(hindi) Beteon Wali Vidhva

(hindi) Beteon Wali Vidhva

पंडित अयोध्यानाथ की मौत हुई तो सबने कहा, “भगवान आदमी को ऐसी ही मौत दे”। अयोध्यानाथ के चार जवान बेटे थे, एक लड़की। चारों लड़कों की शादी हो गयी थी, सिर्फ एक लड़की बची थी जिसकी शादी नहीं हुई थी| मरने से पहले अयोध्यानाथ काफी पैसे-रूपए भी जोड़ चुके थे| एक पक्का मकान, दो बगीचे, कई हजार के गहने और बीस हजार नकद। विधवा फूलमती को दुःख तो हुआ और कई दिन तक बेहाल पड़ी रही, लेकिन जवान बेटों को सामने देखकर उसमें हिम्मत आई| उसके चारों लड़के एक से बढ़कर एक अच्छे थे| चारों बहुएँ बात मानने वाली थीं।

जब वह रात को सोने के लिए लेटती, तो चारों बारी-बारी से उसके पाँव दबातीं, जैसे ही वह नहा कर आती, बहु साड़ी पकड़ाती। सारा घर उसके इशारे पर चलता था। बड़ा लड़का कमाँ  था| एक दफ्तर में 50 रू. पर नौकरी करता था, छोटा उमानाथ डाक्टरी की पढाई पास कर चुका था और कहीं दवाई स्टोर खोलने की सोच रहा था, तीसरा दयानाथ बी. ए. में फेल हो गया था और अख़बार- मैगजीन में लेख लिखकर कुछ-न-कुछ कमा लेता था,चौथा सीतानाथ चारों में सबसे तेज दिमाग का और होनहार था और अबकी साल बी. ए. पहले स्थान  से पास करके एम. ए. की तैयारी में लगा हुआ था।

किसी लड़के में नशा करने की आदत, आवारागर्दी, या फालतू खर्चे वाली आदत नहीं थी, जिसके कारण माता-पिता की समाज में इज़्ज़त डूबती है। फूलमती घर की मालकिन थी। जबकि चाबियाँ बड़ी बहू के पास रहती थीं| बुढ़िया में यह भावना नहीं थी कि “मैं घर की मालकिन हूँ और सारा घर मेरे ही इशारों पे चलता है”, जो अक्सर बूढ़े लोगों को बुरा बोलने वाला और झगड़ालू बना देता है, लेकिन उसकी इच्छा के बिना कोई बच्चा मिठाई तक नहीं मँगा सकता था।

शाम  हो गयी थी। पंडित को मरे आज बारहवाँ दिन था। कल तेरवीह थी । ब्राह्मणों का खाना होगा। रिश्तेदारी के लोग बुलाने होंगे। उसी की तैयारियाँ हो रही थीं। फूलमती अपने कमरे में बैठी देख रही थी, मजदूर बोरे में आटा लाकर रख रहे हैं। घी के टीन आ रहे हैं। सब्जी के टोकरे, चीनी की बोरियाँ, दही के मटके चले आ रहे हैं। महापात्र (ब्राह्मण की एक जाति)  के लिए दान की चीजें लायी गयीं- बर्तन, कपड़े,पलंग,बिछाने का सामान, छाते,जूते, छड़ियाँ, लालटेन वगैरह | लेकिन यह क्या फूलमती को कोई चीज नहीं दिखायी गयी।

नियम के हिसाब से ये सब सामान उसके पास आने चाहिए थे। वह हर सामान को देखती उसे पसंद करती,उसकी मात्रा में काम- ज्यादा का फैसला करती, तब इन चीजों को भंडारे में रखा जाता। क्यों उसे दिखाने और उसकी राय लेने की जरूरत नहीं समझी गयी?, अच्छा वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया?, उसने तो पाँच बोरों के लिए कहा था। घी भी पाँच ही टीन है। उसने तो दस टीन मँगवाए थे। इसी तरह सब्जी, चीनी, दही आदि में भी कमी की गयी होगी। किसने उसके कहने में दखल किया?, जब उसने एक बात तय कर दी, तब किसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार है?

आज चालीस सालों से घर के हर मामले में फूलमती की बात सब मानते थे| उसने सौ कहा तो सौ खर्च किये गये, एक कहा तो एक। किसी ने छोटी बातों की शिकायत नहीं की। यहाँ तक कि पं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के खिलाफ कुछ नहीं करते थे| पर आज उसकी आँखों के सामने साफ़-साफ़  रूप से उसके कहने को नहीं माना जा रहा है|  इसे वह कैसे मान सकती थी ?

कुछ देर तक तो वह चुप-चाप बैठी रही, पर अंत में नहीं रहा गया। आजाद शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह गुस्से में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोली- “क्या आटा तीन ही बोरे लाये? मैंने तो पाँच बोरों के लिए कहा था। और घी भी पाँच ही टीन मँगवाया, तुम्हें याद है, मैंने दस टीन कहा था? बचत को मैं बुरा नहीं समझती, लेकिन जिसने यह कुआँ खोदा, वही पानी को तरसे, यह कितनी शर्म की बात है!” (फूलमती ने बोला)

कामतानाथ ने माफ़ी नहीं मांगी, अपनी गलती भी नहीं मानी, शर्म भी नहीं आयी। एक मिनट तो विरोधी सा बन कर रहा,
फिर बोला- “हम लोगों की सलाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिए पाँच टीन घी काफी था। इसी हिसाब से और चीजें भी कम कर दी गयी हैं।“
फूलमती और ज्यादा गुस्से में बोली- “किसकी राय से आटा कम किया गया?”
“हम लोगों की राय से।” (कामतानाथ ने कहा)
“तो मेरी राय कोई चीज नहीं है?” (फूलमती ने कहा)
“है क्यों नहीं, लेकिन अपना फायदा-नुकसान तो हम समझते हैं?” (कामतानाथ ने कहा)

फूलमती चौंक कर उसका मुँह देखने लगी। इस बात का मतलब उसकी समझ में नहीं आया। अपना नुकसान -फायदा! अपने घर में नुकसान -फायदे  की जिम्मेदार वह खुद है। दूसरों को, चाहे वे उसके खुद के बेटे  ही क्यों न हों, उसके काम में दखल करने का क्या अधिकार? यह लड़का तो इस अकड़ से जवाब दे रहा है, जैसे घर उसी का है, उसी ने मर-मरकर गृहस्थी जोड़ी है, मैं तो पराई हूँ! जरा इसकी अकड़ तो देखो।

उसने गुस्से से कहा- “मेरे नुकसान-फायदे के जिम्मेदार तुम नहीं हो। मुझे अधिकार है, जो ठीक समझूँ, वह करूँ। अभी जाकर दो बोरे आटा और पाँच टीन घी और लाओ और आगे के लिए खबरदार, जो किसी ने मेरी बात काटी।”   (फूलमती ने कहा)

अपने हिसाब से उसने काफी चेतावनी दे दी थी। शायद इतनी कठोरता जरुरी नहीं थी। उसे अपने गुस्से पर दुःख हुआ। लड़के ही तो हैं, समझे होंगे कुछ कम खर्च करना चाहिए। मुझसे इसलिए नहीं पूछा होगा कि अम्माँ तो खुद हर एक काम में कम खर्च करती हैं। अगर इन्हें पता होता कि इस काम में मैं कम खर्च पसंद नहीं करूँगी, तो ये मेरी बात जरूर मानता। हालाँकि कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और चेहरे से ऐसा साफ़ पता लग रहा था कि इस बात को मानने के लिए वह तैयार नहीं है, पर फूलमती निश्चिंत होकर अपने कमरे में चली गयी। इतनी चेतावनी पर भी किसी को उसकी बात ना मानी जाए, ये उसने सोचा भी नहीं था ।
पर जैसे-जैसे समय बीतने लगा, उस पर यह सच सामने आने लगा कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही, जो दस-बारह दिन पहले थी। रिश्तेदारों के बुलावे में चीनी, मिठाई, दही, अचार आदि आ रहे थे। बड़ी बहू इन चीज़ो को घर की मुखिया की तरह सँभालकर रख रही थी। कोई भी उससे पूछने नहीं आता। बिरादरी के लोग जो कुछ पूछते हैं, कामतानाथ से या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहाँ का बड़ा इंतजाम करने वाला है,रात-दिन भांग पिये पड़ा रहता हैं, किसी तरह रो-धोकर दफ्तर चला जाता है। उसमें भी महीने में पंद्रह छुट्टी से कम नहीं होते। वह तो कहो, साहब पंडितजी की शर्म करता है, नहीं तो अब तक कब का निकाल देता। और बड़ी बहू जैसी फूहड़ औरत भला इन सब बातों को क्या समझेगी! अपने कपड़े तक तो ठीक से रख नहीं सकती, चली है गृहस्थी चलाने|

सब जगह बुराई होगी और क्या। सब मिलकर खान-दान की इज्जत गवांयेंगे। वक्त पर कोई-न-कोई चीज कम हो जायेगी। इन कामों के लिए बड़ा अनुभव चाहिए। कोई चीज तो इतनी बन जायेगी कि इधर-उधर  पड़ी रहेगी। कोई चीज इतनी कम बनेगी कि किसी की थाली में पहुँचेगी, किसी पर नहीं।पर इन सब को हो क्या गया है? अच्छा, बहू पैसों वाली अलमारी क्यों खोल रही है? वह मुझसे पूछे बिना पैसों वाली अलमारी खोलने वाली कौन होती है? चाभी उसके पास है जरूर, लेकिन जब तक मैं रूपये न निकलवाऊँ, तो पैसे वाली अलमारी नहीं खुलती। आज तो इस तरह खोल रही है, जैसे मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा!
वह गुस्से में उठी और बहू के पास जाकर कठोर आवाज में बोली- “पैसे वाली अलमारी क्यों खोलती हो बहू, मैंने तो खोलने को नहीं कहा?”(फूलमती ने कहा)

बड़ी बहू ने बिना हिचक से जवाब दिया- “बाजार से सामान आया है, तो पैसे देने है।”
“कौन चीज किस भाव में आयी है और कितनी आयी है,  मुझे कुछ नहीं पता ! जब तक हिसाब-किताब न हो जाये, रूपये कैसे दिये जायँ?” (फूलमती सोचने लगी)
बड़ी बहू- “हिसाब-किताब सब हो गया है।”
“किसने किया?” (फूलमती ने पूछा)

“अब मैं क्या जानूँ किसने किया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे तो कहा, रूपये लाकर दे दो, लेकर जा रही हूँ !’” (बड़ी बहु ने कहा)
फूलमती ने गुस्से को दबाया। यह गुस्सा दिखने का समय नहीं था। घर में मेहमान भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को डाँटा, तो लोग यही कहेंगे कि इनके घर में पंडितजी के मरते ही फूट पड़ गयी। दिल को समझा कर फिर अपने कमरे में चली गयी। जब मेहमान चले जायेंगे, तब वह एक-एक  से बात करेगी| तब देखेगी, कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है। इन चारों को बताएगी।

TO READ OR LISTEN COMPLETE BOOK CLICK HERE

कमरे में अकेले में भी चैन नहीं था। सारे हालात को तीखी नजर से देख रही थी, कहाँ सम्मान का कौन-सा नियम टूटता है, कहाँ मर्यादाओं को नहीं माना जाता है। खाना शुरू हो गया। सारी बिरादरी एक साथ लाइन में बैठा दी गयी। आँगन में मुश्किल से दो सौ आदमी बैठ सकते हैं। ये पाँच सौ आदमी इतनी-सी जगह में कैसे बैठ जायेंगे? क्या आदमी के ऊपर आदमी बिठाए जायेंगे? दो लाइनों में लोग बिठाये जाते तो क्या बुरा हो जाता ? यही तो होता कि बारह बजे की जगह भोज दो बजे खत्म होता, मगर यहाँ तो सबको सोने की जल्दी पड़ी हुई है। किसी तरह यह बला सिर से टले और चैन से सोएं| लोग कितने सटकर बैठे हुए हैं कि किसी को हिलने की भी जगह नहीं। पत्तल एक-पर-एक रखे हुए हैं। पूरियाँ ठंडी हो गईं। लोग गरम-गरम माँ  ग रहे हैं। मैदे की पूरियाँ ठंडी होकर चमड़े  की तरह हो जाती हैं। इन्हें कौन खायेगा? रसोई में खाना बनाने वाले को कढ़ाई से पता नहीं क्यों उठा दिया गया? यही सब बातें बदनामी की हैं।

तभी अचानक शोर मचा, सब्जियों नमक नहीं। बड़ी बहू जल्दी-जल्दी नमक पीसने लगी। फूलमती गुस्से के मारे होंठ चबा रही थी, पर इस मौके पर कुछ कह नहीं सकती थी। नमक पिसा और पत्तलों पर डाला गया। इतने में फिर शोर मचा- पानी गरम है, ठंडा पानी लाओ, ठंडे पानी का कोई इंतजाम नहीं था, बर्फ भी नहीं मँगाई गई थी। आदमी बाजार दौड़ाया गया, मगर बाजार में इतनी रात को बर्फ कहाँ? आदमी खाली हाथ लौट आया। मेहमानों को वही नल का गरम पानी पीना पड़ा। फूलमती का बस चलता, तो लड़कों का मुँह नोंच लेती। ऐसी बेइज़्ज़ती उसके घर में पहले कभी नहीं हुई थी। उस पर सब मालिक बनने के लिए मरे जा रहे हैं। बर्फ जैसी जरूरी चीज मँगवाने का भी किसी को ध्यान नहीं था| ध्यान कहाँ से रहे- जब किसी को बातें करने से फुर्सत मिले तब ना। मेहमान अपने दिल में क्या कहेंगे कि चले हैं बिरादरी को भोजन देने और घर में बर्फ तक नहीं है|

अच्छा अब, फिर यह हलचल क्यों मच गयी? अरे, लोग लाइन से उठे जा रहे हैं। क्या मामला है?
फूलमती चुप-चाप नहीं रह सकी। कमरे से निकलकर बरामदे में आई और कामतानाथ से पूछा- 'क्या बात हो गयी लल्ला? लोग उठे क्यों जा रहे हैं?'
कामता ने कोई जवाब नहीं दिया। वहाँ से चला गया।
फूलमती झुँझलाकर रह गयी। तभी अचानक कहारिन मिल गयी।

फूलमती ने उससे भी यह सवाल किया। मालूम हुआ, किसी के सब्जी के रसे में मरी हुई चुहिया निकल आयी। फूलमती पत्थर की मूर्ती की तरह वहीं खड़ी रह गयी। अंदर ऐसा उबाल उठा कि दीवार से सिर मार ले| बेवकूफ भंडारे का इंतजाम करने चले थे। इस बेशर्मी की कोई हद है, कितने आदमियों का धर्म खराब हो गया| फिर लाइन क्यों न उठे ? आँखों से देखकर अपना धर्म कौन गँवायेगा? हाय! सारा किया-कराया मिट्टी में मिल गया। सैकड़ों रूपये पर पानी फिर गया! बदनामी हुई वह अलग।

मेहमान उठ चुके थे। पत्तलों पर खाना ऐसे ही पड़ा था। चारों लड़के आँगन में शर्म से खड़े थे। एक दूसरे को इल्ज़ाम दे रहा था। बड़ी बहू अपनी देवरानियों पर गुस्से में बड़बड़ा रही थी। देवरानियाँ सारा इल्ज़ाम कुमुद के सिर डालती थी। कुमुद खड़ी रो रही थी। उसी वक्त
फूलमती झल्लायी हुई आकर बोली- 'मुँह काला हुआ  कि नहीं या अभी भी कुछ बाकी है? डूब मरो, सब-के-सब जाकर चुल्लू-भर पानी में, शहर में कहीं मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहे।'
किसी लड़के ने जवाब न दिया।

फूलमती और गुस्से से बोली- 'तुम लोगों को क्या? किसी को शर्म तो है नहीं। आत्मा तो उनकी रो रही है, जिन्होंने अपनी जिन्दगी घर की इज्जत बनाने में खराब कर दी। उनकी पवित्र आत्मा को तुमने ऐसे दाग लगाया? शहर में थू-थू हो रही है। अब कोई तुम्हे पूछने तो आयेगा नहीं!'
कामतानाथ कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा। आखिर झुँझला कर
बोला-''अच्छा, अब चुप रहो अम्माँ। गलती हुई, हम सब मानते हैं, बहुत बड़ी गलती  हुई, लेकिन अब क्या उसके लिए घर के लोगों को मार  डालोगी? सभी से गलती होती हैं। आदमी पछताकर रह जाता है। किसी को जान से तो नहीं मार दिया जाता ? ''

बड़ी बहू ने अपनी सफाई दी- 'हम क्या जानते थे कि बीबी (कुमुद) से इतना-सा काम भी न होगा। इन्हें चाहिए था कि देखकर सब्जी कढ़ाई में डालतीं। टोकरी उठाकर कढ़ाई में डाल दी| हमारी क्या गलती है|'
कामतानाथ ने पत्नी को डाँटा- 'इसमें ना कुमुद की गलती है, ना तुम्हारी, ना मेरी । संयोग की बात है। बदनामी भाग्य में लिखी थी, वह हो गयी । इतने बड़े भंडारे में एक-एक मुट्ठी सब्जी कढ़ाई में नहीं डाली जाती| टोकरे-के-टोकरे दाल दिए जाते हैं। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। पर इसमें कैसी बेइज्जती ,और कैसी बदनामी। तुम बिना मतलब में बात बढ़ा रही हो !'
फूलमती ने दाँत पीसकर कहा- 'शर्म तो नहीं, उलटे और बेशर्मी की बातें करते हो।'

कामतानाथ ने बिना डरे कहा- 'शरमाऊँ क्यों, किसी की चोरी की हैं? चीनी में चींटे और आटे में घुन, यह नहीं देखे जाते। पहले हमारी निगाह न पड़ी, बस, यहीं बात बिगड़ गयी। नहीं, चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते। किसी को भी पता नहीं चलता।'
फूलमती ने चौंक कर कहा- 'क्या कहता है, मरी चुहिया खिलाकर सबका धर्म बिगाड़ देता?'
कामता हँसकर बोला- 'क्या पुराने जमाने की बातें करती हो अम्माँ। इन बातों से धर्म नहीं जाता? यह धर्मात्मा लोग जो पत्तल पर से उठ गये हैं, इनमें से कौन है, जो भेड़-बकरी का मांस नहीं खाता हो? तालाब के कछुए और घोंघे तक तो किसी से बचते नहीं। जरा-सी चुहिया में क्या रखा था!'

फूलमती को ऐसा लगा कि अब बर्बादी आने में बहुत देर नहीं है। जब पढ़े-लिखे आदमियों के मन में ऐसे अधार्मिक भाव आने लगे, तो फिर धर्म को भगवान ही बचाये। अपना-सा मुँह लेकर चली गयी।

दो महीने हो गये हैं। रात का समय है। चारों भाई दिन के काम से छुट्टी पाकर कमरे में बैठे गप-शप कर रहे हैं। बड़ी बहू भी बैठी है। कुमुद की शादी का जिक्र छिड़ा हुआ है।
कामतानाथ ने गोल तकिये पर टेक लगाते हुए कहा- 'दादा की बात दादा के साथ गयी। पंडित विद्वान भी हैं और पूजने लायक भी होंगे। लेकिन जो आदमी अपनी पढाई व और पूजनीयता को रूपयों पर बेचे, वह नीच है। ऐसे नीच आदमी के लड़के से हम कुमुद की शादी बिना पैसे में भी नहीं करेंगे, पाँच हजार तो दूर की बात है। उसे छोड़ो और किसी दूसरे लड़के को ढूंढो। हमारे पास बस बीस हजार ही तो हैं। एक-एक के हिस्से में पाँच-पाँच हजार आते हैं। पाँच हजार दहेज में दे दें, और पाँच हजार उपहार, बाजे-गाजे में उड़ा दें, तो फिर हमारे पास क्या बचेगा।'

उमानाथ बोले- 'मुझे अपना दवाखाना खोलने के लिए कम-से-कम पाँच हजार की जरूरत है। मैं अपने हिस्से में से एक रुपया भी नहीं दे सकता। फिर खुलते ही आमदनी तो होगी नहीं। कम-से-कम साल-भर घर से खाना पड़ेगा।'

दयानाथ एक न्यूज़पेपर देख रहे थे। आँखों से चश्मा उतारते हुए बोले- 'मेरा मन भी एक पत्र निकालने का है। प्रेस और पत्र में कम-से-कम दस हजार का खर्चा चाहिए। पाँच हजार मेरे रहेंगे तो कोई-न-कोई साझेदार भी मिल जायेगा। पत्रों में लेख लिखकर मेरा गुजरा नहीं हो सकता।'
कामतानाथ ने सिर हिलाते हुए कहा- 'अजी, राम भजो, बिना पैसे के कोई लेख छापता नहीं, रूपये कौन देता है।'

दयानाथ ने जवाब दिया- 'नहीं, यह बात तो नहीं है। मैं तो कहीं भी बिना पैसे या इनाम के लिये नहीं लिखता।'
कामता ने जैसे अपने शब्द वापस लिये- 'तुम्हारी बात मैं नहीं कहता भाई। तुम तो थोड़ा-बहुत मार लेते हो, लेकिन सबको तो नहीं मिलता।'
बड़ी बहू ने आदर भाव ने कहा- 'कन्या भाग्यवान हो तो गरीब घर में भी सुखी रह सकती है। किस्मत खराब हो, तो राजा के घर में भी रोयेगी। यह सब नसीबों का खेल है।'

TO READ OR LISTEN COMPLETE BOOK CLICK HERE

SHARE
Subscribe
Notify of
Or
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments