(hindi) Abhushan
आभूषणों(गहनों) की बेइज्जती करना हमारा मकसद नहीं है। हम मदद ना पाने का दर्द सह सकते हैं पर सुंदर औरतों की बेरहम खतरनाक बातों के तीर को नहीं सह सकते। तो भी इतना जरूर कहेंगे कि इस इच्छा को पूरी करने के लिए जितना त्याग किया जाता है उसका सही इस्तेमाल करने से महान् पद मिल सकता है।
हालांकि हमने किसी कम सुंदर औरत को आभूषणों की सजावट से ज्यादा सुंदर होते नहीं देखा। फिर भी हम यह भी मान लेते हैं कि रूप के लिए आभूषणों की उतनी ही जरूरत है जितनी घर के लिए दीपक की। लेकिन शरीर की शोभा के लिए हम शरीर को कितना गंदा, मन को कितना अशांत और आत्मा को कितना अपवित्र बना लेते हैं इसका हमें शायद पता ही नहीं होता। इस दीपक की ज्योति में आँखें धुँधली हो जाती हैं। यह चमक-दमक कितनी जलन, कितने दुश्मनी, कितनी मुकाबले, कितनी बुरे ख्याल और कितनी गलत उम्मीद का कारण है इसके बारे में सोचने से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन्हें भूषण(गहने) नहीं दूषण(बुराई) कहना ज्यादा सही है।
नहीं तो यह कब हो सकता था कि कोई नई बहू पति के घर आने के तीसरे दिन अपने पति से कहती कि मेरे पिता ने तुम्हारे पल्ले बाँध कर मुझे तो कुएँ में ढकेल दिया। शीतला आज अपने गाँव के ताल्लुकेदार कुँवर सुरेशसिंह की नई बहू को देखने गयी थी। उसके सामने ही वह जैसे मंत्र के वश में हो गयी। बहू की सुंदरता पर नहीं उसके आभूषणों की जगमगाहट पर उसकी टकटकी लगी रही। और वह जब से लौट कर घर आयी उसकी छाती पर साँप लोटता रहा। आखिर में जैसे ही उसका पति आया वह उस पर बरस पड़ी और दिल में भरा हुआ गुबार ऊपर कहे गए शब्दों में निकल पड़ा। शीतला के पति का नाम विमलसिंह था। उनके पुरखे किसी जमाने में इलाकेदार थे। इस गाँव पर भी उन्हीं का सोलहों आने हक था। लेकिन अब इस घर की हालत खराब हो गयी है। सुरेशसिंह के पिता जमींदारी के काम में अच्छे थे।
विमलसिंह का सब इलाका किसी न किसी तरह से उनके हाथ आ गया। विमल के पास सवारी का टट्टू भी न था उसे दिन में दो बार खाना भी मुश्किल से मिलता था। उधर सुरेश के पास हाथी, मोटर और कई घोड़े थे दस-पाँच बाहर के आदमी रोज दरवाजे पर पड़े रहते थे। पर इतना अंतर होने पर भी दोनों में भाईचारा निभाया जाता था। शादी और दूसरे अच्छे मौकों में एक दूसरे के घर आना-जाना होता रहता था। सुरेश पढ़ना लिखना पसंद करते थे। हिंदुस्तान में ऊँची शिक्षा पूरी करके वह यूरोप चले गये और सब लोगों की शक के उल्टे वहाँ से भारत की संस्कृति के परम भक्त बन कर लौटे। वहाँ के बेजान बनावटी लत और अमानवीय घमंड के नशे ने उनकी आँखें खोल दी थीं।
पहले वह घरवालों के बहुत जोर देने पर भी शादी करने को राजी नहीं हुए थे। लड़की को पहले जाने बिना शादी नहीं कर सकते थे। पर यूरोप से लौटने पर उनके शादी के बारे में सोच में बहुत बड़ा बदलाव आया। उन्होंने उसी पहले की लड़की से बिना उसके सोच व्यवहार जाने शादी कर ली। अब वह शादी को प्यार का बंधन नहीं, धर्म का बंधन समझते थे। उसी खुशकिस्मत बहू को देखने के लिए आज शीतला अपनी सास के साथ सुरेश के घर गयी थी। उसी के आभूषणों का नजारा देख कर वह दुखी हो गयी है। विमल ने दुखी हो कर कहा- “तो माता-पिता से कहा होता सुरेश से ब्याह कर देते। वह तुम्हें गहनों से लाद सकते थे।”
शीतला- “तो गाली क्यों देते हो?”
विमल- “गाली नहीं देता बात कहता हूँ। तुम जैसी सुंदरी को उन्होंने बेकार मेरे साथ शादी कर दी।”
शीतला- “शर्म तो आती नहीं उलटे और ताने देते हो।”
विमल- “किस्मत मेरे वश में नहीं है। इतना पढ़ा भी नहीं हूँ कि कोई बड़ी नौकरी करके रुपये कमाऊँ।”
शीतला- “यह क्यों नहीं कहते कि प्यार ही नहीं है। प्यार हो तो पैसे बरसने लगे।”
विमल- “तुम्हें गहनों से बहुत प्यार है?”
शीतला- “सभी को होता है। मुझे भी है।”
विमल- “अपने को बदकिस्मत समझती हो?”
शीतला- “हूँ ही समझना कैसा? नहीं तो क्या दूसरे को देख कर तरसना पड़ता?”
विमल- “गहने बनवा दूँ तो अपने को खुशकिस्मत समझने लगोगी?”
शीतला- “(चिढ़ कर) तुम तो इस तरह पूछ रहे हो जैसे सुनार दरवाजे पर बैठा है !”
विमल- “नहीं सच कहता हूँ बनवा दूँगा। हाँ कुछ दिन सब्र करना पड़ेगा।”
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काबिल आदमियों को बात लग जाती है तो जान ले लेते हैं। जो काबिल नहीं, वह आदमी अपनी ही जान पर खेल जाता है। विमलसिंह ने घर से निकल जाने की ठानी। तय किया या तो इसे गहनों से ही लाद दूँगा या विधवा होने के दुख से। या तो आभूषण ही पहनेगी या सिंदूर को भी तरसेगी।
दिन भर वह चिंता में डूबा पड़ा रहा। शीतला को उसने प्यार से संतुष्ट करना चाहा था। आज अनुभव हुआ कि नारी का दिल प्यार के जाल से नहीं बँधता, सोने के जाल ही से बँध सकता है। पहर रात जाते-जाते वह घर से चल खड़ा हुआ। पीछे फिर कर कभी न देखा। ज्ञान से बने विराग में चाहे मोह हो पर निराशा से बने विराग अचल होता है। रोशनी में इधर की चीजों को देख कर मन ललचा सकता है। पर अंधेरे में किसकी हिम्मत है जो लकीर से जरा सा भी हट सके।
विमल के पास विद्या न थी हुनर भी न था। उसे लिए अपने कड़ी मेहनत और कड़े आत्म-त्याग ही का सहारा था। वह पहले कलकत्ते गया। वहाँ कुछ दिन तक एक सेठ की अगवानी करता रहा। वहाँ जो सुन पाया कि रंगून में मजदूरी अच्छी मिलती है तो वह रंगून जा पहुँचा और पोर्ट पर माल चढ़ाने-उतारने का काम करने लगा।
कुछ तो कड़ी मेहनत, कुछ खाने-पीने के गड़बड़ी और कुछ जलवायु की खराबी के कारण वह बीमार हो गया। शरीर कमजोर हो गया, चेहरे की चमक जाती रही, फिर भी उससे ज्यादा मेहनती मजदूर पोर्ट पर दूसरा न था। और मजदूर थे पर यह मजदूर तपस्वी था। मन में जो कुछ ठान लिया था उसे पूरा करना उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था।
उसने घर को अपनी कोई खबर न भेजी। अपने मन से तर्क किया घर में मेरा कौन है? गहनों के सामने मुझे कौन पूछता है? उसकी बुद्धि यह राज समझने में नाकाबिल थी कि आभूषणों की लालच रहने पर भी शादी निभाई जा सकती है। और मजदूर सुबह सेरों मिठाई खा कर जलपान करते थे। दिन भर दम-दम भर पर गाँजे-चरस और तमाखू के दम लगाते थे। छुट्टी पाते तो बाजार की सैर करते थे। कितनों ही को शराब का भी शौक था। पैसों के बदले रुपये कमाते थे तो पैसों की जगह रुपये खर्च भी कर डालते थे। किसी के शरीर पर सही कपड़े न थे पर विमल उन गिनती के दो-चार मजदूरों में था जो संयम से रहते थे जिनके जीवन का उद्देश्य खा-पी कर मर जाने के सिवा कुछ और भी था। थोड़े ही दिनों में उसके पास थोड़ी-सी संपत्ति हो गयी। पैसे के साथ और मजदूरों पर दबाव भी बढ़ने लगा। यह अक्सर सभी जानते थे कि विमल जाति का कुलीन ठाकुर है। सब ठाकुर ही कह कर उसे पुकारते थे। सब्र और व्यवहार सम्मान- पाने के मंत्र हैं। विमल मजदूरों का नेता और महाजन हो गया।
विमल को रंगून में काम करते हुए तीन साल हो चुके थे। शाम हो गयी थी। वह कई मजदूरों के साथ समुद्र के किनारे बैठा बातें कर रहा था।
एक मजदूर ने कहा- “यहाँ की सभी औरतें बेरहम होती हैं। बेचारा झींगुर 10 साल से उसी बर्मा की औरत के साथ रहता था। कोई अपनी शादीशुदा पत्नी से भी इतना प्यार न करता होगा। उस पर इतना भरोसा करता था कि जो कुछ कमाता सो उसके हाथ में रख देता था। तीन लड़के थे। अभी कल तक दोनों साथ-साथ खा कर लेटे थे। न कोई लड़ाई न बात न चीत। रात को औरत न जाने कहाँ चली गयी। लड़कों को छोड़ गयी। बेचारा झींगुर रो रहा है। सबसे बड़ी मुश्किल तो छोटे बच्चे की है। अभी कुल छह महीने का है। कैसे जियेगा भगवान् ही जानें।”
विमलसिंह ने गंभीर भाव से कहा- “गहने बनवाता था कि नहीं?”
मजदूर- “रुपये-पैसे तो औरत ही के हाथ में थे। गहने बनवाती उसका हाथ कौन पकड़ता?”
दूसरे मजदूर ने कहा- “गहनों से तो लदी हुई थी। जिधर से निकल जाती थी छम्-छम् की आवाज से कान भर जाते थे।”
विमल- “जब गहने बनवाने पर भी बेदिली की तो यही कहना पड़ेगा कि यह जाति ही बेवफा होती है।”
इतने में एक आदमी आ कर विमलसिंह से बोला- “चौधरी अभी मुझे एक सिपाही मिला था। वह तुम्हारा नाम, गाँव और बाप का नाम पूछ रहा था। कोई बाबू सुरेशसिंह हैं।”
विमल ने शक से कहा- “हाँ हैं तो। मेरे गाँव के इलाकेदार और बिरादरी के भाई हैं।”
आदमी- “उन्होंने थाने में कोई नोटिस छपवाया है कि जो विमलसिंह का पता लगावेगा उसे 1000 रुपये का इनाम मिलेगा।”
विमल- “तो तुमने सिपाही को सब ठीक-ठीक बता दिया?”
आदमी- “चौधरी मैं कोई गँवार हूँ क्या? समझ गया कुछ दाल में काला है नहीं तो कोई इतने रुपये क्यों खर्च करता। मैंने कह दिया कि उनका नाम विमलसिंह नहीं जसोदा पाँडे है। बाप का नाम सुक्खू बताया और घर जिला झाँसी में। पूछने लगा यहाँ कितने दिन से रहता है मैंने कहा कोई दस साल से। तब कुछ सोच कर चला गया। सुरेश बाबू से तुमसे कोई झगड़ा है क्या चौधरी?”
विमल- “झगड़ा तो नहीं था मगर कौन जाने उनकी नीयत बिगड़ गयी हो। मुझ पर कोई अपराध लगा कर मेरी जगह-जमीन पर हाथ बढ़ाना चाहते हों। तुमने बड़ा अच्छा किया कि सिपाही को गलत जानकारी दी।”
आदमी- “मुझसे कहता था कि ठीक-ठीक बता दो तो 50 रु. तुम्हें भी दिला दूँ। मैंने सोचा, खुद तो हजार की गठरी मारेगा और मुझे 50 रु. दिलाने को कहता है। फटकार बता दी।”
एक मजदूर- “मगर जो 200 रु. देने को कहता तो तुम सब ठीक-ठीक नाम-ठिकाना बता देते।” (क्यों धत् तेरे लालची की !)
आदमी- “(शर्मिंदा होकर) 200 रु. नहीं 2000 रु. भी देता तो न बताता। मुझे ऐसा धोखा करने वाला मत समझो। जब जी चाहे परख लो।”