवकूफी के कारण, जो अश्रद्धा जताई है, जो कठोर शब्द कहे हैं, उन्हें माफ करना !

जब से मैंने यह बातें सुनी है, मेरा दिल बहुत ही नरम हो गया है, बहुत तरह की अच्छी बातें मन में उठती रहती हैं। कल धोबिन कपड़े लेकर आयी थी। उसके सिर में बड़ा दर्द था। पहले मैं उसे इस हालत में देख कर शायद चुप रहती, या नौकरानी से उसे थोड़ा तेल दिलवा देती, पर कल मेरा मन दुखी हो गया। मुझे लगा, मानो यह मेरी बहन है। मैंने उसे अपने पास बैठा लिया और घंटे भर तक उसके सिर में तेल मलती रही। उस समय मुझे जो खुशी हो रही थी, वह कही नहीं जा सकती। मेरा मन किसी मजबूत ताकत से उसकी ओर खिंचा चला जाता था। मेरी ननद ने आ कर मेरे इस व्यवहार पर कुछ मुँह बनाया, पर मैंने जरा भी परवाह न की।

आज सुबह कड़ाके की सर्दी थी। हाथ-पाँव गले जाते थे। नौकरानी काम करने आयी तो खड़ी काँप रही थी। मैं कंबल ओढ़े सिगड़ी के सामने बैठी हुई थी ! उस पर भी मुँह बाहर निकालते न बनता था। नौकरानी की सूरत देख कर मुझे बहुत दुख हुआ। मुझे अपनी स्वार्थीपन पर शर्म आयी। इसके और मेरे बीच में क्या अंदर है। इसकी आत्मा में भगवान बसते है। यह नाइंसाफी क्यों ? क्यों इसीलिए कि पैसे ने हम में अंदर कर दिया है ? मुझे कुछ और सोचने की हिम्मत नहीं हुई। मैं उठी, अपनी ऊनी चादर लाकर नौकरानी को ओढ़ा दी और उसे हाथ पकड़ कर अँगीठी के पास बैठा लिया। इसके बाद मैंने अपना कंबल रख दिया और उसके साथ बैठ कर बर्तन धोने लगी। वह सरल दिल मुझे वहाँ से बार-बार हटाना चाहती थी। मेरी ननद ने आ कर मुझे आश्चर्य से देखा और इस तरह मुँह बना कर चली गयी, मानो मैं मजाक कर रही हूँ। सारे घर में हलचल पड़ गयी और इस जरा-सी बात पर ! हमारी आँखों पर कितने मोटे परदे पड़ गये हैं। हम भगवान का कितना अपमान कर रहे हैं ?

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