(Hindi) Bhagavad Gita(Chapter 5)
अध्याय 5 – कर्म संन्यास योग
ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य का विवरण और कर्मयोग की वरीयता
श्लोक 1:
अर्जुन बोले, “हे माधव! आप कर्मों का त्याग यानी कर्म संन्यास लेने के लिए कह रहे हैं और साथ ही निष्काम कर्म योग का गुणगान भी कर रहे हैं. मुझे निश्चित रूप से बताएँ कि दोनों में से कौन सा श्रेष्ठ है”।
अर्थ: अर्जुन का ये सवाल दिखाता है कि वो अब भी दुविधा में थे और फ़ैसला नहीं कर पा रहे थे कि उनके लिए युद्ध करना सही है या युद्धभूमि से पीछे हट जाना. अध्याय IV के कई श्लोकों में भगवान ने कर्मों के प्रति लगाव को छोड़ने और उन्हें भगवान् को समर्पित करने की बात कही है और श्लोक 42 में उन्होंने अर्जुन को कर्म योग में टिककर अपना कर्म करने के लिए कहा है। अब ये दो इतनी अलग-अलग बातें हैं कि कर्मों का त्याग करना और कर्म योग में टिककर कर्म करना, मनुष्य एक ही समय में दोनों कैसे कर सकता है इसलिए अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि वो कौन सा एक रास्ता है जिस पर चलकर उनका कल्याण हो सकता है।
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श्लोक 2:
श्रीकृष्ण ने कहा “कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों ही कल्याण की ओर ले जाते हैं; लेकिन दोनों में से कर्मयोग ज़्यादा श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी चीज़ की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी संन्यासी ही कहलाता है. भावनाएँ सदा जोड़े में आती हैं जैसे सुख-दुःख, हानि-लाभ, राग-द्वेष आदि, इसलिए इनसे मुक्त रहने वाला मनुष्य सुख से रहता है और संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है. केवल नासमझ ही ज्ञान योग और कर्म योग को अलग-अलग मानते हैं जबकि इनमें से किसी एक को भी जीवन में उतार लिया जाए तो वो मनुष्य को कल्याण की ओर ले जाता है.
ये दोनों ही योग मुक्ति देने वाले हैं. असल में जो मनुष्य इन दोनों को एक देखता है वही यथार्त को देख रहा है. लेकिन हे अर्जुन! कर्म योग के बिना कर्म संन्यास तक पहुँच पाना मुश्किल है क्योंकि इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले कर्मों में कर्ता के भाव का त्याग कर पाना इतना सरल नहीं है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी जल्द ही परमात्मा को पा लेता है”.
अर्थ: कर्म संन्यास का मतलब है जब मनुष्यात्मा ये समझ जाए कि वो शरीर, इच्छाएँ, वासनाएँ आदि नहीं बल्कि आत्मा है और उस भाव में टिक जाए तो वो कर्म से ही ऊपर उठ जाता है और उसके बाद उससे जो कर्म होते हैं वो कर्म होते हुए भी उसे बाँध नहीं पाते. कर्म संन्यास में कर्म ही ख़त्म या dissolve हो जाते हैं यानी कर्म होकर भी वो कर्म नहीं रहते. इसमें मन में ये भाव जग जाता है कि इस ब्रह्मांड में सब कुछ परमात्मा है, मेरे सारे कर्म भी प्रकृति के तीन गुण करवा रहे हैं और मुझ अकेले का कोई अस्तित्व नहीं है.
कर्म संन्यास का मतलब ये नहीं है कि कर्म करना छोड़ देना है या घरबार छोड़कर संन्यास ले लेना है. नहीं, इसका मतलब ये है कि मनुष्य जब अपने आत्म भाव में ठहर जाता है तो उसके कर्म अपने आप ख़त्म होने लगते हैं. शरीर, मन, इंद्रियों, बुद्धि सभी के कर्म ख़त्म होने लगते हैं.
ज्ञान योग में जब मनुष्य अपने असली स्वरुप को जानकर अपने आत्म भाव में ठहर जाता है तो कर्म करने के लिए जो एनर्जी बाहर की ओर बहती है वो उसके अंदर की ओर जाने लगती है क्योंकि मन, बुद्धि सब अपने आत्म भाव में लीन हो जाते हैं, उससे जुड़ जाते हैं . इसलिए जब कर्म करने की ओर एनर्जी जा ही नहीं है तो कर्म बनेंगे कैसे? कर्म संन्यास अपने मन के अंदर की साधना है. ये संन्यास की साधना होती है समाज की नहीं.
दूसरी ओर, कर्म योग का मतलब है जहाँ कर्मों के फल ख़त्म हो जाते हैं यानी कर्म तो हो रहा है लेकिन निष्काम भाव से हो रहा है तो वो फल को जन्म नहीं देते. ऐसे कर्मों में ना फल पाने की कोई इच्छा होती है, ना उसका इंतज़ार होता है, ना कर्म से लगाव होता है और ना ही कर्ता भाव का अहंकार होता है. इसमें मनुष्य अपने कर्मों के फल का इंतज़ार या इच्छा नहीं करता.
इसमें कर्म करने के लिए एनर्जी बाहर की ओर बहती है इसलिए इसमें कर्म तो होते हैं लेकिन क्योंकि भावना निष्काम है इसलिए उसके फल नहीं बनते. इसे मनुष्य घर-गृहस्थी में रहते हुए भी कर सकता है यानी परिवार में रहते हुए, व्यापार करते हुए, अपनी हर ज़िम्मेदारी निभाते हुए इसे किया जा सकता है.
अब श्रीकृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्म योग यानी कर्म योग ज़्यादा श्रेष्ठ है. भगवान् यहाँ बता रहे हैं कि परिवार में रहते हुए भी ऐसे कर्म किए जा सकते हैं जो मनुष्य को उलझा नहीं सकते.
राग का मतलब है प्रेम या किसी चीज़ की ओर जाने के लिए खिंचाव महसूस होना. द्वेष का मतलब है घृणा या किसी चीज़ से दूर जाने की इच्छा होना. जो चीज़ मनुष्य को सुख देती है उससे उन्हें राग हो जाता है और जो चीज़ उन्हें दुःख देती है उससे उन्हें द्वेष हो जाता है. जब मनुष्य इन दोनों भावनाओं से आज़ाद हो जाता है और उसमें कुछ पाने की इच्छा नहीं होती उसे ऐसे मनुष्य को संयासी कहा जाता है.
इस श्लोक में ये भी बताया गया है कि ये दोनों योग दिखने में अलग-अलग लग सकते हैं लेकिन ये दोनों ही मनुष्य को एक ही जगह लेकर जाते हैं यानी दोनों ब्रह्म तक पहुँचाते हैं. इसका मतलब है कि रास्ते महत्त्व नहीं रखते बल्कि महत्त्व तो मंज़िल का होता है. इसलिए अगर मनुष्य इनमें से किसी भी रास्ते पर चलते हुए कर्म करेगा तो वो उसे ब्रह्म तक पहुँचा ही देंगे.
यथार्त का मतलब है जो जैसा है उसे वैसा देखना. जब तक मनुष्य, आत्मा के तत्व को समझेगा नहीं, उसमें ठहरेगा नहीं तब तक वो सच को कैसे देख पाएगा. मनुष्य तो अपनी मान्यताओं, कल्पना, अहंकार आदि के आधार पर दुनिया को देखता है इसलिए उसे अक्सर सच दिखाई नहीं देता, उसे वो दिखाई देता है जो वो देखना चाहता है.
इस श्लोक में भगवान् ये भी समझा रहे हैं कि निष्काम कर्म योग के बिना कर्म संन्यास को पा लेना काफ़ी मुश्किल है क्योंकि सिर्फ़ कर्मों को छोड़ देने से दुःख का जन्म होता है. दुःख के आने के बाद मन बेचैन रहने लगता है जिससे शरीर ख़राब होने लगता है और फ़िर बुद्धि काम करना बंद कर देती है. इसलिए सब कुछ छोड़कर बैठ जाना इस दुनिया में प्रैक्टिकल नहीं है. सब छोड़कर बैठ जाने से मनुष्य की स्किल ख़त्म होने लगती है.
निष्काम कर्म योग मतलब कर्म के फलों के लिए कोई इच्छा ना होना. इस तरह जब मन से फल की इच्छा ख़त्म होने लगे तो धीरे-धीरे कर्म भी ख़त्म होने लगते हैं. इसलिए निष्काम कर्म योग ही वो रास्ता है जिसके ज़रिए कर्म संन्यास पाया जा सकता है. कर्म योग ही धीरे-धीरे कर्म संन्यास बन जाता है. सच्चा संयासी वो नहीं होता जो कर्मों को छोड़कर बैठ जाए बल्कि वो होता है जो हर लगाव और इच्छा को छोड़कर कर्म करे.