(hindi) ANISHT SHANKA
चाँदनी रात, हवा के ठंडा झोंके, मनोहर बगीचा । कुँवर अमरनाथ अपने लंबे चौड़े छत पर लेटे हुए मनोरमा से कह रहे थे- “तुम घबराओ नहीं, मैं जल्द आऊँगा”।
मनोरमा ने उनकी ओर उदास आँखों से देखकर कहा- “मुझे साथ क्यों नहीं ले चलते ?”
अमरनाथ- “तुम्हें वहाँ तकलीफ़ होगी, मैं कभी यहाँ रहूँगा, कभी वहाँ, सारे दिन मारा-मारा फिरूँगा, पहाड़ी देश है, सुनसान और बंजर जंगल के सिवाय बस्ती का कोसों पता नहीं, उन पर भयंकर जानवरों का डर , तुमसे यह तकलीफें न सही जायँगी”।
मनोरमा- “तुम्हें भी तो इन तकलीफ़ों की आदत नहीं है ”।
अमरनाथ- “मैं आदमी हूँ, ज़रुरत पड़ने पर सभी तकलीफों का सामना कर सकता हूँ”।
मनोरमा- (गर्व से) “मैं भी औरत हूँ, ज़रुरत पड़ने पर आग में कूद सकती हूँ। औरतों की कोमलता आदमियों की कविता और कल्पना है। उनमें शारीरिक क्षमता चाहे न हो पर उनमें वो धीरज और हिम्मत है जिस पर काल की बुरी चिंताओं का जरा भी असर नहीं होता”।
अमरनाथ ने मनोरमा को श्रद्धा की नज़रों से देखा और बोले- “यह मैं मानता हूँ, लेकिन जिस कल्पना को हम सदा से सच समझते आये हैं वह एक पल में नहीं मिट सकती। तुम्हारी तकलीफ मुझसे न देखी जायेगी, मुझे दुःख होगा। देखो इस समय चाँदनी में कितनी बहार है !”
मनोरमा- “मुझे बहलाओ मत। मैं ज़िद नहीं करती, लेकिन यहाँ मेरा जीवन मुश्किल हो जायेगा। मेरे दिल की दशा अजीब है। तुम्हें अपने सामने न देख कर मेरे मन में तरह-तरह की शंकाएँ होती हैं कि कहीं चोट न लग गयी हो, शिकार खेलने जाते हो तो डरती हूँ कहीं घोड़े ने शरारत न की हो। मुझे कुछ बुरा होने का डर हमेशा सताया करता है”।
अमरनाथ- “लेकिन मैं तो विलास का भक्त हूँ। मुझ पर इतना प्रेम करके तुम अपने ऊपर अन्याय करती हो”।
मनोरमा ने अमरनाथ को दबी हुई नज़र से देखा जो कह रही थी- “मैं तुम्हें तुमसे ज्यादा पहचानती हूँ”।
बुंदेलखंड में भयंकर अकाल पड़ा था। लोग पेड़ों की छालें छील-छील कर खा रहे थे। भूख की तड़प ने, किन चीज़ों को खानी चाहिए और किसे नहीं, इसकी पहचान मिटा दी थी। जानवरों का तो कहना ही क्या, इंसान के बच्चे कौड़ियों के मोल बिक रहे थे। पादरियों की चढ़ बनी थी, उनके अनाथालयों में रोज़ बच्चे भेंड़ों की तरह हाँके जाते थे। माँ की ममता मुट्ठी भर अनाज पर कुर्बान हो रही थी । कुँवर अमरनाथ काशी-सेवा-समिति के मैनेजर थे। जब उन्होंने समाचार-पत्रों में यह दिल देहला देने वाले समाचार देखे तो तड़प उठे। समिति के कई नौजवानों को साथ लेकर वो बुंदेलखण्ड जा पहुँचे। जाते समय उन्होंने मनोरमा से वादा किया कि रोज़ ख़त लिखेंगे और मुमकिन हुआ तो जल्द लौट आयेंगे।
एक हफ़्ते तक तो उन्होंने अपना वादा निभाया , लेकिन धीरे-धीरे ख़त में देर होने लगी। अक्सर इलाके डाकघर से बहुत दूर पड़ते थे। वहाँ से रोज़ ख़त भेजने का बंदोबस्त करना बेहद मुश्किल था।
मनोरमा कुंवर साहब की जुदाई और -दुःख से बेचैन रहने लगी। वह अव्यवस्थित दशा में उदास बैठी रहती, कभी नीचे आती, कभी ऊपर जाती, कभी बाग में जा बैठती। जब तक ख़त न आ जाता वह इसी तरह चिंतित रहती, ख़त मिलते ही सूखे धान में पानी पड़ जाता।
लेकिन जब ख़त के आने में देर होने लगी तो उसका दुखी-दिल बेसब्र हो गया। वो बार-बार पछताती कि मैं बेकार उनके कहने में आ गयी, मुझे उनके साथ जाना चाहिए था। उसे किताबों से प्रेम था पर अब उनकी ओर ताकने का भी जी न चाहता था । मन बहलाने की चीज़ों से उसे अरुचि-सी हो गयी ! इस तरह एक महीना गुजर गया।
एक दिन उसने सपना देखा कि अमरनाथ दरवाज़े पर नंगे सिर, नंगे पैर, खड़े रो रहे हैं। वह घबरा कर उठ बैठी और बड़ी तेज़ी से में दौड़ती हुई दरवाज़े तक आयी। यहाँ का सन्नाटा देख कर उसे होश आ गया। उसी पल मुनीम को जगाया और कुँवर साहब के नाम ख़त भेजा पर जवाब न आया। सारा दिन गुजर गया मगर कोई जवाब नहीं। दूसरी रात भी गुजरी लेकिन जवाब का पता न था। मनोरमा बिना खाए पिए बेहोशी की हालत में अपने कमरे में पड़ी रहती। जिसे देखती उसी से पूछती “जवाब आया क्या ?” कोई दरवाज़े पर आवाज देता तो दौड़ी हुई जाती और पूछती “कुछ जवाब आया ?”
उसके मन में तरह-तरह की शंकाएँ उठतीं; वो औरतों से सपने का मतलब पूछती। सपने के कारण और मतलब पर कई ग्रंथ पढ़ डाले, पर कुछ रहस्य न खुला। औरतें उसे दिलासा देने के लिए कहतीं, कुँवर जी बिलकुल ठीक हैं। सपने में किसी को नंगे पैर देखें तो समझो वह घोड़े पर सवार है। घबराने की कोई बात नहीं। लेकिन रमा को इस बात से तसल्ली न होती। उसने ख़त के जवाब की रट लगाईं हुई थी, यहाँ तक कि चार दिन गुजर गए।
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किसी मुहल्ले में मदारी का आ जाना बच्चों के लिए एक ख़ास और मनोरंजक बात है। उसके डमरू की आवाज में चाट वाले की मुहं में पानी भर देने वाली आवाज़ से भी ज़्यादा आकर्षण होता है। इसी तरह मुहल्ले में किसी ज्योतिषी का आ जाना बड़ी दिलचस्प बात है। एक पल में इसकी खबर घर-घर फैल जाती है। सास अपनी बहू को लिये आ पहुँचती है, माँ अपनी बुरी किस्मत की बेटी को ले कर आ जाती है। ज्योतिषी जी दुःख-सुख की हालत के अनुसार बौछार करने लगते हैं। उनकी भविष्यवाणियों में बड़ा गहरा रहस्य होता है। उनका भाग्य निर्माण भाग्य-रेखाओं से भी पेचीदा और भ्रम में डालने वाला होता है। हो सकता है कि अभी की शिक्षा विधान ने ज्योतिष का आदर कुछ कम कर दिया हो पर ज्योतिषी जी के महानता में जरा कमी नहीं हुई। उनकी बातों पर चाहे किसी को विश्वास न हो पर सुनना सभी चाहते हैं। उनके एक-एक शब्द में आशा और डर को उत्तेजित करने की शक्ति भरी रहती है, ख़ासकर उसकी बुरी सूचना तो बिजली गिरने के सामान है, ख़तरनाक और परेशान करने वाले।
ख़त भेजे हुए आज पाँचवाँ दिन था कि कुँवर साहब के दरवाज़े पर एक ज्योतिषी का आना हुआ। तुरंत मुहल्ले की महिलाएँ जमा हो गयीं। ज्योतिषी जी भाग्य-के बारे में बताने लगे, किसी को रुलाया, किसी को हँसाया। मनोरमा को खबर मिली। उन्हें तुरंत अंदर बुला भेजा और अपने सपने का मतलब पूछा।
ज्योतिषी जी ने इधर-उधर देखा, पन्ने के पन्ने उल्टे, उँगलियों पर कुछ गिना, पर कुछ फ़ैसला न कर सके कि क्या जवाब देना चाहिए, बोले- “क्या सरकार ने यह सपना देखा है ?”
मनोरमा बोली- “नहीं, मेरी एक सखी ने देखा है, मैं कहती हूँ, यह किसी अपशगुन का इशारा है। वह कहती है, शुभ संकेत है। आपकी इस बारे में क्या राय है ?”
ज्योतिषी जी फिर बगलें झाँकने लगे। उन्हें अमरनाथ की यात्रा का हाल न मालूम था और न इतनी मुहलत मिली थी कि यहाँ आने के पहले वह हालात पता कर लेते जो अंदाज़े के साथ मिला कर जनता में ज्योतिष के नाम से मशहूर है। जो सवाल पूछा था उसका भी कुछ जवाब न मिला। ज्योतिषी ने निराश हो कर मनोरमा के हाँ में हाँ मिलाना में ही अपना कल्याण देखा। बोले, “सरकार जो कहती हैं वही सच है। यह सपना अपशगुन का इशारा कर रहा है”।
मनोरमा खड़ी सितार के तार की तरह थर-थर काँपने लगी। ज्योतिषी जी ने उस बुरी घटना के बारे में बताते हुए कहा- “उनके पति पर कोई बड़ी मुसीबत आने वाली है, उनके घर का नाश हो जायगा, वह देश-विदेश मारे-मारे फिरेंगे”।
मनोरमा ने दीवार का सहारा ले कर कहा, “भगवान्, मेरी रक्षा करो” और बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ी।
ज्योतिषी जी अब समझे । समझ गये कि बड़ा धोखा खाया। अब वो मनोरमा को विश्वास दिलाने लगे, “आप कुछ चिंता न करें। मैं उस संकट का हल निकाल सकता हूँ। मुझे एक बकरा, कुछ लौंग और कच्चा धागा मँगा दें। जब कुँवर जी के यहाँ से कुशल-समाचार आ जाय तो जो दक्षिणा चाहें दे दें। काम मुश्किल है पर भगवान् की दया से नामुमकिन नहीं है। सरकार देखिए मुझे बड़े-बड़े उस्तादों ने सर्टिफिकेट दिये हैं। अभी डिप्टी साहब की बेटी बीमार थी। डाक्टरों ने जवाब दे दिया था। मैंने यंत्र दिया, तो बैठे-बैठे आँखें खुल गयीं। कल की बात है, सेठ चंदूलाल के यहाँ से रूपए की एक थैली गायब हो गयी थी, कुछ पता न चल रहा था, मैंने शगुन देखा और बात की बात में चोर पकड़ लिया। उनके मुनीम का काम था, थैली वैसी की वैसी निकल आयी”।
ज्योतिषी जी तो अपनी सिद्धियों की तारीफ़ कर रहे थे और मनोरमा बेहोश पड़ी हुई थी।
अचानक वह उठ बैठी, मुनीम को बुलाकर कहा, “सफ़र की तैयारी करो, मैं शाम की गाड़ी से बुंदेलखंड जाऊँगी”।
मनोरमा ने स्टेशन पर आ कर अमरनाथ को ख़त दिया ‘‘मैं आ रही हूँ।’’ उनके अंतिम ख़त से मालूम चला था कि वह कबरई में हैं, इसलिए उसने कबरई का टिकट लिया। लेकिन वो कई दिनों से जाग रही थीं तो गाड़ी में बैठते ही नींद आ गयी और नींद आते ही बुरी शंकाओं ने एक भयानक सपने का रूप ले लिया।
उसने देखा सामने एक गहरा सागर है, उसमें एक टूटी हुई नौका डगमगाती हुई बहती चली जा रही है। उस पर न कोई मल्लाह है न पाल, न चप्पू । लहरें उसे कभी ऊपर ले जाती तो कभी नीचे, तभी उस पर एक आदमी दिखाई दिया । यह अमरनाथ थे, नंगे सिर, नंगे पैर, आँखों से आँसू बहाते हुए। मनोरमा थर-थर काँप रही थी। उसे लग रहा था नौका अब डूबी तब डूबी। उसने जोर से चीख मारी और जाग पड़ी। उसका शरीर पसीने से तर था, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था । वह तुरंत उठ बैठी, हाथ-मुँह धोया और इरादा किया अब न सोऊँगी ! हा ! कितना डरावना नज़ारा था। परम पिता ! अब तुम्हारा ही भरोसा है। उनकी रक्षा करो।