(hindi) Bhagavad Gita (Chapter 4)
श्लोक 1 :
श्रीकृष्ण बोले, “मैंने इस अविनाशी योग को विवस्वान सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा. इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद बहुत काल से यह योग पृथ्वी लोक में लुप्त होने लगा. हे अर्जुन! तुम मेरे भक्त और परम सखा हो इसलिए ये पुरातन योग आज मैं तुम्हें बता रहा हूँ क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है.”
अर्थ : इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने साकार रूप की नहीं बल्कि उस विराट और निराकार स्वरुप की बात कर रहे हैं कि “मैंने ये योग सूर्य से कहा था”. इस श्लोक में ये बताया गया है कि जब सृष्टि की रचना हुई तब से ही ज्ञान ब्रह्मांड में रच-बस गया था. ये ज्ञान अविनाशी और शाश्वत है क्योंकि ये निराकार परमात्मा से आया है जो ख़ुद अविनाशी और शाश्वत हैं. इस योग में ज्ञान और कर्म योग दोनों ही शामिल हैं. इस योग का अस्तित्व सृष्टि के आरंभ से है.
सूर्य यानी प्रकाश, जब ज्ञान का सूर्य उदय होता है तो अज्ञानता का अंधकार मिट जाता है. इसमें विवस्वान सूर्यदेव हैं। मनु प्राचीन समय में नियम या क़ानून बनाने का काम संभालते थे। इक्ष्वाकु क्षत्रियों के पूर्वज हैं, जिनका वंश सूर्य-देव में जाता है। इस योग को परंपरा के माध्यम से राजऋषियों ने जाना लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे ये पृथ्वी लोक से गायब होने लगा. अगर किसी देश के नेताओं के पास इस योग का ज्ञान हो यानी जो जीवन के नैतिक मूल्यों (moral values) के बारे में जानता हो तो उनके माध्यम से ये समाज की जड़ों तक पहुँच जाता है.
ज्ञान की ये धारा सृष्टि के आरंभ से लगातार बह रही थी लेकिन स्वार्थी और अधर्मी लोगों के हाथों में पड़कर इस योग की शिक्षाएँ खोने लगी । गीता के माध्यम से इसे पुनर्जीवित करना ही भगवान् की मंशा है। यहाँ इस योग को गुप्त इसलिए कहा गया है क्योंकि आमतौर पर हर कोई इसके बारे में नहीं जानता और ये केवल वे लोग ही प्राप्त कर सकते हैं जो इसके लिए ख़ुद को तैयार करते हैं यानी आत्मा और शरीर के बीच के फ़र्क को समझते हैं, कर्म के सिद्धांत को समझते हैं क्योंकि ज्ञान पाने के लिए “मैं, और मेरा यानि अहंकार” की भावना को त्यागना पड़ता है तभी ज्ञान का अमृत मनुष्य के भीतर समा सकता है.
श्लोक 2 :
अर्जुन बोले, “हे माधव! आपका जन्म तो अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आरंभ में हो चुका था, तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ने कल्प के आरंभ में सूर्य से यह योग कहा था?”
अर्थ: अर्जुन यहाँ श्रीकृष्ण की बात सुनकर चकित हैं क्योंकि सूर्य का अस्तित्व तो तब से है जब इस सृष्टि की रचना हुई थी लेकिन श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुआ था जिसे बीते बहुत लंबा समय नहीं हुआ है , तो फ़िर कैसे उन्होंने सूर्य को ये ज्ञान दिया होगा?
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श्लोक 3:
श्रीकृष्ण कहते हैं, “पार्थ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तुम नहीं जानते, किन्तु मैं जानता हूँ. मैं अजन्मा और अविनाशी और सभी जीवों का परमात्मा होते हुए भी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ. हे भारत! जब-जब धर्म की अति हानि होती है और अधर्म की अति वृद्धि होती है तब मैं अवतरित होता हूँ. साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और एक सत्य धर्म की स्थापना करने के लिए मैं हर कल्प में प्रकट होता हूँ.”
अर्थ: अर्जुन के मन में उठे इस सवाल का कारण ये है कि सीमित ज्ञान वाले अर्जुन को लगता है कि श्रीकृष्ण एक साधारण आदमी हैं, न कि सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ परमात्मा।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने कृष्ण रूप की नहीं बल्कि अपने असीमित और परम तत्व की बात कर रहे हैं. भगवान् उसी असीमता के भाव से कह रहे हैं कि “मैं अजन्मा हूँ”. जन्म मरण, आवागमन आत्मा और प्रकृति का हिस्सा होता है और मैं प्रकृति से बिलकुल परे हूँ. मेरा जन्म दिव्य और आलोकिक है? अर्थात मैं सांसारिक मनुष्यों की तरह जन्म नहीं लेता हूँ।
परमात्मा स्वभाव से शाश्वत और अविनाशी हैं क्योंकि ज्ञान, शांति, प्रेम, आनंद, पवित्रता वो गुण हैं जिससे उनका स्वभाव बना है. वो अनंत है और अपरिवर्तनशील है यानी उनमें कभी बदलाव नहीं होता. भगवान् जब पंच तत्वों से बने शरीर को धारण करते हैं तो उसे अवतार कहा जाता है. जब परमात्मा अवतार लेते हैं तो वो प्रकृति के वश में नहीं होते बल्कि वो प्रकृति के तीनों गुणों सत्व, रजस और तमस को अपने वश में करके अवतरित होते हैं.
यहाँ योगमाया का मतलब है अपने आत्म भाव में टिककर कि मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ, इस संसार की माया में उतरना ही योगमाया कहलाता है. भगवान् संसार की माया में साकार रूप में प्रकट होते हैं यानी मनुष्य के शरीर में होते हुए भी वो जागृत अवस्था मतलब soul conscious रहते हैं इसलिए संसार की माया भगवान् को बाँध नहीं पाती.
भगवान् का शरीर में प्रवेश करना और शरीर छोड़ना ख़ुद उन पर निर्भर करता है। लेकिन एक मनुष्य का जन्म और उसकी मृत्यु, कर्म के नियम (law of karma) पर निर्भर करता है। यही अंतर है परमात्मा के अवतरित होने यानि उनके शरीर धारण करने में और एक आत्मा के मनुष्य शरीर को धारण करने में।
माया की शक्ति ( अर्थात – वासना, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार )इस शरीर को धारण की हुई आत्मा को अपने असली स्वरुप को पहचानने से रोकती है। मनुष्य रूप में जन्म लेना किसी भी मनुष्य की इच्छा से नहीं होता या ये उसके वश में नहीं होता। अज्ञानता के कारण मनुष्य जैसे कर्म करता है और जैसी उसकी प्रकृति होती है उस अनुसार वो जन्म-मरण के चक्रव्यूह में फँस जाता है।
लेकिन परमात्मा प्रकृति को नियंत्रित करते हैं और स्वयं अपनी इच्छा से अवतार लेते हैं। वह अपने स्वभाव का उपयोग इस तरह से करते हैं जो उन्हें कर्म के बंधन से मुक्त रखती है क्योंकि परमात्मा हर कर्म निष्काम भाव अर्थात निस्वार्थ भाव से करते हैं और उनमें फल पाने की कोई इच्छा भी नहीं होती इसलिए उनके कर्मों के फल नहीं बनते. यही कारण है कि उन्हें आम मनुष्य की तरह उन कर्मफलों को भोगने के लिए जन्म नहीं लेना पड़ता है.
परमात्मा अवतार भी किसी ना किसी उद्देश्य से लेते हैं. अवतार का मतलब है अपने निराकार रूप से साकार रूप में सामने आना। जब दुनिया में धर्म का नाश होने लगता है, अधर्म का पलड़ा भारी होने लगता है तब परमात्मा को इस लोक में आना पड़ता है ताकि इसे पतन से उठाकर उच्च स्थिति में स्थापित कर सकें। अवतार का मकसद होता है एक नई दुनिया, एक नए धर्म की स्थापना करना।
अवतार लेने के बाद अपने जीवन के माध्यम से परमात्मा मनुष्य को सिखाते हैं कि एक इंसान खुद को जीवन के उच्च स्तर तक कैसे बढ़ा सकता है। अर्थात परमपिता परम शिक्षक और सद्गुरु बनकर जीवन मुक्ति की राह दिखाते भी हैं और उस पर चलना सिखाते भी हैं और वरदानों के द्वारा उसे आसान भी बनाते हैं।
इस श्लोक में धर्म का मतलब है सबके लिए भलाई का भाव । जहाँ औरों की भलाई का भाव नष्ट हो जाता है और केवल “मैं, मेरा” और स्वार्थ जग जाता है वही अधर्म कहलाता है. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जब सत्व गुण खत्म होने लगे और तमस गुण बढ़ने लगे तब पाप और अधर्म बढ़ता है. सत्व गुण अर्थात शांति, पवित्रता, आत्म-ज्ञान, आत्मिक सुख, आत्मिक आनंद, आत्मिक प्रेम और आध्यात्मिक शक्तियां और तमस गुण अर्थात काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, नशा करना, आलस आदि असुरी गुण.
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जब मनुष्य अपनी आज़ादी का गलत इस्तेमाल करने लगता है तो भगवान् चुप नहीं रहते बल्कि ख़ुद इसका भार अपने ऊपर ले लेते हैं। वो अपने अवतार के द्वारा चीज़ों को सही रास्ते पर लेकर आते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस दुनिया में हर कल्प में उनका अवतार कई अहम उद्देश्यों के लिए होता है यानी :
1. अच्छे लोगों की रक्षा के लिए: जो लोग सच्चाई और धर्म का पालन करते हुए जीवन जीते हैं, उनकी रक्षा करने के लिए उन्हें आना पड़ता है. ये वो मनुष्य होते हैं जो औरों की सेवा करने के लिए तैयार रहते हैं. ऐसे लोग स्वार्थ, क्रोध, घृणा, वासना और लालच से मुक्त होते हैं और अपना जीवन ईश्वर को समर्पित करते हैं।
2. पाप के विनाश के लिए: अधर्म का जीवन जीने वालों में गलत प्रवृत्ति को खत्म करने के लिए भगवान् अवतार लेते हैं. यहाँ नाश का मतलब किसी को मारना नहीं है बल्कि लोगों के मन में बसी स्वार्थी इच्छाओं और बुराइयों को ख़त्म करना है. पाप का मतलब है जो लोग समाज के कानून तोड़ते हैं, जो बेईमान और लालची होते हैं, जो दूसरों को तकलीफ़ पहुँचाते हैं, जो ताकत का इस्तेमाल कर दूसरे की संपत्ति पर कब्जा कर लेते हैं आदि ये सभी पाप कर्म कहलाते हैं.
3. धर्म की स्थापना करने के लिए: जब धर्म की रक्षा की जाती है और परमात्मा सत्व गुणों को आत्मा में धारण कराते हैं तब दुष्टता का , दुष्ट प्रवृत्तियों का नाश हो जाता है, तो समाज में धर्म की एक बार फ़िर से स्थापना हो जाती है और समाज धर्म के अनुसार जीने लगता है.