(hindi) Actress

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रंगमंच का परदा गिर गया। तारा देवी ने शकुंतला का पार्ट खेलकर दर्शकों को मुग्ध कर दिया था। जिस वक्त वह शकुंतला के रुप में राजा दुष्यंत के सामने खड़ी ग्लानि, दर्द , और अपमान से पीड़ित भावों को गुस्से में प्रकट कर रही थी, दर्शक मर्यादा के नियमों को अनदेखा कर मंच की ओर पागलों की तरह दौड़ पड़े और तारादेवी का नाम लेकर वाहवाही करने लगे। कितने तो स्टेज पर चढ़ गये और तारादेवी के चरणों पर गिर पड़े। सारा स्टेज फूलों से भर गया, गहनों की बारिश होने लगी।

अगर उसी पल  मेनका का रथ नीचे आकर उसे उड़ा न ले जाता, तो शायद उस धक्कम-धक्के में दस-पॉँच आदमियों की जान पर बन जाती। मैनेजर ने तुरन्त आकर दर्शकों को उनकी तारीफ़ और तालियों के लिए धन्यवाद दिया और वादा भी किया कि दूसरे दिन फिर वही नाटक दिखाया जाएगा। तब जाकर लोगों की दीवानगी  शांत हुई । मगर एक नौजवान उस वक्त भी मंच पर खड़ा रहा। वो लम्बे कद का था, तेजस्वी चेहरा , शुद्ध सोने जैसा, देवताओं जैसा रूप, गठा हुआ शरीर , चेहरे पर चमक । मानो कोई राजकुमार हो।

जब सारे दर्शक बाहर निकल गये, उसने मैनेजर से पूछा—“क्या तारादेवी से मिल सकता हूँ?

मैनेजर ने अपमान के भाव से कहा—“हमारे यहाँ ऐसा नियम नहीं है”।
नौजवान ने फिर पूछा—“क्या आप मेरा कोई ख़त उसके पास भेज सकते हैं?”
मैनेजर ने उसी अपमान के भाव से कहा—“जी नहीं। माफ़ कीजिएगा। यह हमारे नियमों के ख़िलाफ़ है”।

नौजवान ने और कुछ न कहा, निराश होकर स्टेज के नीचे उतर पड़ा और बाहर जाना ही चाहता था कि मैनेजर ने पूछा—“जरा ठहर जाइये, आपका कार्ड?”
नौजवान ने जेब से कागज का एक टुकड़ा निकाल कर कुछ लिखा और दे दिया। मैनेजर ने कागज़  को उड़ती हुई नज़र से देखा—“कुंवर निर्मलकान्त चौधरी, ओ. बी. ई.”। मैनेजर के  कठोर हाव भाव कोमल हो गए ।

कुंवर निर्मलकान्त—शहर के सबसे बड़े रईस और ताल्लुकदार, साहित्य के उभरते हुए रत्न, संगीत के दिग्गज आचार्य, उच्च-कोटि के विद्वान, आठ-दस लाख साल में मुनाफ़ा कमाने वाले, जिनके दान से देश की कितनी ही संस्थाऍं चलती थीं—इस समय एक गरीब के समान अर्ज़ी लगा रहे थे। मैनेजर अपने अपमान -भाव पर शर्मिंदा  हो गया। विनम्र शब्दों में बोला—“माफ़ कीजिएगा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मैं अभी तारादेवी के पास हुजूर का कार्ड लिए जाता हूँ”।

कुंवर साहब ने उससे रुकने का इशारा करके कहा—“नहीं, अब रहने ही दीजिए, मैं कल पॉँच बजे आऊँगा। इस वक्त तारादेवी को तकलीफ़ होगी । यह उनके आराम करने का समय है”।

मैनेजर—“मुझे विश्वास है कि वह आपकी खातिर इतनी तकलीफ़ ख़ुशी-ख़ुशी सह लेंगी, मैं एक मिनट में आता हूँ”।

लेकिन कुंवर साहब अपना परिचय देने के बाद अपने उतावलेपन  पर संयम का परदा डालने के लिए मजबूर थे। उन्होंने मैनेजर को धन्यवाद किया और कल आने का वादा करके चले गये।

तारा एक साफ-सुथरे और सजे हुए कमरे में मेज के सामने किसी विचार में मग्न बैठी थी। रात का वह नज़ारा उसकी आँखों के सामने नाच रहा था। ऐसे दिन जीवन में क्या बार-बार आते हैं?

कितने लोग उसे देखने के लिए बेचैन हो रहे थे ? इतना कि , एक-दूसरे पर कूद रहे थे । कितनों को उसने पैरों से ठुकरा दिया था—हाँ, ठुकरा दिया था। मगर उन लोगों  में सिर्फ़ एक दिव्य मूर्ति शांत रुप से खड़ी थी। उसकी आँखों में कितना गम्भीर प्रेम था, कितना पक्का इरादा ! ऐसा लग रहा था मानों उसकी दोनों आखें दिल में चुभी जा रही हों। आज फिर उस आदमी के दर्शन होंगे या नहीं, कौन जानता है। लेकिन अगर आज उनके दर्शन हुए, तो तारा उनसे एक बार बातचीत किये बिना न जाने देगी।

यह सोचते हुए उसने आईने की ओर देखा, कमल का फूल-सा खिला था, कौन कह सकता था कि वह नया नया फूल तैंतीस बसंत की बहार देख चुका है। वह  तेज़ , वह कोमलता, वह चंचलता , वह मधुरता अभी-अभी जवानी में कदम रखने वाली औरत को भी शर्मिंदा कर सकता था। तारा एक बार फिर दिल में प्रेम का दीपक जला बैठी। आज से बीस साल पहले एक बार उसे प्रेम का कड़वा अनुभव हुआ था। तब से वह एक तरह से विधवा का जीवन जी  रही थी । कितने प्रेमियों ने अपना दिल उसे भेंट करना चाहा; पर उसने किसी की ओर आँख उठाकर भी न देखा। उसे उनके प्रेम में कपट की गन्ध आती थी। मगर आह! आज उसका संयम हाथ से निकल गया।

एक बार फिर दिल में उसी मधुर कशिश का अनुभव हुआ, जो बीस साल पहले हुआ था। एक आदमी का सौम्य रूप उसकी आँखें में बस गया, दिल उसकी ओर खिंचने लगा। उसे वह किसी तरह भूल न सकती थी। उसी आदमी को अगर उसने मोटर पर जाते देखा होता, तो शायद उधर ध्यान भी न देती । पर उसे अपने सामने प्रेम का तोहफ़ा हाथ में लिए देखकर वह शांत न रह सकी।

तभी दाई ने आकर कहा—“बाई जी, रात की सब चीजें रखी हुई हैं, कहिए तो लाऊँ?”
तारा ने कहा—“नहीं, मेरे पास चीजें लाने की जरुरत नहीं; मगर ठहरो, क्या-क्या चीजें हैं”।
‘सामान का ढेर लगा है बाई जी, कहाँ तक गिनाऊँ—अशर्फियॉँ हैं, ब्रूच, बाल के पिन, बटन, लॉकेट, अँगूठियॉँ सभी तो हैं। एक छोटे-से डिब्बे में एक सुन्दर हार है। मैंने आज तक वैसा हार नहीं देखा। सब बक्से में रख दिया है।’

‘अच्छा, वह बक्सा मेरे पास ला।’ दाई ने बक्सा लाकर मेज रख दिया। उधर एक लड़के ने एक ख़त लाकर तारा को दिया। तारा ने ख़त को उतावली नज़रों से देखा—“कुंवर निर्मलकान्त ओ. बी. ई.”। लड़के से पूछा—“यह ख़त किसने दिया? वह तो नहीं, जो रेशमी पगड़ी  बॉँधे हुए थे?

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लड़के ने सिर्फ़ इतना कहा—“मैनेजर साहब ने दिया है” और लपककर बाहर चला गया।

बक्से में सबसे पहले डिब्बा नजर आया। तारा ने उसे खोला तो सच्चे मोतियों का सुन्दर हार था। डिब्बे में एक तरफ एक कार्ड भी था। तारा ने तुरंत उसे पढ़ा—“कुंवर निर्मलकान्त…”। कार्ड उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ा। वह झपट कर कुरसी से उठी और बड़ी तेज़ी से कई कमरों और बरामदों को पार करती मैनेजर के सामने आकर खड़ी हो गयीं। मैनेजर ने खड़े होकर उसका स्वागत किया और बोला—“मैं रात की कामयाबी पर आपको बधाई देता हूँ”।

तारा ने खड़े-खड़े पूछा—“कुँवर निर्मलकांत क्या बाहर हैं? लड़का ख़त दे कर भाग गया, मैं उससे कुछ पूछ न सकी”।

‘कुँवर साहब का ख़त तो रात ही तुम्हारे चले आने के बाद मिला था।’
‘तो आपने उसी वक्त मेरे पास क्यों न भेज दिया?’

मैनेजर ने दबी जबान से कहा—“मैंने समझा, तुम आराम कर रही होगी, तकलीफ़  देना ठीक  न समझा और भाई, साफ बात यह है कि मैं डर रहा था, कहीं कुँवर साहब को तुमसे मिला कर तुम्हें खो न बैठूँ। अगर मैं औरत होता, तो उसी वक्त उनके पीछे हो लेता। ऐसा देवरुप आदमी  मैंने आज तक नहीं देखा। वही जो रेशमी साफा बॉँधे खड़े थे तुम्हारे सामने। तुमने भी तो देखा था”।

तारा ने मानो आधी नींद की हालत में कहा—“हाँ, देखा तो था—क्या वो फिर आयेंगे?”
“हाँ, आज पॉँच बजे शाम। बड़े विद्वान आदमी हैं, और इस शहर के सबसे बड़े रईस।’
‘आज मैं रिहर्सल में न आऊँगी।’

कुँवर साहब आ रहे होंगे। तारा आईने के सामने बैठी और दाई उसका श्रृंगार कर रही है। श्रृंगार भी किसी जमाने में एक कला थी। पहले दस्तूर के अनुसार ही श्रृंगार किया जाता था। कवियों, चित्रकारों और रसिकों ने श्रृंगार की एक मर्यादा-सी बॉँध दी थी।

आँखों के लिए काजल लाजमी (ज़रूरी) था, हाथों के लिए मेंहदी, पाँव के लिए आल्ता । एक-एक अंग एक-एक ज़ेवर के लिए बना हुआ था। आज वह दस्तूर नहीं रही। आज हर औरत अपनी पसंद, बुद्धि और भाव से श्रृंगार करती है। उसकी सुंदरता किस तरह आकर्षण की सीमा पर पहुँच सकती है, यही उसका मकसद  होता है और तारा इस कला में माहिर थी। वह पन्द्रह साल से इस कम्पनी में थी और अपना पूरा जीवन उसने आदमियों के दिल  से खेलने ही में बिताया था। किस अदा से, किस मुस्कान से, किस अँगड़ाई से, किस तरह बाल को बिखेर देने से दिलों का कत्ले आम हो जाता है; इस कला में कौन उससे बढ़कर हो सकता था!

आज उसने चुन-चुन कर आजमाये हुए तीर तरकस से निकाले, और जब अपने हथियारों से सज कर दीवान खाने में आयी, तो लगा मानों संसार की सारी सुंदरता उसकी नज़र उतार रही हो। वह मेज के पास खड़ी होकर कुँवर साहब का कार्ड देख रही थी, उसके कान मोटर की आवाज की ओर लगे हुए थे। वह चाहती थी कि कुँवर साहब इसी वक्त आ जाऍं और उसे इसी अन्दाज से खड़े देखें। इसी अन्दाज से वह उसकी पूरी छवि देख सकते थे।

उसने अपनी श्रृंगार कला से काल पर जीत पा ली थी। कौन कह सकता था कि यह चंचल जवानी उस हालत में पहुँच चुकी है, जब दिल को शांति की इच्छा होती है, वह किसी आश्रम के लिए बेचैन हो उठता है, और उसका अभिमान नम्रता के आगे सिर झुका देता है।

तारा देवी को बहुत इन्तजार न करना पड़ा। कुँवर साहब शायद मिलने के लिए उससे भी ज़्यादा बेचैन थे। दस मिनट के बाद उनकी मोटर की आवाज आयी। तारा सँभल गयी। एक पल में कुँवर साहब कमरे में आए। तारा सभ्यता के लिए हाथ मिलाना भी भूल गयी, उम्र बढ़ने के बाद भी प्रेमी की बेचैनी और लापरवाही कुछ कम नहीं होती। वह किसी शर्मीली औरत की तरह  सिर झुकाए खड़ी रही।

कुँवर साहब की आते ही नज़र उसकी गर्दन पर पड़ी। वह मोतियों का हार, जो उन्होंने रात को भेंट किया था, चमक रहा था। कुँवर साहब को इतनी ख़ुशी पहले कभी न हुई थी । उन्हें एक पल  के लिए ऐसा लगा मानों उनके जीवन के सारे अरमान पूरे हो गए। वो बोले—“मैंने आपको आज इतनी सुबह तकलीफ़ दी, माफ़ कीजिएगा। यह तो आपके आराम का समय होगा?” तारा ने सिर से खिसकती हुई साड़ी को सँभाल कर कहा—“इससे ज्यादा आराम और क्या हो सकता कि आपके दर्शन हुए। मैं इस तोहफ़े के लिए आपको बहुत धन्यवाद देती हूँ।
अब तो कभी-कभी मुलाकात होती रहेगी?”

निर्मलकान्त ने मुस्कराकर कहा—“कभी-कभी नहीं, रोज। आप चाहे मुझसे मिलना पसन्द न करें, पर एक बार इस दरवाज़े पर सिर झुका ही जाऊँगा”।
तारा ने भी मुस्करा कर जवाब दिया—“उसी वक्त तक जब तक कि दिल बहलाने के लिए कोई नयी चीज़ नजर न आ जाए! क्यों?”

‘मेरे लिए यह मनोरंजन की बात नहीं, जिंदगी और मौत का सवाल है। हाँ, तुम इसे मज़ाक  समझ सकती हो, मगर कोई पहवाह नहीं। तुम्हारे मनोरंजन के लिए मेरी जान भी निकल जाए, तो मैं अपना जीवन सफल समझूँगा”।

दोंनों तरफ से इस प्रेम को निभाने के वादे हुए, फिर दोनों ने नाश्ता किया और कल खाने का न्योता देकर कुँवर साहब विदा हुए।

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