(hindi) BETI KA DHAN

(hindi) BETI KA DHAN

बेतवा नदी दो ऊँचे किनारों के बीच इस तरह मुँह छिपाये हुए थी जैसे साफ दिलों में हिम्मत और उत्साह की धीमी रोशनी छिपी रहती है। इसके एक किनारे पर एक छोटा-सा गाँव बसा है जो अपने टूटे हुए जातीय निशानियों के लिए बहुत ही मशहूर है। जातीय कहानियों और निशानियों पर मर मिटने वाले लोग इस पवित्र जगह पर बड़े प्यार और श्रद्धा के साथ आते और गाँव का बूढ़ा नाविक सुक्खू चौधरी उन्हें घूमता और रानी के महल, राजा का दरबार और कुँवर की बैठक के मिटे हुए निशानियों को दिखाता। वह आंहें भरते हुए, भरे हुए गले से कहता, “महाशय ! एक वह समय था कि नाविकों को मछलियों के इनाम में अशर्फियाँ मिलती थीं। नौकर महल में झाडू देते हुए अशर्फियाँ बटोर ले जाते थे। बेतवा नदी रोज चढ़ कर महाराज के पैर छूने आती थी। यह प्रताप और यह तेज था, लेकिन आज इसकी यह हालत है।” इन सुन्दर बातों पर किसी को भरोसा करवाना चौधरी के बस की बात न थी, पर सुनने वाले उसकी अच्छाई और  प्यार को जरूर पसंद करते थे।

सुक्खू चौधरी दयालु आदमी थे, लेकिन जरूरत के जितनी कमाई नहीं थी। तीन लड़के, तीन बहुएँ और कई पोते-पोती थे। लड़की सिर्फ एक गंगाजली थी जिसका अभी तक गौना नहीं हुआ था। चौधरी की यह सबसे छोटी बेटी थी। बीवी के मर जाने पर उसने इसे बकरी का दूध पिला-पिला कर पाला था। परिवार में खाने वाले तो इतने थे, पर कमाने वाला एक ही था। जैसे तैसे कर गुजारा होता था, लेकिन सुक्खू का बुढ़ापा और पुरानी चीजों के बारे में जानकारी ने उसे गाँव में वह मान सम्मान दे रखी थी, जिसे देख कर झगडू साहु अंदर ही अंदर जलते थे। सुक्खू जब गाँव वालों के सामने, अफसरों से हाथ फेंक-फेंक कर बातें करने लगता और खंडहरों को घुमा-फिरा कर दिखाने लगता तो झगडू साहु जो चपरासियों के धक्के खाने के डर से करीब नहीं फटकते थे तड़प-तड़प कर रह जाते। इसलिए वे हमेशा इस  मौके का इंतजार करते रहते जब सुक्खू पर अपने पैसे की धाक जमा सकें।

इस गाँव के जमींदार ठाकुर जीतनसिंह थे, जिनकी बिना पैसे दिए मज़दूरी करवाने की गुंडागर्दी के कारण गाँव वाले परेशान थे। उस साल जब जिला मजिस्ट्रेट का दौरा हुआ और वह यहाँ के पुरानी निशानियों की सैर करने के लिए पधारे, तो सुक्खू चौधरी ने दबी जबान से अपने गाँव वालों की दुख भरी कहानी उन्हें सुनायी। अफसरों से बात करने में उसे थोड़ा भी डर न लगता था। सुक्खू चौधरी को पता था कि जीतनसिंह से झगड़ा करना शेर के मुँह में सिर देना है। लेकिन जब गाँववाले कहते कि “चौधरी तुम्हारी ऐसे-ऐसे अफसरों से दोस्ती है और हम लोगों का  रात-दिन रोते हुए कटता है तो फिर तुम्हारी यह दोस्ती किस दिन काम आएगी।” तब सुक्खू की हिम्मत बढ़ जाती। पल भर के लिए वह जीतनसिंह को भूल जाता। मजिस्ट्रेट ने जीतनसिंह से इसका जवाब माँगा। उधर झगडू साहु ने चौधरी की इस हिम्मती बगावत की रिपोर्ट जीतनसिंह को दी।

ठाकुर साहब जल कर आगबबूला हो गये। अपने कर्मचारी से बकाया लगान की किताब माँगी। इत्तेफाक से चौधरी के नाम इस साल का कुछ लगान बाकी था। कुछ तो फसल कम हुई, उस पर गंगाजली की शादी करनी पड़ी। छोटी बहू नथ की रट लगाये हुए थी; वह बनवानी पड़ी। इन सब खर्चों ने हाथ बिलकुल खाली कर दिया। लगान के लिए कुछ ज्यादा चिंता नहीं थी। वह इस घमंड में भूला हुआ था कि जिस जबान में अफसरों को खुश करने की ताकत है, क्या वह ठाकुर साहब पर काम न करेगी ? बूढ़े चौधरी इधर तो अपने घमंड में बेफ़िक्र थे और उधर उन पर बकाया लगान का  मुकदमा लग गया। सम्मन आ पहुँचा। दूसरे दिन पेशी की तारीख पड़ गयी। चौधरी को अपना जादू चलाने का मौका न मिला।

जिन लोगों के बढ़ावे में आ कर सुक्खू ने ठाकुर से छेड़छाड़ की थी, वो नजर भी न आए। ठाकुर साहब के लोग गाँव में चील की तरह मँडराने लगे। उनके डर से किसी को चौधरी से मिलने की हिम्मत न होती थी। कचहरी वहाँ से तीन मील पर थी। बरसात के दिन, रास्ते में जगह जगह पर पानी, भरी हुई नदियाँ, रास्ता कच्चा, बैलगाड़ी नहीं चल रही थी, पैरों में दम नहीं, इसलिए अदालत में मुकदमे का एकतरफा फैसला हो गया।

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जायदाद ज़ब्त करने का नोटिस पहुँचा तो चौधरी के हाथ-पाँव फूल गये। वो सारी चालाकी भूल गए । चुपचाप अपनी खाट पर पड़ा-पड़ा नदी की ओर ताकता और अपने मन में कहता, “क्या मेरे जीते जी घर मिट्टी में मिल जायगा। मेरे इन बैलों की सुंदर जोड़ी के गले में आह ! क्या दूसरों का लगाम पड़ेगा ?” यह सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आतीं। वह बैलों से लिपट कर रोने लगा, लेकिन बैलों की आँखों से क्यों आँसू बह रहे थे ? वे चारे में मुँह क्यों नहीं डालते थे ? क्या उनके दिल पर भी अपने मालिक के दुख की चोट पहुँच रही थी !

फिर वह अपने झोपड़े को दुखी नजरों से देखता और मन में सोचता, क्या हमें  इस घर से निकलना पड़ेगा ? यह पूर्वजों की निशानी क्या हमारे जीते जी छिन जायगी ?

कुछ लोग परीक्षा के वक़्त मजबूत रहते हैं और कुछ लोग इसकी थोड़ी तकलीफ़ भी नहीं सह सकते। चौधरी अपने खाट पर उदास पड़े घंटों अपने कुलदेव महावीर और महादेव को याद करता और उनका गुण गाया करता। उसकी परेशान आत्मा को और कोई सहारा न था।

इसमें कोई शक न था कि चौधरी की तीनों बहुओं के पास गहने थे, पर औरत का गहना गन्ने का रस है, जो मुश्किल से निकलता है। चौधरी जाति का छोटा पर स्वभाव का ऊँचा था। उसे ऐसी नीच बात बहुओं से कहते शर्म आती थी। शायद यह नीच सोच उसके दिल में आई ही नहीं थी , लेकिन तीनों बेटे अगर जरा भी दिमाग से काम लेते तो बूढ़े को देवताओं का सहारा लेने की जरूरत न होती। लेकिन यहाँ तो बात ही अलग थी। बड़े लड़के को घाट के काम से फुरसत न थी। बाकी दो लड़के इस मुश्किल सवाल को अजीब तरह से हल करने की कोशिश रहे थे।

मँझले झींगुर ने मुँह बना कर कहा- “उँह ! इस गाँव में क्या रखा है। जहाँ ही कमाऊँगा, वहीं खाऊँगा पर जीतनसिंह की मूँछों के एक-एक बाल नोच लूँगा।”

छोटे फक्कड़ ऐंठ कर बोले- “मूँछें तुम नोच लेना ! नाक मैं उड़ा दूँगा। नकटा बना घूमेगा।”

इस पर दोनों खूब हँसे और मछली मारने चल दिये।

इस गाँव में एक बूढ़े ब्राह्मण भी रहते थे। मंदिर में पूजा करते और रोज अपने यजमानों से मिलने नदी पार जाते, पर नाविक के पैसे न देते। तीसरे दिन वह जमींदार के जासूसों की आँख बचाकर सुक्खू के पास आये और हमदर्दी से बोले “चौधरी ! कल तक का ही समय है और तुम अभी तक पड़े सो रहे हो। क्यों नहीं घर की चीज इकट्ठा कर किसी और जगह भेज देते ? और कहीं नहीं तो  समधियों के यहाँ भेज दो। जो कुछ बच रहे, वही सही। घर की मिट्टी खोद कर थोड़े ही कोई ले जायगा।”

चौधरी लेटा था, उठ बैठा और आकाश की ओर देख कर बोला- “जो उसकी इच्छा है, वह होगा। मुझसे यह जाल न होगा।”

इधर कई दिन की निरंतर भक्ति और उपासना के कारण चौधरी का मन शुद्ध और पवित्र हो गया था। उसे धोखाधड़ी से नफरत हो गयी थी। पंडित जी जो इस काम में लगे हुए थे, शर्मिंदा हो गये।

लेकिन चौधरी के घर के बाकी लोगों को भगवान की इच्छा पर इतना भरोसा न था। धीरे-धीरे घर के बर्तन-भाँड़े खिसकाये जा रहे थे । अनाज का एक दाना भी घर में न रहने पाया। रात को नाव लदी हुई जाती और उधर से खाली लौटती । तीन दिन तक घर में चूल्हा न जला। बूढ़े चौधरी के मुँह में खाना क्या पानी की एक बूँद भी न पड़ी। औरतें भाड़ से चने भुना कर चबातीं, और लड़के मछलियाँ भून-भून कर उड़ाते। लेकिन बूढ़े की इस भूख हड़ताल में अगर कोई साथ था तो वह उसकी बेटी गंगाजली थी। यह बेचारी अपने बूढ़े बाप को चारपाई पर भूखे प्यासे छटपटाते देख जोर जोर से  रोती।

लड़कों को अपने माता-पिता से वह प्यार नहीं होता जो लड़कियों को होता है। गंगाजली यह सोचती रहती कि दादा की किस तरह मदद करूँ। अगर हम सब भाई-बहन मिल कर जीतनसिंह के पास जाकर दया की भीख मांगें तो वे जरूर मान जायँगे; लेकिन दादा को कब यह मंजूर होगा। वह अगर एक दिन बड़े साहब के पास चले जाएँ तो सब कुछ बात की बात में बन जाए। लेकिन उनका तो जैसे दिमाग ही काम नहीं कर रहा। इसी सोच में उसे एक उपाय सूझ पड़ा और  मुरझाया हुआ चहरा खिल उठा।

पुजारी जी सुक्खू चौधरी के पास से उठ कर चले गये थे और चौधरी तेज आवाज से अपने सोये हुए देवताओं को पुकार-पुकार कर बुला रहे थे। गंगाजली उनके पास जा कर खड़ी हो गयी। चौधरी उसे देखकर चौंक गए, पूछा “क्यों बेटी ? इतनी रात गये क्यों बाहर आयी ?”

गंगाजली ने कहा- “बाहर रहना तो भाग्य में लिखा है, घर में कैसे रहूँ।”

सुक्खू ने जोर से आवाज लगायी- “कहाँ गये तुम कृष्णमुरारी, मेरे दुख हरो।”

गंगाजली खड़ी थी, बैठ गयी और धीरे से बोली- “भजन गाते तो आज तीन दिन हो गये। घर बचाने का भी कुछ उपाय सोचा कि इसे यों ही मिट्टी में मिला दोगे ? हम लोगों को क्या पेड़ तले रखोगे ?”

चौधरी ने दुखी आवाज मे कहा- “बेटी, मुझे तो कोई उपाय नहीं सूझता। भगवान् जो चाहेंगे, होगा। जल्दी करो भगवान, क्यों देर कर रहे हो।”

गंगाजली ने कहा- “मैंने एक उपाय सोचा है, कहो तो कहूँ।”

चौधरी उठ कर बैठ गये और पूछा- “क्या उपाय है बेटी?”

गंगाजली ने कहा- “मेरे गहने झगडू साहु के यहाँ गिरवी रख दो। मैंने जोड़ लिया है। देने भर के रुपये हो जायँगे।”

चौधरी ने ठंडी साँस ले कर कहा- “बेटी ! तुम्हें मुझसे यह बात कहते शर्म नहीं आती। वेद-शास्त्र में मुझे तुम्हारे गाँव के कुएँ का पानी पीना भी मना है। तुम्हारे  दरवाजे पर पैर रखना तक मन है। क्या तुम मुझे नरक में ढकेलना चाहती हो ?

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